बदलते रंग
सरोज दुबे
सरोज दुबे
चार बज गए थे, आँगन में जूठे बर्तन व कपड़े पड़े हुए थे। सुधा कुछ देर खड़ी सोचती रही। बर्तन मलना उसे बड़ा कष्टप्रद लगता है, फिर चूल्हे के जले बर्तन कितनी मुश्किल से साफ होते हैं। मिट्टी का रेतीलापन हाथों में चुभचुभ जाता है। वैसे तो महरी आती है, पर कभी कभी पाँच बजे आती है, तब ऐसे समय में यदि देवेंदुु समय से पहले ही घर आ जाए तो उसे बड़ा बुरा लगता है।
वह जल्दी-जल्दी कपड़े धोने लगी। अभी उसी दिन की तो बात है। वह पाँच बजे तक महरी की राह देखती रही थी और जब वह नहीं आई तो वह खुद बर्तन माँजने बैठ गई थी। उस दिन देवेन्दु समय से पहले ही दफ्तर से आ गया था। आते ही वह बोला-”अभी तक बर्तन साफ नहीं हुए? खाना कब बनेगा?”
सुधा ने सहज भाव से कहा था, “आठ बजे से पहले यहाँ खाता ही कौन है? तब तक तो बन ही जाएगा,”
“लेकिन मुझे तो आज एक कवि सम्मेलन में जाना है। सात बजे खाना चाहता था, अब भूखे ही जाना पड़ेगा। आठ बजे तक तो तुम्हारे बर्तन ही साफ नहीं हो पाएँगे,” देवेंदु ने रूखे स्वर में कहा।”
देवेंदु ने उस पर जो आक्षेप किया था, वह उसे बुरा लगा था। फिर भी वह विनम्रता से बोली, “बरतन अभी साफ हुए जाते हैं। आपको आलू के पराठे पसंद हैं, मैं जल्दी से वही बना देती हूँ।”
“रात के समय आलू के पराठे खिला कर मेरी तबीयत खराब करनी है क्या?” देवेंदु ने कहा।
“फिर सुबह बता कर क्यों नहीं गए थे?” उसने पूछा था।
”सुबह मुझे क्या इसका पता था ? मैं कोई भविष्य दृश्टा तो हूँ नहीं।”
“तब क्या मैं ही कोई...” वह कहते कहते रुक गई थी।
देवंेदु अंदर आया कपड़े बदले और फिर एक थाली, गिलास अपने हाथों से धोकर ले गया। वह चुपचाप अपना काम करती रही।
बर्तन साफ करने के बाद उसने अंदर जा कर देखा। माँ बेटे रसोई में बैठे कुछ कर रहे थे। उसकी वहाँ जाने की इच्छा ही नहीं हुई। वह आँगन में ही बैठ कर बैंगन काटने लगी। जब भोजन बनाने का समय हो गया, तभी वह रसोई में गई तो देखा, देवेंदु सुबह की सब्जी के साथ खिचड़ी खा रहा था।
“अचार निकाल दूँ?” उसने पूछा था।
”यदि कष्ट न हो तो,.” देवेदु ने कहा।
देवेंदु भोजन करके चला गया। उसका मन एकदम उदास हो गया था। वह सोचने लगी थी, क्या इसी दिन की खातिर उसने विवाह किया था। माता-पिता इतना पैसा खर्च करके विवाह करते है। लड़कियाँ उल्लसित हृदय लिए वधू बनने का स्वप्न देखती है। लेकिन क्या इसी पराधीनता और कलहपूर्ण संसार की सृश्टि के लिए ?
उसका मन होता, सारे बंधन तोड़ कर भाग जाए। लेकिन ऐसा संभव तो नहीं था। एक बार जो बंधन बँध गया, बँध गया। जिससे बँध गया, उसीसे जीवन के आखिरी क्षण तक बँधे रहना नारी की नियति है। फिर उसने तो सब की इच्छा के विरुद्ध देवेंदु से विवाह किया था। वह किससे शिकायत करती ?
बेचारा गिरगिट तो व्यर्थ ही बदनाम है, मनुष्य रँग बदलने में उससे कम माहिर नहीं। देवंेदु जब मिला था, तब कैसा था। उसकी सास अनुसूईया देवी भी तब कितनी स्नेहमयी थी। और आज...
