बेटों का टिफिन
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
साधारण परिवार में जन्मे धनीराम, अपने पिता मेवाराम जी के बड़े बेटे थे। अपने जीवन भर कमाई करने के बाद भी स्वयं धनवान तो नहीं बन पाए थे किन्तु अपने बेटों को सीमित संसाधनों में पालपोस कर बड़ा जरूर कर दिया था। स्वयं तो पढ़े लिखे थे नहीं, पर अपने बच्चों को जितना हो सका पढ़ाया लिखाया। करते भी क्या घर में उनके पिता मेवाराम जी का अपना ‘हाथ करघे ’ का काम था। उनने अपने चारों बेटों को बचपन से ही विरासत पाई ‘हाथ करघा’ मशीन को उनके हवाले कर दिया था। उनके हाथों में सदा दर्द बना रहता। उनके चारों बेटे किसान के बैलों की तरह दिन रात काम में जुटे रहते थे। तब कहीं उनके घर की गाड़ी चल पाती थी। वे सभी मिलकर सूत से कपड़ा बुनते फिर ‘बुनकर सोसायटी ’में बेच आते। रात दिन उनका यह खटखटा चलता रहता। सारे मुहल्ले में वे खटखटा की आवाज गुँजाते रहते, उनके यहाँ साड़ियाँ, चादरें और कपड़े बुने जाते थे। तैयार होने पर मेवाराम जी उसको बुनकर ‘सहकारी दुकानों’ में जाकर बेच आते। उसी से परिवार की दाल रोटी निकल आती। बदलते समय के साथ तेजी से खुद को भी बदलना पड़ता है। उनके पिता मेवाराम जी में वह क्षमता थी।
सरकार को इन बुनकरों की जब सुध आई या यों कहें कि कुछ तरस आया, तो इनकी दशा सुधारने के लिए सहकारिता के आधार पर ‘बुनकरों की सोसायटी’ बना दी और ‘हाथ करघों ’की जगह सस्ते लोन पर ‘पावर हैन्डलूम’ मशीन को उपलब्घ करा दी। जिसे कुछ लोग ‘पावर लूम’ के नाम से भी पुकारते थे। उक्त अवसर का लाभ उनके पिता मेवाराम जी ने तुरंत ले लिया। परिणाम स्वरूप चारों लड़कों के पास चार मशीनें हो गयीं । चारों के पास ‘पावरलूम’ कपड़े बनाने की मशीनें चल पड़ीं। इससे कुछ वर्षों तक सभी की गाड़ी पटरी पर अच्छी तरह से दौड़ी। किन्तु इसका लाभ ज्यादा वर्षों तक नहीं चल पाया। कारण मार्केट में हैन्डलूम कपड़ों की जगह बड़ी मशीनों और बड़े कारखानों के उत्पादित सिंथेटिक कपड़ों ने ले लिया। और उनका उत्पादन धरा का धरा रह गया। बाजार में डिमांड न होने से इनकी छोटी मशीनें धीरे धीरे कर्ज के बोझ तले दब गयीं। बुनकरों को सरकारी सहायता की वैशाखी भी ज्यादा दिन न चल सकी। और चारों भाई बेरोजगार हो गये।
इसी बीच धनीराम के माता पिता भी स्वर्ग सिधार गये। उनके मार्गदर्शक उनसे दूर हो गए। किंकर्तव्य विमूढ़ धनीराम अपना समय चाय पान के ठेलों में गुजारने लगे। धनीराम की पत्नी भाग्यवंती सही मायनों में धनीराम के लिए भाग्यवंती साबित हुई। अपने इन बुरे दिनों में भी छुटपुट काम करके अपने परिवार का पेट भरने का बंदोबस्त करती रही। अपने जीवन की संध्या बेला में धनीराम अपने तन मन से निर्धन सा हो गया था। यह तो उसका भाग्य था कि उसके अच्छे दिनों में दोनों बेटों की शादी हो गयी थी। पहला बेटा अमर किस्मत का धनी निकला। उसकी सरकारी नौकरी लग गयी थी। पर दूसरा बेटा गरीबदास एक प्राईवेट कम्पनी में काम कर रहा था। गरीबदास का वेतन बड़े भाई से कम तो था पर इतना भी कम न था कि वह अपने माँ बाप को न खिला पाता। किन्तु सदा अपने कम वेतन का उलाहना देकर वह अपने माँ बाप को अमर के साथ रहने को उकसाता रहता। इधर धनीराम कम वेतन और अधिक वेतन में उलझ कर रह गया था। पर दोनों धनीराम के अपने बेटे तो थे और बेटों का फर्ज होता है कि अपने पिता का भरण पोषण करे।
धनीराम अपने इन दोनों बेटों के बीच अपनी पत्नी के साथ एक फुटबाल की तरह कभी इधर तो कभी उधर भटकने को मजबूर हो गया था। पर कहीं खाने पीने का स्थाई ठिकाना नहीं बन पा रहा था। उसका जीवन घड़ी के पेन्डुलम की तरह कभी इधर तो कभी उधर चल रहा था। पिता से बटवारे में मिली जगह जिसमें दो कमरे और एक परछी भर थी। धनीराम अपने दो कमरों का साम्राज्य अपने दोनों बेटों को सौंप चुका था और स्वयं अपनी पत्नी के साथ घर की परछी के कोने में अपनी आश्रय स्थली बना चुके था।
