आस निराश भई
सरोज दुबे
सरोज दुबे
उसका मन कहता है, कमला जरूर मिठाई लायेगी उसके लिये। एक बार कहती थी-“माँ हमारी होटल के जैसे गुलाब जामुन पूरे शहर में नहीं मिलते।” नौ-दस दिन उसे पहाड़ से लग रहे थे। आखिर रविवार की दोपहर को कमला बच्चों के साथ अकेली ही आ गई। लेकिन...
बहुत दिनों बाद आज पोस्टमैन ने उसका नाम पुकारा। शरीर में एकाएक स्फूर्ति सी दौड़ गई। उसने जल्दी से पोस्ट-कार्ड उठाया। पत्र को उलट-पलटकर देखा। पत्र कमला का ही होना चाहिये, उसने सोचा। दूसरा है ही कौन उसे पत्र लिखने वाला! हुरुफ भी वैसे ही दिखते हैं, लेकिन अब पत्र पढ़वायें किससे? बाजू वाले गुरुजी स्कूल गये हैं। सामने वाला ड्रायवर बस लेकर सुबह ही भोपाल चला गया। ऐसे अवसरों पर उसे अपने अनपढ़ होने का बड़ा अफसोस होता है।
उसने आँगन से बाहर निकलकर देखा। पीपल के पेड़ के नीचे कुछ लड़के आपस में अश्लील गालियाँ देते हुए कंचे खेल रहे थे। कोई और दिन होता तो वह डाँटकर कहती “क्यों रे, यही सिखाते हैं तुम्हारे मास्टर स्कूल में!” तब कुछ क्षणों के लिये लड़कों का स्वर मंद हो जाता। वे मन ही मन कहते-कहाँ से आ गई यह बुढ़िया! अंदर जाये तो कुछ मजा आये। बिना लड़ाई-झगड़े के, गाली गलोच के खेलना भी कोई खेलना है! कितु आज वह उन लड़कों को डाँटती नहीं। मोहन को बड़े प्यार से अपने पास बुलाकर पत्र पढ़वाती है।
पत्र कमला का ही था। कमला ने लिखा था कि वह पच्चीस तारीख को आ रही है। समाचार सुनकर उसका चेहरा खिल उठा, जैसे-तैसे पत्र पढ़कर मोहन भाग खड़ा हुआ। पीछे उसे याद आया कौन दिन पड़ेगी पच्चीस तारीख ? ठीक से समझाये बुझाये बिना ही भाग गया लड़का! आज-कल के लड़कों का यही हाल है, वह ओठों में बुदबुदाती है। शाम को गुरुजी केलैंडर देखकर समझा देते हैं- “ये सोमवार जाकर अगले सोमवार को आयेगी कमला।”
खुशी के कारण उसे नींद नहीं आती। इधर कई सालों बाद कमला आ रही है। बार-बार उसका आना नहीं हो पाता। उसके पति को फुर्सत ही नहीं मिलती। और यहाँ से कौन जाये लेने! कमला का पति इंदौर की एक प्रसिद्ध होटल में नौकर है। नौकर क्या है, सच पूछो तो मालिक ही है। होटल के अलावा उसके मालिक की तमाम खेती-बाड़ी है, बगीचे हैं, वे क्या-क्या देखें? कोई बाल-बच्चा है नहीं। इसी से दुकान वह सम्हलवाता है और कमला बहू की तरह उनकी घर गृहस्थी देखती है।
उसे याद है, एक बार शुरू में वह कमला की विदा कराने गई थी, तब क्या बढ़िया मिठाई खिलाई थी उसकी मालकिन ने! उस मिठाई का स्वाद उसे आज भी भूलता नहीं। अब तो महीनों बीत गये मिठाई खाये। खाने का तो ठिकाना नहीं है, मिठाई क्या खाये!
उसका मन कहता है, कमला जरूर मिठाई लायेगी उसके लिये। एक बार कहती थी- ” माँ हमारी होटल जैसे गुलाब जामुन पूरे शहर में नहीं मिलते।” सच में ही कैसे रस भरे बड़े-बड़े गुलाब जामुन बनते हैं, उसकी दुकान में! मन तो होता है कमला को लिखवा दे कि आते समय गुलाब जामुन लेती आना, पर लज्जा आती है। छिः...छिः..! क्या सोचेगी कमला अपने मन में!
