अंधेरे के गम: उजाले के आँसू
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
अनगिनत लड़कियों के हाथ पीले करवाने की क्रिया सम्पन्न करवाने वाले, पंडित सेवाराम जब स्वतः की पुत्री के हाथ पीले करने की इच्छा से वर खोजने निकले, तब मालूम हुआ कि योग्य घर-वर ढूढ़ना कितना कठिन काम है।
नारायनी अब सोलह की हो गयी है। जब वह चौदह की थी, तब से वे प्रयत्नशील हैं। दो साल कैसे बीत गये, पता ही नहीं चला। अपने कुल गोत्र, परम्परा के अनुकूल पच्चीसों दरवाजे गये पर केवल निराशा ही हाथ लगी। अब पंडित जी को भली-भाँति ज्ञात हो गया कि योग्य वर ढूढ़ पाना कितनी टेढ़ी खीर है।
दस साल पूर्व उनकी पत्नी साधारण सी बीमारी के बाद चल बसी। उसके जीवन काल में उनमें ढेर सारी आशायें, उमँगे थीं। उसके जाने के बाद, हतासा, नीरसता सी आ गई थी। उन्होंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था, उनकी अर्धांगिनी उन्हें अकेला छोड़ कर चल देगी। कितना प्रेम करते थे, वे दुर्गा को।
उसके रहते उनके जीवन में कितनी आलौकिक आनंद, स्फूर्ति, शक्ति और बुद्धि चातुर्य था। और अब.....जैसे सब कुछ उसके साथ चला गया। सारे के सारे जीवन के मूल्य बदल गये।
पंडित जी का शैशव अभाव और कष्टप्रद में रहा। माँं-बाप की छाया पाँच बरस की उम्र में बिछुड़ गयी। कुछ साल नाना-नानी का सहारा मिला सो वहीं रहकर शिक्षा-दीक्षा हुयी। उनमें लगन थी, काशी से जब शास्त्री हो कर गाँव लौटे, तब कुछ ही समय में विद्वता के लिए चर्चित हो गये। आदर -सम्मान-यश धन, सभी कुछ मिलने लगा, और कुछ ही समय में वे स्थापित पंडितों की श्रेणी में आ गये। उनने अपने जीवन में दुर्गा जैसी गुणवान, रूपवान सहचरी पायी। साल भर बाद दुर्गा ने नारायनी जन्मी और उसके महाप्रयाण के वक्त तक उसकी एकमात्र संतान रही। इसलिये सारा ध्यान नारायनी पर केन्द्रित रहा। अब बेटी नारायनी ही उनका सर्वस्व थी। बिना माँं की लड़की हो तो बाप का प्रयास रहता है, कि वह उसके उस अभाव की पूर्ति कर सके।
अभी -कुछ देर पहिले पंडित सेवाराम घोडे़ पर, पच्चीस कोस का सफर कर लौटे हैं। रात के दस बजे। गाँव में सन्नाटा। पानी बरस कर थम गया है, पर सकरी गलियों में कीचड़ की चिपचिपाहट मेंढकों की टर्र.....टर्र, कुत्तों की भों...भों... चाहे जब-तब सन्नाटे को भंग करती। घर के आहाते के भीतर घोड़े के प्रवेश करते ही दालान में बैठा अधेड़ रामदीन, मुँह में सुलगती बीड़ी फेंक हड़बड़ा कर दौड़ पड़ा। पाँव छुये और घोड़े की लगाम थाम ली। इस बीच पंडित जी के आने का संकेत जैसे पूरे घर में फैल गया हो। भीतर के दरवाजे बहन पारवती ने खोले और पंडित जी अंदर जा खाट पर बैठ गये। इस बीच जैसे पारवती ने पच्चीस कोस के सफर का किस्सा एक नजर में पढ़ डाला। नारायनी बाप के बगल में बैठ गयी। दो दिन बाद थके माँंदे बाप लौटे हैं। नारायनी के सिर पर हाथ फेर मुस्कराते हुये पारवती की तरफ देखते हुए बोले -’तुम लोग अभी तक सोईं नहीं ?‘
उत्तर में उसी अर्थ की मुस्कान पारवती की ओर से हुयी। पंडित जी के प्रश्न का उत्तर न दे बोली -‘हाथ मुँह धो लो भैया......खाना तैयार है।’
पंडित जी ने आदेश का पालन किया। दैनिक क्रिया से निवृत्त हो, पूजा अर्चनकी फिर भोजन। तब तक नारायनी बिस्तर में लेट चुकी थी किन्तु पारवती कुछ सुनने को बैठी थी। पंडित जी भी हरि ओम.......हरि ओम.......का जाप करते हुये बिस्तर पर लेट गये। बोले -‘बहन, सर्व शक्तिमान परमात्मा, हम लोगों की कैसी-कैसी परीक्षा लेते है। परीक्षा में अज्ञानी तो विचलित हो जाते हैं, पर ज्ञानी उनकी लीला भाँप लेते और अपने संकल्प से विचलित नहीं होते। वाह प्रभु......वाह तेरी माया’।.........
