निर्जीव दीवारों का घर
सरोज दुबे
सरोज दुबे
नीहार दी की कहानी पढ़कर उसे अतीत की कितनी ही बातें याद हो आईं...। उन दिनों नगर सेनिकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं में प्रायः उसकी रचनाएँ छपा करती थीं। उसकी एक कहानी को कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार भी मिला था। सुप्रसिद्ध साहित्यकार निरंजनदेव जी ने‘प्रतिमा की धनी’ कहकर उसकी खूब प्रशंसा की थी। प्रबुद्ध लोगों के बीच शुभा वर्मा एक जाना पहचाना नाम बन गया था।
लेकिन जिस शुभा वर्मा के संबंध में लोगों ने बड़ी आशाएँ सर्जोइं थीं, भविष्यवाणियाँ की थीं, वह असमय ही अंधकार में विलीन हो गई।
विवाह के बाद घर परिवार और जिंदगी के झमेलों में वह ऐसी उलझी कि अध्ययन, चिंतन और लेखन के लिये अवकाश ही न मिला। रवि पहले की तरह अध्यापन और सामाजिक कार्यो में व्यस्त रहे। कहीं भाषण, कहीं सभा,तो कहीं जुलूस के नेतृत्व में वे अपनीही सुध भूल जाते। कंधे पर शबनम बेग लटकाये, सायकिल से वे जाने कहाँ-कहाँ घूमा करते।
यूँ उसके लिये यह कोई नई बात नहीं थी। रवि ने विवाह के पूर्व ही कह दिया था- ’’मुझसे विवाह करोगी तो घर परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ तुम्हीं पर आया समझो। मेरे जैसे व्यक्ति की पत्नी बनने के बाद तुम्हारे लेखन और कैरियर का क्या होगा, यह नहीं कह सकता। लेकिन इस बात में मुझे जरा भी संदेह नहीं कि मैं एक अच्छा पति साबित नहीं हो सकूँगा।’’
‘दैनिक प्रभात’ के कार्यालय में रवि से उसकी प्रथम भेंट हुई थी। फिर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि कभी पुस्तकालय में, कभी कवि सम्मेलन में, तो कभी किसी पे्रस में अक्सर भेंट हो जाती। उन दिनों वह हिन्दी साहित्य में एम.ए. कर रही थी और रवि गवर्नमेंट कॉलेज में राजनीति षास्त्र पढ़ा रहे थे। उनके विद्रोही और जुझारू व्यक्तित्व ने उसे धीरे-धीरे बाँध लिया था।
बाहर किसी के आने की आहट हुई। रवि आ गये थे। होश आया तो देखा गालों पर अश्रुकणों की नमी बनी हुई थी। मुख पोंछकर उसने तुरन्त चाय का पानी गैस पर रखा।
’’इस माह के ‘निर्मल’ में नीहार दी की कहानी आई है।’’ चाय देते हुये उसने कहा।
‘‘अच्छा।’’
वह कुछ क्षण इन्तजार करती है, शायद वे कुछ और कहें। लेकिन रवि किसी समाचार पत्र को देखते हुये चुपचाप चाय पिये जा रहे हैं।
’’लोग कितना कुछ लिख लेते हैं। यहाँ तो समय ही नहीं मिलता।’’ उसने शिकायत के स्वर मेंकहा।
’’यदि फुर्सत के कारण कोई अच्छा कवि या लेखक बन पाता, तो संसार के सारे निकम्मे महान साहित्यकारों में गिने जाते। तुम्हारी भी तो रचनाएँ छपती हैं। तुम भला क्यों इतनी व्यग्र हुई जा रही हो?’’- रवि के मुख पर शरारत भरी मुस्कान खेल रही थी।
’’साल में मुश्किल से एक आध रचना छप पाती है। और ‘निर्मल’ से तो पिछली दफा वापस भी लौट आई थी।’’