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एक बार गर्मियों की छुट्टियों में वह जबलपुर गई थी, ललिता दीदी के यहाँ। वहीं देवेंदु से पहली बार उसका परिचय हुआ था। वह दीदी का निकट के रिष्ते में देवर था। उसने हिंदी में एम.ए किया था और किसी दफ्तर में क्लर्क था। साँवला दबा हुआ रंग और साधारण से नाक नक्ष कुल मिलाकर सामान्य से व्यक्तित्व का स्वामी था वह।
वह दीदी के यहाँ प्रायः आया करता था। जीजाजी दौरे पर जाते तो दीदी उसे रात में भी रोक लेती थी। वह उसे मुग्ध भाव से देखा करता और यह देख कर वह मन ही मन हँसा करती। कई बार वह अपनी लिखी कविताएँ उसे सुनाता। उसका स्वर मधुर था। वह जब गीत गाता तो वातावरण सरस हो उठता। ललिता दीदी कई बार आग्रह करके उसकी कविताएँ दोबारा सुना करतीं।
एक बार बैडमिंटन खेलते समय उसके रैकेट से देवेंदु की घड़ी का काँच फूट गया था। उसने घड़ी को कान तक ले जा कर देखा, घड़ी बंद हो चुकी थी। तब उसने हँस कर कहा था, “तुमने आज 15-20 रुपए की चोट दे दी। आज माह की पच्चीस तारीख है, कम से कम सात आठ दिन तो दफ्तर बिना घड़ी के ही जाना पड़ेगा”।
सुधा जिस वातावरण में पली थी, वहाँ के लोग हर बात को बढ़ा चढ़ा कर बताने के आदी थे और एक देवेंदु था, जो अपनी आर्थिक विपन्नता की कहानी भी कितनी सहजता से बता रहा था।
सहानुभूति से उसका मन भर आया था। उसने अपने पर्स में से कुछ रुपए निकाल कर उसके सामने रखते हुए कहा था, ”मेरे हाथ से तुम्हारी घड़ी बिगड़ी है न, इसलिए...।”
देवेंदु ने रुपए नहीं लिए थे। सिर्फ इतना ही कहा था, “मेरे ही हाथ से फूट जाती तो क्या करता? और फिर... दफ्तर में सभी तो घड़ी बाँध कर आते हैं, एक मैंने नहीं भी बाँधी तो क्या फर्क पड़ता है?” और वह जोर से हँस दिया था।
उस समय तक सुधा ने यह कल्पना भी न की थी कि इसके साथ विवाह भी किया जा सकता है। वह चाहती थी कि उसका पति उसकी अपेक्षा, विद्वान हो- डाक्टर, इंजीनियर या विज्ञान के क्षेत्र का कोई व्यक्ति, जिस पर वह गर्व कर सके। वह बी.ए. फाइनल की परीक्षा दे कर आई थी। उसकी दृष्टि में अपने ही समान बी.ए अथवा एम.ए वालों का कोई मूल्य न था।
जब वह घर लौटने लगी तो उसने देखा कवि की आँखें छलक आईं थीं। लेकिन वह उस की सहानुभूति जीत सका था, मन नहीं।
घर जाकर सुधा फिर अपनी पढ़ाई में लग गई थी। कभी-कभी देवेंदु के मुग्ध भाव का उसे स्मरण हो आता और अनायास ही वह मुसकरा उठती। लगभग दो वर्ष ऐसे ही बीत गए थे। उस दिन घर के सभी लोग नाईट-सिनेमा देखने गए थे। बूढ़ी नौकरानी के साथ वह अकेली ही थी घर में। तभी द्वार पर दस्तक हुई उसने उठ कर देखा, देवंेदु खड़ा था।
“अच्छा हुआ तुम मिल गई। नहीं तो क्या परिचय देता अपना ? कहाँ है, सब लोग?“ उसने आते ही धीरे से पूछा था। “फिल्म देखने गए हैं। आप कब आए ?” उसने प्रश्न किया था।
तब तक वह इत्मीनान से बैठ गया था और बोला था, “मैं परसों आया था। यहाँ मेरे विभाग का आठ दिन का एक प्रषिक्षण पाठ्यक्रम है। सोचा तुमसे भी मिल लिया जाए।”
