भ्रमर
सरोज दुबे
सरोज दुबे
इस बार पूरे बीस दिन बीत गए। कपिल का कोई पता नहीं था। न कोई पत्र, न समाचार। दिन के बाद रात और रात के बाद फिर दिन आ जाता। मन में कुओं के बादल घिरघिर आते। किसी काम में मन लगता ही नहीं था। सुबह विजय से पूछा था, “कितने दिन हो गए कपिल नहीं आए?”
“मनमौजी आदमी है, गाँव से कहीं और निकल गया होगा।”- विजय ने कहा।
“पर इतने दिन तक ! क्या कॉलेज से छुट्टी मिली होगी?”
” किसी डाक्टर का प्रमाणपत्र दे देगा आकर”-विजय ने लापरवाही से कहा और बैग उठा कर दफ्तर चले गए। मैंने संतोष की साँस ली और मैं कपिल को ले कर फिर कहीं खो गई।
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मिंटू को टायफाइड हो गया था। उसी समय की बात है। शुरू में हलका सा बुखार आता था। सोचा साधारण बुखार है, अच्छा हो जाएगा, यह सोच कर विजय भी दफ्तर के काम से विदिषा चले गये थे। उन के जाते ही बुखार ने अपना विकराल रूप दिखाया मैं एकदम घबरा गई।
उन दिनों कपिल नए नए आए थे। सप्ताह में एक आध बार घर आते। मेरे साथ तो उनकी ठीक से बात भी नहीं हुई थी। पर एक दिन अचानक आकर वह ही डूबते का सहारा बन गए। फिर मिंटू को डाक्टर के यहाँ ले जाना, उसके लिए फल तथा दवाइयाँ लाना, उन्हीं का काम हो गया था।
कई बार तमाम रात जागते जागते ही बीत जाती। कपिल कहते, “आप दिन भर काम में लगी रहती हैं। आप को आराम की ज्यादा आवश्यकता है।”
कपिल की बातों में ठंड की पहाड़ सी रात भी कब ढल जाती, पता ही न चलता था। मिंटू की बीमारी ने मुझे उनके बहुत करीब ला दिया था। उन्हीं दिनों मैंने जाना कि वह पुराने जमींदार घराने के इकलौते पुत्र थे। अविवाहित थे और शहर में शोकिया तौर पर अध्यापन का काम कर रहे थे।
ऊँचा सुदृढ़ शरीर, आँखों में अनोखी चमक और तीखे नाकनक्ष वाला आकर्षक व्यक्तित्व था उनका। धीर धीरे उनसे मेरी अंतरंगता बढ़ती गई। बच्चे भी खूब हिलमिल गए थे उनसे।
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एक दिन हम लोग विभा और मिंटू के लिए कपड़े खरीदने जा रहे थे। रास्ते में अचानक कपिल मिल गए। रास्ते भर न जाने कहाँ कहाँ की विनोदपूर्ण बातें करते रहे। बच्चों के कपड़े देखते देखते, मेरी निगाह अचानक कांजीवरम की एक साड़ी पर रुक गई। मैंने यों ही पूछ लिया,- “कितने की है यह साड़ी?”
बस मेरा पूछना था कि विजय चालू हो गए,- “जब साड़ी लेनी नहीं है, तब दाम पूछ कर क्या फायदा? जो चीज खरीदने आई हो, वह खरीदो।”
“कोई बात नहीं, साहब, खरीदना जरूरी थोड़े ही है“, दुकानदार बोला।
“नहीं, भई, स्त्रियों का दिल ही नहीं भरता साड़ियों से अभी पिछलेे महीने ही दो साड़ियाँ खरीदी हैं,”- विजय ने रुखाई से कहा।
अपमान, क्षोभ और अवसाद से मेरा मुख लाल हो गया। अपने आपको किसी तरह जब्त करके मैं बच्चों के लिए कपड़े देखने लगी। कपड़े खरीद कर लौटते समय विजय ने पूछा, “और कुछ लेना है?”