‘‘यह छपास रोग है ही बड़ा बुरा। मनुष्य को अपने प्राप्य का विचार करके खुश रहना चाहिये। महत्वकांक्षी होना बुरा नहीं है, पर कोई अप्राप्य का ही विचार करता रहे, तो कभी संतुष्ट हो ही नहीं सकता। तुम सोचती हो, कि इस कहानी के प्रकाशित होने से नीहार दी बहुत खुश होंगीं, पर यह बात नहीं है। पहाड़ के उस पार का हर आदमी हमें खुश मालूम होता है।
वह कई बार सोचती है... आज जब सब लोग महत्वाकांक्षाओं के पीछे नैतिक मूल्यों को रौंदते हुये, अंधांे की तरह भागे जा रहे हैं, रवि का यह जीवन दर्षन कितना अलग है कितना अलग...।
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बच्चे स्कूल से आकर भोजन कर रहे थे। ‘‘मम्मी आप राजू मडावी को जानती हो? मीनू ने पूछा।
’’नहीं।’’
‘‘मम्मी, क्या फास्ट रिक्शा चलाता है, वह अगले साल से हम उसी के रिक्षे में जायेंगे’’-सारंग बोला।
‘‘हूँ।’’
‘‘हूँ, नहीं । हम जायेंगे... हाँ।’’ -मीनू ने बिगड़कर कहा। ‘‘अच्छा बाबा, पहले खाना तो खा लो।’’ उसने बात समाप्त करने के उद्देश्य से कहा।
रिक्शे की बात बंद हुई तो स्कूल की बातें शुरू हो गई। बच्चों की बातें सुनते-सुनते वह अपने विचारों में खो जाती है....दीपावली विशेषांकों के लिये कुछ पत्र पत्रिकाओं से पत्र आकर पड़े हैं। पर वह उनके लिये कुछ लिख पायेगी? बर्तन-कपड़े साफ करने वाली बाई गाँव जाने को कह रही थी। बड़ौदा से रवि के मित्र भी इसी माह आ रहे हैं। इधर बच्चों से परीक्षा की तैयारी भी करवानी पड़ेगी। ऐसे में कुछ लिखना हो सकेगा?
अक्सर ऐसा ही होता है। कोई न कोई ऐसी समस्या खड़ी हो जाती है, कि उसे मन मसोसकर रह जाना पड़ता है। उसके इस असंतोष को लक्ष्य करके एक बार रवि ने कहा भी था-’’शुभा , लिखना तो ठीक है, अच्छा है। किंतु अन्याय के विरोध में लड़ना, लिखने से ज्यादा जरूरी है। अशिक्षित कमजोर और असहाय लोगों की ओर से, हम जैसे पढ़े लिखे लोगों को ही तो संघर्ष करना पड़ेगा। तुम अपनी रचनाओं में कितनी ही क्रांति की, शोषण से मुक्ति की, अन्याय के विरोध की बातं लिखो, जब तक कोई उन्हें मूर्तरूप नहीं देता, तब तक केवल लिखने या सिर्फ पढ़ लेने से सार्थकता क्या है? मैं थोड़ा बहुत जो भी कर पा रहा हूँ, वह इसलिये तो कि तुमने सारी जिम्मेदारियां का बोझ सम्भाल रखा है।’’
वह हार गई थी रवि के उस तर्क से। लेकिन यदि किसी के समझा देने से ही कोई समझ जाता तो झगड़ा ही किस बात का था? हृदय में एक कसक बरकरार थी।
‘‘आज तुम्हारी नीहार दी मिली थी। तुम्हें घर पर बुलाया है’’। - रवि ने बताया।
उसे कुछ प्रसन्नता हुई। कितनी अच्छी है, नीहार दी! कॉलेज में पढ़ाती हैं, इतना कुछ लिखती है, पर घमंड छू भी नहीं गया है।
एक बार वह किसी पार्टी में गई थी । वहाँ नीहार दी भी आमंत्रित थीं। उनके आते ही महिलाओं ने उन्हें घेर लिया। अनोखे आत्म-विश्वास से उनका मुख दमक रहा था। हल्के पीले रँग की रेशमी साड़ी और वैसी ही मैच करती चूड़ियाँ, उनके उजले रँग पर खूब खिल रही थीं। बातें करते-करते उनकी दृष्टि उस पर गई।