पारवती ने अब और कुछ पूछना उचित न समझा। अपनी बुद्धि के अनुसार अर्थ निकाल लिया कि इस बार भी सफलता नहीं मिली। चलो ‘अभी संस्कार नहीं आया’ कहती हुई सोने को चली गई।
पारवती पंडित जी की विधवा बहिन है। नारायनी की माँ की मृत्यु के उपरांत वे उसकी ससुराल से ले आये थे। वह निःसंतान थी। नारायनी, इसी आषाढ़ में सोलह साल की हो गयी। गौर वर्ण, तीखा नाक नक्शा। हर मायने में सुन्दर। ईश्वर ने सारी दुनियाँ की सुघड़ता जैसे उसी में भर दी हो। जो देखता, देखता रह जाता। पर गाँवों के युवकों में मर्यादा की परम्परा की नकेल रहती है, इसलिए अनचाहे भी वे दूषित होेने से बचे रहते हैं। पर पंडित जी के एक प्रतिद्वंदी थे-भूरे पंडित। रामसिया उनका उद्दण्ड लड़का था। उसे मर्यादा परंपरा की नकेल प्रभावित नहीं कर सकी थी। नारायनी पर वह जी जान से समर्पित था किन्तु जब पिता की दृष्टि में मर्यादा चरित्र में हीन भूरे पंडित हों। तब ऐसे घर के कुसंस्कारी युवक से कैसा जुड़ाव ? एक दिन नारायणी ने छेड़-छाड़ करने पर अच्छी सीख दे दी। सभी जगह चर्चा हो गयी। रामसिया तो खून का घूँट पीकर रह गया पर पिता भूरे पंडित महाघाघ था - ‘समय आने पर देखेंगे, सोचकर अपने पुत्र के अपमान की चोट सह गया।
नारायनी सो रही है। पंडित सेवाराम उसे एकटक निहार रहे है। कितना राग द्वेष रहित है, उसका मुख मंडल। कैसी आभा युक्त है मेरी बेटी। जिस घर जायेगी, धन्य हो जायेगा। उन्हें भली भाँति याद है, दुर्गा उसे कितना स्नेह करती थी। जन्म से लेकर अपनी मृत्यु तक कितना प्यार दिया था। मृत्यु का जैसे उसे पूर्वाभास था।
नारायनी का वह केवल दस साल साथ दे सकी। पर प्यार जीवन भर का दे गयी.....उड़ेल गयी....। यह भी उन्हें भली भाँति याद है, उसे साधारण मलेरिया ज्वर था। वैद्य का इलाज, और डाक्टर का इलाज भी उसे ठीक न कर सका। उस दिन उसने बडे अपनत्व से पंडित जी को अपने बाजू में बिठा कर कहा-.‘लगता है, अब मैं ठीक नहीं हो पाऊँगी। आगे वह कुछ न कह सकी। गला रुंध गया। आँखें डबडबा गयीं।
दुर्गा के कथन में जो वेदना छिपी थी .....वह उसके मुख और नेत्रों में भी उतर आयी थीं। पंडित जी भी विचलित हो गये थे। आँखें भर आईं थीं। किन्तु अपने को सम्हालते हुए बोले-नहीं दुर्गा, तुम ठीक हो जाओगी।’ और उन्हांेने दुर्गा के गरम सिर पर हाथ फेरा। दुर्गा ने पंडित जी का हाथ कसकर पकड़ लिया। बोली-मेरे बाद मेरी नारायनी की देखभाल ठीक से करना.......करोगे न ......? जब बड़ी हो जाए तो नारायनी का विवाह भी .....खूब धूम धाम से करना। बाहर के लिए तुम नामी पंडित जरूर हो पर मैं समझती हँू कि अभी कुछ मामले में तुम मुझसे ही सलाह लेते रहते हो। सो ....आज से नारायनी की माँं भी तुम ही हो......अन्तिम वाक्य कुछ हास परिहास के लहजे जैसा था। पर सेवाराम तो एकदम तड़प कर रह उठे थे। चाह रहे थे, किसी तरह एकांत में जा कर, जी भर के रो लें। अपनों की बिछड़ने की पीड़ा कितनी मर्मान्तक होती है।
