बदलते समीकरण (व्यंग्य)
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
गणेश भगवान ने दीवार घड़ी की ओर देखा। रात्रि के दो बज गये थे। आशीर्वाद और लड्डू वाले हाथ की मुद्रा के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया था। चूंकि सामने अब न तो कोई आशीर्वाद का आकांक्षी था और न ही उनके फैले हाथ में कोई लड्डू देने वाला भक्त था। उसी तरह पीछे की दो भुजाएँ भी भारत नाट्यम की शैली में बाला सरस्वती सी उठीं हुई प्रतीत हो रही थीं। भक्त और दर्शनों के अभाव में महत्वहीन सी जान पड़ रहीं थीं। गणेश जी एक आसंदी में बैठे बैठे परेशान भी हो गये थे। घर के सभी लोगों को सोता हुआ देखकर मौके का फायदा उठाया और दूरदर्शन की ऐराबिक एक्सरसाईज को तालबद्ध करने में तल्लीन हो गए। हमारे वैदिक और पाश्चात्य संस्कृति का अद्भुत मेल था। इस व्यायाम से निकलने वाली पद घ्वनि हमारे तबलावादक जाकिर हुसैन को भी मात दे रही थी। धीर धीरे उनके नृत्य थिरकन में तेजी आती गयी और फर्श कांपने लगा।
उनके इस नृत्य से घबराकर बिलों में छिपे सारे चूहे निकलकर यहाँ वहाँ भागने लगे। तब भला मूषकराज जो अभी अभी तृप्ति की लम्बी डकार लेकर विश्राम कर रहे थे। इस धमाचैकड़ी भरे माहौल को कब तक बर्दास्त करते। उन्होने तुरंत सफेद टोपी लगाई और बाहर निकल आये सामने अपने ही प्रभु को देखकर चैंके, फिर उन्हें ऐरोबिक एक्सरसाईज की मुद्रा में देखकर खुशी से उछल पड़े। दूर से ही दंडवत प्रणाम करके अपलक निहारने लगे। उन्होंने खुले बदन पर नाभि के नीचे से पीला वस्त्र धारण कर रखा था और गले में लाल रंग का रेशमी दुपट्टा लहरा रहा था। गले से लटकता मणि मोतियों का हार से उनका दमकता सीना और रत्नजड़ित स्वर्णमुकुट से आता डिस्को लाईट जैसा रंगीन प्रकाश सारे कमरे को किसी रंगमंच की साज सज्जा को भी लजा रहा था। लम्बोदर की यह नृत्य मुद्रा उनके पिताश्री के नटराज और भारत नाट्यम की शैली को छीनने व्याकुल नजर आ रही थी। जब उनके बदन से पसीने की बूंदे सरिता बन कर बहने लगीं, तब उनके नृत्य में विराम लगा और थके मांदे से निढाल होकर अपनी आसंदी में एक धमाके के साथ गिर पड़े फिर गोल तकिया का सहारा लेकर सुस्ताने लगे।
विश्राम के तीन चार घंटे के बाद उनके पेट में दौड़ रहे चूहों ने पीटी ऊषा के सारे रिकार्डों को भी ध्वस्त कर दिया। उन्होंने अपने चारों हाथों से उदरांचल को सहलाया दबाया फिर मसला ताकि पेट के चूहों को कुछ समय अवरोधक दौड़ के लिए विवश किया जा सके। किन्तु लगता था उनकी यह दौड़ हमारे देश में हो रही दौड़ों की तरह से हीं थीं जो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। हाथों में झंडे लिए जिसे देखो वही देश के लिए दौड़ रहा था। इस दौड़ से वे क्या हासिल करना चाह रहे थे या किसे जगाना चाह रहे थे वे खुद भी नहीं जानते थे। कुछ इस तरह यहाँ भी हो रहा था। लगता था कि वे लम्बोदर की दीवारों में छेद करके स्वर्णपदक को हासिल करके ही मानेंगे।
