अन्तराल के बाद
सरोज दुबे
सरोज दुबे
अपने-आपको किसी तरह प्रकृतिस्थ कर मैंने नीचे गिरी पुस्तक उठाई।
“जो हुआ सो ठीक है। पर अब तुम इस बात की चर्चा कहीं मत करना। इससे मेरी तो हेठी होगी ही, पर उन्हें भी कोई सज्जन नहीं कहेगा।” मैंने कहा ।
“नहीं मैडम, मुझे खुद शर्म आ रही थी यह बात कहते वह तो आपने...”
“नहीं तुम्हारा कोई दोष नहीं। पुस्तक ले जाओ।” मैंने बात काटकर कहा और पुस्तक उसकी ओर सरका दी।
प्रभात पुस्तक लेकर चला गया। मैं अगले पीरियड में रीडिंग लेती रही।
जब तुषार ने दूसरा पेज पढ़ना आरंभ किया तो लड़कों में फुसफुसाहट होनी लगी। अचानक हेमंत ने खड़े होकर कहा -“मैडम, तुषार तो पढ़ता ही चला जा रहा है!”
मुझे होश आया।
‘अच्छा, अब तुम पढ़ो।” मैंने तुषार के पास बैठे आवेष से कहा।
मेरी आँखें पुस्तक पर जमीं थी, परन्तु मन वर्षों पुरानी बीती घटनाओं में उलझता चला जा रहा था। याद आ रहा था ....
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लगभग पाँच वर्ष पहले...
एक दिन बाहर आकर देखा तो जावेद थे।
“सर, हैं या नहीं?” -जावेद इन्हें पूछ रहे थे।
“अभी तक तो कालेज से नहीं लौटे।”- मैंने कहा।
“अच्छा एक गिलास पानी तो पिलाईए। जरा जल्दी में हूँ।”
“ऐसा कौन सा तीर मारने जा रहे हैं।”
“पहले पानी पिलाईए, फिर बताता हूँ।”
पानी लेकर लौटी तो देखा, जावेद सोफे पर बैठे कोई पुस्तक देख रहे हैं। पानी पीकर बोले -“आपके स्कूल के वर्माजी कई महीनों से बीमार हैं, आपको तो पता ही होगा। उन्हीं के इलाज के लिए दौड़-धूप कर रहा हूँ।”
“क्या हो गया, उन्हें ?”
“बेचारा वैसे ही हार्ट पेसेंट है। इसीलिए शादी-वादी भी नहीं की उन्होंने। कई महीनों से बीमार हैं। कितने ही डाॅक्टरों को दिखा चुका। कोई कहता है हार्ट में सूजन है तो कोई प्लूरसी बताता है।”
और, फिर एक बार जावेद साहब शुरू हुए तो बस हो ही गए।
वर्मा जी यहाँ अपने भाई-भाभी के पास रहते हैं। उनकी बीमारी के कारण वे लोग भी बहुत परेशान हैं। वर्मा जी का शेष परिवार पटना में रहता है। वे तो यात्रा करने में असमर्थ हैं, इस कारण उनकी माता जी खुद पटना से यहाँ आई हैं। इसी प्रकार की कुछ बातें जावेद ने बताई थीं।
फिर उठते-उठते बोले थे-“आप भी देखा आईये, एकाध बार उन्हें। स्कूल के रास्ते पर ही तो पड़ता है, उनका घर।”
“अच्छा!” कहकर मैंने उनसे छुट्टी पाई ।
वर्मा जी मेरे स्कूल में षिक्षक थे। शुरू -शुरू मैंने उनकी खूब कीर्ति सुनी थी। पूरे स्कूल में अंग्रेजी में मास्टर डिग्री वाले अकेले ही षिक्षक थे। वे स्वयं अंग्रेजी में नाटक लिखते थे और उनका निर्देषन भी खुद ही करते थे। स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम को सफल बनाने में उनका बड़ा हाथ रहता था। प्रधानाध्यापक स्वयं उनकी प्रतिभा के कायल थे, लेकिन अध्यापन के प्रथम वर्ष में ही मुझे उनके संबंध में एक-दो ऐसे कटु अनुभव हुए जिनके कारण जावेद की बातें भी उनके प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने में विफल रहीं।