जैसे कहा जाता है कि नाव में छेद होते ही चूहे सबसे पहले भाग लेते हैं, उसी तरह उसकी बड़ी बहू बहुत ही होशियार निकली। उसने एक कमरे का मोह छोड़कर अपने पति अमर को डूबते जहाज से किनारा कर लेने की सलाह दी। जिसे तुरंत ही अमर ने अपने पिता धनीराम को यह कहकर कि अब घर छोटा पड़ने लगा है, का रोना रोया। धनीराम अपने बेटे के मनोभावों का ताड़ गया था। वह अन्दर से काँप उठा था।
एक दिन दृढ़ निश्चय करके अमर ने अपने माँ बाप से कहा कि जमाना आपको नहीं मुझे धिक्कारता रहता है, हम आपको सुखी और आराम से रहते हुए देखना चाहते हैं। दूर रहते हुए भी हम आपका सदैव ध्यान रखेंगे। यह आश्वासन देकर वह घर से दूर किराए के मकान में रहने को चला गया। जबकि यह समय धनीराम को कमरे की नहीं बल्कि पेट की चिन्ता का था। इसी लिए तो उसने परछी में ही अपनी दुनिया बसा ली थी। ऐसे समय में धनीराम को अपने इसी बेटे से एक मात्र सहारे की आस थी। पर वह भी मंझधार में छोड़ कर चला गया।
हर नाविक अपनी डूबती हुई नैया को बचाने के लिए बहुत यत्न करता है। बेटे के सामने अपने सत्तर वर्ष के बुढ़ापे का रोना रोया और काँपते तन से अपनी आँखों से संवेदनाओं का सारा सागर उड़ेल कर रख दिया। बेटों को उनके कर्तव्य की याद दिला कर खूब समझाया पर इसका उन पर औधें घड़े की तरह कोई असर नहीं पड़ा।
धनीराम ने समाज की मीटिंग बुलाई। ऐसे समय समाज का भी अपना रोल होता है। समाज के लोगों ने धनीराम की अंतरव्यथा को बड़े धैर्य के साथ सुना और बेटों की भी बातों को सुना। सभी ने बेटों को उनके कर्तव्यों की याद दिलाई और एक स्वर में दोनों बेटों को लताड़ा। अंततः समाज के दुत्कारों से घबरा कर अमर और गरीबदास ने उनके सामने एक शर्त रख दी कि दोनों में से कोई एक को अपने साथ घर में रख सकते हंै।
बेटों का फैसला सुनकर धनीराम ने भाग्यवंती को निहारा। दोनों की आँखों में विछोह की पीड़ा उमड़ पड़ी। इस उम्र में उसकी आत्मा ने अपनी जीवन संगनी से अलग रह कर शेष जीवन गुजारने को मना कर दिया। वह अपने बेटों की तरह अपनी धर्मपत्नी का साथ नहीं छोड़ सकता। जब तक जिन्दा हूँ , हम दोनों साथ ही रहेंगे। चूँकि यह मामला किसी पर भार का नहीं था इसलिए आराम से सुलझ गया था।
अब केवल माँ बाप के पेट की आग बुझाने का मसला रह गया था। दोनों बेटों ने एक दूसरे को देखा। बेटे गरीबदास की ममता अपने माँ के प्रति उमड़ी तो उसने माँ का टिफिन बनाकर रोज देने का वायदा कर दिया। और अमर ने अपने पिता को अपने हिस्से में बाँट कर कह दिया कि वह रोज इनको टिफिन लाकर देगा। इस तरह दोनों बेटों को मात्र एक टिफिन से अपने जीवन जीने की स्वतंत्रता मिल गयी थी। उनके दोनों बेटों के लिए अपने कर्तव्य निर्वाह का इससे सुंदर और सुगम रास्ता कोई हो भी नहीं सकता था। तो दूसरी ओर धनीराम और भाग्यवंती को ऐसी विषम परिस्थितियों में लगा कि जीवन जीने के लिए भोजन ही तो चाहिए अगर बना बनाया मिल जाए तो और क्या चाहिए। सिर छुपाने के लिए छप्पर तो है ही। अब शेष जीवन गुजारने के लिए यह समझौता ही अच्छा है। इस फैसले से सभी पक्ष पूरी तरह से खुश थे।
भाग्यवंती का एक टिफिन दो कदम से चलकर पहले आ जाता था। पर धनीराम का टिफिन तीन किलोमीटर दूर से आता। जो अक्सर देरी से आता। बगैर पति के खाए, पत्नी भाग्यवंती कैसे खाना खाती। अक्सर भाग्यवंती अपने पति को अपने हिस्से का खाना खा लेने का आग्रह करती। पर धनीराम जब आएगा तब खा लेगें कहकर टाल देता। पत्नी धर्म की वजह से भाग्यवंती का खाना रोज रखे रखे ठंडा हो जाया करता। धनीराम को बड़ा बुरा लगता।
