अनहोनी
सरोज दुबे
सरोज दुबे
“नेहा कोई फोटो है तेरे पास?” बड़े चाचा ने एक दिन पूछा था।
“किसकी ?”
”अरी तेरी और किसकी ?”
”हाँ, है तो। पिछले दिनों परीक्षा फार्म में लगाने के लिए खिंचवाई थी न! उसने अपनी फोटो लाकर दिखाई थी।
“हिस्ट ! यह फोटो नहीं!”
दूसरे दिन चाची उसे अपने हाथों से काले और सफेद पिं्रट की फूलों वाली साड़ी पहनाकर फोटो स्टूडियो ले गई थी। स्टूडियो वाला पहचान का था। चाची ने फोटो अच्छा खींचने के लिए उसे कई बार ताकीद दी थी।
उसी दिन रात को बड़े चाचा ने घर आकर माँ से कहा था, ”भाभी, नेहा के लिए मैंने एक लड़का देखा है। लड़का डिप्टी कलेक्टर है, अपने बलवंत से अच्छी दोस्ती है उसकी, पर सरदार है लड़का।”
सरदार है तो क्या हुआ! कितनी अच्छी पोस्ट पर है। रानी बनकर रहेगी नेहा। माँ को भला क्या आपत्ति हो सकती है?
”सुन, नेहा। चाचा एक सरदार लड़के से तेरी बात चला रहे हैं। ”हँसी छुपाए नहीं छुप रही थी।
”चल जा यहाँ से, अपना काम कर।” उसने डपट कर कहा।
“देख लेना, भैया, अच्छी तरह। नहीं तो अपने राम को तो सारे सरदार एक जैसे दिखाई देते है।ं”
“चुप बेशर्म! चचा सुनेंगे तो क्या कहेंगे!” वंदना खिलखिलाती हुई भाग गई थी।
वैसे सरदार लड़के उसे भी पसंद नहीं थे फिर भी पता नहीं होंठ रह रहकर क्यों मुस्कुरा उठते थे। काॅलेज में चौथा पीरियड आॅफ था। वह नीलू के साथ एक पेड़ के नीचे बैठी बतिया रही थी।
“किस बात की हँसी आ रही है तुझे ?” ”नहीं तो!” वह हँस दी थी।”
“छुपा रही है। बात तो कुछ जरूर है।”
“कुछ नहीं, री। चाचा सरदार लड़के से बात चला रहे हैं। मुझे तो सरदार बिल्कुल पसंद नहीं है। वैसे वह डिप्टी कलेक्टर है।”
“उसकी पोस्ट तो देख, पगली ! और सरदार होना भी कोई बुरी बात है क्या?” वह मुस्कुरा कर रह गई थी।
छोटे चाचा बलवंत भी डिप्टी कलेक्टर हैं। बड़े चाचा ने उन्हीं के पास फोटो भिजवा दी थी। कुछ दिन बाद बलवंत चाचा का उत्तर आया था- “उसे फोटो पसंद है। अगले महीने वह मेरे साथ नेहा को देखने आएगा।”
मन में पता नहीं कैसी मधुर धुन बजती रहती। पुस्तकें पढ़ते पढ़ते मन क्षण भर को कहीं खो जाता। बात करते करते कोई बात याद आकर मीठी सी सिरहन भर देती। उस दिन वह नीलू के साथ काॅलेज से लौट रही थी। अचानक पैर ठिठक गए। वे ब्यूटी कार्नर के सामने थी। उसने दुकान से लिपस्टिक और एक फेस पावडर खरीदा। नीलू ने दुकान से निकलते ही चिकोटी काटी। “अरी, यूँ ही गुलमोहर हुई जा रही है। अब लिपस्टिक लगाकर क्या सरदार को बिल्कुुल ही मार डालेगी?”
“चाची के लिए खरीदी है, नालायक!” उसने बनावटी गुस्सा दिखाकर झूठ कह दिया था। अपने को सजाने सँवारने को कितना मन करता था! दिल करता था, चाची की सब भारी भारी साड़ियाँ पहनकर देख ले। कई बार वह चुपके से ड्रेसिंग टेबिल के सामने खड़ी हो जाती। घर में चुड़ैल वंदना थी न! ताना देने से चूकती थोड़े ही थी।
उस दिन वह प्रेक्टिकल देने काॅलेज जा रही थी। पता नहीं मन में क्या आया वह कुछ सोचती सी खड़ी रह गई। वंदना दुष्ट कहीं छिपी देख रही थी। झट सामने आकर बोली -“देखना नेहा, प्रेक्टिकल अच्छा करना। सरदारजी के ख्याल में रह गई तो सब सत्यानाष हो जाएगा, हाँ...।”
वह उसे मारने दौड़ी थी। लेकिन वह षैतान मिलती है, कभी! झट कमरा बंद करके खिड़की से चिढ़ाती रही। वार्शिक परीक्षा को सिर्फ एक महीना रह गया था। वह वंदना के साथ पढ़ाई कर रही थी। पढ़ते पढ़ते वंदना ने अचानक किताब टेबिल पर रख दी और जम्हाई लेते हुए बोली- “बस मैंने तो एक प्लान बना लिया। ”शायद पढ़ाई से संबंधित कोई बात होगी, उसने सोचा। आँखों के सामने से काॅपी हटा कर पूछा, ”क्या?”