अपने प्रभु की यह पीड़ा देखकर मूषकराज से रहा नहीं गया। तृप्ति की लम्बी डकार लेकर कोल्ड ड्रिंक के विज्ञापन स्टाईल में अपने प्रभु से कहा-प्रभु, क्या हाल बना रखा है, कुछ लेते क्यों नहीं....? क्या आपने लड्डू खाये? खाली पेट रहेंगे तो का शरीर यही हाल होगा। माना आपको अपनी बढ़ी तोंद देखकर पछतावा हो रहा होगा किन्तु प्रभु आपको लम्बोदर के नाम से भी तो जाना जाता है। यदि यही खत्म हो गयी तो आपको लोग पहचानेगे कैसे? दूसरी बात यह है कि- हे प्रभू, आप इस परिधान में यह एक्सरसाईज क्यों कर रहे थे, यदि पाश्चात्य संस्कृति वालों ने देख लिया तो आप पर मुकदमा भी चला सकते हैं कि आप उनकी पाश्चात्य संस्कृति को नष्ट कर रहे हैं।
कई दिनों से लापता अपने वाहन मूषकराज को देखकर खुशी से उछल पड़े थे। उन्होंने डांटते हुए कहा- हे वत्स, कितने दिनों से तेरी राह देख रहा था। क्या तूने और कहीं नौकरी कर ली है? कई दिनों बाद तू दिख रहा है। वेतन तो तेरे खाते मंे जाता है, पर काम कुछ करता नहीं है। अरे जरा इन पैरों को देख वत्स, पैदल चलते चलते कितने छाले पड़ गये हैं।
मूषकराज ने बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़कर कहा- प्रभु आप पैदल चलते ही क्यों हैं? अपने एयरकूल आफिस में आराम से बैठिए। जिसको आपसे काम होगा वह स्वयं आपके पास चलकर आएगा। व्यर्थ में आप कष्ट उठाते हैं।
गणेश ने कहा- हे वत्स तेरी यह सलाह अच्छी लगी। इससे मेंरे विभाग का प्रशासनिक व्यय भी कम हो जाएगा। पर वत्स तुझे नौकरी से भी निकालना पड़ेगा, जिसका मुझे बड़ा दुख होगा।
मूषकराज ने हँसते हुए कहा- हे प्रभु, शायद आपको कानून का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं है। छैः माह काम करने के बाद किसी को भी नौकरी से इस तरह नहीं निकाला जा सकता। यह लेबर कानून के अंतर्गत दंडनीय अपराध होता है। फिर मैं तो हजारों साल से आपका स्थाई कर्मचारी हूँ। यदि आपने मुझे जबरन निकाला तो मुझे गांधी दर्शन का भली भांति ज्ञान हो गया है। अब तो मेरे पास उनके आधुनिक प्रक्षेपास्त्र हैं, भूख हड़ताल घेराव बंद जिन्दावाद मुर्दावाद आमरण अनशन आदि का नाम तो सुना ही होगा। अगर आप अखबार पढ़ते हैं तो इसके परिणाम से भी आप भली भांति परिचित होंगे। आपको हमसे टकराना भारी पड़ेगा, आपकी छवि भी धूमिल होगी वह अलग।
गणेश जी ने अपनी भोंहें चढ़ाकर कर कहा-हे वत्स तू मुझे धमका रहा है? पुत्र तेरी बुद्धि का क्या हो गया है? यदि तुझे नौकरी से निकाल दिया, तो तेरे परिवार का क्या होगा सोचा कभी तुमने?
