आशाओं का शव
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
मास्टर शिवचरण ने उन रुपयों को रत्न स्वरूप सम्भाले चूंकि वे तीस दिन की मजदूरी के थे। उन्हें देखकर शिवचरण कि हृदय में एक अलौकिक अद्वितीय उल्हास समा गया। नाच उठा उसका मन। क्षण भर के लिए अतीत की सारी व्यथाएँ वर्तमान के ‘आनन्द’ में धूमिल पड़ गयीं। शिवचरण ने अनुभव किया मानो आज उनकी समस्त समस्यायें हल हो जाएँगी।
शिवचरण ने उन कागज के टुकड़ों को बारम्बार अभ्यर्थनात्मक भाव से देखकर हृदय से चिपकाते हुए फटे कोट की जेब मे रख लिये।
पचास रुपये !
कितने सुन्दर हैं।
शिवचरण के पग घर की ओर बढ़ रहे थे। किसी अज्ञात प्रेरणा से अपना सन्तुलन गवां चुके थे।
बाजार आया। शिवचरण रुके जगमगाहट थी। हलचल थी। ऊँची ऊँची दुकानों में रौनक बरस रही थी। उन्हें कुछ याद आया और हलवाई की दुकान की ओर बढ़े।
अरसे के बाद मास्टर साहब को अपनी दुकान पर आते देख हलवाई आश्चर्य चकित रह गया। वह अभिवादन करता हुआ बोला- “आज कैसे भूल पडे़ पंडित जी ?”
शिवचरण हँसते हुए बोले- “दफ्तर से आया हूँ सेठ जी, घर से निकलते वक्त राधा बिटिया मिठाई के लिए मचल गयी थी। सोचा ले ही चलूँ।”
‘जरूर जरूर’ विचित्र तरह से मुँह बनाकर बोला वह- ‘खाने के लिए ही कमाया जाता है संसार में । हाँ, तो क्या दे दूँ ?........मगज के लड्डू, इमरती और ये बरफी ताजी है। बाँध दूँ सेर भर ?’
‘क्यों मजाक उड़ाते हो, सेठ जी’- दीन आवाज मे शिवचरण बोले- ‘अब जमाना सेर भर का नहीं। देखते तो हो मँहगाई को किस तरह सिर पर चढ़ गयी है। मौत गरीबांे की है। दाने-दाने को तरसना पड़ता है।’
हलवाई इन बातों पर कभी भी ध्यान नहीं देता था। उसने अपना तराजू पकड़ते हुए पूछा “कितना दे दँू ?”
“पाव भर।”-शिवचरण बोले।
हलवाई ने इमरती तौल दी। शिवचरण ने जेब से एक नोट निकालकर बढ़ाया।
‘डेढ़ रुपये पिछले भी हैं, ‘पण्डित जी’। हलवाई बोला- भूल गये ? दीवाली के दिन..............’
शिवचरण का मुँह फक्क् पड गया। उन्हें उधारी के पैसों की बिलकुल याद न थी। यह बनियाँ भी कितना कांइयाँ है। आज ही माँंगने को मिला इसे। शिवचरण मन ही मन कुढ़ने लगे। किसी तरह से एक और नोट निकाल कर बढ़ा दिया। हलवाई ने तुरत थाम लिया।
शिवचरण हारे हुए शूरमा की तरह दो कदम आगे बढ़ाए ही थे कि पीछे से आवाज आई ‘हमें तो भूल ही गये, पंडित जी ?’
एक बला और.... शिवचरण का कलेजा धड़क उठा। निर्बल पैर लड़खड़ा गये वे लौट पडे़।
“कहो भाई ?”
दो माह हो गये अब तो दे दो। सुना है, तनख्वाह मिली है आज।
“पर भाई ?”
“पंडित जी”......वह बीच ही में बोल उठा “हमारा भी दिल देखो किस मुसीबत में आपका काम चलाया”
शिवचरण में विवाद करने की शक्ति न रह गई थी, भरी आवाज मे उनने पूँछा “कितने रुपये हैं ?”
“बस सोलह रुपये कौन ज्यादा हैं ?”