दुर्गा के जीवन की वह अन्तिम रात्रि थी। अन्तिम अपनत्व उपदेश-आदेश दे वह चल बसी। बस रह गयी तो उसकी स्मृति और धरोहर के रूप में नारायनी।
अध्ययन की कमी से भूरे पंडित में विद्वता कम केवल दिखावटीपन ज्यादा था-दूसरी ओर वाचाल होने से उनमें अहंकार अधिक था। वे बस अशिक्षित यजमानों को प्रभावित किये रहते थे। पंडित सेवाराम के आने के पूर्व उनका हर दर्जे के यजमानों पर एक छत्र राज्य था। शिक्षित और समझदार वर्ग उनकी इस कला से वाफिक था। दूसरी ओर पंडित सेवाराम संस्कृत में एम.ए. थे। शिक्षा के कारण धीर गम्भीर मृदुभाषी थे। यजमानी में कई अवसर आये, जब भूरे पंडित से सामना हुआ, तो सबकी ओर से उन्हें ही सम्मान मिला। किन्तु सेवाराम जी उनकी हमेशा प्रसंशा करते रहते थे। पर अल्प ज्ञानी भूरे पंडितजी इसे भी अपने पंाडित्य की फतह मानता रहा, और मौका पाते ही पंडित सेवाराम को नीचा दिखाने का कोई भी मौका न चूकता। अक्सर धूर्त व्यक्ति में यह खास गुण रहता है।
भूरे पंडितजी की यजमानी में श्रीमद् भागवत की कथा होनी थी। इस तरह आयोजन में वह काशी के मथुराप्रसाद शास्त्री को बुलवा लेते थे, अपने यजमानों का कृत्य करवा दिया करते थे। इस बार भी वैसा ही किया। वैसे यह कार्य पंडित सेवाराम के द्वारा भी हो सकता था। पर इससे उसकी प्रतिष्ठा घटती। इसलिये वैसा नहीं किया। समापन के दिन पंडित सेवाराम भी आमंत्रित किये गये। नारायनी भी साथ गयी। पंडित मथुराप्रसाद जी ने देखा तो मन की गहराई में समा गई वह। काश मेरे घर की बहू यह बन जाय तो मेरा जन्म कृतार्थ हो जाय।
श्रीमद् भागवत कथा समापन के बाद भूरे पंडित के साथ मथुरा प्रसाद जी जब सेवाराम के घर पधारे तब पूरे सम्मान के साथ उनकी आवभगत हुयी। दोनांे विद्वानों की भिन्न-भिन्न विषयों पर चर्चा हुयी। जब दोनों एक दूसरे से प्रभावित हो गये। तब मथुरा प्रसाद शास्त्री बोले-पंडित जी, हर साल मैं, भूरे पंडित को इंगित कर कहा -‘इनकी यजमानी में आता हूँ। उत्तम कोटि की सामग्री एवं दक्षिणा भेंट में पाता हँू - पर जाने क्यों मुझे उससे संतुष्टि नहीं मिलती। धन दौलत तो भगवत प्रेमी को तुच्छ जैसी है।’
भूरे पंडित ने मथुरा प्रसाद जी को विस्मय से देखा और मथुरा प्रसाद ने उनको मंद मुस्कान से। पर दोनों एक दूसरे का नाटकीय अर्थ जान गये थे।
पंडित जी, ‘मथुरा प्रसाद आगे बोले-’ईश्वर की कृपा से खूब धन दौलत पा चुका हूँ। अब तो हार्दिक इच्छा है, कि इस गाँव से ऐसी कोई भेंट मिलें, जो सब भेटों से ऊँची हो और जीवन भर साथ दे।‘
सेवाराम इस कथन का अर्थ न समझ विचार कर रहे थे’वह कौन सी भेंट हो सकती है?’ तब मथुराप्रसाद ने बात आगे बढ़ायी-’पंडित जी, वह अमूल्य भेंट केवल आप दे सकते हैं।’
-‘मैं....? आज्ञा कीजिये......’सेवाराम जी बोले।
बिना सोचे सेवाराम कह गये। पंडित मथुराप्रसाद की पूर्व की नाटकीय मंद मुस्कान के अर्थ का अंत होने ही वाला था। सो बोले-‘पंडित जी, मुझे निराश न कीजिये। भेंट आपके सामर्थ्य के भीतर है, दे सकते हैं।’