‘‘क्या लिख रहीं है, आजकल?’’ उन्होंने स्नेह से पूछा और अपने समीप बैठा लिया।
उन्हें उसी समय डाक्टरेट मिली थी। लोग बधाईयाँ दे रहे थे। सबसे पीछे उसने उन्हें बधाई दी। वे थोड़ा मुस्कुर्राइं, बोली- ‘‘तुम भी जल्दी से पी.एच.डी. कर लो।’’ अब अपना रोना भला वह क्या रोती? बस स्वीकृति में धीरे से सिर हिला दिया था। जाते समय उन्होंने अपना स्कूटर उठाया और हाथ हिलाती हुई उड़ गई।
वह और रवि उनींदे बच्चों को साईकिल पर लादे घर लौटे। रास्तेभर निहार दी का कांतिपूर्ण मुख, उनकी रेशमी साड़ी और आसमानी रंग का स्कूटर उसकी आँखों में झूलते रहे। आत्मसंतोशी रवि जाने कहाँ-कहाँ की बातें बताते हुये चल रहे थे। और वह सोच रहे थी कि कैसी जिंदगी है। हमारे पास ... कुछ भी तो नहीं...।
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सिविल लाईन में एक दो जगह पूछने के बाद एक बँगले के सामने रिक्शा रुका। रिक्षे से उतर कर वह कुछ क्षण यूं ही खड़ी रह गयी थी। सड़क के दोनों ओर हरे भरे वृक्षों और फूलों से ढके-से साहबों के बँगले और मन प्राणों को तृप्त कर देने वाली षीतल हवा में, एक गंध थी वहाँ। फिर भी विरक्त सन्यासिनी सी धुली-धुली स्वच्छ सड़क जरा आगे बढ़कर न जाने कहाँ चली गई थीं।
लोहे का सषक्त द्वार खोलकर वह अंदर गई तो देखा, कितने ही तरह के रँग बिरंगे फूल उसके स्वागत को तत्पर लग रहे थे। लाॅन की हरी मखमली घास को देखकर उसने सोचा शायद यही लान में कुर्सी डालकर नीहार दी कविताएँ लिखती होगी।
उनकी नेमप्लेट सामने ही दिखाई दे रही थी। उसने धीरे से कॉलबेल बजाई। कुछ क्षणों बाद द्वार खोला स्वयं नीहार दी ने। वे गाऊन में थीं। बाल पीठ पर बिखरे थे। आँखों में लालिमा थी, न ओठों पर लाली, न आँखो में काजल। बिंदी विहीन मस्तक अजीब सा लग रहा था। कई बार उन्हें निकट से न देखा होता, तो शायद वह उन्हें पहचान ही न पाती।
उन्होंने बैठने का संकेत किया और स्वयं पलट कर अंदर चली गई। उसने अपनी दृष्टि चारों और डाली पर्दे, कुशन, सोफा सबके ही रंग के मैच करते हुये। दीवार पर सुन्दर सी दो पेंटिंग टग़ीं हुई थी। एक छोटे से टेबल पर नटराज की मूर्ति रख़ी हुई थी। वहीं पास में एक प्यारा सा नाइटलैंप रखा था। ड्राईंग रूम के एक ओर ग्रिल लगी, बड़ी सी खिड़की थी। वहाँ से नाजुक लहराते परदे को ठेलता हुआ, फूलों का मधुर सौरभ अंदर आने को मचल रहा था।
उसे अपना रेलगाड़ी के डिब्बेनुमा तीन कमरों वाला घर याद आया। वह कमरा याद आया, जहाँ बैठकर वह रचनाएँ लिखती थी। उसके कमरे में एक खिड़की तक नहीं है। आकाश तक दिखाई नहीं देता। वह इन्हीं विचारों में खोई थी कि नीहार दी आ गई। लगता था वे बाथरूम से मुँह हाथ धोकर्र आइं थीं। टाॅवेल हाथ में ही था।
‘‘आओ अंदर बैठें’’ वे बोलीं।
वह कमरा उनका बेडरूम था। बगुले के पंखों सी सफेद चादर और तकिये के गिलाफ से सजा उनका पलँग कमरे के एक ओर बिछा था। नीहार दी दोनों पैर ऊपर करके आराम से बैठ गईं।’’