“कहाँ ठहरे हैं आप ? यहाँ क्यों नहीं आए? क्या जीजाजी ने आपको यहाँ ठहरने के लिए नहीं कहा था?” उसने पूछा था।
“दीपक लाज में ठहरा हूँ,” उसने कहा था फिर एक क्षण रूक कर बोला था, “आज के जमाने में रिष्ते जन्म से नहीं बनते। वे धन और प्रतिश्ठा से बनते बिगड़ते हैं। फिर तुम तो जानती हो, मेरे पास तो दोनो में से एक भी चीज नहीं है। भैया बेचारे क्या कहते?” और फिर वही चिरपरिचित हँसी सुनाई दी थी।
भोजन तैयार था। सुधा खाने के लिए आग्रह करने लगी तो देवेदु बोला था, “नहीं भोजन तो कहीं भी हो जाएगा। तुम्हें एक कविता सुनाने आया हूँ। उसे सुन लो बस फिर मुझे जल्दी वापस जाना है।”
गर्मी के दिन थे। छत पर बिस्तर बिछे थे। बूढ़ी नौकरानी भी वहीं लेटी सो रही थी। सुधा बोली, “चलिए, ऊपर चलें।”
छत पर रात रानी महक रही थी। यूकेलिप्ट्स के दो लंबे-लंबे पेड़ छत को छूते हुए खड़े थे। किनारे पर गमले रखे थे। आकाश में चाँद तारे अपना वैभव बिखेर रहे थे। एक क्षण को वह वातावरण की मोहकता में डूब गया। ऊपर एक पुरानी कुर्सी रखी हुई थी। वह उसी पर बैठ गया। कुछ इधर उधर की बातें करने के बाद वह अपनी कविता सुनाने लगा। कविता में प्रणयी हृदय की असीम वेदना थी। एक टीस और कसक थी। मधुर स्वर दर्द में डूबा जा रहा था। वह स्वयं भी उसमें खोई जा रही थी कि अचानक गीत बंद हो गया।
उसने सिर उठा कर देखा शायद आँखों में आँसू आ जाने के कारण कवि की दृष्टि कुछ धुंधली पड़ गई थी। देवेंदु ने आँखें पोंछी और फिर से गाने लगा।
गीत बंद हुआ। सुधा को न जाने कैसे लगा पता नहीं, चोट कब और कहाँ लग गई। उसकी आँखें भी भर्र आइं थीं। देवेंदु ने देखा तो गंभीरता से बोला, “क्यों रो पड़ी? तुम्हें आँखों के सामने बैठा कर कविता लिखने का जो अधिकार मुझे मिल गया है। उसे तो कोई छीन नहीं सकता। बस, मेरे लिए इतना ही काफी है।”
वह जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। सुधा नीचे तक छोड़ने गई थी। जाते समय देवेंदु ने उदास नेत्रों से उसे एक बार देखा और बोला था, “अच्छा, अब विदा, भविष्य में फिर मिलने की संभावना तो है ही नहीं।“
“मैं चलूँ आप के साथ जबलपुर?” न जाने वह कैसे कह गई थी मैं।
देवेंदु जाते-जाते रुक गया था। कवि था, अर्थ समझ गया था। बोला, “वह देखो, आकाश में चाँद कैसे चमक रहा है। कोई कितना भी चाहे, भला वह नीचे उतर सकता है? उस ने पूछा था।
“और अगर उतर आए तो?” उसने मुस्करा कर पूछा था।
“तो सिर माथे पर” फिर जैसे कुछ याद करके वह बोला था, ”लेकिन चाँद के उतरने लायक आँगन भी तो नहीं है मेरा।“
“स्नेह प्रेम तो है,” सुधा ने कहा था।
उसके विवाह की बात चली तो जाने किस शक्ति के बल पर उसने घर में कह दिया कि वह विवाह करेगी तो देवेंदु से ही, नहीं तो आजीवन कुँआरी ही रहेगी। पिताजी बहुत नाराज हुए थे। भैया तो गुस्से से बौखला कर बोले थे, ”क्या भविष्य है उस लड़के का? इस देश में कदम-कदम पर कवि हैं और सब अपने को एक दूसरे से बड़ा समझते हैं।”