‘पंडित जी, यदि मेरी सामर्थ्य में होगा, तो अवश्य दूँगा।’ सेवाराम वचनबद्ध हुये। गरम लोहे पर चोट प्रभावी होती है, सो मथुराप्रसाद ने की ‘मुझे आपकी पुत्री चाहिये। इस गाँव से सर्वोच्च भेंट।’
पंडित सेवाराम को इस तरह की भेंट माँंगे जाने की कल्पना न थी। ठीक है, कुलगोत्र, घर बार की दृष्टि से मथुराप्रसाद उनके दायरे से कहीं ऊँचे थे। पर लड़का कैसा है, क्या करता है, कैसा स्वभाव है, यह भी तो सम्बन्ध के लिये जरूरी होता है। लड़की का जीवन निर्वाह तो उसी से होता है। सो पशोपेश में पड़ गये। उनकी परेशानी देख भूरे पंडित ने वकालत की ‘मैं जानता हूँ, कि आप क्या सोच रहे हैं, लड़का के बारे में अर्थात पंडित जी पुत्र के विषय में। उसे मैं अच्छी तरह से जानता हूँ, निहायत नेक लड़का है।’
- ‘जी, पंडित जी।‘ सेवाराम विनम्र भाव से बोले।
भूरे पंडित ने कहा- ‘आप उसकी रत्ती भर चिंता न करें। पूरा मेरा जिम्मा है। आप भाग्य सराहें पंडित जी, जो ये रिश्ता लेकर आपके घर पधारे हैं। सब कुछ मेरा देखा सुना है। मुझसे क्या आप धोखे की आशा रखते हैं ?....हाँ कीजिये पंडित जी।‘
थके हुये लड़की के पिता में दीनता के भाव पनपते रहते है। सहज ही प्राप्त हुये संयोग की वह एकदम अवहेलना करने की शक्ति नहीं जुटा पाता। कौन माँं-बाप अपनी पुत्री के उज्जवल भविष्य की कामना से सम्बन्ध का चुनाव नहीं करता ? मनुष्य वर्तमान देखकर फैसला करता है, भविष्य किसने देखा है। लड़की का भाग्य संसार में ऐसा ही चलता है। नारायनी उनकी अमूल्य निधि है। इसीलिये तो दो साल से भटक रहे हैं। लोगों के अनेक रूप और चढ़ी हुई त्यौरियाँ देखी। इस तरह के सज्जन पुरुष तो बिरले होते हैं, शायद हजार में एक। हो सकता है, नारायनी का भाग्य प्रबल हो। जो उसके घर ऐसे महापुरुष पधारे। उनके ही या पत्नी दुर्गा के निराहार ,उपवास व्रत का सुफल हो आदि.....। समर्थन के पक्ष का पलड़ा भारी हुआ।
दोनों पंडित, सेवाराम के मुख पर आयी उथल-पुथल की गहराई को परख रहे थे। वे दीन-हीन भाव से भूरे पंडित की ओर देखते हुये बोले -‘पंडित जी, आप तो जानते ही हैं, पत्नी दुर्गा के निधन के बाद, मैंने कितने कष्ट झेले। नारायनी को पाला-पोसा, उससे कितना स्नेह करता हूँ’।
‘यह क्यों कहते, पंडित जी- मुझसे कुछ छिपा है क्या ?’ लड़की आपके घर से अधिक सुखी रहेगी -विश्वास रखिये। इस तरह का भरोसा काफी रहता है। पंडित सेवाराम ने हामी कर दी।
शुभ मुहूर्त्त आने पर नारायनी का विवाह अच्छी धूमधाम से सम्पन्न हुआ। बारातियों की आवभगत , भी खूब हुई। पंडित सेवाराम ने जी भर के दान दहेज के साथ अपनी आत्मा से प्रिय जब नारायनी को बिदा किया, तो उस दिन ऐसा लगा कि जैसे उनका सर्वस्व लुट गया हो। एक नारायनी तो अब तक जीवन जीने का आधार थी। अब उसके बिना...... कैसे वे जीवित रहेंगें ?
