आत्मघात के बीज
सरोज दुबे
सरोज दुबे
“जा, जल्दी तैयार हो जा, वह कब से राह देख रहा है”
“नहीं अम्मा, मुझे नहीं जाना। तुम रितु को भेज दो,”- विभा ने मेज पर पड़ी पुस्तक उठा ली।
रमा देवी हँसी, “वह रितु से क्या बात करेगा?”
“मुझे नहीं मालूम। निर्मल के साथ घूमना मुझे अच्छा नहीं लगता। मेरी सहेलियाँ उसे ले कर कितनी ही बातें करती है।”
“वे सब जलती हैं तुझसे, देख, कल वह वीसीआर खरीद कर लाया था, परसों तुझ सब को आईसक्रीम खिलाने ले गया था। कितना पैसा खर्च करता है वह, और तुम हो कि उसका जरा भी मन नहीं रखती।
वह चुपचाप पुस्तक पढ़ती रही।
”अच्छा बाहर नहीं जाना है, तो मत जाओ पर उसे चाय नाश्ता तो करवा दो,”माँ बोलीं।
”तुम्हीं करवा दो”-उसने पुस्तक से आँखें हटाए बिना कहा।
वह कुछ देर वहीं खड़ी रही, फिर लौट आई।
“बेटे, कल विभा की परीक्षा है। वह आज नहीं जा सकेगी, पर तुम चले मत जाना। मैंने तुम्हारे लिए मलाई कोफ्ता बनाया है। खाना खा कर ही जाना,” -उन्होंने निर्मल से कहा।
रमादेवी मीठीवाणी और मृदुल व्यवहार से सब का दिल जीत लेती थी। उन के पति दुर्गाप्रसाद ठेकेदारी करते थे। लूटखसोट या हेराफेरी करके लाखों के वारेन्यारे कर लेना उनके स्वभाव में नहीं था। उलटे, अपनी सरलता के कारण वह कई बार धोखा खा चुके थे।
रमा देवी बड़ी खर्चीली और शोकीन स्वभाव की थीं। उन्हें कहीं कोई वस्तु पसंद आ जाती तो जब तक उसे खरीद न लेतीं, चैन से न बैठतीं। अपनी सामथ्र्य का विचार किए बिना अनापशनाप खर्च करने की उनकी आदत थी। दूसरों से प्रतिस्पर्धा करने का भी उनका स्वभाव था। विनोद की बहू ने यदि हीरे का सेट खरीदा है तो वैसा उन्हें भी चाहिए। इंद्रपाल के यहाँ रंगीन टीवी आ गया है तो उन्हें भी चाहिए।
लेकिन इन सब बातों के लिए पैसों की आवश्यकता थी। रमादेवी ने इसके लिए भी मार्ग निकाल लिया था। दुर्गाप्रसाद के व्यापार से संबंधित लोग घर आते तो रमा उन्हें बातों से भरमा लेती। हँस-बोल कर खिला-पिला कर उनसे संबंध बना लेती। जिससे जितना फायदा हो सकता था, उठा लेती।
इधर लोक निर्माण विभाग के नए इंजीनियर निर्मल का उनके यहाँ बहुत आना जाना था। वह 25-26 वर्ष का आकर्षक अविवाहित युवक था। रमा देवी इस चिंता में थीं कि वह उसे किस आकर्षण में बाँध कर रख सकेंगी।
विभा को माँ का दूसरे परुषों के साथ उन्मुक्त हँसना और बतियाना नापसंद था। किसी के लाए हुए उपहारों को स्वीकार करना भी उसे पसंद नहीं था। वह कई बार सोचती, ‘बाबूजी माँ की तरह खुल कर हँस बोल क्यों नहीं पाते? किस चिंता में डूबे रहते हैं?’ पर इन प्रष्नों का उत्तर पाना उसके लिए सरल नहीं था।