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एक बार वार्शिक परीक्षा के समय की बात थी। मैं इन्विजिलेटर थी ओर वे रिलीवर। एक दिन मैं रूम में लौटी तो वे एक छात्र की ओर संकेत करके बोले-“देखिए, यह लड़का अभी कॉपी कर रहा था। आप इसकी आन्सरबुक पर लिख दीजिए।”
“आपने इसे नकल करते पकड़ा है। आप ही लिख दीजिए।” मैंने सहज ही कहा ।
उस समय तो उन्होंने उस छात्र की कॉपी पर चुपचाप ‘कॉपी’ लिखकर साइन कर दिया पर दूसरे दिन रिलीव करने आए तो बोले- “आप अपना काम मुझे बताती हैं। आपके कारण कल मुझे हेडमास्टर की डाँट खानी पड़ी।”
मैं चुप ! मैंने उनसे कौन-सा अपराध करवा लिया, जिसके कारण उन्हें डाँट खानी पड़ी। बात मेरी समझ में ही न आई ।
दूसरी घटना भी वार्शिक परीक्षा के ही दिनों की है। मार्क-लिस्ट बनाते समय मैं एक अनुपस्थित छात्र के रोल नंबर के सामने अनुपस्थित लिखना भूल गई। मेरी अनुपस्थिति में इस बात को लेकर उन्होंने खूब हल्ला मचाया था। दूसरे दिन मुझे इस बात का पता चला। नए लोगों के प्रति उनकी यह असहिष्णुता उस दिन बहुत खटकी थी।
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एक बार हमारे पति महोदय ने कहा-“बेचारे वर्मा जी की हालत बहुत खराब है !”
“मैंने तो सुना था, वे पटना जाने वाले हैं। गए नहीं ?”
“पटना जाने लायक हालत भी है, उनकी ? कल मैं जावेद के साथ उन्हें देखने गया था। बहुत निराश थे। कह रहे थे कि अब जिंदगी का कोई भरोसा नहीं। थोड़े ही दिनों का साथ है, बस !”
बोलते-बोलते उनका स्वर भींग गया और मैं भी द्रवित हो गई। सच में ही बेचारे परदेश में पड़े हैं। आजकल भाई-भाभी किसके होते हैं ? और, संसार तो ऐसा निश्ठुर है कि चलने वाले के साथ सब चलते हैं पर गिरनेवाले के साथ न कोई रुकता है और न पलटकर देखता ही है ! सुनकर मेरे मन की सारी कड़ुवाहट पता नहीं कहाँ चली गई।
उस दिन निश्चय कर लिया था कि स्कूल लौटते समय उन्हें देखते हुए ही लौटँूगी। दूसरे दिन एक अजीब से संकोच से बँधे पैरों को नित्य के परिचित मार्ग से जबरन ठेलती सी मैं उस गली में मुड़ गई जहाँ वे रहते थे ।
एक छोटी सी गली की कई उपषाखाएँ निकली थीं, वहीं एक द्वार पर नेम प्लेट लगी थी-‘सी.आर. वर्मा, एम.ए.,बी.एड.’ मैंने धीरे से दरवाजे पर दस्तक दी। कुछ देर बाद एक वृद्धा ने द्वार खोला।
“ वर्मा जी यहीं रहते हैं ? ”-मैंने पूछा।
“हाँ।” वे बोलीं ।
तभी अंदर से उनकी परिचित आवाज आई -“आईए मैडम आईए।”
कमरे में एक ओर पलंग पड़ा हुआ था। उस पर वे पद्मासन लगाए बैठे थे, उन्हें देखकर यह विश्वास करना कठिन था कि वे इतने दिनों से दारुण व्याधियों से पीड़ित हैं। साँवला रंग कुछ प्रीताभ हो गया था। मुख पर एक प्रकार की चमक थी, जैसी कि अक्सर शरीर पर सूजन आने पर दिखाई देती है। उनके पलंग के पास दो कुर्सियाँ पड़ी थीं। उन्हीं में से एक को खींचकर मैं बैठ गई।
“कहिए मैडम, कैसा चल रहा है, स्कूल ?” उन्हांेने ही बात शुरू की।
“ठीक ही चल रहा है ! कैसी तबीयत है आपकी ?”