‘बेटी की बिदाई’ का कारुणिक दृश्य देखने की क्षमता किस बाप में है ?
पंडित सेवाराम भी न देख सके और एकांत मेें जाकर जी भर के रोये। अंत में बहिन पार्वती ने धीरज बंधाया- ‘भैया यह तो संसार की रीति है। हर माँं बाप करता है, करता आया है, करता जायेगा।’
हाँ, यही तो शाश्वत् सत्य है, एक पर पुरुष को अपनी आत्मप्रिय निधि साैंंपना और अपने कर्त्तव्य पालन का बोध करना।
नारायनी के विवाह के बाद पंडित सेवाराम भारमुक्त नहीं हुये। महीने पन्द्रह दिन में काशी जा उसे देख आते थे। वैसे तो घर-वर उन्हें ठीक लगा। नारायनी भी ऊपरी तौर पर खुश नजर आयी। किन्तु सेवाराम जी को जो घर मंे स्वाभाविकता होती है, वह नजर नहीं आई। मन में शंका अवश्य हुई कि कुछ दाल में काला है। उनका दामाद भी शास्त्री जी की इकलौती संतान थी। उनकी तरह ही, उनकी पत्नी दिवंगत थी। अतः बिना गृहणी के घर और घर का माहौल अव्यवस्थित एवं भेदक प्रतीत होता ही है। पहिले तीन माहों बाद तक अपनी मन की शंका को मन में ही रखा किन्तु जब सुधार के लक्षण उन्हें न दिखे तो नारायनी से पूछ ही लिया।
“नारायनी बेटी, तुम प्रसन्न तो हो ?”
मैं तो खूब प्रसन्न हूँ पिता जी। खूब खाती हूँ। रानी सा राज करती हूँ। पर आप प्रसन्न नहीं दिखते। लगता है, मेरी चिन्ता में आप ठीक से नहीं रह रहे और दुबले से लगते हैं। देखो तो जरा, चेहरे की ललामी में पीलापन आ गया। सूख से गये हैं आप। मैं जब आपकी याद करती तो काँप उठती हूँ । लड़की से ऐसा मोह नहीं किया जाता। अपने को सम्भालिए, पिता जी........कहते नारायनी की आँखें डबडबा आयीं।
नारायनी ने बड़ी चतुरता से प्रति चोट की थी। नारी में धीरता-गम्भीरता की असीम शक्ति परमात्मा ने दी है। शादी के बाद, परिस्थिति जन्य वातावरण में अपने को ढालकर रहने की प्रवृत्ति उसमें स्वतः प्रस्फुटित हो गई थी। यह नारी जगत का गुण विशेष है। वही गुण नारायनी में भी है। विषम परिस्थिति में दो मानव प्रभावित रहें, उससे अच्छा है, कि एक ही जीवन प्रभावित हो।
नारायनी ने बडी आत्यीयता से पिता को दिलासा दी- “मेरी चिन्ता रंचमात्र न करें। अब प्रति सप्ताह मैं अपनी राजी सुखी के पत्र भेजती रहूँगी।
इस भरोसे वाली दिलासा पर, अंततः पंडित सेवाराम को मानना ही पडा।
कुछ समय तक नारायनी अपनी बात पर कायम रही। प्रति सप्ताह पिता को अपनी खुशहाली का समाचार देती रही। लेकिन इधर एक माह से प्रतीक्षा के बाद भी जब उसका पत्र न आया तो स्वतः जाकर देख आना उचित लगा।
जाने के पूर्व रास्ते में भूरे पंडितजी मिले। ‘पंडित जी, नमस्कार। शायद काशी जा रहे हो ?’ कहकर उसने व्यंग्य भरी मुस्कान छोड़ी।
‘हाँ, पंडित जी।’ नारायनी को देखते जा रहा हूँ। सेवाराम जी ने प्रतिउत्तर दिया।
‘जरूर जानचाहिए।’ और भूरे पंडित आगे बढ़ गया।
पंडित सेवाराम नारायनी के घर पहुँचे। वहाँ जो दृश्य देखा, तो चीख उठे। पाँव तले की जमीन जैसे घिसक रही हो। अपने आप को सम्हाला। अंधेरा, बदबूदार कमरा शराब की टूटी-फूटी बोतलें, मैले- कुचैले कपड़ों में लिपटी, चेतनशून्य नारायनी। अपनी छाती पीट ली। हे विधाता। यह क्या हुआ़ ? कुछ माह पहिले ही तो विश्वास दिला उसने वापस भेजा था। अरे, इतनी जल्दी फूल सी कली कैसे मुरझा गयी ?
