अंधेरे और उजाले
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
नहीं .....
मेरी आशा ऐसा नहीं कर सकती ... मेरी आशा मेरी उन आशाओं पर तुषारापात कर धोखा नहीं दे सकती। आशा, तुम कह दो यह सब झूठ है। .... तुम चुप क्यों हो ? .... बोलती क्यों नहीं ?... तुम अच्छी तरह जानती हो, मैंने रूपयों का कभी मोह नहीं किया। अपना सर्वस्व तुम्हें ही अर्पित किये रहा - इस पर भी ... तुम बोलो आशा, नहीं तो मैं पागल हो जाऊँगा। आशा ... ! तुम बोलती क्यों नहीं ?
तभी आशा की मौन -स्थिर तस्वीर सजीव हो हँसने लगी। एक ऐसी हँसी , जिसमें व्यंग्य, उपेक्षा और उपहास का अद्भुत समन्वय था। सरोज सहम गया। दो कदम पीछे हटकर बोला - “ तुम हँस रही हो आशा ? हँसो ,खूब हँसो। गलती मेरी थी जो तुम्हारे बहकावे में आ गया। तुम्हारे उस प्यार के भुलावे में आ गया। अब जी भर के हँस लो आशा। हँसने का मौका जो मिला है। .... किन्तु आशा, तुम यह न भूलना कि आज जो कुछ तुम हो वह मेरी ही बदौलत हो। मैंने ही तुम्हें अपनी कला से संवारा है। मैंने ही तुम्हारे जीवन में मन भावन रंग भर कर सौन्दर्य और सजीवता बिखेरी है .... पर तुमसे मैंने पाया क्या ? धोखा... उपहास ....मेरे जीवन से तुम कहाँ चली गई आशा ....वह भी धोका देकर...”
“पर आशा, यह मत भूल जाना मैंने जिस तन्मयता के साथ इन हाथों से तुझे बनाया ,संवारा है इन्हीं हाथों से मैं तेरे हर रंग को नोच डालूंगा। तेरा यह मादक रूप अनूठी हँसी सब कुछ छीन लूँगा। आशा, कलाकार हूँ मैं ... यदि कृति का सृजन कर सकता हूँ तो उसका विध्वंस भी कर सकता हूँ ...! विध्वंस !! समझीं ...!!!
उस आशा के हँसते चि़त्र में अमावस की कालिमा छा गई कृति के सृतनकर्ता ने क्षण भर में ही उसकी हत्या कर दी। आशा की तो हत्या कर दी पर उसके मन की शांति ...उसके घर की शांति...?
कितनी सुंदर सुशील थी वह शांति। समाज से प्रताड़ित, दुर्भाग्य की ठोकर त्रस्त एक अबला। शहर के पास ही रहने वाली , मैट्रिक पास। वह शहरी और ग्रामीण सभ्यता की गोद में पढ़कर बड़ी हुयी। होश सम्हालते ही,अपनत्व देने वालों से बिछड़ गयी। अब इस दुनिया में उसका अपना सगा कोई नहीं था ...वह शहर आई , पर कुत्सित वृत्ति के लोगों के जाल में फँस ही गई थी। उसे अपने सतीत्व की रक्षा करना कठिन दिख रहा था - पर सरोज ने उसे जान पर खेलकर बरबाद होने से बचा लिया। उसे सहारा दिया। और ऐसा माहौल दिया जहाँ सुख शांति सुरक्षा थी। उसके घर में ही रह रही थी।
आज जब सरोज बीमार पड़ा तो शांति ने ही बड़ी आत्मीयता से उसकी सेवा की ...शांति तो अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर थी ... पर उसके आश्रय देने के उपकार के कारण अपनी जुबान कभी नहीं खोल सकी। वह सदा अपनी आत्मीयता बिखेरती रही। पर क्या सरोज इस समर्पित अभिव्यक्ति को पढ़ सका ?
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अभी सूर्य देव ने अपनी मुस्कान की प्रथम किरण को इस धरा पर बिखेरा ही था कि सरोज के कमरे में डाॅक्टर ने प्रवेश किया। सरोज बेफिक्री से सो रहा था। देखकर डाॅक्टर को प्रसन्नता हुयी। डाॅक्टर ने दीवाल में टंगी एवं स्टैंड पर रखी छोटी - बड़ी अनेक पेन्टिंग कृतियाँ देखीं जो सुन्दर सजीव मुस्कराहट बिखेर रहीं थीं। किन्तु सरोज के बिस्तर के पास तिपाई पर रखी पेंटिंग को देखा तो चौंक उठे। वह आकर्षक कृति काले लाल रंग से पुती हुई थी। मानों जैसे किसी निर्माेही ने उसका मर्डर कर दिया हो। एक सुंदर कृति की इस तरह से निर्मम हत्या !