भैया के कथन पर कितनी सच्चाई है, पर उस दिन उसे कितना बुरा लगा था। इसी बीच एक बार जीजाजी भी आए थे। उसके निर्णय को जान कर वह भी क्षुब्ध हो उठे थे। उन्होंने कहा था, “देवेंदु की अपेक्षा तो उसका छोटा भाई अविनाश लाख गुना अच्छा है। इंजीनियर है और उस का भविष्य भी अच्छा है।”
देवेंदु कहीं चुपके से मानो उसके कान में कह रहा था, रिष्ते तो धन और प्रतिश्ठा से बनते बिगड़ते हैं। उसके मन ने कहा, नहीं नहंीं इस आधार पर होने वाला रिश्ता मुझे कभी स्वीकार नहीं होगा।
वह दादी की बड़ी लाड़ली थी। पर इस बात को लेकर वह भी उससे रुश्ट थीं। पर बाद में उसकी रोनी सूरत देख कर उन्होंने पिताजी से कहा था, “तुम लोग रुपया पैसा देखते हो, लड़की का मन नहीं देखते। कोई ऐरा गैरा तो है नहीं। ललिता का देवर ही तो है। तुम लोग ही कहाँ लखपति थे जन्म से।”
और बस कुछ ही महीने बाद वह चाँद की तरह देवेंदु के आँगन में उतर आई थी। देवेंदु की खुशी का ठिकाना न था। उसने उसके दोनों हाथ थाम कर कहा था, “सुधा, तुमने मेरे लिए अपने जीवन का उत्सर्ग कर दिया।”
और कहते-कहते वह भावविभोर हो उठा था। उसने उसे अपना पहला कविता संग्रह भेंट करते हुए लिखा था, “मेरे जीवन की अमूल्य निधि सुधा को समर्पित ”
धीरे-धीरे देवेंदु कल्पना के सुनहरे जगत से यथार्थ के कठोर धरातल पर उतरा। कवि का स्नेहकोश समय के साथ खाली होता गया। सुधा बड़े घर की लड़की थी। घर में नौकर चाकर थे। उसने न कभी झाडू लगाई थी, न कभी बर्तन माँजे थे। यहाँ तो उसे समय आने पर सभी काम करने पड़ते थे। अभ्यास के अभाव में उसके कार्यो में कुछ न कुछ त्रुटि रह जाती तब देवेंदु खीज उठता। प्रेमी नायक का उसका वह रूप अब कठोर षिक्षक के रूप में परिणत होने लगा।
“भाभी, आज महरी नहीं आई?” सुधा ने देखा, साइकिल रखते हुए अविनाश पूछ रहा था।
“नहीं, उसकी तबीयत ठीक नहीं है” उसने उत्तर दिया।
“सच, भाभी, हमारे यहाँ तुम्हें बहुत काम करना पड़ता है,” अविनाश दुखी हो कर बोला।
“तुम दुल्हन ले आओ तो आधा काम उससे करवा लिया करूँगी” उसने हँसते हुए कहा और धुले हुए बर्तन ले कर अंदर चल दी।
सुबह करेले की सब्जी देख कर देवेंदु नाक मुँह बना रहा था। घर में इतने आलू भी तो नहीं थे कि वह उसके लिए अलग से तरकारी बना देती। पापड़ देवेंदु को भी बड़े प्रिय थे। उसने सोचा, चलो पापड़ ही तल दूँ। लेकिन अभी दो ही पापड़ तले थे कि कड़ाही का उबलता तेल उसके हाथ पर आ गिरा।
सुधा आह करके रह गई। किसी तरह चूल्हे की लकड़ियाँ खींच कर उसने बाहर कीं। कष्ट के कारण उसकी आँखों में आँसू आ गए।
सास ने देखा तो बोली, “बहू, ऐसे कैसे जल गई? लाओ, आलू पीस कर बाँध दूँ।” सुधा बेचारी क्या कहती जलन के मारे उसका बुरा हाल था। अभी सास आलू पीस ही रही थी कि देवेंदु भी आ गया। उसे रोते हुए देखा तो पूछ बैठा, “क्यों, क्या हुआ?”