शिवचरण ने रुपये निकाल कर दिये। उनके हाथ काँप गये। आँखें डबडबा आईं। उनकी समस्त प्रफुल्लिता शिथिलता में परिणित हो गयी।
पं. शिवचरण स्थानीय शाला के शिक्षक थे। अपने छोटे से परिवार के प्रतिपालन का उत्तरदायित्व उनके कँधों पर था। वे उस उत्तरदायित्व का भार वहन करने में सर्वथा अयोग्य हो गये थे। घर में पत्नी के अतिरिक्त दो लड़कियाँ थी। चार प्राणियों का उदर निर्वाह इस मँहगाई के युग मे करना अत्यधिक कठिन बात थी। शिक्षा देने के अतिरिक्त उनके आय के अन्य कोई साधन न थे। ऐसी दशा मंे सदा अर्थाभाव अपना विशाल मुँह बाये खड़ा रहता था। शिवचरण अपने कंगाल जीवन से असंन्तुष्ट एवं तत्सम्बन्धी आपदाओं से दिन रात अपना माथा धुनते रहते थे। वे कौन से अन्य साधन को अपनाये कुछ समझ में न आता था।
शिवचरण जब घर आये तब सुनयना के मुख पर आनन्द की रेखाएँ फैल गयी। वह दोपहर से ही बैठ कर प्रतीक्षा कर रही थी। शिवचरण का उतरा हुआ मुख जब उसने देखा तो किसी भावी प्रबल आशंका ने उसे झकझोर डाला। उसने उठाकर पूछा “क्यों क्या तनख्वाह नहीं मिली ?”
शिवचरण बिना कुछ बोले ही भीतर गये और खटिया पर जाकर बैठ गये। फटा कोट उतारकर उसमें से बाकी रुपये निकालकर सुनयना को सौंप दिये सुनयना ने रुपये गिनकर पूछा- “बस ,केवल बत्तीस रुपये”
“हाँ” शिवचरण बोले- “सोलह धोती वाले को और दो हलवाई को दे आया हूँ ।”
“तो इतने रुपयों से क्या होगा ?” सुनयना बोली “घर का मालिक किराया माँगने आया था।
बारह रुपये उसे देना ही पड़ेंगे। गीता इम्तिहान में बैठेगी, तो बाईस रुपये उसे देना ही पड़ेंगे। फिर माह भर का खर्च.... आटा दाल कपड़े लत्ते आदि कहाँ से आवेगा ?”
शिवचरण कुछ न बोले।
“मेरा तो विचार है, गीता को अब घर बैठाल दो। छः क्लास अंग्रेजी हो ही गयी। कौन हमें उससे नौकरी करवाना है ? अपने घर से लगा दो फिर वहाँ पढ़ती रहे या जो चाहे करे।”
“शादी की कह रही हो ?”
“हैं कुछ पल्ले में ?” तपाक से शिवचरण ने पूछा अच्छा घर ढूँढती हो तो हजार के नीचे बात नहीं करते। यदि गरीब गुरबा अनपढ़ को ब्याह दो तो फिर इस पढ़ाई से क्या सार मिलेगा ? बेचारी घुट-घुटकर जान दे देगी। लड़की बेजुबान होती है। जहाँ पटक दो वहीं पड़ी रहेगी। किन्तु उसकी ‘आह’ क्या हम सह सकेंगे ? मुझे गीता पर विश्वास है कि हमारे निर्णय पर वह चीं चपाट भी न करेगी। लड़की गऊ है। देखती हो अंग्रेजी पढ़ने वाली लड़कियाँ किस ठाट बाट से रहती हैं। गीता को देखो, परसाल की फटी साड़ी में थिगड़ा लगाकर पहनती है। इतना सब होते हुए भी मुँह से उफ नहीं करती भई। मैं तो उसके साथ अन्याय न करूँगा। मेरे प्राण भी बिक जायेंगे फिर भी उसे अच्छे भले घर से लगाऊँगा।
“करंेगे तो आप सब कुछ” तुनक कर सुनयना बोली- “यही तो कह रही थी, सो पल्ले की पूछने लगे। बातें तो ऐसे बढ़चढ़ कर करते हैं जैसे लखपति हों। जब करने बैठोगे, तब आँखें खुल जावेंगी। खाने को घर मे नहीं और स्वप्न देखते हैं, राजमहल का। तीन साल कहते-कहते हो गये कि जाकर मायके का घर बेच आओ। पर मेरा कब सुनने लगे। मुझे तो कुछ समझ ही नहीं रखा। ऐसे मोके पर उसे न बेचोगे ? तब कब बेचोगे ? चार पाँच सौ रुपये मिल ही जायेंगे तो कुछ आसरा मिलेगा। फिर इतने ही कहीं से उठा लेना। क्यांे क्या कहते हो ?”