डाॅक्टर अचम्भित रह गये ... कृति से नजर हटा डाॅक्टर ने पुनः सरोज की तरफ देखा। वह कराहते हुए करवट बदल रहा था। उसने धीरे- धीरे आँखें खोलीं और अपने पास डाॅक्टर अंकल को देख एक दम से उठने का उपक्रम करने लगा। डाॅक्टर ने इशारे से उठने के लिए मना कर दिया और उसी पलंग पर बैठ गए। बोले सरोज,-
“क्या आज फिर रात में नींद नहीं आई ? “
सरोज ने डाॅक्टर अंकल की तरफ देखा और अपनी नजर झुका ली।
डाॅक्टर पुनः बोले - “मैं जानता हॅूं , तुम रात भर सोए नहीं। यहाँ -वहाँ सिगरेट के अधजले बुझे टुकड़े बता रहे हैं कि तुमने रात जाग कर काटी है। ... यह अच्छी बात नहीं है ... अभी तुम्हें आराम की सख्त जरूरत है। अपने जीवन से इतनी बेरूखी ठीक नहीं।”
सरोज ने उपेक्षा से मुँह बिचका कर बोला- “आराम ! डाॅक्टर अंकल , मेरे इस जीवन में अब आराम नहीं ! मुझे तो अब इस जीवन नफरत हो गयी है ... नफरत ...”
“ऐसे नहीं कहते सरोज। इस तरह जीवन से कोई निराश नहीं होता। ऐसी कौन सी बात है , जिससे तुम्हें जीवन निस्सार प्रतीत होने लगा है। मुझे बताओं। तुम्हारे पिता मेरे दोस्त ही नहीं बल्कि भाई के सामान थे। अफसोस है कि वे इस दुनिया में नहीं है। मुझे तुम उनकी जगह समझ सकते हो। मैं देख रहा हॅूं , तुम किसी चिन्ता में घुलते जा रहे हो। कारण पूँछता हूँ, तो टाल जाते हो। डाॅक्टर से किसी बात का पर्दा रखना ठीक बात नहीं। फिर अपने मरीज को क्या कोई डाॅक्टर इस तरह असहाय सा मरने देगा?”
सरोज चुप रहा।
-” यदि तुम समझते हो मैं तुम्हारा अंकल नहीं तो ... तुम स्वतंत्र हो। सालों से बंधा यह नाता खत्म।”कहते हुए डाॅक्टर का गला भर आया। सरोज पर उसका असर हुआ। वह बोला “ नहीं अंकल , ऐसा मत कहिए आपका रिश्ता कैसे टूट सकता है। आपके और शांति के सिवाय अब कौन है मेरा ? “
“तब आज मैं कुछ कहना चाहता हॅूं तुमसे। सुनो, आज जो कुछ तुमने किया - वह नहीं करना चिाहिए “
“ मैंने ऐसा क्या किया अंकल ? मुझसे क्या गलती हुई ?”
“ हाँ बेटे, तुमसे गलती हुई है। सुनो बेटे, जिस तरह हम सभी को ईश्वर की पूजा करने में आनंद की अनुभूति मिलती है , उसी प्रकार एक कलाकार को कला की पूजा करने में आनंद मिलता है। जिस प्रकार मरीजों की सेवा करना हमारा सबसे बड़ा धर्म है, उसी प्रकार तुम्हारा भी कला की साधना करना धर्म है। आज तुमने अपने उसी धर्म का अपमान किया है।”
“सुनो सरोज, कलाकार यदि पुजारी है तो कला उसकी पूजा है फिर तुमने इस कला का अपमान कैसे किया ? इसको नष्ट क्यों किया ? कलाकार को कृति बनाने - संवारने का तो अधिकार है किन्तु नष्ट करने का अधिकार नहीं। तुम्हें उस लड़की से घृणा हो सकती है किन्तु तुमने तो इस निर्जीव मूक चित्र को ... विनिष्ट किया। क्या इससे तुम्हें शांति मिली ? नहीं ! तुम अभी भी उसी आग में जल रहे हो। मैं यह दावे से कह सकता हॅूं। उसी आग के कारण तुम्हारा शरीर तप रहा है और आज बिस्तर पर बीमार पड़े हो।”
“हाँ अंकल, आप सच कहते हैं। एक बार मैंने एक अद्वितीय सरोवर देखा। जिसमें सौन्दर्य की अनुपम छटा थी। उसमें बहुत से सुन्दर कमल खिले थे। हँस -हँस कर वे सब मन को मोह रहे थे। मैंने उन हँसते कमलों को देखा और उन पर चमचमाते -झिलमिलाते मोतियों को हवा के झोंकों से यहां से वहां नृत्य सा करते देखा। मन में अपार हर्ष उमड़ा। और उन अमूल्य मोतियों को पाने के लिए दौड़ा। किन्तु मेरे छूते ही वे सब मोती बिखर गए। भला वे ओस की बूंदे भी कभी मोती बन सकतीं हैं ? कभी नहीं अंकल। मेरा वह मात्र भ्रम ही तो था।”
