भिखारिन
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
बड़े महावीर का मंदिर।
जबलपुर नगर के व्यस्ततम् क्षेत्र के मध्य में चर्चित हनुमानजी का मंदिर है। प्राचीन है। इनके दर्शन से विध्न बाधाओं का नाश होता है, मन्नतें पूरी होती हैं, ऐसा लोगों का विश्वास है। इसलिये श्रृद्धालुओं की भीड़ नित्य होती है और सभी अपनी अनुनय विनय प्रार्थना इनकी सेवा में समर्पित करते हैं। इससे उनके मन का बोझ हलका होता है और शांति मिलती है। मंदिर में भक्ति का क्रम लगातार दिन भर बना रहता है। पर सायंकाल यह क्रम भारी भीड़ में परिवर्तित हो जाता है।
शनि, मंगलवार को तो यह संख्या दुगनी हो जाती है। वैसे तो प्रसाद चढ़ाने का क्रम और भारी भीड़ नित्य ही रहती है। इन दोनों दिन लोग प्रसाद के रूप में पुडी साग हलुआ आदि खाद्य सामग्री चढ़ाते हैं और वहाँ एकत्रित गरीबों में भी वितरित करते हैं। इसलिये निराश्रित और भीख माँंगने वालों की संख्या हमेशा बनी रहती है। हर मौसम में, मंदिर आये श्रृद्धालुओं से इनका उदर पोषण होता रहता है। इन भीख माँंगने वालों में विभिन्न प्रकार के भिखारी हैं। अपंग, लाचार, गृहविहीन, वृद्ध, रोगी आदि इन दुखियारों को केवल वर्तमान से वास्ता है। आज का दिन कट जाये कल की कल देखेंगे। उदर में भूख लगती है इसलिए कुछ न कुछ खाने का हर प्राणी का नियम है, उसी तरह से इनका भी है। यहाँ की परम्परा आज में जीनें की है।
सब लोग इनके दुखों और कष्टों से दृवित होकर कुछ न कुछ दे जाते हैं। इस क्रिया से वे स्वयं अपने खाते में पुण्य की अभिलाषा भी संजोए रहते हैं। इनके क्षीण शरीर में संघर्ष की क्षमता कम होती और दुनियाँ से अलविदा हो जाते हैं। कभी-कभी मौसम की क्रूरता से भी पड़े-पड़े यहाँ जीवन समाप्त हो जाता है। समाज में इसे अच्छा भी कहा जाता है कि देव स्थान मे देह त्यागने से प्राणी सीधा स्वर्ग जाता है। अपने देवता की दयालुता प्रत्यक्ष हमारे सामने है। वे अपनी शरण में आये हर प्राणी का ध्यान रखते हैं। तभी तो वे अपने भक्तों को प्रेरित कर इन्हें कुछ देने को बाध्य करते रहते हैं। एवज में इन दरिद्रनारायण से आशीर्वाद दिलवाते हैं। दीन-हीन लाचार का आर्शीर्वाद बड़ा दम-खम वाला माना जाता है। क्योंकि वह उनके सीधे अन्तःस्थल से प्रस्फुटित होता है। जो जैसा पात्र वैसा ही आशीर्वाद देते हैं। उनके आशीर्वाद के कई प्रकार हैं, जैसे।
“बाबूजी, महावीर आपके सारे कष्ट दूर करें।’ ........‘भैयाजी, जय हो आपकी।’....
‘सेठ जी, आपका व्यापार दिन दूना रात चौगुना बढ़े”।...
‘माता जी, आपके लड़के नाती पोतों की लम्बी उमर हो।’....
‘बहिन जी, आपका सुहाग अमर रहे।’......
‘बेटा जी, जुग जुग जियो।’.... ‘सब मनोरथ पूरे हों।’....
‘बहू जी, “दूधो नहाओ-पूतो फलो।”.... आदि आदि.....
इसके अलावा साहब जी, बड़े साहिब जी, बिटिया रानी आदि इनके पास अनगिनत सम्बोधन हैं। सभीे आस्तिक लोग इनके आशीर्वाद को सार्थक मानते हैं। इनकी और भी कुछ विशेषतायें है। ये सब अपना सुख दुख आपस में बाँट लेते हैं। ये कभी खिलखिलाकर हँसने की जुर्रत नहीं करते। ये कभी रोते है, तो मुँह ढाँक कर रोते हैं। और ये कभी कराहते हैं, तो धीमें से।
हर तरह से संयत व्यवहार है। हर तरह के व्यवधान से सजग। इन सबमें एक वृद्धा भिखारिन भी है। जो अपने को सबसे अलग थलग मानती है। वे भी इसे अपनी बिरादरी में नहीं समझते। सभी इसे मौकापरस्त भिखारिन समझते है। निगोड़ी सबेरे आती और देर रात बाद चली जाती है। वह न इनके सुख में सहभागिन रहती, न दुख में । हाँ उदर पूर्ति के लिये यहाँ वितरित होने वाली सामग्री में जरुर सहभागिन बन जाती है। उसके इस तरह के बर्ताव से, यहाँ वितरित सामग्री का अंश उस निगोड़ी के उदर में भी चला जाता है। जब वह घर औलाद वाली है, तब भीख क्यों माँंगती है ? भीख माँंगना तो लाचारों का अधिकार है। सामर्थ्यवानों का नहीं। सो उसका यह आचरण एमदम नियम विरुद्ध है। सबको यह बात शूल की तरह खटकती है, कि दिनभर यहाँ, रात को अपने घर। जैसा जीवन हम सबका है, वैसा ही यह जिये तो फिर किसको उसके आचरण पर एतराज होगा ?