“पता नहीं पापड़ तलते समय कैसे जल गई ? आज तो रसोई में कुछ ज्यादा काम भी नहीं था, सास ने ही उसके प्रश्न का उत्तर दिया।
देवेंदु ने एक उड़ती नजर हाथ पर डाली। अंदर अलमारी में से बरनाॅल की टयूब सामने ला कर रखते हुए बोला- “लो, लगा लो”
उसकी इस निष्ठुरता से उसकी पीड़ा और बढ़ गई। एक बार मायके में वह चाय बनाते समय जल गई थी। तब सारा घर इकट्ठा हो गया था। कितने दुखी हुए थे सब। अम्मा की आँखों में तो आँसू ही आ गए थे।
उसने ट्यूब खोल कर बरनाॅल लगाया। मन हुआ चुपचाप जा कर अपने कमरे में लेट जाए। पर फिर रसोई का काम कौन का करेगा? उसने रसोई में जा कर आँसू बहाते हुए बचे हुए पापड़ तले। दाल को छौंक लगाया और भोजन के लिए सास को बुलाया। अविनाश बाहर से आकर कपड़े बदल रहा था। देवंेदु ऊपर कमरे में था। वह हाथ धो कर उसे बुलाने गई तो देखा वह सिर से पैर तक चादर ओढ़े सो रहा है। उसने चादर हटा कर कहा- “चलिए, खाना तैयार है।”
देवेंदु ने उसकी ओर देखे बिना ही कहा, “मुझे भूख नहीं है।”
भूख न रहने का कारण समझ कर सुधा दंग रह गई। वह इतना जल गई, इस पर हमदर्दी तो जाहिर की नहीं, ऊपर से यह नाराजगी।
“मैं खाना परोस रही हूँ,” कह कर सुधा नीचे उतर आई। रास्ते में ही अविनाश मिल गया।
“कैसे जल गई, भाभी ?” उसने सहानुभूति से पूछा और हाथ पकड़ कर देखने लगा। “बहुत जल गई,” उसने चिंतित स्वर में कहा और फिर माँ से बोला, “माँ, आज तुम ही परोस दो। भाभी कुछ देर आराम कर लेगी।”
अविनाश ईंट पत्थरों का हिसाब करने वाला इंजीनियर है। जबकि उसका पति देवेंदु मानवीय भावनाओं को षब्दों में चित्रित करने वाला कवि है- सुधा सोच रही थी। दोनों में कितना अंतर है?
दूसरे दिन सुबह जब वह देवेंदु के लिए चाय ले कर आई, तो उस का पत्नी प्रेम--प्रकट हुआ- “कितना जल गई कल? यदि सही तरीके से काम करतीं तो कैसे जलतीं?”
सुधा की आँखें भर आईं। देवेंदु उसकी ओर देख कर फिर बोला, “पता है तुम्हें, कल कितनी बातें सुननी पड़ीं हैं मुझे? माँ कहती है, तू ऐसी बहू लाया कि वह मेरी गृहस्थी ही नहीं संभाल पाती।”
उस की आँखों से आँसू बह चले थे। देवेंदु बोला, “रोती क्यांे हो? रोने से क्या होगा?” बोला- “तरीके से काम करना सीखो।” इस घटना को कई दिन बीत गए हाथ का घाव भर गया था और थोड़ा बहुत मन का भी रात में भोजन के बाद रसोई की व्यवस्था ठीक करके सुधा उठी तो देखा आकाश में चंद्रमा अपनी पूर्ण आभा के साथ चमक रहा है। कितना प्यारा लग रहा था, वह नील गगन के बीच। उसे याद आया अरे...कल तो शरद पूर्णिमा है। लेकिन चैदहवीं का चाँद भी क्या कम खूबसूरत है। उसने साबुन से मुँह हाथ धोए। बालों का ढीला सा जूड़ा बाँधा और माथे पर छोटी सी ंिबंदी लगा कर साड़ी बदली।
देवेदु अपने कमरे में बैठा, कुछ लिख रहा था। अपने ही विचारों में मग्न था। सुधा को देख कर भी उसने उसकी तरफ नहीं देखा। वह कुछ देर होंठों पर मुस्कान लिए यों ही खड़ी रही। फिर उसके कंधे को छूकर बोली, “क्या लिख रहे हैं आप ? चलिए न छत पर देखिए तो चाँद कितना सुंदर लग रहा है।”
विचारों की श्रृंखला टूट गई। देवेंदु झुंझला कर बोला, “शांति से लिखने भी नहीं देती तुम। मैं क्या सोच रहा था, सब भूल गया। मैं क्या तुम्हें मना कर रहा हूँ? तुम देखो न जाकर चाँद को।”
अपमानित हो कर सुधा तेजी से छत पर चली गई। खिली चाँदनी में वह छत पर आँसू बहाने लगी।
देवेंदु अभी कुछ सोच ही रहा था कि अविनाश के गुनगुनाते हुए सीढ़ियाँ चढ़ने की आवाज आई। शायद वह छत पर जा रहा था।
सुधा से अविनाश की बहुत पटती है। अभी उसी दिन तो वह भोजन के समय माँ से कह रहा था, “भाभी घर का सब काम करती हैं, फिर भी कुछ नहीं कहती। पर उनकी छोटी मोटी गलतियाँ देख कर तुम लोगों की सहनशीलता क्यों जवाब दे जाती है?”
