और वह रूक न सका
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
शाम का हल्का सा तम झींगरों और मेंढकों का संगीतमय वातावरण, घनघोर काली घटाटोप घटायें आकाश को अब भी अपने आंचल में छिपाये रखना चाह रहीं थीं। चतुर्दिवस बीतने को आये थे शायद बदली अरुण के मन्यु को अनुराग से लिप्त करने को दृढ़ संकल्प थीं ।
अरुण और बदली की इसी आँख मिचोली में रात हो चुकी थी। सर्प की मणि खो गई थी। कभी इस करवट कभी उस करवट बदलते बदलते रात्रि के दो बजने जा रहे थे। अरुण अपनी प्रयसी के पवित्र प्रेम की याद को हृदय में संजोये मिलन के लिए व्यग्र हो रहा था। विचारों की भयावनी तेज आंधी तथा कभी न शांत होने वाला तूफान आ आकर उसे मथे जा रहा था। बेचैन उद्विग्न सा उठ बैठा। घनघोर अर्धनिशा में ही में ही यंत्रवत सा चल पड़ा। तेज आंधी, घनघोर वर्षा तथा दुर्गम मार्ग भी उसके प्रेम मार्ग में रूकावटें डाल न सके। वह निर्भय तेज गति से अपनी मंजिल की ओर बढ़ा चला जा रहा था। भीगे बालों से पानी बूंद बंूद बनकर टपक रहा था। उसके शरीर से कपड़े चिपक गये थे। आंखें पथराई, लाललाल सूजी सी, पूरा शरीर ठंड के मारे काँप रहा था। सहसा अपनी मंजिल को पाकर अरुण का मन चंचल मन नाच उठा, वह आनंद से झूम उठा।
दरवाजे के पास पहुँच धीरे से आवाज लगायी-‘दीपा दरवाजा खोलो, देखो मैं आ गया। दीपा दरवाजा खोलो.....दरवाजा....।’
थोड़ी ही देर पश्चात् घर के अंदर से दरवाजे की ओर कदमों की आवाजें आती सुनाई दीं। अरुण का मन खुशियों से उछलने लगा। उसी क्षण अलसायी सी एक प्रौढ़ महिला ने दरवाजा खोला। उसे देखते ही अरुणके पैरों के तले की जमीन खिसकने लगी। अकस्मात उसके मुख से निकल पड़ा -‘कौन दीपा की माँ !’
महिला ने आश्चर्य मिश्रित आँखों से किंकर्तव्यविमूढ़ अरुण को देखा और कहा- “हाँ, मैं दीपा की माँ हूँ .... फौज की ट्रेनिंग का क्या हुआ ? बीच में ही छोड़कर इतनी रात में तुम यहाँ.... इस वक्त....? इतनी रात गये तुम्हें दीपा से क्या काम है ? अरुण क्या तुम इतने भीरू हो गये हो ?....”
अरुणके चेहरे की आभा लुप्त हो गयी थी। वह शर्म से गड़ा जा रहा था। मन ही मन सोच रहा था कि माँ जी तो अपने भाई के यहाँ जाने वालीं थीं।
दीपा की माँ ने फिर मौन का वातावरण तोड़ा- बेटा अरुण, मैं जानता हूँ कि तुम्हें दीपा से अगाध प्यार है किन्तु इस तरह का प्यार तुम्हारे कर्तव्य में बाधा डाल रहा है। अभी तो तुम्हारी केवल मंगनी हुई है। वहाँ भारत माँ पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। और तुम्हें यहाँ ....लगता है तुम अपने कर्तव्य से विमुख होते जा रहे हो। बेटा गोस्वामी तुलसीदास भी तुम्हारी तरह ही रत्नावली को चाहते थे। किन्तु जब उन्हें अपने कर्तव्य का ज्ञान हुआ तो उन्होंने समाज देश और जनता को रामचरित मानस के रूप में ऐसा अनमोल उपहार दिया जिसे आज भी लोग पढ़कर सम्पूर्ण तृप्ति का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। क्या आज वैसा ही कुछ उपहार तुम अपनी मातृभूमि को नहीं दे सकते। क्या तुम्हें अपनी भाभी का मिटा सिंदूर दिखाई नहीं देता। तुम्हारे केप्टिन बड़े भाई की आत्मा जो आज भी भटक रही है। क्या उसकी आत्मा को तुम शांति प्रदान नहीं करोगे। अरुण, तुमने अपनी अभागिन माँ के बहते हुए आँसुओं को क्या नहीं देखा या तो तुम भूल गये हो? जाओ अरुण तुम्हें तुम्हारा कर्तव्य पुकार रहा है ...अभी भी समय है .....अरुण जाओ ...कुछ देश के लिए कुछ करके दिखाओ ... कुछ बनके दिखाओ....फिर दीपा को पाना... यह सुनकर और वह रूक न सका। .... तुरंत ही चला गया.....।
