भूख
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
अबोध हरिया की आँतें एँठने लगीं। गला सूखने लगा। चेहरा मुरझाने लगा। आँखें पथराने लगीं। भूख की कसक उसके दिल में खलबली मचाने लगी। जब वह सहन न कर सका, तब गला फाड़कर चिल्ला उठा “माँ रोटी !”
और उस हरिया की अभागिन माँ सुनन्दा सुन रही थी’ उसकी वह विकल चीत्कार... निर्जीव प्र्रस्तर प्रतिमा सी बैठी कमरे के एक किनारे में !!
“माँ ! रोटी !”
हरिया फिर चीख कर रो उठा !
उस आर्तनाद पर सुनंदा मर्माहत थी। फूटी नाव की तरह उसका दिल संवेदना की नदी में डूबता जा रहा था !
माँं का ममत्व कानों मे चिल्लाकर कहने लगा सुनंदा तेरा बेटा हरिया भूख से तड़फकर रो रहा है और तू चुप है।
अभिशापों की प्रचंड अग्नि में युग युग से झुलसती सुनंदा बोली- रोता है ? ....तो रोने दे ! उसे चुप करने का मेेरे पास साधन ही कौन सा धरा है ....जीवन भर रोने के ही लिये उसने मेरी कोख से जन्म लिया है !
-तू एक माँं है ऐसा सोच रही है ?
-गरीब माँं में दिल नहीं होता, समझे !
-उफ डायन, हृदयहीन, कठोर पाषाण !.........उठ !!
-नहीं उठूँगी !
- धिक्कार है तुझे !....अरी पगली, वह रो रो रोकर ..............
- मर जायगा न ! ..........मर जाने दे !! ............इस जिन्दगी से छुटकारा मिलेगा उसे। कौन रोयेगा उसके नाम पर !!
सुनंदा का मन उद्भ्रांत हो उठा ? मृत्यु का गौरव गर्जन वीभत्स स्वर से, उसके कानों में गूँजने लगा ! एक रोगी दूसरे रोगी को कैसा सम्बोधन कर सकता है ?...........वह तो स्वंय अनेक दिनों से उसी अग्नि मे जल रही थी।
बाहर से वृद्ध नेत्र विहीन ससुर ने कहा -‘ देख तो बहू, हरिया काहे को रो रहा है ?”
सुनंदा जल भुन गयी !
उठकर वह क्रोध में काँपती हरिया के पास आयी ! और कस कर दो चार तमाचे मारे ! इस पर बालक और रो उठा ! किन्तु थोड़ी देर बाद जाने क्यों सुनंदा की छाती, पश्चाताप् से फटने लगी। अपनी निर्ममता पर वह स्वयं झल्ला उठी।
उसकी आँखों में आँसू आ गये। उसने अपने बेटे हरिया को छाती से चिपका लिया।
वह सोचने लगी......यह जीवन का पथ कितना बीहड़ है, न चैन, न शांति ! इसका कण- कण उद्विग्नता से भरा है। उसे जीवन में तिरस्कार और वेदना ही वरदान स्वरुप मिले हैं ! चलते चलते अब वह थक गयी है। उसका शरीर गर्भवती सा शिथिल हो गया है। अब उसके मन में है केवल, विश्राम की उत्कट प्यास।
किन्तु कौन जाने, विश्राम की यह उत्कट प्यास कब पूरी हो सके !
सुनंदा की गीली आँखों में अतीत के वे पन्ने खुल गये, जब समाज उसे सुहागिन कहता था।
वे दिन !
आनन्द, हर्ष और विस्मय भरे थे।
वह, उसका पति मेला और वृद्ध ससुर तीनों आनन्द से थे। उस अवस्था में उसे समस्त विश्व हर्षमय दिखता था।
मेला कितना प्यार करता था उसे।
वह कहता था, सुनंदा देवी है।
और वह कहती थी, मेला देवता है।
दोनों में असीम प्रेम था।
जीवन में रोज भोर होती। सुनंदा, मेला के जगने के पहिले उठ कर, बिर्रा की रोटी बनाती थी। एक पुराने से कपड़े में बाँध देती थी। मेला वह पोटरी लेकर मजदूरी पर चला जाता और शाम को वापस आता।
सुनंदा पोटरी लेकर बचा जूठन अमृत की तरह खाती !
मेला कहता “सुनंदा, मैं बहुत परेशान हूँ तुमसे”।
“काहे ?” सुनंदा पूँछती !