“तबीयत ! वह तो वैसी ही है !” उनका स्वर कुछ धीमा हो गया।”
“ईश्वर पर विश्वास रखिए, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।”
“लेकिन ऐसा कितने दिन चलेगा मैडम ! आखिर स्कूल भी कब तक तनख्वाह देगा ? कितने डाॅक्टरांे से इलाज करवा चुका परंतु कोई लाभ नहीं है।”
उनका चिंतातुर होना बहुत ही स्वाभाविक था। परिस्थितियों ने उन्हें दीनता की हद तक पहुँचा दिया था। वैसे वे सहज बने रहने की पूरी चेष्टा कर रहे थे। शायद एक महिला के सामने अधीर होना उन्होंने उचित न समझा होगा।
“जब सब सहारे टूट जाते हैं तब ईश्वर सहारा देता है। एक आयुर्वेदिक डाॅक्टर मेरे परिचित हैं। कई असाध्य रोगों का उन्होंने सफल इलाज किया। आप उनका इलाज करवाकर देखिए। मैं जावेद के हाथ उनका पता भिजवा दूँगी।” मैंने उन्हें हिम्मत बँधाते हुए कहा था।
“अच्छा!” वे आस्थापूर्वक बोले।”
फिर वे इधर-उधर की बातें करते रहे। स्कूल के षिक्षक शुरू में तो आते थे, पर अब भूले भटके ही आते हैं। अब ज्यादा समय इसी तरह गुजर जाता है। अब तो कोई पुस्तक पढ़ने की भी इच्छा नहीं होती। मन एकदम उदास हो जाता है। कमरे में घुटन सी होती है, लेकिन बाहर निकलकर टहलने तक की सामथ्र्य नहीं है। अब हमारे बहुत से कार्य जावेद ही करते हैं।
जावेद के संबंध में उन्होंने बहुत आत्मग्लानि का अनुभव करते हुए बताया- “क्या बताऊँ मैडम ! जावेद ने मेरे ही साथ बी.एड. किया था। उस समय वह मुझे बिल्कुल नापसंद था। उसने मुझसे कई बार एक पुस्तक माँगी, पर मैंने अंत तक उसे वह पुस्तक नहीं दी। आज वह बात सोचकर बड़ा पश्चाताप होता है।
“वैसे आपके भाई साहब भी तो हैं न ? मैंने पूछा ।
“हैं तो ! पर अब सब...” वे बोलते -बोलते रुक गए। पारिवारिक वातावरण दिन पर दिन कटु होता जा रहा था। यह मैं बिना कहे ही समझ गई।
सूर्य का प्रकाश क्षीण होता दिखाई दिया तो मैंने उनसे आज्ञा ली ।
उनकी आँखों में कृतज्ञता झाँक रही थी। कई बार हम जो नहीं कह पाते वह भी हमारी आँखें कह देती हैं। वैसी ही कुछ बात थी। उन्होंने पुनः आने का आग्रह भी किया था।
मैंने भी सोचा था कि अगले सप्ताह उन्हें देख आऊँगी, पर कुछ परेशानियाँ ऐसी आईं कि मेरा दुबारा जाना संभव नहीं हो सका। लगभग पंद्रह दिन बाद जावेद ने बताया था कि वे पटना चले गए ।
उस दिन मेरे आश्चर्य की सीमा न रही, जब पटना से इनके नाम वर्माजी का पत्र आया था। उन्होंने पत्र द्वारा हम दोनों के प्रति आभार व्यक्त किया था। उन्होंने लिखा था- “आप लोगों की शुभ कामनाओं की बदौलत ही में जीवित हूँ।” जब इन्होंने पत्रोत्तर लिखा तो मैंने भी उसी पत्र में ‘प्रिय भाई’ कर मधुर संबोधन देकर कुछ पंक्तियाँ लिख दी थीं। उनके एक दो पत्र और भी आये थे। उन पत्रों से पता चला था कि उनका स्वास्थ्य पहले की अपेक्षा कुछ ठीक है। फिर एक-एक करके... कई महीने गुजर गए, उनका कोई समाचार नहीं मिला।