‘अब ऐसा ही करना पड़ेगा। पर वे बेचारे क्या कहेंगे ?’
‘कहेंगे क्या। कौन उनका धन है। मरते वक्त बाप ने मुझे दिया था। मैं चाहूँ उसका जो करूँ। हाँ, कुछ भैया से भी माँगना।’
“न बाबा, यह मुझसे न होगा”
“होगा क्यों नहीं ? मुझे भी साथ लेते चलो। सब इन्तजाम कर लूंगी।”
‘ पर...’
‘मैं अब कुछ न सुनूंगी।’
सुनयना से तर्क में जीतना शिवचरण के लिए कठिन बात थी। सुनयना के प्रतिवाद में प्रामाणिकता रहती थी। उसमें ओज, प्रबल शक्ति के अतिरिक्त मार्ग प्रदर्शन की प्रेरणा रहती थी। जिसे शिवचरण महत्वपूर्ण दृष्टि से देखते थे। सुनयना उनके निराशा जनक पल और अन्धकार मय जीवन में विद्युत की तरह चमक भर देती थी। उस प्रकाश में वे अपना उज्जवल भविष्य देखकर, सदा खाई मे गिरने से बच जाते थे। शिवचरण सुनयना के सामयिक सुलह के कायल थे।
यद्यपि सुनयना अशिक्षित महिला थी फिर भी उसमें बुद्धि की कमी न थी। स्वाभिमान के साथ ही उसमें लचक थी। शिक्षित महिलाआंे को भी उसकी यथार्थ सूत्र के समक्ष अपने घुटने टेकने पड़ते थे।
दूसरे दिन गृहस्थी का भार गीता को सौंपकर सुनयना को लेकर शिवचरण गाँव को रवाना हो गये।
सुनयना ने अपनी योजना पर विजय पाई। खेत बेचने पर साढे पांच सौ रुपये हस्तगत हुए। तीन सौ भाई से उधार ले लिए। वस्तुत: शिवचरण से यह कार्य कुशलता पूर्वक सम्पादित होना असंभव था। शिवचरण का हृदय सुनयना के प्रति गदगद हो उठा। यदि परम्परागत रूढ़ीवादी प्रणाली और सामाजिक बन्धन न होते तो वे निश्चय ही सुनयना के पैर छू लेते या पैरों पर गिर पड़ते।
घर आने पर शिवचरण को वर की चिंता हुई। स्कूलों में मित्रों में और रिश्तेदारों में इस बात की चर्चा की।
शिवचरण की किस्मत ने उनका साथ दिया। समीपवर्ती क्षेत्र में एक पुजारी थे। उनका लडका बी.ए. फाइनल में पढ़ता था। शिवचरण की कंगाली देखकर पुजारी ने संवेदना प्र्रगट की। शादी का मुहूर्त निश्चित हुआ। शिवचरण अपने ध्येय मे सफल हुये।
पुजारी जी बड़े दयालू व्यक्ति थे। दहेज के विषय में शिवचरण से कोई बात न की। शिवचरण ने दिल खोलकर बरातियों के स्वागत के लिए सजावट की।
बारात खूब धूम धाम से आई। सब पर आनंद बरस पड़ा। सुनयना ने शिवचरण को बुलाकर पूछा- सुहाग की बिंदी ले आये ?
“अरे हाँ, यह तो मैं भूल ही गया अब ?”
“जाकर लाओ हँसी कराओगे अपनी”
“अभी जाऊँ ?”