मैंने आपको असमय ही कष्ट दिया। आप सो रही होंगी, इस बात की मुझे जरा भी कल्पना नहीं थी।’’ मैंने कहा।
‘‘नहीं...नहीं....। अच्छा हुआ जो तुम आ गईं। यह भी क्या कोई सोने का समय है ? रात को एक कवि सम्मेलन था। वहाँ से लौटने में काफी रात हो गई। सुबह कॉलेज था, इसलिये मजबूर होकर जल्दी उठना पड़ा। फिर दोपहर को जो सोई तो अब उठ रही हूँ।’’एक मधुर हास्य कमरे में बिखर गया।
’’हाँ एक मिनट रुको।’’ सहसा उन्हें कुछ याद आया। ‘‘जरा चाय बना लाऊँ । नहीं, तुम्हारे लिये नहीं...।मेरी आदत है न !
पलँग के सिरहाने ड्रेसिंग टेबल लगी हुई थी। कितने ही प्रकार की शीशियाँ और डिब्बियाँ सजी थीं उस पर। कई तरह की नेलपालिष और परफ्यूम्स की शीशियाँ थीं। अनेक प्रकार के पाउडर और क्रीमों की डिब्बियाँ थीं। एक ओर कई रंगों की लिपिस्टिक पंक्तिबद्ध रखी थीं। और भी जाने क्या-क्या था, जिसके संबंध में उसकी जानकारी नहीं के बराबर थी।
दूसरी ओर डायनिंग टेबल लगा हुआ था। केले के छिलके, मक्खन की टिकिया और बे्रड का एक खाली पैकेट पड़ा था उस पर।
तभी वे ट्रे में चाय लेकर आ गईं। साथ में खारे-मीठे बिस्कुट भी थे।
‘‘आज आपने खाना नहीं खाया ?’’
उन्होंने मुस्कुराकर डायनिंग टेबल की ओर देखा, जो उनकी शिकायत कर रहा था।
‘‘मेरा तो रोज का यही खाना है।’’
‘‘आप क्या यही खाकर रहतीं है ?’’
‘‘अक्सर...! क्या बनाऊँ अकेली के लिये? बड़ी झंझट लगती है। कभी-कभी कुकर लगा लेती हूँ।’’
‘‘आप घर से किसी को बुला क्यों नहीं लेती ?’’
‘‘पिछली बार माँ एक माह यहीं थी। खूब बोर हो जाया करती थीं वे। भैया के पास रहती है तो बच्चों में दिल लगा रहता है। छोटी बहन का दो माह पहले विवाह हो गया।’’
मन हुआ पूछ लें- ‘‘नीहार दी आपने विवाह क्यों नहीं किया?’’पूछा नहीं। इतनी अंतरंगता नहीं थी न।
’’अभी कुछ नया लिखा ?’’-नीहार दी ने पूछा।
‘‘नहीं, अभी तो कुछ भी नहीं। समय ही नहीं मिलता। रवि किस तरह की जिंदगी जीते है, वह आप जानती ही हैं।’’
‘‘हाँ बहुत अच्छी तरह से। और यह भी जानती हूँ कि उनके सुयश का महल जिस आधारषिला पर खड़ा है, वह तुम्हीं हों। स्वयं रवि जी ही यह बात कह रहे थे।
क्षणभर के लिये वह सुखद आश्चर्य में डूब गई। फिर बात बदलने के विचार से कहा- ‘‘नीहार दी, कितना सुन्दर घर सजाया है, आपने। मुझे पता नहीं था कि आप ऐसी सुगृहणी भी हैं।
वे मुस्कराईं। फिर बोलीं- नर्जीव दीवारों को सजा-धजा देने से घर नहीं बनता, शुभा । भावनाओं से, अपनत्व के वातावरण से ही सही घर सजता है। रवि जी बाहर कितने ही व्यस्त रहे पर तुम्हारा घर घर है। यह तो रैन-बसेरा है। बाहर हँसती बोलती हूँ, घूमती-फिरती हूँ, पर जब घर लौटती हूँ तो यह सूनापन मुझे उदास कर देता है।
‘‘एक बात कहूँ नीहार दी ? पति और बच्चे तो सभी के होते हैं। जानती हैं, उनके पीछे कितने बंधन होते हैं, कितनी झंझटंे होती हैं?’’