“सरोज, मैं समझ नहीं सका तुम्हारी बात।”
“तुम इसे नहीं समझ सकते अंकल।”
“ठीक है बेटा , शायद शांति बेटी जानती होगी। मैं उसी से पूंछ लूंगा।”
“ऐसा मत करना अंकल। उस बेचारी का दिल टूट जाएगा। वह पहले से दुर्भाग्य की ठौकर खाई हुई है। उसके शांत जीवन में अशांति छा जाएगी । उससे मत पूंछना अंकल।आप जानना ही चाहते हैं तो सुनिए “-
“आज से दो साल पहले जब मैं एम. ए. पास कर चुका था उस समय कुछ आर्थिक परेशानियाँ थीं। एक दिन मेरा सहपाठी रमेश आया। बोला सरोज तूने एक बार कहा था कि - यार रमेश , मेरी पेन्टिग में सहायता कर ताकि वह अच्छे भाव में बिकने लगे। तू तो जानता है कि आज के युग में मार्डन कलाकृतियाँ ही जनता मांगती है। उसे ऊँचे दामों में खरीद कर गौरव अनुभव करती है। क्या मिलता है तुझे ये पिचके गाल खाली पेट भूख से तड़पती कराहती जर्जर मानव आकृति के चित्रण से। क्या सरकार ने आर्थिक प्रतिष्ठाा संम्पन्न व्यक्तियों ने कभी तेरी स्वाभाविक अभिव्यक्ति का मुल्य आँका ? इसलिए मेरे दोस्त अब तू भी इस परिवर्तन के युग में अपना चोला बदल ले .... अंततः मुझे भी अपने आदर्शों एवं सिद्धांतों को छोड़ना पड़ा। रमेश बोला - देखना मेरे यार , तू भी बहुत जल्द धनी हो जाएगा।”
“वह कैसे “- मैंने पूँछा।
“ बताता हॅूं। आज शाम को मैं एक सुंदर आकर्षक लड़की आशा से तुमसे मिलाऊँगा। उसे तुम अपने मनचाहे रंगों में डुबोकर एक से एक खुबसूरत कलाकृतियों की रचना कर सकते हो। एक ओर होगा एक सुडौल मनमोहक समुद्र जैसी अठखेलियाँ करता हुआ शरीर तो दूसरी ओर होगी तुम्हारी कला। जब दोनों का संगम होगा तो ऐसी कलाकृति का निर्माण होगा कि तहलका मच जाएगा। तुम्हारे एक हाथ में होगी सौन्दर्य साम्राज्ञी आशा और दूसरे हाथ में होगी भरपूर धन दौलत। कैसा प्रस्ताव है मेरा ?”
अंततः मुझे उसका प्रस्ताव भा गया। उस दिन शाम को आशा से मुलाकात होने पर स्वर्गीय आनंद मिला। अपने मन में समाई वर्षों की विस्मृत कलाकृति को सामने देख कृत- कृत हो गया। कैसा अनुपम सौन्दर्य दिया था, विधाता ने उसे।
“मैंने उसे कला के हर सांचे में ढाला। नित नई सजधज के साथ उस आलौकिक सौन्दर्य को कृतियों के द्वारा प्रस्तुत करता रहा। मेरी कृतियों की धूम मच गई। माँग बढ़ गई। दौलत बरसने लगी और रमेश की बात सत्य सिद्ध हुई। वहीं मेरे मन में एक विशाल मंदिर का निर्माण भी हो चुका था और उस मंदिर की आराध्य देवी थी एक मात्र आशा।”
“किन्तु अंकल ... मेरे जीवन की वह आशा की पतवार मंझधार में ही गिर कर खो गई। और यह मांझी उन तूफानों में ऐसा फंसकर रह गया कि अब उसके सामने केवल गहन अंधकार ही शेष है। अब कहाँ जाए ? किधर जाए? बड़े जतन से बनाया वह मंदिर, टुकड़े टुकड़े हो होकर बिखर गया।”
डाॅक्टर ने कहा - “बेटे सरोज,नियति पर किसका बस है ? किन्तु मैं यह जानता हॅूं कि जीवन बड़ा अनमोल है। इन छोटे बड़े झंझावातों से हार मानकर इस नष्ट करना बुद्धिमानी नहीं। जीवन में शांति ही सुख समृद्धि की अनमोल कुंजी है मेरी बातों को सच्चे मन से शांति पूर्वक सोचना और चिंतन करना। बुरे अतीत को विस्मृत कर वर्तमान को संवारना ही जीवन है या उसे यों कह सकते हैं कि अंधेरों से निकलकर उजाले की ओर बढ़ना ही सच्चा जीवन है।”