‘और क्या कल जाओगे? चढ़ावा आज होना है या फिर कभी ? अपनी शादी की बातें, इतनी जल्दी भूल गये ? शिवचरण शर्मिंदा हो गये। झटपट वे बाजार की ओर लपके।
घन्टा....दो घन्टा........तीन घन्टा बीत गये, शिवचरण न लौटे। बरातियों के डेरा से कई बुलावा आये। शिवचरण का पता नहीं, हल चल मच गया।
सुनयना अपने आप पर खीझ रही थी, ‘जरा सी सौदा लेने गये, घन्टो लगा दिये। उनका काम ही ऐसा ढीला ढाला है। समय करीब आता जा रहा है और उनका पता नहीं। हे भगवान्......
राधा को बुलाकर उसने पूछा- “क्यो री, आये बाबू जी ?”
“नहीं, माँं राधा ने कहा। सुनयता खौल उठी।
गीता शादी का जोड़ा पहिने कोने में बैठे बैठे यह सब बातें सुन रही थी। उसका हाल ही आज अजब था, उससे कोई क्यों नहीं कुछ पूछता ? क्या पराई हो जाने पर उसकी अपने घर में ऐसी स्थिति हो जाती है ? विधि के विधान का यह प्रारूप कितना निष्ठुरता पूर्ण है। वह सोच रही थी।
किलकारियाँ करती छोटी बहिन राधा आई। वह गीता के गले से लिपट गयी। गीता ने ‘उनके’ विषय में कुछ पूँछना चाहा किन्तु संकोचवश वह ऐसा न कर सकी।”
राधा बोली ‘मिठाई खिलाओगी, दीदी एक बात बतलाऊॅ’
‘कौन सी बात ?’ गीता ने पूछा। ‘जीजा जी की ........’
‘हट, पगली’ गीता ने मुँह फेर लिया। तो नहीं सुनोगी ? मैं जाती हूँ ?
राधा ने जाने का उपक्रम किया। गीता ने खींचकर गोदी में बैठाल लिया उसे
“बता न, कौन सी बात ?”
“मिठाई खिलाओगी न ?”
“हाँ भई हाँ.... अब बता न क्या बात है ?”
राधा ने बाल चापल्य भाव से एक चित्र निकाल कर गीता के हाथ पर रख दिया। उनका चित्र गीता के शरीर मे सिरहन दौड़ गयी। आत्मविभोर हो झूम उठी, उसे तो वरदान सा मिल गया। बेसुध होकर देखने लगी उसे।
“क्यों दीदी, है न सुन्दर ?”
गीता सम्भली उसे आज राधा बहुत ही प्रिय लगी। आत्मीयता फूट पड़ी, उसने राधा को छाती से चिपका लिया।
अनायास एक खबर आई “बाबू जी मोटर से दब गये” घर में खलबली मच गयी। सुनयना चीत्कार कर उठी, सब रो पड़े, गीता और राधा कारण जानने को दौड़ पड़ी।
सुनयना को रोता देख, राधा भी रोने लगी। गीता ने अवरुद्ध कण्ठ से पूछा- “क्या हुआ माँ ?”
सुनयना और जोर से रो पड़ी, गीता के आँखों से आँसू बह पड़े।
“बाबू जी मोटर के नीचे दब गये, बेटी..... उनका एक्सीडेन्ट हो गया”
हाहाकार कर उठा गीता का कोमल हृदय। ज्वालामुखी सा फट पड़ा। यह कैसा असामायिक प्रलय आ गया। कैसा निष्ठुर बज्रापात !! गीता को एक ठेस लगी और आँखों के सामने अंधेरा छा गया। वह सन्तुलन न रख सकी और गिर पड़ी धड़ाम से गीता जब होश में आई तब घराती-बाराती शव जलाकर लौटे थे।
घर में रोना धोना कम हो गया था। किन्तु माँ अब भी सिसक रही थी। उसे बाबू जी की याद आई........कुछ समय पहिले वे कितनी प्रसन्न मुद्रा में थे, पर अब.........पिता का शव चिता पर धू धू कर जलता होगा। किन्तु अब उसकी माँ बहिन की आशाओँ का .......? उसका क्या होगा ? क्या उनकी आशाओं का शव भी इसी तरह धू........धू...........कर जलेगा ..........?
विधि की कैसी विचित्र विडम्बना है .......
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’