वैसे रमादेवी विभा को अपने बीच खींचना नहीं चाहती थीं, किंतु निर्मल के विषय में बात उलटी थी। वह चाहती थीं कि विभा उस के सामने बन-सँवर कर जाए। वह उसे अपने हाथों से खिलाए पिलाए, उसके साथ घूमने जाए। वह अक्सर कहती- ”पढ़ाई लिखाई कर के सूखने की उसे क्या जरूरत है? जिस के घर में कमी हो, जिसे नौकरी करनी हो, वह करे पढ़ाई लिखाई। जिनके पास सब कुछ है, उन्हें तो आराम से रहना चाहिए, मौज करनी चाहिए। घूमना फिरना, होटल, बाजार, गहने, कपड़े, सिनेमा, ब्यूटी पार्लर सब उन्हीं के लिए तो हैं”
दूसरे दिन चाय पीते समय रमादेवी ने दुर्गाप्रसाद से शिकायत के स्वर में कहा- ”कल निर्मल बाहर जाने के लिए कह रहा था, पर यह लड़की तैयार ही नहीं हुई।”
निर्मल ने दुर्गाप्रसाद को कई ठेके दिलवाए थे। उन का बँगला उसीके कारण बन सका था। रमादेवी ने सोचा था कि दुर्गाप्रसाद जरूर उनके पक्ष में कुछ कहेंगे पर वह बोले, ”रोज-रोज विभा को उस के साथ भेजना ठीक नहीं है, लोग देखेंगे तो क्या सोचेंगे?”
’जरा हँस बोल लेने में, घूमफिर आने में भला क्या बुराई है ? पैसे वालों का पढ़ा लिखा लड़का है। ऐसा लड़का क्या सहज ही मिलता है? लोग दूर तक सोचते हैं। तुम जिंदगी भर ऐसे ही रहोगे। उसके साथ संबंध रखने में हमारा फायदा ही है, नुकसान नहीं।”
”वह पढ़ा लिखा है, जमीन जायदाद वाला है, यह मुझे भी मालूम है। लेकिन वह जिस गोरखधंधे में लगा रहता है, वह मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। विभा और उस के स्वभाव में कोई मेल ही नहीं है। तुम उससे विभा के विवाह की बात कभी सोचना भी मत।” -दुर्गा प्रसाद ने दृढ़ता से कहा।
दुर्गाप्रसाद का कथन सही था। निर्मल और विभा दोनों की दुनिया अलग अलग थी। विभा योग्य, शिष्ट और संवेदनशील थी। प्रकृति के सौन्दर्य, साहित्य और संगीत में उसकी गहरी दिलचस्पी थी। निर्मल के लिए धन और उससे मिलने वाले भौतिक सुख के साधन ही सब कुछ थे। यों संगीत और साहित्य के प्रति उसका लगाव दिखाई देता था पर वह महज एक दिखावा था। विभा की दृष्टि में कला के प्रति रुझान न रखना अपराध नहीं था। अपराध था, कला और साहित्य के प्रति लगाव का झूठा प्रदर्षन करना। निर्मल प्रायः अवैध धंधों में लगा रहता था। रमा देवी को इससे कोई एतराज नहीं था। किंतु विभा को यह बात बिलकुल पसंद न थी।
निर्मल विभा के सौन्दर्य के आकर्षण में सहज ही बँध गया था। रमा देवी उन्हें नजदीक लाने का प्रयास करती रहती। उन के ऐसे प्रयासों से कई बार विभा परेशानी में पड़ जाती। वह समझ ही नहीं पाती थी कि माँ उसे किस राह पर ले जाना चाहती हैं। बस पिता ही उसके लिए रक्षा कवच के समान थे।
लेकिन एक दिन यह रक्षा कवच भी टूट गया। अचानक एक रात दुर्गाप्रसाद सीढ़ियों से गिर गये। उनके पैर की हड्डी टूट गई। कई दिनों तक वह अस्पताल में पड़े रहे। फिर ठीक भी हुए तो पहले सी दौड़-धूप कर पाने में असमर्थ थे। इसका उनकी आय पर बहुत असर हुआ।
उन्होंने कुछ माह पूर्व ही बँगला बनवाया था। उन्होंने काफी रकम बैंक से भी कर्ज ली थी। बड़ा लड़का राकेश न तो पढ़ने लिखने में होशियार था और न ही उसमें व्यापार सम्हालने की कुषलता थी। लिहाजा इस परिस्थिति ने उन्हें विचलित कर दिया।