शायद इसी से हमारे प्रेमचन्दजी ने ‘‘गृहस्थ जीवन को एक तपस्या कहा है।’’-उन्होंने बात आगे बढ़ते हुये कहा।
‘‘यदि गृहस्थ जीवन एक तपस्या है तो एकाकी जीवन क्या है ? मेरी समझ में एकाकी जीवन एक भटकाव है। तपस्या से भटकाव कहीं ज्यादा भयावह है। तपस्या में मन कहीं न कहीं रमता है, पर भटकाव में मन अस्थिर होकर सारे ब्रह्मांड की परिक्रमा कर आता है, तब भी शांति नहीं पाता।’’
‘‘लेकिन.....।’’
‘‘नहीं......नहीं। मैं उन लोगों की बात नहीं कर रही, जो ब्रह्मलीन हो गये हैं अथवा जिन्होंने अपना जीवन किसी उद्देश्य के लिये समर्पित कर दिया है। मैं तो सामान्य लोगों की बात कर रही हूँ।
‘‘सच बात तो यह है नीहार दी कि आप जितना लिख पाती हैं, साहित्यिक गोष्ठीयों और कवि-सम्मेलनों में उपस्थित रह पाती हैं, उसका एक बहुत बड़ा कारण यह है कि आपके पीछे किसी तरह का बंधन नहीं है। मनुष्य का यह स्वभाव है, कि वह अपने प्राप्य के प्रति उदासीन हो जाता है और अप्राप्य के प्रति दुखी। यदि हम अपने प्राप्य का विचार करके आनंद का, संतोष का अनुभव करें तो स्थिति बहुत बदल जाये।’’-उसके मुख से अनायास रवि बोल गये।
‘‘तुम्हारी बात ठीक हो सकती है, लेकिन निसर्ग ने जो प्रकृति दी है, उसे बदलना इतना आसान नहीं है।’’
उसने नीहार दी का कवि रूप देखा था, प्रखर वक्ता का रूप देखा था, किन्तु यह एक अपरिचित रूप था। उनमें वही युगों पुरानी नारी- युगों पुरानी आकांक्षाओं को संजोये प्रतिबिंबित हो रही थी।
उसने उनके उदास मुख से दृष्टि हटाकर उनके ड्रेसिंग टेबल की ओर देखा... सजे-धजे घर की ओर देखा...तो मन में यह प्रश्न उमड़ गया कि क्या यह सब मात्र छलावा है?
साँझ ढलने लगी थी। मैंने उनसे आज्ञा माँगी।
‘‘हाँ, पता नहीं कैसे इतना वक्त गुजर गया।’’ -उनने कहा।
वे उसे बाहर तक छोड़ने आईं। उनसे विदा लेते समय उसका मन उदास हो गया।
साँझ के धुंधलके में ऊँचे-ऊँचे, घने-वृक्ष काले और भयावह लग रहे थे। सड़क विधवा की मांग-सी सूनी। रिक्शे का दूर-दूर तक कहीं पता नहीं था। उन “निर्जीव दीवारों का घर” छोड़ पैदल ही अपने घर की ओर चल दी।
सरोज दुबे
(प्रकाशित- जाह्नवी मई 1994)