मूषकराज से रहा नहीं गया। अपनी मूंछों को फटकारते हुए कहा- तो महाराज आप मुझे बार बार डरवा क्यों रहे हैं। मैं तो चाहता हूँ आप मुझे नोकरी से निकाल दें। मुझे इसी बहाने पन्द्रह बीस साल का आराम मिल जायेगा। बाद में एक मुस्त रकम भी आपसे समझौते के रूप में मिल जायेगी। हे प्रभु आजकल तो यह काम लोग लम्बी लम्बी घूस देकर करवाने लगे हैं। उस दरम्यान अपना साईडबिजनेस भी करने लगते हैं। उसके सामने आपका यह तुच्छ वेतन क्या मायने रखता है। यह मेरे सिर पर जो टोपी आप देख रहे हैं इसे आजकल सभी नेता पहिन रहे हैं। जो देश के कर्णधार कहे जाते हैं। किस शान शौकत के साथ जीते हैं, आप उनके सामने तो कुछ नहीं। आप भी इसे धारण करके देखिये कैसे भक्तो की भीड़ बढ़ेगी आप खुद दंग हो जायेंगे।
गणेशजी ने उसे टोकते हुए कहा- हे पुत्र क्या बहकी-बहकी बातें कर रहा है? यह अच्छा नहीं पुत्र, वाणी में संयम रख। सामने देख जो गहरी नींद में मेरा भक्त सो रहा है। बाजार में पचासों चक्कर काटने के बाद मुझे मोलभाव करके, चार किलामीटर नंगे पैर पैदल सिर पर धरकर लाया है। मेरा भक्त कठिन कर्म करके धर्म और आस्था के बीच जीता है इसलिए हे पुत्र उसे सोने दे। हे पुत्र तू सदियों से मेरी पहचान का अभिन्न अंग बन गया है। चल छोड़ यह झगड़ा। चल अब कुछ और घरों में भक्त संपर्क कर आयें। हे पुत्र क्या तुझे मालूम नहीं है कि भक्तों को ज्यादा कष्ट देने से उनकी आस्था डिग जाती है। आज चतुर्थी का दिन है अभी तक खाने को इस घर में कुछ भी नसीब नहीं हुआ। चलो किसी भक्त के यहाँ शायद कुछ व्यवस्था हो जाए।
मूषकराज ने क्षमा मांगते हुए कहा- प्रभु जैसा आपका भक्त संम्पर्क होता है वैसा ही मुझे जनसंपर्क करना होता है। दो घंटे बाद सुबह होने वाली है, मुझे इजाजत दीजिए। और हाँ मुझे नहीं मालूम था कि आज गणेश चतुर्थी है। यह आपका भक्त आपके लिए लड्डुओं का प्रसाद लाया था जो कि भूलवश मैंने खा लिया था। दोंने में शायद झुरकन ही बची होगी। आपके निराहार होने का मुझे हार्दिक दुख है।
पेट की भूख और मूषकराज के असहयोग भरे आचरण ने गणेशजी को विचलित सा कर दिया था। क्रोधित होकर कहा- ‘मूर्ख तू दूसरे के हिस्से को भी डकारने लगा है। इस तरह चोरी करते तुझको शर्म नहीं आयी?’
महाराज जरा जबान सम्हाल के बात कीजिए। आप अपनी सीमा को लांघ रहे हैं। यह चोरी नहीं यह तो हमारा सदियों से चला आ रहा मेहनताना है जिसे आप कमीशन भी कह सकते हैं। जिसका मैं कानून अधिकारी हूँ। आपको नृत्य करता देख सोचा आप का पेट भर गया होगा इसलिए मैं पूरा खा गया था।
गणेशजी की सहन शक्ति की सीमा टूट चुकी थी। उन्होंने अपनी संड़ उठाकर मूषकराज पर दे मारी। इस अप्रत्याशित प्रहार से मूषकराज भी क्रोधित हो उठा और बोला- प्रभू सत्य बोलने की यह सजा है? यदि मैं आपको न बताता तो क्या आपको पता चलता? आप कितने भी आयोग बैठाते कभी मालूम नहीं पड़ता। आपके इस आचरण पर मैं जेल डलवा सकता हूँ। मानहानि का दावा करके न्यायालय में घसीट सकता हूँ। सालों चक्कर काटते रहोगे फिर समझोते के लिए मेरे पीछे भागते फिरोगे।