विभा का बी.एस.सी. का अंतिम वर्ष था। साल दो साल में उसका विवाह करना पड़ेगा। वह कैसे लड़का ढूँढ़ेंगे? कैसे दहेज का प्रबंध करेंगे? दुर्गाप्रसाद अपने कमरे में पड़े-पड़े यही सब सोचा करते। वह जितना ही सोचते, उतनी ही उनकी चिंता बढ़ती जाती।
उनकी इस चिंता को दूर करने का प्रयास रमादेवी के पास था। दुर्गाप्रसाद भी अब पत्नी की बात से सहमत होते नजर आ रहे थे। वह सोचते, ’रमा सच ही तो कहती है। आखिर निर्मल में बुराई ही क्या है? आखिर सभी तो गलत मार्गो से पैसा कमा रहे हैं। बड़े-बड़े मंत्रियांे से ले कर चपरासी तक रिष्वत ले रहे हैं। फिर निर्मल तो अभी लड़का है, उसे दोष देकर क्या फायदा?”
एक दिन उन्होंने विभा से कहा, ”बेटी, समय के साथ आदमी बदल जाता है। निर्मल भी हमेशा ऐसा ही नहीं रहेगा। उस ने ऊँची शिक्षा पाई हेै। लाखों की जायदाद का वह मालिक है और सबसे बड़ी बात यह है कि वह तुम्हें चाहता है,पसंद करता है। मुझे पता है कि तुमको उसकी कुछ आदतें पसंद नहीं हैं, लेकिन विवाह के बाद तुम उसे जरूर सुधार लोगी। यदि सब कुछ पहले की तरह चलता, तो मैं तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध, उससे विवाह की बात कभी नहीं सोचता। किंतु आज दूसरा कोई रास्ता मुझे नहीं दिखाई दे रहा।”
विभा पिता की बेबसी से परिचित थी। उस ने अभी विवाह न करने और आगे पढ़ाई करने की अपनी इच्छा दोहराई।
”बेटे, कुछ फर्क नहीं पड़ता है। दो-तीन साल में स्थिति शायद और बिगड़ जाए।”- वह गंभीर स्वर में बोले।
फिर विभा ने भी एक षब्द नहीं कहा। उसके भीतर मानों कुछ टूटकर बिखर गया। वह जिस सागर में डूब रही थी, उसका किनारा कहीं नजर नहीं आ रहा था।
सब रिश्तेदार और परिचित उसे बधाई दे रहे थे। पर विभा के लिए अपने मन की बात कह पाना अब कितना कठिन था। वह किस तरह चक्रव्यूह में फँस गई, किस तरह अपनों ने ही उसे संकट में डाल दिया, इस व्यथा को कह पाना बड़ा दुश्कर था।
कुछ महीनों बाद विभा का विवाह हो गया, रमादेवी और दुर्गाप्रसाद बहुत प्रसन्न थे, दोनों सोचते, ’लड़की अच्छे घर चली गई, दानदहेज के लालच में तो कितने ही लड़के बदल जाते हैं, लड़कियों के साथ घूम फिर कर साथ छोड़ देते हैं, पर निर्मल ने ऐसा नहीं किया। विभा जरा धैर्य से काम लेगी तो सब ठीक हो जाएगा।’
वैसे निर्मल और उस के परिवार वालों ने कई लड़कियों देखी थी। दहेज भी अच्छा खासा मिल रहा था, पर निर्मल को कोई लड़की पसंद नहीं आई। उसे तो विभा के समान सुंदर, सुसंस्कृत, परिश्कृत रुचि वाली पत्नी चाहिए थी।
कुछ माह बड़े आनंद से गुजरे, धीरे-धीरे निर्मल का घर के प्रति आकर्षण कम होने लगा। वह कई तरह की धाँधलियों और घपलों में व्यस्त रहने लगा। बड़े अफसरों की खुशामद करने में भी काफी समय बीतने लगा। अक्सर घर लौटते लौटते प्रायः आधी रात हो जाती। विभा ने उसको सही राह चलने और समझाने का भरसक प्रयत्न किया। पर बिगड़ कर सुधरने वाले संसार में कम ही होते हैं।