“नहीं,” मैंने अपने स्वर को भरसक स्वाभाविक बना कर कहा। लौटते समय मैं एकदम चुप रही। कपिल भी ज्यादा कुछ बोले नहीं घर आकर मैंने स्नानघर का दरवाजा बंद किया और खूब रोई। कपिल एक ही दृष्टि में बात की गंभीरता समझ गए। “अच्छा, चलता हूँ,” कहकर वह उदास से उठ खड़े हुए। विजय पता नहीं कुछ समझे या नहीं या समझ कर भी अनजाने बने रहे।
दूसरे दिन विजय के दफ्तर जाने के बाद मैं रसोई साफ कर रही थी। तभी अचानक किसी ने धीरे से पुकारा, “भाभी!” मैंने पीछे पलट कर देखा, कपिल हाथ में पोलीथीन का बैग लिए खड़े थे। मुझे दूसरे कमरे में बुला कर बोले, “भाभी, मैं तुम्हारे लिए एक छोटी सी भेंट लाया हूँ।”
मैंने बैग खोल कर देखा। उसमें वही कांजीवरम की साड़ी थी। हर्श और विशाद से मैं खड़ी की खड़ी रह गई। चार पाँच सौ से कम की क्या होगी यह साड़ी! कपिल ने कितने रुपए खर्च कर दिए। पता नहीं कपिल के स्नेह भार से या विजय की दुकान पर कही बातें याद कर के आँंखें बरस पड़ीं।
“बड़ी पगली हो ऐसे भी कोई रोता है ? मुझे कल की बात का ही बहुत दुख है ?”- उन्होंने अपने रूमाल से मेरे आँसू पोंछते हुए कहा।
फिर जाते समय कह गए-“तुम चिंता मत करना, मैं विजय को सब बताकर आया हूँ।”
कपिल के कारण घर का वातावरण ही बदल गया था। विभा और मिंटू तो उनके दीवाने थे। संगीत की एक अनोखी धुन पर मेरा जीवन बहता जा रहा था। कपिल घर के सदस्य जैसे ही बन गए थे। उनके इतने दिनों तक न आने से मैं तो व्यग्र थी ही, बच्चे भी बड़े परेशान थे।
लगभग डेढ़ माह बाद कपिल गाँव से लौटे। बच्चों के लिए वह ढेर सारे खिलौने और मिठाई लाए थे। मैंने पहले ही सोच रखा था, अब आएँगे तो बोलूंगी ही नहीं। यह भी कोई तरीका है।
कपिल देख कर हँसे, ”इतनी नाराज हो? बोलोगी भी नहीं?
“यहाँ आकर सब को बड़ा प्रेम दिखा रहे हैं। गाँव से तो एक पत्र तक नहीं डाला।”- मैं ने उलाहना दिया।
“पत्र लिखने के काबिल नहीं था, मधु मेरी तबीयत बहुत खराब हो गई थी।”
उन्होंने पहली बार मेरा नाम लिया। कितना मधुर लगा था, उस दिन मुझे अपना नाम। मैंने उन्हें देखा सचमुच वह काफी दुर्बल लग रहे थे ”क्या हो गया था?”-मैंने पूछा।
“कुछ नहीं। बस, बुखार उतरता ही नहीं था। सारे समय मेरे मस्तिष्क में तुम ही छाई रहती। माँ बता रही थी कि बुखार में कितनी ही बार मैं तुम्हें पुकारता रहा। सच, बहुत याद आई तुम।” उन्होंने धीरे से मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया। उनकी आँखें भर आई थीं, स्वर अवरुद्ध हो गया था।
मेरी भी आँखें भीग गईं। मैंने उनकी बात को महज भावनाओं का आवेग समझा।
“बहुत हुआ। अब आप शादी कर ही डालिए,”-मैंने कहा।
“मैं तो तैयार हूँ पर वह तैयार नहीं होगी।”
“कौन है वह ? मुझे बताइए। मैं उससे बात करूँगी”
मेरा उत्साह देख कर वह हँसे, बोले- “अच्छा, बताऊँगा कभी”
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कई दिन बीत गए। उन्होंने इस विषय में कोई चर्चा नहीं की। एक दिन मैंने ही पूछा “आप किस लड़की के विषय में बताने वाले थे? अभी तक बताया ही नहीं अब क्या मुहूर्त निकलवाना पड़ेगा?”