क्या आप को मालूम नहीं है कि राम कृष्ण को आज तक अपनी जन्म भूमि नसीब नहीं हो पायी। सैकड़ों सालों से न्यायालय के चक्कर काटते फिर रहे हैं। आपको अभी इसी वक्त मुझसे माफी मांगनी होगी अन्यथा मैं इसी वक्त आपके भक्त को जगा कर बतलाये दे रहा हूँ कि उसके किचन में रखे लड्डू भी आपने खाये हैं। शायद आपको नहीं मालूम होगा कि भारतीय धर्मशास्त्र के अनुसार असली गणेशजी कभी लड्डू नही खाते हैं। लड्डू सदा पुजारी और भक्त ही खाते हैं। यदि मैंने आपको नकली सिद्ध कर दिया तो क्या होगा यह आप भली भांति समझते होंगे। आप निष्कासित नेताओं की तरह अधर में लटकते नजर आयेंगे।
गणेशजी घबरा गये । एक तो उपवास और दूसरी ओर इस मूषकराज की धमकी। वे याद करने लगे जब यह अपने परिवार की दुहाई देता हुआ दीनहीन गिड़गिड़ाता हुआ, मेरे पास याचक बनकर आया था। कोई भी इसे अपने पास फटकने भी नहीं दे रहा था। तरस खा कर मैंने इसे नौकरी पर रख लिया। कल और आज में इसमें कितना अंतर आ गया। कहाँ से यह सब ज्ञान सीख कर आया। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अभी तक तो वही बुद्धि के ज्ञाता के रूप में जाने जाते थे। यह तो मेरे से आगे निकल गया। उनके हाथ पांव सुन्न पड़ गये थे। सिर चकराने लगा। तुरंत गोल तकिया का सहारा लेकर किंकर्तव्य विमूढ़ से बैठ गये। उठे विवाद के क्षणों को कोसने लगे अपनी करुणामयी आवाज से कहा-
हे वत्स मुझे क्षमा कर दे। मैं वैसे तो ज्ञान और बुद्धिदाता के रूप सारे संसार में पहिचाना जाता हूँ किन्तु आज हे पुत्र तेरे इस आधुनिक ज्ञान से पराजित हो गया हूँ। मेरी मति मारी गई थी जो तुमको नासमझ अज्ञानी प्राणी मान बैठा मुझसे भयंकर भूल हुई। हे वत्स मेरे इस थककर सोये भक्त को मत जगा। उसे अभी और सोने दे। मैं अब अच्छी तरह से समझ गया हूँ कि तू अपने ज्ञान से उसकी मति को बदल सकता है। उसकी आस्था को भी डिगा सकता है, यदि उसकी आस्था डिग गयी तो इस देश की सदियों पुरानी सभ्यता और संस्कृति को बड़ी ठेस पहुँचेगी। ले यह सूंड़ इसी ने तुझ पर क्रोध से प्रहार किया था न, इसे कुतर डाल। इसे सजा दे।
मुषकराज ने कहा- प्रभू लगता है मुझे आप किसी षड़यंत्र में घसीटना चाहते हैं। तभी तो सूंड़ को कुतरने के लिये उकसा रहे हैं। फिर कुतरी हुई सूंड़ अपने भक्तो को दिखाकर उनसे पिटवाना चाहते हैं। ताकि मैं उनकी नजरों में गिर जाऊँ और ऊपर से लड्डुओं को खाने का आरोप भी मेरे सिर पर मढ़ना चाहते हैं। आपकी चालाकी मैं अब मैं नहीं फसने वाला। आप यदि समझौता ही करना चाहते हैं, तो मुझे आप रत्नजड़ित हार मुकुट सारे आभूषण दे दीजिए और फिर यहाँ से चलते बनिए। आपका यह भक्त बहुत धनवान है और इस घर में बहुत सारा पकवान है।
गणेशजी ने यह सुनहरा अवसर खोना उचित नहीं समझा और मूषकराज के इस संधि प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उससे मुक्ति की लम्बी सांस ली। पैदल ही खाली पेट वे भक्त संपर्क के लिये निकल पड़े।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”