विभा आगे पढ़ना चाहती थी। पढ़लिख कर कुछ करने की उमंग उसमें पहले से ही थी लेकिन निर्मल इस के लिए भी तैयार नहीं था। इस संबंध में उसका मत रमादेवी से मिलता था। वह चाहता था कि विभा घर से बाहर निकले और बाजार जाकर अपनी मनपसंद साड़ियाँ खरीदे, नई डिजाइन के गहने खरीदे, ब्यूटी पार्लर जाए। महिलाओं के लिए शहर में नया क्लब बना है, वह वहाँ जाए। उसके अधिकारियों की पत्नियों से मिले और उनसे मित्रता बढ़ाए।
दोनों के रास्ते अलग-अलग थे, विचारधारा अलग थी। एक आकाश था तो दूसरा पाताल। जो व्यक्ति सदा अवैध धंधों में लगा रहता हो, वह आखिर कब तक बच सकता है। एक दिन निर्मल पकड़ा गया। उसने बचने के लिए बहुत कोशिश की किंतु सफल न हो सका। उसे नौकरी से निलंबित कर दिया गया। यद्यपि उस की माली हालत सुदृढ़ थी पर बात इज्जत की थी। सब ओर बदनामी फैल गई थी। उसे घर से निकलने में भी षर्म महसूस होती। लेकिन घर में रहना भी उसके लिए जेल में रहने जैसा ही था। घर में बैठे-बैठे वह विभा के हर कामों में दखल देने लगा। उसकी खामियों की चर्चा खुले आम करने लगा। और जानबूझ कर दूसरों के सामने उसका अपमान करता।
एक दिन दुर्गाप्रसाद उनसे मिलने आए। निर्मल ने उससे ऐसा बरताव किया मानों उसके निलंबित होने के लिए वह ही दोशी हो। वह अपराध बोध सिर पर रख कर चले गये। पहले घर में सुख न था, पर शांति थी। अब न सुख था और न शांति । रोज रात को निर्मल शराब पीकर आने लगा। नषे में वह होषो-हवास खो बैठता, कभी अपने अधिकारियों को गालियाँ देता, तो कभी पड़ोसियों से उलझ पड़ता। ऐसे वातावरण से तंग आ कर, विभा ने वह घर छोड़ दिया।
जिस हालत में विभा घर लौटी थी, उसे देख कर माता पिता के दिल दहल गए। लगता था, बेटी के मुख से षब्द ही नहीं निकल पा रहे हैं। शरीर का रक्त मानों किसी ने निचोड़ लिया हो। पीताभ मुख पर अनजाने भय की छाया दिखाई देती थी। जिस पल्लवित और पुश्पित लता को वह निर्मल के घर का शृंगार बनाना चाहते थे, वह लता पुश्पहीन झुलसी हुई आज उन्हीं के आँगन में आ गिरी थी।
रमा देवी क्रोध से भर उठीं, ”मुझे मालूम होता कि वह दुष्ट मेरी बच्ची की यह हालत कर देगा तो मैं कभी उससे इसकी शादी न करती, उसने इसी लड़की के लिए सौ बार हमारे घर के चक्कर लगाए थे। मैं उसकी ऐसी खबर लूँगी कि वह भी याद करेगा।”
“अब क्या फायदा है माँ, कहते हैं कोई जानबूझकर मक्खी नहीं निगलता... क्या आप उसके स्वभाव को नहीं जानती थीं।”-विभा ने माँ से कहा।
”मुझे यह पता नहीं था बच्ची कि वह तेरे साथ ऐसा बर्ताव करेगा। मैं तो सोचती थी कि वह मेरी बेटी को सर-आँखों पर बैठाएगा। उसकी इज्जत करेगा। उसे यही करना था तो शादी ही क्यों की ?”