”तू सरदार से शादी कर ले, नेहा। मैं उसके लिये स्पेशल पगड़ी बनवा दूँगी। न पहचान सकने की झंझट खत्म !”
“लगता है, तेरे दिमाग में सरदार ही घूमता रहता है। अच्छा है, तेरी शादी की बात नहीं है। वर्ना तुझे अभी तक पागलखाने में भर्ती करना पड़ता। अब चुप बैठकर पढ़ समझी !”
“मेरे चुप रहने से क्या होता है ! तेरा दिमाग तो चालू ही रहता है कि नहीं।” ”बस! मूर्ख के साथ पढ़ाई नहीं हो सकती।” उसने चिढ़कर कहा और काॅपी पटक कर चल दी।
गुनगुनाते हुए उसने स्टोव जलाया। गैस का सिलेंडर खत्म हो चुका था। चाची सिगड़ी पर कुकर लगाकर पड़ोसन से बातें कर रही थी। चाय बनाकर वह चाय की प्यालियाँ लेने को खड़ी हुई थी। जाने कब उसकी मैक्सी स्टोव को छू गई, वह चाय छानने बैठी तो पैर जलने से लगे। उसने पलट कर देखा मैक्सी तेजी से जल रही थी।
“हाय मरी वंदना, यहाँ आ!” उसने वंदना को पुकारा। दोनों बहनें आग बुझा बुझाकर हार गई। दोनों के हाथ झुलस गए पर आग अपनी संपूर्ण विकरालता से बढ़ती ही जा रही थी। आखिर हारकर वह जोर से चीखी- “चाचा बचाओ चाचा...!”
बड़े चाचा बरामदे में कुर्सी डाले अखबार देख रह थे। चीख-पुकार सुनकर वे बदहवास दौड़े। जलती मैक्सी को फाड़कर उन्होंने उसे जीवित बचा लिया था। फिर हाय... हाय..., आँसू और सिसकियों के बीच रोते तड़पते हुए अस्पताल में भर्ती हुई थी। असीम वेदना, और मर्मांन्तक पीड़ा के मारे वह कई दिनों व्याकुल रही। पर मन में आशा थी- चिकित्सा विज्ञान ने इतनी प्रगति की है कि शरीर के दाग जरूर मिट जायंेगे। असहनीय यातना के बीच उसका मन कहीं खो जाता। लगता कोई बहुत निकट है-समीप है।
दौरे से लौटने पर बलवंत चाचा को उसे जलने का समाचार मिला था। वे भी उसे देख आये थे। मन किसी आस में था। चाचा कुछ कहें, अब कहेंगे, अभी कह देंगे। पर चाचा केवल अफसोस करते रहे।
धीरे-धीरे यथार्थ स्थिति स्पष्ट होती गई पिंडलियों के घाव सूख ही नहीं रहे थे। लगभग महीने भर असहनीय कष्ट झेलने के बाद जब वह घर लौटी तो किसी तरह कमरे में दो चार चक्का लगा सकने के काबिल थी। जमीन पर बैठ सकना भी मुश्किल था। सारा परिवार आँखों में आँसू और मन में विशाद लिए मौन था। कुछ क्षणों में जो छीन लिया था, उसे फिर से पा सकना असंभव था। सपने टूट चुके थे। अरमानों की नाव किनारे के पास आकर डूब गई थी। पढ़ाई का एक वर्ष भी बर्बाद हो गया था।
समय बीतता गया। धीरे धीरे जीवन सामान्य रूप से चलने लगा। वैसे तो माँ बड़े चाचा से मन ही मन बहुत नाराज थीं, पर कई सुविधाओं का ख्याल करके उन्होंने उसे चाचा को यहाँ ही रहने दिया था।
सच तो यह था कि बडे़ चाचा ने ही उसे बचा लिया था। उनके हाथ तक झुलस गए थे। अस्पताल का सारा खर्च भी उन्होंने ही वहन किया था। फिर भी माँ की नजरों में अपराधी वही थे,...जस अपजस विधि हाथ!