पंडित सेवाराम नारायनी के असक्त संज्ञा शून्य शरीर को गोद में लिये अज्ञानी व्यक्ति की तरह विलाप करते रहे। नारायनी बेटी, तू मर नहीं सकती। मैं आ गया हूँ।......अरी पगली। अपने बाप से भी कोई लड़की छल करती है। आँखेें खोल। मैं, पंडित सेवाराम तुझे मरने नहीं दूँगा।
पंडित सेवाराम का यह मार्मिक रुदन सुनने वाला कोई न था। संयत होने पर मालूम पड़ा। पंडित मथुराप्रसाद जी दो माह से यजमानी के दौरे पर हैं और दामाद पन्द्रह दिनों से कुसंगतियों के फेरे में घर से लापता है।
पंडित सेवाराम मरणासन्न नारायनी को गाँव ले आये। जीवन के प्रति आशावान, आस्था, उपचार, सेवा और देख रेख का सामंजस्य पाकर नारायनी कुछ ही दिनों में पूर्ववत हो गई। संसार को सुपथ पर चलने को उत्प्रेरित करने वाले पंडित सेवाराम को ईश्वर की महत्ता पर अटूट विश्वास था। नारायनी भी उन्हीं आस्थाओं की बदौलत अच्छी होगी - भरोसा था। कुछ लोगों ने पंडित जी को भूरे पंडित द्वारा उनके साथ जानबूझ कर छल प्रवृत्ति की निंदा की। तो भी वे विचलित नहीं हुये और कहा-
‘‘नहीं भाई, भूरे पंडितजी तो निर्दोष है। मेरी ही धर्म -कर्म की त्रुटि के कारण मुझे यह विपदा भोगना पड़ी। प्रभु सबका कल्याण करें।’’
भूरे पंडित ने पंडित सेवाराम के मुख से जब इस तरह के उच्च विचार सुने तो वह अपराध बोध व पश्चाताप् की अग्नि में जैसे झुलस गया। पंडित सेवाराम के आगे बौनेपन के अहसास से वह आत्मग्लानि से भर उठा और उनके चरणों में लोट पड़ा। पंडित सेवाराम ने उसे उठाकर हृदय से लगा लिया।
नारायनी में नव जीवन का संचार होते ही पंडित सेवाराम का मृत सा पांडित्य चेहरा पुनः की तरह चमक उठा। जैसे उनमें नया ओज उदित हुआ हो।
और कुछ माहों के पश्चात् एक दिन।......
बाहर गाँव की यजमानी से वापस आ, चकित हो पंडित सेवाराम ने देखा - एक अस्तव्यस्त युवक, जिसकी दाढ़ी के बाल बढ़े हैं, नारायनी के पैर पकड़ने का प्रयास कर रहा है और नारायनी अपने पैर छुड़ाने की चेष्टा कर रही है।
हे परमात्मा , यह कैसा चमत्कार है। उनके नेत्र जो कुछ देख रहे है-क्या वह सत्य है? कहीं यह स्वप्न तो नहीं ? नहीं। वह जो देख रहें, सत्य है। शत प्रतिशत सत्य, कल अंधेरे के गम थे, आज उजाले के आँसू।
वह उनका दामाद था। कुसंगति में भटका, उनकी नारायनी का पति। जो अपनी पत्नी से क्षमा याचना की माँग कर रहा था।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’