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अरुण की ट्रेनिंग समाप्त हो गई थी। ठीक एक वर्ष बाद होली का अवकाश मिला था। इस अवकाश पर उसने अपने घर जाने का निश्चय कर लिया था। इसी बीच दीपा के कई आग्रह पत्र उसे मिले पर वह उसके घर नहीं गया। वह सचमुच कुछ बनके दिखाना चाहता था। सीमा पर पाकिस्तानी सेना का फिर से जमावड़ा शुरू हो गया था। कब विपरीत परिस्थितियाँ हो जायें कोई कुछ कह नहीं सकता था। वह अपनी आदतों से बाज भी तो नहीं आ रहा था। हमारी आजादी के समय से ही उसकी बुरी नजर काश्मीर पर थी। उसका बड़ा भाई उनके इसी कारनामों में शहीद हो चुका था। किन्तु आज उसने सोचा कि हमारी अनसुइया जैसी माँ और सीता जैसी भाभी के कम से कम दर्शन कर अपने नेत्र सुफल कर आऊँ। एकाएक जब वह अपनी माँ और भाभी के सामने जाएगा। तो कितनी खुश होंगी, उसे फौज की इस वर्दी में पाकर। दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहेगा। इन्हीं दिनों के लिए तो उसकी माँ के अंदर ज्वाला धधक रही थी और भाभी के आंखों में अंगारे । उसे सामने पाकर वे दोनों कितनी खुश होंगी उसकी सीमा नहीं... बस एक बार ....!
गाड़ी जबलपुर स्टेशन पर आकर रूकी, अरुण ने अपना सामान उठाया और प्लेटफार्म पर एक नजर फेंकी। शायद कोई परिचित व्यक्ति दिख जाए और तभी सामने देख वह चिल्ला उठा - अरे खबरी चाचा जी..... क्या खबर है। इस भतीजे पर भी ध्यान गया है कभी ?
अरे अरुण तू ! कब आया रे... और आते ही मुझे चिढ़ाना शुरू कर दिया। अभी भी तेरा बचपना नहीं गया रे। अरुण देख अब तू मुझे खबरी वबरी मत कहा कर, अरे मैं तेरा चाचा हँू...चाचा।
ठीक है चाचा जी....क्षमा कीजिये ...और सुनाईये घर के क्या समाचार हैं ? माँ और भाभी बहुत याद करती होंगी। अभी कैसी हैं वो ?
हाँ बेटा, ठीक ही हैं। तुम्हारी माँ तो देवी हैं .... देवी और बड़ी बहू, बेचारी ... जबसे उसका भाग्य रूठा है तब से मानों उसका भगवान ही रूठ गया है। दिन रात वही घुन ... वही रोना धोना... कितना समझाया उसे किन्तु .... और फिर इसमें किसी का क्या वश । अच्छा बेटा मैं चलूं.......देर हो रही है... घर अवश्य आना ...।
अच्छा चाचाजी मैं भी चलूं.... नमस्कार ।
जीते रहो बेटा, भगवान तुम्हें खुश रखे ...।
अरुण के मन में विचारों का अंतद्र्वन्द्व चल रहा था, चलते चलते वह अतीत के अथाह सागर में बार बार डुबकियाँ लगा रहा था।
अचानक उसकी विचार श्रृंखला टूटी। तो उसने अपने आप को मकान के सामने पाया। अंदर सामान उठा कर बैठक रूम में गया। वहाँ किसी को न पाकर सीधे रसोई घर में पहुँचा। भाभी दरवाजे की ओर पीठ किये, रसोई बनाने में तल्लीन थी कि पीछे जाकर अरुण बोला- इस नाचीज छोटे देवर का भाभी के चरणों में प्रणाम स्वीकार हो।
चैंककर देखा भाभी ने अपने देवर को फौजी ड्रेस मैं तो आश्चर्य की सीमा न रही। खुश होकर बोली- अरे देवरजी तुम.... अरे कब आये... बहुत अच्छे दिख रहे हो। आने के पहले खबर तो दे देते। क्या मैं किसी को तुम्हें लिवाने के लिए स्टेशन तक भी न भेजती ?