बड़ी सुखी जिन्दगी है, कमला की। आदमी में काम करने की कूबत हो तो औरत की जिन्दगी सुखी ही रहती है। नहीं कमला का बाप था- रामदास! उसका हृदय आज भी जल जाता है उसकी याद करके। क्या आदमी था वह भी! बिल्कुल गोबर-गणेष। बारह-तेरह वर्ष की थी, तभी उसका विवाह हो गया। उसके पिता के किसी मित्र का लड़का था रामदास। वैसे रामदास उसे जरा भी पसंद नहीं था, पर वह जमाना दूसरा था। शादी -ब्याह के मामले में लड़की का दखल देना बेशर्मी की बात समझी जाती थी।
बहुत कम बोलने वाला, सदा गुम-सुम सा रहने वाला रामदास उसे एकदम मनहूस लगता। न खाने का शौक, न पहनने का। किसी बात की उमंग ही नहीं, वह कई बार खीज उठती। कभी दिल में आता तो वह उसे खूब सुनाती। पर रामदास निर्लिप्त भाव से चुपचाप सुनता रहता। कभी गुस्से में आकर रामदास ने उसे दो बात सुनाई हों, उसे याद नहीं।
बाजार में बैठकर लोगों की हजामत तथा कटिंग बनाना रामदास का पेशा था। किसी तरह गुजर-बसर हो जाती थी। मरते समय उसके पिता ने रामदास के हाथ में पाँच सौ रुपये दिये थे। एक दिन उसने पूछा था- ”रुपयों का क्या करोगे?”
”कुछ नहीं!” रामदास ने उदासीनता से कहा।
”आखिर तुम रहे बुद्धू के बुद्धू ही। कितना समझाती हूँ, पर तुम्हारे दिमाग में ही नहीं आता। अरे भले आदमी, कोई धंधा -व्यापार करो। रुपया बढ़ना चाहिये कि नहीं ? उसने चिढ़कर कहा था। लेकिन वह....वैसे ही निर्विकार भाव से उसकी बातें सुनता रहा और फिर उठकर बाहर चला गया।
अंत में उसने अपने दम पर ही लकड़ी का टाल खुलवाया था। वे दिन उसके जीवन के सबसे अच्छे दिन थे। उसने इसकी आय से दो-दो तोले सोने की ’पटली’ बनवाईं थी। रामदास के लिये लाल नगवाली एक अँगूठी और कमला के लिये सोने की बालियाँ बनवाई थी। पोस्ट आफिस में भी कुछ रुपये जमा किये थे। बड़े आनन्द से घर-गृहस्थी चल रही थी। किंतु दुर्भाग्य उसकी राह देख रहा था। दलाल बीच में ही पैसे खा गया और टाल चलना बंद हो गया।
रामदास फिर हजामत की पेटी लेकर भटकने लगा। वह खुद भी लोगों के घर छोटे-मोटे काम करने लगी। घीरे धीरे रामदास बेकाम होता गया। पचास की उमर में ही उसके हाथ काँपने लगे। आँखों में मोतियाबिंद की शिकायत हो गई। ऐसी गिरती हालत में ही बड़ा लड़का ष्यामराव बहू को लेकर अलग हो गया।
बड़े गर्दिष के दिन थे वे। रामदास और भी अनमना रहने लगा। मोहन का बाप रामदास को हमेशा चिढ़ाया करता- “ऐ भाऊ, जरा हँसा-बोला कर । चुप रहने से गम की बीमारी हो जाती है” रामदास बस मुस्कराकर रह जाता। पर रामदास को सच में ही गम की बीमारी हो गई थी। एक रात वह जो सोया तो उठा ही नहीं।
फिर छोटा लड़का रामू किसी दुकान में नौकरी करने लगा। उसी के भरोसे उसने जैसे-तैसे कमला की शादी निपटाई। आज रामू होता तो उसे किसी बात की चिंता करने की जरूरत थी भला? रामू की याद आते ही कलेजा फट सा जाता है। कैसी भयानक घटना हो गई थी! उसके मुख पर सदा बनी रहने वाली हँसी पंछी की तरह उड़ गई और रह गया केवल सूना पिंजरा।