कुछ दिनों तक तो पहले आप, पहले आप की रश्म अदायगी काफी दिनों तक चलती रही। इस रश्म अदायगी को तोड़ने के लिए धनीराम ने अपनी एक नई जुगत निकाल ली थी। वह जरूरी काम का बहाना बनाकर घर से पहले ही निकल जाता। सड़क के दूसरे मोड़ पर बने मंदिर की पट्टी पर जा बैठता और बड़े बेटे अमर के टिफिन की प्रतीक्षा करता रहता। इस दरम्यान उसके पेट में दौड़ते चूहे भी बड़ा खुरापात मचाते थे। जैसे ही उसका टिफिन दिखता वह अपने घर की और दौड़ लगा देता। किन्तु जब वह देखता कि पत्नी ने अंततः अपना टिफिन खा लिया तो मुस्करा कर वह हल्की चुटकी लेता। पर दूसरी ओर उसके मन को बड़ी शांति मिलती। चलो भाग्यवंती ने खाना तो खा लिया। हाँ उसे इस तरह अकेले खाने का दुख तो अवश्य होता।
कभी कभी तो धनीराम काफी देर इंतजार करता। मंदिर की पट्टी में बैठे कभी भगवान की ओर निहारता कभी सड़क के दूसरे छोर को निहारता जहाँ से उसका टिफिन आता था। जब उसकी आँखें थक जातीं। आशाएँ खत्म हो जातीं। तो वह उठता पिआउ से चार पाँच गिलास पानी पीता, एक डकार लेकर अपने घर की ओर चल देता। घर पर पत्नी भागवंती उसकी प्रतीक्षा में बैचेन बैठी रहती। उसे देख फिर एक लम्बी सी डकार लेता और अपने बेटे के घर जाने की मन गढ़ंत कहानी सुनाकर पेट तृप्ति का बखान कर देता। ताकि भागवंती को पति के भूखा होने का दुख और पश्चाताप् न हो। पर झूठ सदा झूठ ही रहता है। नकली सिक्का सदैव नहीं चलता है, कभी कभी पकड़ा भी जाता है। तब कंगाल आदमी के पास रोने या आँसू बहाने के सिवाय अन्य कोई रास्ता भी तो नहीं होता।
ऐसा बहुत ही कम होता था, जब कभी दोनों का टिफिन एक साथ आ जाता, तो ऐसे पलों का कहना ही क्या। दोनों अपने अपने टिफिन को खोलते और एक दूसरे के टिफिन से मिल बाँट कर खा लेते। मानों दोनों बेटों के घरों के बने खाने का स्वाद एक ही जगह मिल जाता। छोटे बेटे के घर से आई दाल में यदि नमक तेज होता, तो बड़े बेटे के घर की दाल को मिला कर ठीक कर लेते। वही हाल सब्जी का होता दोनों मिलजुल कर सब्जी खा लेते। दोनों बहुओं के हाथों का बनाया खाना खा कर मानों, दो अलग अलग स्वादों का रसास्वादन हो जाता। यह उनके जीवन का एक अनोखा रंग था और एक अलग स्वाद था, जिसे दोनों ऐसी विषम परिस्थितियों में भी अपने जीवन में सुख और आनंद को तलाश रहे थे।
यह सुख और आनंद उनके जीवन में सदा आता हो ऐसा भी नहीं था। कभी कभी दोनों की भूख हड़ताल भी हो जाती थी। भूख हड़ताल का कोई ठिकाना नहीं होता। तब उनको या तो पानी पीकर ही उस दिन को गुजारना होता या कभी कोई एक घर के खाने से आधा आधा पेट भरकर दोनों अपनी भूख मिटा लेते। वह दिन उनके लिए बड़ा दुर्भाग्यशाली होता जब दोनों घरों से खाना न आ पाता। ऐसे अवसर तब ही आते जब दोनो बेटे अपनी ससुराल में किसी रिश्तेदार की शादी में या तीज त्यौहार मनाने एक साथ चले जाते। तब स्वाभाविक है वे तो अपना तीज त्यौहार शादी पर्व मना लेते और वहाँ खूब छक कर माल पुआ खाते किन्तु धनीराम के यहाँ तो पूर्ण रूप से भूख हड़ताल ही हो जाती।
ऐसे समय दोनों मिलकर भगवान से यही प्रार्थना करते कि हे भगवान आज हम दोनों तेरे नाम से उपवास कर रहें हैं। और केवल एक ही प्रार्थना करते हैं, कि अगले जनम में भी हमारा यही जोड़ा सलामत रखना किन्तु बेटों के टिफिन का इंतजार मत करवाना। कह कर दोनों मटके से एक एक लोटा पानी निकालते और भगवान को अर्पण कर उसे पूरा पी जाते.... और सो जाते हैं ... उस नई सुबह के लिए ...और उस भोर के लिए जो कल उनके जीवन में पुनः आने वाली है ...कैसी होगी ? उन्हंे नहीं पता ... पता तो केवल उनके बेटों को है या इस भगवान को......जो उसके लिए दो टिफिन .....
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”