सरोज अपनी घुटन डाॅक्टर अंकल को प्रगट कर चुका था। उसके जीवन में आया तूफान अब शांत हो चुका था।सरोज धीरे -धीरे स्वस्थ हो चला था।
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एक दिन सरोज को डाकिया एक पत्र दे गया था। आशा की लिखावट से वह परिचित था। उसने उसे कौतूहल वश खोल कर पढ़ा, लिखा था -
प्रिय सरोज,
तुमने शायद मुझे अच्छी तरह नहीं समझा। इसलिए इस आशा से प्यार की आस संजोये रहे। मुझे मालूम है तुम इस गम को बर्दास्त न कर सकोगे। कलाकार हो न, और एक भावुक कलाकार। मैं तुम्हारी भावनाओं से खूब खेली और क्या करती ? मजबूर मैं भी थी। वह प्यार एक धोखा था - फरेब था पर वास्तव में मैं सिर्फ तुम्हारी कला पर ही समर्पित थी।
तुम्हरे पास कला थी तो मेरे पास रूप। रमेश यह अच्छी तरह जानता था कि दोनों के संयोग से अनूठी कृतियों का निर्माण हो सकता है। दौलत अपने आप आकर कदम चूमेगी। तुम शायद रमेश को अच्छी तरह से नहीं जान पाए थे। वह भी तुम्हारे समान उस समय दुर्दिन से पीड़ित था। वह कभी धनवान था, पर दुर्भाग्य ने उसे तहस नहस कर दिया था। उसने मजबूरी में तुमसे मेरी मुलाकात करवाई थी। पर मैं तो पूर्व में ही रमेश के समक्ष अपना सब कुछ अर्पित कर चुकी थी। वह मेरा पति था जिसने मेरी इज्जत बचायी थी।
वह दिन आज भी मैं नहीं भूल सकती, जब मेरे पिता जी -सेठ धनीराम के पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ा रहे थे और सेठ अपनी दहेज मांग पूरी न होने की वजह से मेरी डोली को ठोकर मार कर चले गये थे। ऐसे समय रमेश ने मेरा हाथ थामा था। हम दोनों ने दुर्दिनों की अनेकों बार मार खाई। मैं टूट सी रही थी एक दिन चाहा जहर खा कर मर जाऊँ। किन्तु रमेश ने फिर मुझे बचा लिया। उसमें अभूतपूर्व साहस है। फिर उसने तुमसे मुलाकात करायी।
ईश्वर जानता है, मैंने तुमसे कभी प्यार नहीं किया। मैंने सदा अपनी सुंदरता बेची है, शरीर नहीं। शरीर पर तो सदा रमेश का अधिकार रहा। रमेश का मानना था कि कलाकार की कला में तभी सच्चा निखार आता है - जब वह उस पर अपना हक समझे और सच्चे दिल से चाहने लगे। इसलिए मैंने इस राज को राज ही रहने दिया ... मैंने सच्चे दिल से वह भूमिका अदा की बस अपने केवल दुर्दिनों के लिए। तुम्हारा यह उपकार मैं जीवन भर न भुला सकूंगी। जिसके कारण आज हमारे दुर्दिन के दिन बीत गये हैं। तुम्हारे उस विश्वास और प्यार का सामना करने की मेरी हिम्मत नहीं थी। इसलिए यह पत्र लिखना पड़ रहा है।
मुझे मालूम है कि शांति तुमसे प्यार करती है। वह तुम्हारे जीवन में आना चाहती है। मेरी तुमसे प्रार्थना है कि उसे अपनाकर मुझे भुलाने की कोशिश करना। आशा है तुम वर्षों से इंतजार करती, शांति को अपना लोगे और मुझे क्षमा करोगे।
तुम्हारी शुभचिंतक
आशा
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सरोज के बहते आँसुओं ने आशा के चित्र पर पुती कालिमा को धो डाला था। तभी कमरे में दवाई लिए शांति ने प्रवेश किया। उसके चेहरे पर प्यार भरी एक समर्पित मुस्कान थी। उसकी आँखों में चंचलता स्पष्ट झलक रही थीं और अपने सुर्ख गुलाबी आँखों में वह प्यार की आशाएँ संजाए थी।
आज सरोज ने उसकी आँखों की सच्ची भाषा पढ़ी। अचानक वह उठा और दौड़कर शांति को अपने सीने से लगा लिया। उसके मन मंदिर की आराध्या केवल यह शांति ही थी, जो वर्षों से उसकी प्रतीक्षा कर रही थी।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
(युगधर्म प्रकाशित 1973)