उस दिन दोपहर को रामू न जाने कैसा उदास-सा घर आया था। बहुत पूछने पर बोला- ”मालिक से झगड़ा हो गया।” उसने उसे दिलासा दिया था- ”इसमें दुख करने लायक क्या बात है, बेटा! आदमी के हाथ सलामत हैं, तो काम की क्या कमी है?”...रात हुई...पर रामू न आया। वह पूरी रात जागती रही, मन में कितने ही विचार आते। ऐसे बिना बताये तो कभी बाहर रुकता नहीं था, लड़का! आखिर आज क्या हुआ? अकेली जान रात में कहाँ जाए? इतनी रात को किसे जगाये? जैसे-तैसे रात कटी, सुबह हुई। वह जहाँ-तहाँ उसे खोजती फिरी। रो-रोकर आँखें लाल हो गईं, शरीर थक कर चूर हो गया पर रामू का कोई पता न चला।
रात के अंधकार में लगता था, बाहर कोई ‘माँ’ कहकर बुला रहा है। वह झट उठकर बाहर तक देख आती, लेकिन बाहर दिखती थी विधवा सी-सूनी सड़क और पीपल पर बैठे भयावह आवाज करते अनचीन्हें पक्षी। बरसात की शरारती पवन आकर अक्सर द्वार से अठखेलियाँ कर जाती। बाहर हवा और वर्षों का शोर कानों को बहरा बना देता, तब भी उसे लगता दरवाजा किसी ने खटखटाया है। पर मन की पगली आशा, कंदील की बाती ऊँची करके दरवाजा खोल कर देख आती। पर रामू को न आना था, न आया। हाहाकार करता हृदय राख का ढेर बनकर रह गया। ऐसे समय उसे याद आता था रामदास। “ और कुछ नहीं तो आँसू तो बहाता वह!
कहते हैं, गुजरता समय सबसे बड़ा मरहम है। वह धीरे-धीरे सामान्य हो गयी। पहले बच्चों को गोली, बिस्कुट आदि बेच कर वह किसी तरह अपना पेट भरती रही, पर अब डेढ़-दो वर्ष से कुछ नहीं हो पाता। सड़क से कई ठेलेवाले सब्जियाँ लेकर निकलते हैं, अक्सर सभी कुछ न कुछ दे जाते हैं। कंट्रोल की दुकान वाला थोड़ा बहुत अनाज दे देता है। जैसे-तैसे जिंदगी कट रही है। पेट भरने के लिये इतनी झंझट भी अब उसे अच्छी नहीं लगती। न अकेली रहने को ही दिल करता है।
रामू के जाने के बाद कमला ने लिखा था-”माँ, मेरा आना तो अभी नहीं हो सकेगा पर तू अब यहीं आ जा” उस समय उसे आशा थी, शायद किसी दिन रामू लौटा तो...! पता नहीं बेचारा किस हालत में लौटे! लेकिन अब तो सारी आशाएँ नश्ट हो चुकी हैं।
रात के अंधेरे में उसने उँगलियों पर अँगूठा रखकर पुनः गिना। नौ दस दिन उसे पहाड़ से लग रहे थे। अबकी बार वह कमला के साथ चली ही जायेगी। उसने निश्चय कर लिया है। लेकिन एकदम से चल देना भी तो ठीक नहीं दिखेगा। उसने सोचा। कमला जब साथ में चलने के लिये कहेगी तब वह क्या उत्तर देगी, यह उसने मन ही मन कई बार दोहरा लिया।
आखिर रविवार की दोपहर को कमला बच्चों के साथ अकेली ही आ गई। दामाद व्यस्तता के कारण नहीं आ सका। वह कमला को देखते ही फूट-फूट कर रो पड़ी। कमला ने आँसू बहाते हुये देखा कि घर की हालत अब बहुत बदल गई है। आँगन में रखी टीन की कुर्सी की एक टाँग टेढ़ी हो गई है। खटिया की हालत ऐसी है कि आदमी के बैठते ही चरमराने लगती है। कभी सामान से भरा रहने वाला घर कमला को एकदम खाली-सा लगा।