“कौन सा बहुत सारा काम करती है वह ? अपने घर का काम तो दुनिया करती है। उसे तो पहले ही पता था कि हम लोग गरीब आदमी हैं। घर का काम तो करना ही पड़ेगा”- माँ ने कहा।
“लेकिन हमारी आँखों पर तो पट्टी नहीं बंधी थी। हमें भी तो इस बात का ध्यान रखना था कि नौकरों के बीच पली लड़की कैसे काम संभाल सकेगी।” अविनाश बोला।
जो भी हो, मैं भाभी को समझ नहीं पाया। पता नहीं, वह क्या देख कर हमारे यहाँ आ गई और फिर जिसके लिए आई थी, वह भी उन्हें न मिला।” अविनाश ने तिरछी नजर से देवेंदु को देखते हुए कहा था।
देवेंदु का मन विचलित हो गया था। उसने कलम मेज पर रख दिया और छत पर जाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
सुधा कह रही थी, “यदि यह चाँद धरती पर आ जाए तो न इसकी प्रभा रहेगी न सौंदर्य। आज जो इसे मुग्ध होकर देख रहे हैं, उनके कदमो में भी इसे स्थान न मिलेगा।”
कैसी वेदना थी सुधा के स्वर में। देवेंदु का मन एक बारगी काँप उठा। सच ही तो कहा है सुधा ने। वह भी अपनी बहन की तरह कुर्सी पर बैठ कर हुक्म चला सकती थी। किस बात की कमी थी उसमें? इतने सुख में पली लड़की उसके स्नेह के खातिर ही तो सब कुछ त्याग कर चली आई थी और उसके बदले उसे क्या मिला था? उपेक्षा और प्रताड़ना।
भावनाओं को संयत करके वह उपर गया। देवर भाभी खड़े खड़े बातें कर रहे थे। देवेंदु ने अविनाश से कहा, “जा मेरी जेब से पैसे निकालकर मिठाई और नमकीन ले आ। कल कवि सम्मेलन है, मैं घर पर नहीं रहूँगा। हम सब आज ही शरद पूर्णिमा मना लेंगे।”
“यह हुई न कुछ बात,” अविनाश ने हँसते हुए कहा और नीचे चला गया। देवेंदु ने समीप जा कर सुधा का मुख अपनी ओर किया और बोला, “क्यों, बुरा मान गई मेरी बात का?” सुधा कुछ न बोली।
देवेंदु ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया धीरे से कहा। “माफ नहीं करोगी मुझे?”
सुधा फिर भी चुप रही। ऐसा लगता था मानो उसकी भावनाएँ मर चुकी हैं। वह उसका हाथ पकड़े वैसे ही खड़ा रहा। दूर आकाश में चाँद सचमुच भव्य लग रहा था।
वह रात भी तो ऐसी ही रात थी, जिस रात उसने सुधा के घर जा कर अपना प्रणय गीत सुनाया था। वह गीत उसे याद था।
कुछ देर मौन रहने के बाद देवेंदु उसी गीत को गाने लगा। सुधा को लगा मानो किसी ने अंगारे वर्षों दिए हों। उसने अपना हाथ खींच लिया और तीव्र स्वर में बोली “मुझे नहीं सुनना है आपका गीत। अब यह गीत गाकर किसी और को मूर्ख बनाइए।”
उसकी यह तेजस्विता देख कर देवेंदु अवाक् रह गया।
“आप जैसा व्यक्ति ऐसा गीत लिख ही नहीं सकता। यदि सचमुच यह आपने लिखा था तो वह कम से कम मेरे लिए नहीं था,”-उसने फिर कहा।
देवेंदु हतप्रभ रह गया। उसने कहा- “नहीं सुधा यह तुम्हारे लिए ही लिखा था। तुम्हारी सौगंध।”
सुधा जलती आँखों से शून्य में देखती हुई मौन खड़ी थी।
देवेंदु रो पड़ा। सुधा फिर भी न पिघली। देवेंदु धीरे-धीरे नीचे उतर आया। आज सुधा के व्यवहार के कारण उसका कवित्व कलंकित और लांछित हुआ था। उजड़ी गृहस्थी तो फिर बस जाती है, पर एक बार का टूटा विश्वास क्या फिर जुड़ पाता है? उसकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे।
फिर क्रोध शांत होने के बाद पता नहीं, पीछे से सुधा कब आई। उसने अपने आँचल से उसके आँसू पोंछते हुए कहा-”चलिए आँसुओं को पोंछिये , अविनाश आता होगा।”
देवेंदु सुधा के कंधे पर सिर रख कर सिसक पड़ा।
सरोज दुबे
( प्रकाशित - सरिता, द्वितीय नवम्बर 1980)