वह सिर्फ हँसते रहे। बहुत जिद करने पर बोले- “जाने दो, कहीं तुम बुरा मान गई तो और आफत आ जाएगी।”
”मैं क्यों बुरा मानूंगी ? आप बोलिए तो सही”
कुछ देर चुप रहकर वह गंभीरता से बोले, “मधु, मैं तुम्हारे अलावा और किसी से विवाह नहीं कर सकूँगा। तुम मेरे प्राणों में बस चुकी हो। अब मेरे लिए दूसरा कोई उपाय है ही नहीं।”
सुन कर मैं स्तब्ध रह गई। कपिल इतनी बड़ी बात कह जाएँगे, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। बड़ी देर तक मेरे मुँह से षब्द ही न निकला। मैं नीची निगाह किए चुपचाप बैठी रही। मैं दो बच्चों की माँ-उन से विवाह करने योग्य थी भला?
“आप भी क्या बच्चों सी बातें करते हैं?” आप मुझसे विवाह करेंगे ? एक विवाहित स्त्री से दो बच्चों की माँ से! और आप सोचते हैं कि मैं इस बात के लिए तैयार हो जाऊँगी? लोग क्या कहेंगे? समाज क्या कहेगा?”
“कोई कुछ नहीं कहेगा। दो दिन चिल्ला कर सब शांत हो जाएँगे। मैं तुम्हें यहाँ से बहुत दूर ले जाऊँगा। जहाँ हम और हमारे दोनों बच्चे होंगे। लोगों के लिए हम अपना जीवन क्यों बरबाद करें ? कौन सा सुख है, तुम्हारी इस गृहस्थी में? आए दिन तुम्हारी नौकरानी गायब हो जाती है। गरमी में तुम्हें कितनी दूर से पानी लाना पड़ता है। तुम्हारे हाथ लाल हो जाते हैं, मुँह कुम्हला जाता है। विजय के ओंठों से तो सहानुभूति के दो षब्द भी नहीं निकलते। यह सब देख कर मुझे बहुत दुख होता है। मेरे पास इतनी धनदौलत है, पर लगता है सब बेकार है।”- वह बोलते-बोलते उत्तेजित हो गए।
“आप बड़े आदमी के लड़के हैं, इसलिए आपको यह सब नया लगता है। मध्यम श्रेणी के परिवारों का जीवन तो ऐसे ही चलता है। इसमें दुख करने लायक कोई बात नहीं है। आपके सामने अभी पूरा जीवन पड़ा है, आप सोचिए तो सही।”
“मैंने सब सोच लिया है। तुम्हारा निर्णय मुझे मंजूर है। अगर तुम मेरे लिए दुनिया की दीवार नहीं लाँघ सकती तो न सही।”
बीमारी के बाद कपिल का बोलना और ठहाके लगाना बहुत कम हो गया था। एकांत में वह अकसर चुप रहते। मेरे लिए यह भी एक यंत्रणा थी। इतना बोलने वाला आदमी एकाएक ऐसा क्यों हो गया। लगता था, कपिल अंदर ही अंदर गलते जा रहे थे।
उन्हें मेरी हर शर्त स्वीकार थी। विभा और मिंटू को छोड़ने की बात भी उन्होंने कभी नहीं की थी। परंतु मैं एक विवाहित स्त्री थी। इससे भी अधिक मैं एक भारतीय स्त्री थी। मेरे पैरों में संस्कारों की बेड़ियाँ कसी हुई थीं। एक तरफ कपिल का प्यार था। उसका भव्य बँगला कई एकड़ में फैला बाग और स्वर्ग से भी सुखी संसार था। दूसरी ओर विजय थे। उनका विश्वास था। उनकी गृहस्थी थी। सांसारिक मर्यादाएँ थीं। लोकलाज थी। मेरे अंतद्र्वंद्ध का अंत नहीं था।
एक बार मैंने कहा भी-“आजकल आप बहुत चुप रहते हैं, अच्छा नहीं लगता”।
“हूँ, तबीयत ठीक नहीं लगती। माँ का पत्र भी कुछ ऐसा ही आता रहता है। नौकरी छोड़ कर आने के लिए लिखती रहती है।”
कपिल जब कभी जाने की बात कहते मेरा दिल बैठने लगता। मुझे लगता था उनका वियोग मैं सह ही नहीं सकूंगी। मैं असंतुष्ट गृहिणी का जीवन जी रही थी। विजय की छोटी छोटी बातों से भी मैं आहत हो उठती। लगता था, कपिल किसी भी दिन बाजी मार ले जाएँगे।
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ऐसी ही मनः स्थिति में एक घटना घटी।
रात के भोजन के बाद विजय और कपिल बीते दिनांे की याद कर रहे थे। अचानक विजय ने पूछा- “तुम इतने दिन गाँव में रहे, कोई लड़की नहीं देखी?”