उन सबकी दृष्टि में वह वृद्धा भिखारिन तिरस्कृत थी, इसलिये कुछ हटकर अलग स्थान पर बैठती थी। वहाँ लोगों की आवा-जाही कम थी, अतः प्राप्ति का औसत भी कम था। इस सुविधा संपन्न वृद्धा के संबंध में मोटे तौर पर मुझे भी जानकारी थी। स्वभाव से स्वाभिमानी थी। इसका लड़का शिक्षक था। उसकी उग्र पत्नी दो लड़के एक लड़की। निजी पैतृक घर में ये सब एक तिहाई हिस्सा में काबिज थे। एक चौथाई हिस्से में माँं। दोनों में किसी बात को लेकर अनबन थी। इसलिये अलग-अलग रहते थे। बेटा का मातृ प्रेम मृत था। तो माता का पुत्र मोह सालों की इस वैमनस्य भावना से मर चुका था। अब वह अपने इस हाल में ही खुश थी। एक दिन मुझमें उसके जीवन में झाँकने की इच्छा हुर्ह। आखिर भविष्य के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या है ?
दर्शन के उपरांत मैं उसके पास गया और हथेली पर एक का नोट रख दिया, ताकि उसमें मेरे प्रति सद्भावना जागृत हो। मैंने सुन रखा था कि किसी दिन कुछ भी प्राप्ति न होने की स्थिति में क्रोधित हो जाती है। फिर बद्दुआ भी देने लगती है। उसके सामने बैठकर मैंने आदर से पूछा- ”माँंजी, एक बात आपसे पूछ सकता हूँ ।” नोट दिया था, इसलिये मूड ठीक था। बोली पूछो -”
”मैने सुना है, आप लड़का बहू नाती-नातिन वाली हो।”
गलत सुना है।” उसे आक्रोश आ गया” मेरा कोई नहीं, इस संसार में। न लड़का, न बहू”
“क्या मै समझूं कि वे हैं तो जरूर पर तुम्हारी नजर में नहीं हैं।”
“एक बार कह दिया, नहीं है, तो नहीं है, बस” ......मैंने देखा, वह आक्रोश तीव्रगति से बढ़ रहा था। अधिक कुरेदा तो अप्रिय व्यवहार भी झेलना पड़ेगा, इसलिये विषय बदलना उचित समझा।
“माँं जी, आपका निजी घर है, जिसमें आप रहती हैं। घर है ना ?”
“हाँ, घर है।”
“तो माँं जी जब आप नहीं रहेंगी, तब वह लड़का बहू का होगा न?”
“नहीं...” उसमें पुनः कठोरता आ गयी थी। ”घर मेरा है। चाहे दान करूँ। चाहे आग लगाऊँ। दँूगी किसी को नहीं बस, अब जाओ।”
उसका आदेश मुझे तुरंत मानना पड़ा, अन्यथा मंदिर की भीड़ मेरी फजीहत देखती। यहाँ किसी की फजीहत से लोगों को फ्री का आनंद मिलता है।
एक साल गुजर गया। मंदिर आकर दर्शन करना अन्य की भाँति मेरा भी दैनिक कर्म था । कुछ दिनों से वह वृद्धा अपने ठिकाने पर नहीं दिखती थी। मैंने जानकारी ली, तो मालूम हुआ वह स्वर्ग सिधार गयी है। मरने पर, पाँच पंचों द्वारा उसकी पेटी की तलाशी ली गई। उसमें सोना, चाँदी के अलावा बीस हजार से अधिक नगदी थी। कुल पच्चीस हजार के आभूषण मिले। मकान उसने न तो किसी को दान में दिया, न ही आग लगाई। अपने दोनों नातियों के नाम लिख गयी थी।
अपने अर्थहीन सिद्धांत पर अडिग रहना अथवा दुख भरे जीवन में भी कृत्रिम सुख की अनुभूति करते रहना उस वृद्धा के जीवन का कैसा हास्यास्पद अंत है ? जीवन के अंतिम क्षणों में भी उसकी संपत्ति परमार्थ के काम में न आ सकी।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’