रिश्तों का दर्द
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
दादी माँ अपने जीवन के सत्तर वर्षीय लम्बे उतार-चढ़ाव पार कर चुकी थी। उसने न जाने कितनी जिन्दगियों को बनते -संवरते ही नहीं वरन् बिखरते-बिगड़ते भी देखा था। उन सभी का कोई लेखा-जोखा लगाने बैठे तो निश्चित ही किसी बड़े उपन्यास से कम नहीं होगा। जब कभी दिन भर के काम -काज से थकी हारी रात्रि में सोने की कोशिश करती। तब उसकी आँखें ऊपर दुधियाई छत पर सदा की तरह अवश्य टिक जातीं । उसका अतीत किसी सिनेमा के पर्दे की तरह दृष्टिगोचर होने लगता। तब उसका जी चाहता कि कोई उसके पास आकर उसके अतीत को निहारे सराहे और सुने। किन्तु अब इसके लिये फुरसत किसके पास है। वह अकेले ही देखती, बुदबुदाती, बतियाती और हँसती। कभी-कभी भावुकता में बहकर सिसक भी उठती। किन्तु उसकी सिसकियाँ और हँसी इस नए घर की मजबूत चार दीवारी में गूँज कर रह जातीं और खो जातीं।
वर्तमान में बैठकर अपने अतीत का तानाबाना बुनना भी एक बड़ी कला है। उससे भी कहीं अधिक अतीत और वर्तमान का मंथन कर भविष्य रूपी अमृत को निकाल लेना बड़ी बुद्धिमानी भरा कार्य है। इस विद्या में बहुत कम लोग पारंगत हो पाते हैं।
जीवन की संघर्षपूर्ण यात्रा ने भगवती के अंदर आत्मविश्वास,साहस कूट-कूट कर भर दिया था। अपने इस तीसरे घर में भी आकर भगवती में कोई बदलाव नहीं आया। जैसी वह पहले थी, वैसे ही अब। अपने जीवन की इतनी लम्बी यात्रा करने के बाद व्यस्तताओं और जिम्मेदारियों में उलझी भगवती को अपनी वृद्धावस्था का कभी ध्यान ही नहीं आया। इधर कुछ सालों से उसके हाथ- पैरों के जोड़ों की पीड़ा ने उसे बढ़ती उम्र का एहसास दिलाना अवश्य शुरू कर दिया था।
शहर के पास ही गाँव की मिश्रित संस्कृति में पली भगवती अपने माँ बाप की पहली संतान थी। उसके पिता उन्हीं दिनों एक छोटे खेत के मालिक बने थे। माँ-बाप बहुत खुश थे। सभी ने कहा - “भैया, तुम्हारे घर तो साक्षात् भगवती का जन्म हुआ है। जो तुम्हारे भाग्य खुल गये।” माँ बाप ने उसे भगवती का नाम दे दिया। आठ नौ साल की उम्र से ही भगवती घर की जिम्मेदारियों की गठरी को अपने नाजुक कंधों पर उठाकर चल पड़ी। जहाँ एक ओर उसे तीन भाईयों में सबसे बड़ी होने का गौरव मिला तो दूसरी ओर बड़ी होने का बड़प्पन भी उसे अपने कंधों पर उठाना पड़ा। अपनी माँ के कार्यों में हाथ बटाती तो दूसरी ओर पिता की किसानी में भी मदद करती। उसके छोटे भाई जब अपने कंधों पर स्कूल का बस्ता लटकाए पाठशाला जाते देखती तो वह रोज उन्हें बड़ी उत्सुकता से निहारती -
पिता कहते, “लड़कियों को शिक्षा की क्या जरूरत, उन्हें तो चूल्हा चैका ही सम्हालना होता है “ जैसी सोच के दायरे में वह बड़ी हुई। कब वह पन्द्रह साल की हो गयी थी उसे मालूम ही नहीं पड़ा। एक दिन उसके पिता दालान में बिछी खटिया पर बैठे उसकी माँ से बतिया रहे थे -”घर-द्वार सब ठीक -ठाक है, अच्छा कुल है, लड़का भी सुन्दर है। वे पास ही रहते हैं। समझो अपनी बेटी आँखों के पास ही रहेगी “