“मैं क्या लड़की देखने गया था ?”
“पर, भई, देखना तो तुम्हें ही है न। अभी दो तीन साल पहले तुमने लिखा था कि अचला से विवाह करने जा रहा हूँ फिर क्या हुआ उसका ?”
“पता नहीं क्या बीमारी हुई उसे। साल भर में फूल कर दोगुनी हो गई। क्या शादी करता उससे ?
“और शादी हो जाती तब क्या करते ? अगर मधु बीमार हो जाए, मोटी या कुरूप हो जाए तो क्या इसे छोड़ दूँगा मैं?
“पर शादी हुई नहीं थी”
“क्या वाहियात बात करते हो,” विजय ने तिरस्कार से कहा और समाचार पत्र में खो गए।
कपिल ने भी मुस्करा कर अखबार का दूसरा भाग उठा लिया। पर मैं... मेरा मन एकदम अस्थिर हो उठा। शरीर और सौंदर्य का भला क्या भरोसा? इनकी क्षति तो कभी भी, किसी भी समय हो सकती है। न जाने कब कौन सी बीमारी हो जाए या कोई दुर्घटना घट जाए। ऐसी स्थिति में कपिल का प्यार कितने दिन बना रह सकेगा?
रात को बच्चे और विजय तो आनंद से सो गए, पर मेरी आँखों में नींद न थी। मेरा विश्वास डिग चुका था। मैं अपनी खुली हुई आँंखों से सामने एक स्वप्न देख रही थी। मैं एक शानदार बँगले के सामने द्वार थामे खड़ी हूँ। द्वार से दूसरी ओर खड़े कपिल कुपित हो कर कह रहे हैं,- ”तुम चली जाओ यहाँ से, मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं है।” मेरी आँखों में आँंसू आ गए। “तुम्हारे ही बहकावे में आकर मैं अपना घर छोड़ कर चली आई। अब दो दो बच्चों को ले कर मैं कहाँ जाऊँ ? मैं रोते हुए दया की भीख माँग रही हूँ।”
“तुम क्या नादान बच्ची थी ? पति को छोड़ कर आते समय तो तुम्हें दुख नहीं हुआ। अब मेरी धन संपत्ति छोड़ने में दुख हो रहा है? तुम्हारे पीछे क्या मैं यों ही जिंदगी गुजारता रहूँ? मुझे भी पत्नी चाहिए, बच्चे चाहिए। ये पैसे लो और मेरा पिंड छोड़ो” कपिल ने नोटों की एक गड्डी मेरी ओर फेंक दी।
मैंने नींद में खोए हुए अपने मासूम बच्चों के मुख देखे। मेरा हृदय भर आया। भावावेष के कारण रोते रोते मेरे मुँह से सिसकी निकल गई। विजय ने आँखें खोल कर देखा आश्चर्य से बोले- “क्या हुआ? क्यों रो रही हो?”