विभा के मना करने पर भी रमादेवी निर्मल के बँगले पर गईं। उस समय वह षराब पिए बैठा था। सास को देख कर व्यंग्य से बोला- ”आईए...आईए... सासू-माताजी, अपनी चरणधूलि से इस घर को पवित्र कीजिए।”
रमादेवी जो कुछ बोल सकती थीं, सब बोल गईं। पर निर्मल दबने वाला जीव नहीं था। वह तो षराब के नषे में था और रमा देवी की कमजोरियों से तो वह परिचित ही था।
“आप ने मुझे फँसाकर अपनी लड़की की शादी मुझसे कर दी। लाख दो लाख का दहेज बचा लिया। मुझे इतने दिनों लूटती रहीं सो अलग। अब मुझे ही आँखें दिखा रहीं हैं? तुम्हारी लड़की को भी बड़ा घमंड है। अब कोई नया राजकुमार ढूँढ कर, उसकी शादी कर देना। निकल जाओ... मेरे घर से, अभी निकल जाओ। ” -वह गरज कर बोला।
निर्मल की चिल्लाहट सुन कर पड़ोस के लोग बाहर निकल आए। तमाशा होता देख रमा देवी अपना सा मुँह लिए लौट आईं।
विभा सामने सोफे पर निष्चेश्ट सी बैठी थी। माँ के कदमांे की आहट सुन कर उसने दृष्टि उठा कर देखा। किसी हारे जुआरी की तरह उस के सामने आ कर बैठ गई थीं।
रमा देवी कुछ भी न बोल सकीं।
”गरीबी में, अभावों के बीच कष्ट उठा कर जीना, सम्मान और स्वाभिमान की बात है। पर गरीबी से तंग आ कर यदि कोई ऐसे समझौते कर ले क्या वह क्षम्य है ? आराम और सुख की जिंदगी जीने वाले अपनी शानशौकत के लिए अपनी बेटियों की अस्मिता को भी दाँव पर लगा दें, तो वह क्षम्य नहीं है माँ... कभी नहीं... अपराधी निर्मल नहीं है माँ, अपराधी तुम हो, तुम...”
रमादेवी को लगा, जैसे उसके सीने में खंजर घोंप दिया हो। उसके कानों में विभा की आवाज बारबार गूँज रही थी। वह मौन बैठी सोच रही थी कि अब वह किसे दोष दे? आत्मघाती बीज तो उसी ने बोए थे।
तभी मानों दुर्गाप्रसाद ने डूबती नैया को सम्हाल लिया, ”बेटी गलती मुझसे ही हो गई। परिस्थितियों ने मुझे भी विचलित कर दिया और मैं सही निर्णय नहीं ले सका। लेकिन हताष मत हो। जिंदगी जीने के रास्ते तुम्हारे लिए बंद नहीं हो गए हैं।
विभा ने आँसू भरी आँखों से वर्तमान को देखा और अपने आँचल से उस बहती धारा को पौंछा। उसके मन में अब भी अपनी नई जिंदगी को जीने की ललक थी। मन के किसी कोने में आशा का दीप टिमटिमा रहा था।
सरोज दुबे
(प्रकाशित- सरिता मार्च प्रथम 1994)