चाय पीने के बाद बड़ी देर तक रामू की चर्चा होती रही। शाम को ठेले वाले हमेशा की तरह कई प्रकार की सब्जियाँ दे गये। उसने उन्हीं को मिलाकर रसेदार तरकारी और रोटी बनाई। खाने के समय वह बच्चों की तरह मन ही मन इंतजार करती रही कि कमला अब मिठाई का डिब्बा निकालेगी... अब निकालेगी... पर कमला ने न मिठाई निकाली और न इस विषय में कोई बात की।
खाते समय छोटा बच्चा दाल के लिये जिद करता रहा। वह दाल लाती भी कहाँ से? कोई कमाने वाला है घर में! कंट्रोलवाला जो भी अनाज दे देता है, उसी से पेट भर रही है वह। चाय की पत्ती और षक्कर ही तो कितनी मुश्किल से आ सके थे।
सुबह-सुबह बच्चे जलेबी और समोसे के लिये मचल गये। मन में गुस्सा तो बहुत आया पर स्वर को सहज बना कर उसने प्यार से कहा- ”चुन्नू-मुन्नू, तुम लोग तो रोज मिठाई खाते हो पर अपनी नानी के लिये तो एक टुकड़ा भी नहीं लाये।”
“नहीं माँ, मैं मिठाई लाई थी। इन बदमाषों ने सारी मिठाई रास्ते में ही साफ कर दी।” कमला बोली। उसकी लगी हुयी आशा अब पूरी तरह से खत्म हो गयी थी। दोनों बच्चों को घूर कर देखा।
कमला के आने के बाद उसके पैसों से ही घर चलने लगा। भोजन बनाने, बर्तन माँजते तथा अन्य छोटे-मोटे काम निबटाते-निबटाते रात हो जाती। कमला... पड़ौसिनांे के यहाँ चली जाती या आराम से बैठी रहती। कमला पर वह मन ही मन नाराज होती लेकिन फिर सोचती क्या करंे, अब लड़की को काम करने की आदत ही नहीं रह गईं होगी। वहाँ कितने ही नौकर चाकर हैं, इसे कुछ करना पड़ता होगा भला!
जाने के दो दिन पहले कमला ने कहा- ”चल माँ तू भी मेरे साथ।”
वह एकदम सतर्क हो गई। बोली-”बस बेटी, मिल जुल लिये बच्चों को देख लिया, संतोष हो गया। तेरे साथ चली जाऊँगी, तो यहाँ का घर कौन देखेगा?”
“किराये का तो घर है माँ ! क्या करना है अब घर का? कितने दिन की जिन्दगी है तेरी! थोड़े दिन सुख से रह ले मेरे पास-।” उसकी कल्पना में कमला कह रही थी।
”चल, दो-चार महीने रहकर आ जाना।” -कमला बोली।
तो क्या बस दो चार महीनों की ही बात थी! उसे आघात-सा लगा। उल्लास भरा स्वरमंद हो गया। “जाने दे बेटी, दो-चार महीनों में क्या होने जाने वाला है, फिर वह तेरी मालकिन का घर है। पता नहीं वे क्या कहें।”
“वे ऐसी औरत नहीं हैं, माँ। और ऐसी बात होगी तो मैं तेरी अलग व्यवस्था कर दूँगी।” कई दिन से कमला का यही स्वर सुनती आ रही थी।
“हाँ, फिर तेरे से किसी की बात बर्दाश्त भी तो नहीं होती।” कमला ने चर्चा पर विराम लगाकर बात को समाप्त किया।
बीस-पच्चीस दिन से मन में बनते भवन की सारी ईंटें एकाएक भड़भड़ा कर गिर पड़ीं।
दूसरे दिन सुबह कमला बच्चों को लेकर इंदौर लौटने लगी। चमकीली किनारी वाले एक पुराने ब्लाउज पीस पर एक रुपया रखकर, उसने कमला की विदाई की। तीनों बच्चों के हाथ पर एक एक चवन्नी रखी। कमला बच्चों को लेकर रक्शे में बैठी। गुरुजी उसे इंदौर वाली बस में बैठाने जा रहे थे।
उसकी आँखें अब भी किसी आस से कमला का मुख निहार रहीं थीं। आँखों के दोनों छोर भींग आये थे। ”अच्छा माँ” कहकर कमला बच्चों को लेकर अलविदा हो गई। रिक्शा आगे बढ़ गया। मन में सजाई वह आशा, अब निराशा में परिवर्तित हो चुकी थी।
सरोज दुबे
(प्रकाशित-आनामा, मार्च 1985)