अरे अरुण, कब आया रे तू ? माँ ने अपनी ममता बिखेरते हुए पीछे से आवाज लगायी।
अरुण ने माँ के पैर छूते हुए कहा- माँ अभी अभी तो आ रहा हूँ ।
माँ ने बेटे को देखा और कहा- तुम्हारी तबियत तो ठीक है न रे, फौज में रहकर बड़ा दुबला सा दिख रहा है रे ...?
भाभी ने भी माँ की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा- कि हाँ माँ जी देवर जी बहुत दुबले से हो गये हैं ।
अरुण मुस्कराते हुए बोला- देखो न माँ, भाभी भी आपका पक्ष लेने लगीं हैं। भला क्या वास्तव में तुम लोगों को दुबला नजर आ रहा हूँ ? और हर माँ को तो अपना बेटा हमेशा दुबला ही नजर आता है। फौज में रहकर भला कोई दुबला होता है ? अब मैं कितना तगड़ा और स्वस्थ हो गया हूँ । आखिर मैं इस देश का वीर सैनिक हूँ । भाभी जी देखिये, और हूँ न अपने बड़े भाई जैसा । सच कहता हूँ भाभी, जिस समय युद्ध के मैदान में रहूँगा तो दुश्मन तो देखते ही भाग जायेंगे। गिन गिन कर बदला लूँगा, अपने बड़े भाई का । अरे भाभी तुम्हारा चेहरा ...क्या हो गया माँ ....? भाभी के आँसू .....?
भाभी कुछ बोले कि माँ कहने लगी-बेटा तू तो जानता है कि अपने बड़े भाई को जो दुश्मनों के हौसले पस्त करते हुए शहीद हो गया। तूने उसकी याद दिलाकर इसे रुला दिया और मुझ अभागिन माँ को भी।
रुंधे कंठ से अरुण बोला- बस माँ बस....मुझे क्षमा करो ...भाभी मैंने क्या सचमुच तेरा दिल दुखाया है ? नहीं भाभी ...नही... मैंने भी तो राम के समान एक भाई खोया है, क्या इसका मुझे तनिक भी दुख नहीं ? किन्तु मुझे गौरव है माँ कि तेरे उस बेटे ने बहादुरी दिखाकर अनेक दुश्मनों को मौत के घाट उतारा है। क्या माँ की तड़पती आत्मा और भाभी की बहते आँसुओं की वेदना से भला कोई दुश्मन बच सकता है ? मानवता और शांति जिस माटी के कण कण में बसी हो और जिस देश के नौजवान बूढ़े ही नहीं देश के नौनिहाल और ललनाएॅं भी कमर कस कर समर भूमि में जा दुश्मन को परास्त करने की क्षमता रखते हों, ऐसे अजेय भारत को जीतने वाला इस दुनिया में भला कौन होगा। अतः तुम्हें तो खुश होना चाहिए माँ कि तुम्हारा एक बेटा देश के काम आया और दूसरा बेटा भी आज वतन की आबरू बचाने के लिए जान न्यौछावर करने को तैयार है । तुमसे और भाभी से बड़ा दानी इस दुनियाँ में कौन होगा माँ ?
हाँ बेटा ..हाँ.... माँ ने अरुण को झट सीने से लगा लिया और बार बार उसका सिर चूमने लगी।
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दिसम्बर 1972 की एक सुबह........