वंदना उसके साथ ही थी। माँ दो एक दिन में उसे देखने आती रहती। उस दिन वे घर लौट रही थीं कि चाचा रोक कर बोले, ”भाभी, बहन मेघा के लिए कई बार कह चुकी है। उसे वही सरदार लड़का बताए देता हूँ - डिप्टी कलेक्टर। नेहा का तो अब अभी...” वह बोलते-बोलते रुक गए।
हाँ, नेहा का तो अब भगवान ही मालिक है!” माँ ने ठंडी साँस ली थी।
नेहा ने बिस्तर पर लेटे-लेटे सब सुना। वंदना सारे घर से छिपकर खिड़की की सलाख पकड़े, कितनी ही देर रोती रही। उसने देखकर भी अनदेखा कर दिया। जली टाँगों वाली उठने बैठने में असमर्थ लड़की का वह सरदार डिप्टी कलेक्टर करेगा भी क्या? चाचा का सोचना सही ही तो था। पर मन क्यों नहीं मानता?
अकेले मंे पलंग पर लेटे हुए कितनी ही स्मष्तियांँ सजीव हो उठती हैं। आज सुबह चाचा किसी से कह रहे थे, “मेघा को देखने आने वाला है आज, वही सरदार लड़का।” जाने कैसा लगा था उसे, सुनकर। कैसे होते है, मन के बंधन! न कभी उसे देखा, न सुना फिर कैसा बंधन! कैसा मोह! कैसी आत्मीयता! कैसा अधिकार!
मेघा को देखकर लौटते समय बलवंत चाचा मित्र को घर लाने वाले हैं। वंदना और चाची रसोई में लगी हैं। लेकिन समय से बहुत पहले की बड़े चाचा की गाड़ी दरवाजे पर रुकती है। वह उठकर खिड़की के पर्दे को सरका कर देखती है- दोनो चाचाओं के साथ मेघा के बड़े भाई हैं जसवीर भैया और वह सरदार डिप्टी कलेक्टर -ऊँचा पूरा गोरे रंग का सुदर्षन युवक! वह झट पर्दा छोड़ देती है।
ड्राईंग रूम में बैठकर सब बातें कर रहे हैं, हँसी और ठहाके बीच-बीच में गूँजते रहते हैं। वह जो आज के समारोह की नायिका होने वाली थी, मलीन मुख लिए शून्य में कहीं कुछ खोजती सी चुपचाप लेटी है। मन किसी विशेष आवाज को लक्ष्य कर रहा है। रसोई में प्लेटों प्यालियों की आवाजें बढ़ती जा रही हैं।
”काफी देर हो गई, अब घर चला जाए”। जसवीर भैया कुछ देर बाद बलवंत चाचा से कहते हैं।
“बलवंत, यार में तो तेरी भतीजी नेहा को देखने आया था, कैसी है वह ! -अचानक सरदार ने पूछा।
बलवंत चाचा चतुर हैं, कोई दूसरी ही कहानी गढ़ कर सुना देते, पर बड़े चाचा है न पक्के युधिश्ठिर। ”यहाँ बगल वाले कमरे में ही तो है, बहुत बड़ी ट्रेजडी हो गई उसके साथ।”-बड़े चाचा सहसा बोल गए।
सरदार का यह सौजन्य किसी को नहीं भाया। बलवंत चाचा तो बड़े धर्म संकट में पड़ गये। भीतर जाकर भाभी से बोले,-“भाभी, सरदार नेहा को देखने के लिए कह रहा है।”
पता नहीं सरकार भी कैसे-कैसे लोगों को अफसर बना देती है। इतनी भी अक्ल नहीं है, उसे? अभी महीने भर पहले नेहा से ही शादी की बात चल रही थी उसकी। जिस लड़की को देखने आया है, उसे देखे जाकर।” चाची लाल-पीली होती हुई बोली।
आखिर बलवंत चाचा ने ही हिम्मत की। कमरे में आकर धीरे से बोले- “नेहा, सरदार यहाँ तक आया है, तो मेरी दोस्ती की वजह से तुझे देखना चाहता है। अगर तुझे बुरा लगता हो तो मैं मना किए देता हूँ...कर दूँ मना ?”
चुप रह गई! न ’हाँ’ कह सकी, न ’ना’। मन ही मन कहा- ’नेहा, अपने ही घर में क्यों न रही। इस आफत से तो बचती। यहाँ तो किसी की भावनाओं की कोई कीमत ही नहीं है। चाची ने दुपट्टा लाकर गले में डाल दिया। चादर ठीक कर दी। ताकिए का सहारा लिए वह उदास बैठी थी।
एकाएक कई लोग कमरे में आ गए। उसकी नजर धरती पर गड़ सी गई।
”थोड़ा-बहुत चल फिर लेती है अब। हम लोगों को तो इसके बचने की उम्मीद ही नहीं थी।” -बड़े चाचा बोले।
“आराम करने दीजिये अभी। मुझे कोई जल्दी नहीं है। अगले वर्ष शादी करेंगे।”
सूखती फसल पर एकाएक वर्षों की फुहार सी हुई। उसे तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। सबके सब भौंचक्के से सरदार का मुँह देख रहे थे। ऐसी सुखद अनहोनी भी होती है कभी।
सरोज दुबे
( प्रकाशित- मधुप्रिया जुलाई 1982)