तभी से उसे एहसास होने लगा था कि अब वह बड़ी हो गयी है और इस घर में चंद दिनों की ही मेहमान है। एक ओर उसके दिल में माँ-बाप-भाईयों के बिछुड़ने का गहरा सदमा था तो दूसरी ओर उसका मन ससुराल की शंकाओं -कुशंकाओं से भरा रहता। इसके बावजूद भी वह सदियों से चले आ रहे संसार के सामाजिक रीति -रिवाजो से भला कैसे मुख मोड़ सकती थी।
अपने घर आँगन, स्वजनों की विछोह पीड़ा में वह कई दिनों तक तड़पती रही। घर के किसी कोने में मुंह छिपा कर रो लेती। चाहे जब आँखों से आँसू छलछला पड़ते। पूछने पर आँख में किरकिरी होने का बहाना बता कर बात को यूं ही टाल देती। वह इस अन्तःपीड़ा में किसी दूसरे को सहभागी बना कर उसे दुखित नहीं करना चाहती थी।
जवान बेटी के हाथ पीले करने की चिंता में पिता घुले जा रहे थे। भगवती जानती थी कि निर्धनता उसके घर में किसी बेशर्मी की भांति वर्षों से अपना आधिपत्य जमाए थी। मेहनती किसान की बेटी अपने घर की परिस्थितियों से भली भांति परिचित थी।
भगवती डोली में बैठ कर पिता के घर से बिदा हुई। नए घर में आयी। यह घर भी उसके घर के समान था। इस नए घर में भगवती ने पाया कि अगर धनवान अपने दौलत से धनी होता है तो निर्धन अपने प्यार भरे दिल का धनी होता है। निर्धन सदा अपने आदर्शों व सिद्धान्तों पर अडिग रहता है। वह अभावों में भी संतोष का अनुभव कर लेता है। ईश्वर का आशीर्वाद, दिलों का स्नेह प्यार और विश्वास यही उसके परिवार की गाड़ी के मजबूत पहिए थे, जिस पर जीवन गाड़ी बड़े आराम से चल रही थी।
इस नई कर्म भूमि में आकर भगवती ने पूर्णतः अपने को समर्पित कर दिया था। चार देवरों के इस परिवार में सास ससुर और पति यही तो उसका संसार था। अपनी विभिन्न भूमिकाओं के निर्वाहन में उसने कोई कोर कसर न छोड़ी थी। समाज ने कहा बड़ी भाभी माँ के समान होती है,इस बात को भी सार्थक कर दिखाया था। अपने नन्हें देवर को अपना स्तनपान कराकर । स्वयं छः बच्चों के मातृत्व सुख को प्राप्त कर जीवन में आने वाले संकटों से कभी विचलित नहीं हुई।
भगवती वर्षों चूल्हे पर हंडिया चढ़ाती -उतारती रही। गीली लकड़ियों की बुझती आग को कभी लकड़ी के बिजने (प्ंाखे) से, कभी मॅुंह से फुकनी मार-मार कर धधकाती रही। चूल्हे से निकलते धुएँ में अपने सारे अस्तित्व को विलीन करती रही। अपनी साड़ी के पल्लू से कभी आँखों के आँसू पोंछती ,तो कभी मुँह में पल्लू को ठूँस कर अंदर से आती खांसी को रोकने का असफल प्रयास करती रहती। पर कभी कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हार नहीं मानी।
घड़ी की सुईयाँ अपनी रफ्तार से खिसकती चलीं जा रहीं थीं। उसके आँगन में कभी भोर की धूप आती ,तो कभी शाम का अंधियारा गहराने लगता। कभी उसके दरवाजे शादियों की शहनाईयाँ बजतीं, तो कभी ढोलक संग लोटे की संगीत पर बधाइ्र्रयों के स्वर गूँजते। जीवन का यह अनवरत सिलसिला चलता चला जा रहा था।