“अभी-अभी बड़ा बुरा स्वप्न देखा”-मैंने किसी तरह उत्तर दिया।
“दुनियाँ में सपनों की कोई कमी नहीं है। सपने के अच्छे या बुरे होने से क्या फर्क पड़ता है। सो जाओ चुपचाप,” -विजय ने कहा और करवट बदल कर सो गए।
उस दिन मैंने पहली बार महसूस किया कि विजय का आश्रय आकाश की तरह मेरे लिए सदा सुलभ है। उनके आश्रय में मैं सब प्रकार से निर्भय तथा निषंक हूँ। मेरा मन कह रहा था, ऐसे पुरुश के प्रेम को स्वीकार कर के क्या लाभ जिसके कारण मेरा और मेरे बच्चों का भविष्य खतरे में पड़ जाए। मुझे तो आकाश ही चाहिए जो जीवन के हर मोड़ पर प्राप्य हो। कपिल के भव्य बंगले की छत का क्या ठिकाना, किसी दिन सिर पर ही आ गिरे।
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विजय तीन चार दिनों के लिए बाहर गाँव गए थे। रात में सोने के लिए हमेशा की तरह रामादीन चैकीदार आने वाला था। उस दिन वह आया तो जरूर पर काफी पिए हुए था। उस की हालत देख कर कपिल रात में ही रूक गए। मैं अपने विचारों में डूबी मिंटू का स्वेटर बुन रही थी। कपिल सोफे पर बैठे कोई अंगरेजी पत्रिका देख रहे थे। ठंड के दिन थे। चाँदनी पेड़ों पर उतर आई थी। बड़ा सा चाँद आकाश में दमक रहा था। पत्रिका रख कर कपिल बहुत देर तक प्रकृति की अनुपम छटा देखते रहे, फिर अचानक मेरे हाथ से स्वेटर छीन लिया। बोले- ”मधु क्या बात है? उदास क्यांे हो ?”
“नहीं, कोई बात नहीं”-मैंने सामान्य होने की चेष्टा करते हुए कहा।
“नहीं, बात तो कुछ जरूर है” -उन्होंने मेरी कलाई पकड़ ली।
“नहीं,” -मैंने उदासीनता से कहा।
कपिल का हाथ बढ़ कर बाँह पर पहुँच गया। मैंने सहमते हुए देखा, उन की आँखांे में प्रणय निवेदन था। होंठ भ्रमर बनना ही चाहते थे कि मैं एकदम चिल्ला पड़ी, “नहीं... नहीं, यह नहीं हो सकता।”
“मैं तुम्हें इतना प्यार करता हूँ, मेरा कुछ भी अधिकार नहीं है तुम पर?” कपिल ने जरा मुस्करा कर कहा।
उसकी जो मुस्कराहट मुझ पर जादू बिखेरती आई थी, वही उस क्षण मुझे विश जैसी लगी। जिन आँखों की निष्छलता ने मेरे मन को बाँध रखा था, आज उसके भावों को मैं सह नहीं पा रही थी। जो मुखड़ा महीनों दिन रात मेरी आँखों में छाया रहा, उसे देख कर मन सहसा वितृश्णा से भर उठा। मेरी आँखें एकाएक लाल हो उठीं।
“नहीं, मैं कोई वेश्या नहीं हूँ जो यह अधिकार बाँटती फिरूँ और यह भी सुन लीजिए, मुझे आप के साथ कहीं नहीं जाना है। मेरे पति संवेदनशील नहीं, भावुक नहीं। पर दिल उनका वट वृक्ष सा विशाल है। इसका इतना बड़ा दंड मैं उन्हें नहीं दे सकती।
मेरा शरीर क्रोध से काँप रहा था। आँखों से आँसू बह रहे थे। कपिल हतप्रभ से मुझे देखते ही रह गए।
“आपके मुझ पर बहुत उपकार हैं। मैं आपसे उऋण नहीं हो सकती। परंतु विश्वासघात भी मैं नहीं करूँगी। बस, अब आप यहाँ से चले जाइए और फिर कभी आने का कष्ट मत कीजिए।”
कपिल जैसे खड़े थे वैसे ही द्वार खोल कर तुरंत चले गए।
सरोज दुबे
( प्रकाशित- सरिता, मार्च 1983)