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कई महीने बाद एक दिन अचानक स्कूल में “नमस्ते मैडम !” कहकर उन्होंने मुझे एकदम चैंका दिया। वे पहले की अपेक्षा दुबले हो गए थे। रंग भी कुछ गहन हो गया था। पर वे स्वस्थ हो गए थे, यही सबसे बड़ी बात थी। पटना में किसी आयुर्वेदिक डाॅक्टर के इलाज से उन्हें लाभ पहुँचा था।
इसके बाद जब उनसे भंेट होती मैं प्रायः उनके स्वास्थ्य के विषय में पूछ लेती। फिर कुछ दिनों बाद हमारा संबंध केवल नमस्ते तक रह गया। आखिर अच्छे-भले नौकरी करते आदमी से रोज-रोज स्वास्थ्य के विषय में क्या पूछती। इसके बाद धीरे-धीरे यह संबंध भी टूट गया। जब कोई बहुत आवश्यक बात होती तभी हम लोगों में वार्तालाप होता। षनैः षनैः उनकी आँखों से परिचय के चिन्ह तक विलीन हो गए।
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चार- पाँच वर्ष गुजर चुके थे। कल ही की बात है।
हमारा स्कूल अब जूनियर कॉलेज बन चुका था। स्कूल के जूनियर कालेज बनने के कुछ अच्छे परिणाम अवश्य हुए पर एक दुश्परिणाम यह हुआ कि छात्रों में अनुशासनहीनता बहुत बढ़ गई। विशेशकर जूनियर कॉलेज के विद्यार्थियों की शरारतों के कारण स्कूल के षिक्षक बहुत नाराज थे।
एक दिन जूनियर कॉलेज के कुछ लड़के मेरी कक्षा के सामने से कई बार चिल्लाते हुए गुजरे। मैं ‘अलंकार’ पढ़ा रही थी। कॉलेज के लड़कों की इस हरकत से मुझे बड़ा गुस्सा आया। कक्षा से बाहर निकलकर मैंने उन्हें बुरी तरह डाँटा। अचानक मेरी दृष्टि सामने रूम नंबर दस के द्वार पर खड़े वर्माजी पर गई। जो इन लोगों का तमाशा देख रहे थे। तभी घंटी बज गई। मैं अपनी कक्षा में लौट आई और वे लड़के उसी कक्षा में चले गए, जहाँ वर्माजी खड़े थे ।
वर्माजी वैसे ज्यादा सीनियर तो नहीं थे परंतु अंग्रेजी में वे अकेले ही एम.ए. थे । इस कारण अंग्रेजी का लेक्चरर बनने का अवसर उन्हें ही प्राप्त हुआ था। मैंने सोचा, चलो अच्छा हुआ, जो उन्होंने भी यह सब देख लिया। कम से कम आज वे लड़कों को अवश्य कुछ न कुछ कहेंगे।
दूसरे दिन कॉलेज के उन्हीं विद्यार्थियों में से मेरा एक पुराना विद्यार्थी मेरे पास हिंदी निबंध की पुस्तक माँगने आया। मैंने उससे पूछ ही लिया- “क्यों प्रभात, कल मैं तुम लोगों को डाँट रही थी। इस विषय में वर्मा सर ने तुम लोगों को कुछ कहा ?”
प्रभात नीची गर्दन किए खड़ा रहा। कुछ बोला नहीं। मेरी उत्कंठा और जगी। “क्यों, बहुत डाँट पड़ गई क्या ?”
“जाने दीजिए मैडम।” उसने बात को टालने की गरज से कहा।
“नहीं पहले बताओ। क्या कहा उन्होंने?” मैं अड़ गई।
कुछ देर चुप रहकर प्रभात बोला- “वे बोले यह मैडम पागल है। फिजूल बकवास करती है।”
निबंध की किताब मेरे हाथ से छूटकर गिर चुकी थी।
मैं आवाक् सी सामने खड़े छात्र प्रभात का मुँह देखती रह गई।
सरोज दुबे
(प्रकाशित-आनन्द डाइजेस्ट जून 1982)