इसी बीच उसे अपने स्वजनों के विछोह की पीड़ा भी झेलनी पड़ी। स्वसुर के बाद सास की छाँव से वह वंचित हो गयी। उसके जीवन में न जाने कितने रिश्ते-नातों के विछोह और विलाप का क्रंदन स्वर उभरा और फिर पानी के बुल - बुले की तरह शांत हो गया। जैसे कुछ हुआ ही न हो फिर यथावत सा चलता रहा जीवन का चक्र।
भगवती ने अपने बढ़ते कुनबे में टकराते बर्तनों की आवाजें सुनीं। कर्तव्यों अधिकारों की गरमा गरम बहस सुनी। शीतकालीन वातावरण के संग एकता नाराजगी और आक्रोश के उमड़ते -घुमड़ते बादलों को देखा। तोे कभी शतरंजी विसात पर शह मात खाती उन गोटियों को देखा। कोमल दिल की अनगिनत करुणामयी कहानियाँ तो दूसरी ओर कृतज्ञता और कृतघ्नता की पराकाष्ठाएँ। वह न जाने कितने सुखों-दुखों की प्रत्यक्ष गवाह थी।
एक समय था, जब चूल्हा से निकलता धॅुंआ रसोई घर में नहीं समा पाता था -तो खपरैलों से निकल कर आसमान में बड़े आराम से विलीन हो जाता था। किन्तु अब उन खपरैलों का उघरना शुरू हो गया था। शहर में परिवार जब बढ़ने लगता है, तो जगह सिमटने लगती है। मंजिलों पर मंजिल बनाने पड़ते हैं। साँझे के चूल्हे के दिन बीत गये थे। रसोई घर की जगह किचिन बनने लगे। गैस चूल्हे के प्रचलन नई नवेलियों की आँखों में खुशियाँ भर दीं।
भगवती अपने उन दिनों की याद किया करती। जब वह इस परिवार में आयी थी , तब एक छोटे से किराये के कमरे के मकान में रहा करती थी। बढ़ते परिवार की भीड़ में वह खोने लगी। बड़ी होने के नाते केवल मांगलिक कार्यों में स्थान पाने के बाद फिर वही मकान के एक कोने में उपेक्षित सिमिट कर रह जाती। अंततः अपने अस्तित्व के लिये वह अपने परिवार संग फिर इस नए घर में रहने लगी।
इस नए मकान में आकर कब जीवन के दस वर्ष गुजर गये उसे पता ही नहीं चला। समय के बढ़ते चक्र में उसके छोटे बच्चे बड़े हो गये। शादियाँ हो गयीं। बच्चों की किलकारियाँ से उसका घर आँगन गूँजने लगा। वही पुराना इतिहास फिर किसी चलचित्र की भांति चलने लगा। कहानी वही थी सिर्फ पात्रों में परिवर्तन हुआ था।
इस समय उसकी अपनी संतानों ने प्रश्न चिन्ह लगाना शुरू कर दिए। वह रिश्तों का दर्द जो उसके जीवन से प्रारम्भ हुआ था। आज जीवन की संध्या बेला में फिर नए परिवेश में उपस्थित था। उसके जिगर के चारों टुकड़ों ने उसके दिल को चार भागों में बाँटकर चीरना शुरू कर दिया था। दिलों और घर के बटवारे से आज भगवती पूरी तरह से टूट चुकी थी।
भगवती आज तक अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ी सिर्फ कर्तव्यों के निर्वहन में ही लगी रही थी। आज फिर वही बर्तनों की टकराहट, शतरंजी बिसात पर शह और मात, और टूटते-बिखरते नाजुक कोमल दिलों का प्रलाप ...।
भगवती उदासीन सी छत की ओर टकटकी लगाए किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास कर रही थी। वह सोच रही थी कि क्या मेरे ही जीवन में रिश्तों का दर्द है या रिश्तों के दर्द का नाम ही जीवन है।..
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”