उधर भुवन भास्कर देव अपने रथ पर आरूढ़ हो अपनी किरणों को भू मंडल पर बिखेरते हुए प्रगट हो रहे थे और इधर छुकछुक करती हुई रेलगाड़ी चली जा रही थी। चारों दिशायें खुशी से झूम रहीं थीं। युद्ध का तांडव बंद हो चुका था। शांति ने उस पर विजय पताका फहरा दी थी। भारत माँ के विजयी सैनिक हर्षोल्लास से फूले नहीं समा रहे थे। अपनी खुशी इजहार के लिए वे रेलगाड़ी को ही तबला बनाकर, दोनों हाथों से बजा बजाकर मस्ती में झूमते हुए, राष्ट्रभक्ति के गीत गा रहे थे। बंगलादेश के युद्ध में अपनी विजय पताका फहरा कर उन्होंने दुनिया को एक संदेश दे दिया था। 26 मार्च सन् 1971 से दिसम्बर 1971 तक पूरे 8 माह 16 दिनों तक युद्ध चलता रहा। अंततः हमारे महान योद्धा श्री ए.ए.के. नियाजी और जे. एस. अरोरा जैसे अनेक सपूतों की अगुवाई के सामने पाकिस्तानी फौज को अपने हथियार डालने पड़े थे। दुश्मन की इतनी बुरी तरह से सिकस्त शायद दुनिया के किसी भी युद्ध के इतिहास में नहीं हुई थी। उन्हीं प्रफुल्लित सैनिकों के बीच एक नौजवान सैनिक जिसका कि एक पैर दुश्मन के पैटन टैंको को ध्वस्त करते समय कट गया था । नकली पैर पहिने बैशाखी के सहारे रेलगाड़ी के अंदर ही यहाँ से वहाँ चलकर, युद्ध क्षेत्र की घटनाओं को बड़े ही चाव से सुना रहा था ।
रेलगाड़ी जबलपुर स्टेशन पर आकर रूक गई थी। प्लेटफार्म पर असंख्य नेत्र अपने प्रिय स्नेहीजनों से मिलने के लिए व्याकुल हो रहे थे। अनियंत्रित भीड़ हाथों में फूलमालायें लिए वीर सैनिकों के स्वागतार्थ खड़ी थीं। जन समुदाय खुशी से उमड़ पड़ा था, एक मेले की तरह। भारत माँ की जय के उद्घोष ने सम्पूर्ण नभ मंडल को गुंजा दिया था। देखते ही देखते उन लोगों ने भारत के उन वीर सपूतों को फूलमालाओं से लाद दिया था ।
जन समुदाय के बीच से बैशाखी के सहारे भीड़ से बचता हुआ, फूलमालाओं से लदा, वही नौजवान सैनिक अपने उन स्नेहीजनों से पास पहँुचा, जिसके आँखों में हर्ष और व्याकुलता की मिश्रित झलक दिख रही थी। नवजवान ने पहुँचते ही अपनी माँ और भाभी के चरण स्पर्श किये। उन दोनों ने उसे बारी बारी से अपने सीने से लगा लिया।
उसी क्षण दीपा, अपनी माँ के साथ हाथों में मालायें लिए भीड़ को चीरती हुई वहाँ पहुंची । दीपा की माँ ने आते ही माला पहिना कर अरुण का मस्तक चूम लिया। उधर दीपा सभी लाज संकोच छोड़कर अरुण के पैर छूने को झुकी। अरुण भी उसे उठाने के लिए झुका किन्तु लड़खड़ा गया। अरुण लड़खड़ा कर गिरे, इसके पूर्व ही दीपा ने उसे सम्हाल लिया। सारी लज्जा मान मर्यादाओं को भुलाकर वे दोनों एक दूसरे के बाहुपाश में बंध गये । यह दृश्य देखकर अरुण की माँ और भाभी भी मुस्कराते हुए दीपा की माँ को साथ लेकर अपने घर की ओर चल पड़ीं।
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मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
(प्रकाशित अभिलाषा 1973)