“तेरी यह आदत अच्छी नहीं। मुझे रोज बचा खुचा जूंठन बाँधकर लाना पड़ता है। मेरे साथी खिल्ली उड़ाते हैं मेरी”।
सुनंदा तब आत्म विभोर हो कहती-
“स्वामी तुम्हारा यह जूंठन तो मन्दिर में चुटकी चुटकी बटने वाले उस प्रसाद से कहीं मीठा लगता है। सच कहती हूँ जिस दिन यह प्रसाद हासिल नहीं होता, उस दिन मैं भूखी सी रहती हूँ ।
रूढि़वादी सुनंदा के इस अपवाद पर मेला केवल हँसकर रह जाता था। जैसे इस तर्क का उसके पास कोई उत्तर न था।
किन्तु.....
हर्ष और उन्माद भरे ये दिन ज्यादा टिक न सके थे।
एक दिन मजदूरों की हडताल हुयी। कुछ मजदूर हड़ताल के पक्ष में थे, कुछ विपक्ष में। तब कुवरेपतियों ने कूटनीतिक चाल चली। उन्होंने एक पक्ष को मिला कर दूसरे को भिड़वा दिया। वे चाहते थे, उनका संगठन मजबूत होने के पहले नष्ट हो जावे। फलतः दो परस्पर विरोधी दलों में कुवेरपतियों नें फसाद कऱवा दिया। परिणाम यह निकला, आपस में लोग लड़ गये। कुछ मजदूर घायल हो गये।
हड़ताल के पक्षधर लोग गिरफ्तार कर लिये गये। और उनमें एक मेला भी था। उसे तीन साल के लिये लोहे की मोटी सलाखों के भीतर ठूंस दिया गया। उसके जेल जाने से उसका घर परिवार मुसीबत में आ गया था। खाने के लाले पड़ने लगे।
क्या इस वज्रपात पर भी सुनंदा का दिल चकनाचूर न होता ? तब से उसके सुख का दीपक बुझ गया और आज तक बुझा है। कभी-कभी उसके दिल में एक आशा का संचार होता है, शायद उसका पति लौट आये और फिर एक बार उसके जीवन में आनंद की ज्योति जल उठे।
सुनंदा इसी उम्मीद पर प्राण बचाये है अपने।
और ये अभागे मरते भी नहीं....
ऊपर से ये वीभत्स यातनायें।
भूख की पीडा और समाज के कामी कीड़ाओं की वासनामयी लम्बी लपलपाती जीभें, उसके धैर्य को तोड़ने का प्रयास करती नजर आ रही थीं। उसको मानव के रिश्तों और विश्वासों पर से विश्वास उठ चला था। अपने शरीर की रक्षा करना उसे दुस्वार हो चला।...
सुनंदा ने आँसू भरी निगाहों से देखा, हरिया सो गया है। जैसे उसके मुख पर चिर शांति झलक दिख रही है।
उसने उसे गोद से अलग कर जमीन पर लिटा दिया। सुनंदा स्वयं जब लेटने का उपक्रम करने लगी। पर नींद तो कोसों दूर चली गई थी। अभी भी उसके उसके कानों में गूँज उठे वे कर्कश स्वर ? जब वह भूखे हरिया के लिये रोटी माँंगने गयी थी।
एक चिल्ला उठा था ....
“दूर हट।.......साले कुत्तों की तरह पीछा नहीं छोड़ते।”
दूसरे ने कहा था” ये जवानी ! ऐ.......छमियाँ भीख क्यों माँंगती है री ? इसे किसी के यहाँ गिरवी रख दे, तो जीवन भर मजे से खायगी।
तीसरे ने तिरस्कार भरे शब्दों में कहा और ये अभागे मरते भी नहीं ?”
सुनंदा का दिल आत्मग्लनि से भर गया। शरीर काँपने लगा। आँखों में अंधेरा छाने लगा। ग्लानि और क्रोध की ज्वाला में जलकर उसने पास लेटे हरिया की गर्दन बलपूर्वक दोनों हाथ से दबा दी। हरिया दर्द से चीखकर क्षण भर में शांत हो गया।
हरिया को मरा समझकर सुनंदा ने अपने गले में रस्सी का फंदा बांधा। फंदा सख्त किया .............और जब वह झटका देकर अपने प्राणों का अंत करने ही वाली थी। तभी हरिया हिलने डुलने लगा.............जैसे वह पुनर्जीवित हो उठा।
सुनंदा अपने हाथों प्राण न दे सकी। फंदा अलग कर उसने दौड़कर हरिया को अपने शोक संतप्त वक्ष से चिपका लिया। उसकी आँखों से छल छलाकर आँसू बह पडे।
सुनंदा के कानो मे अभी भी वह कर्कश स्वर गूॅज रहा था। और ये अभागे मरते भी नही ?
मूक सुनंदा का दिल चीखकर कह उठा मैं मरू तो कैसे ? इन अभागे प्राणों को भी यह मंजूर नहीं कि पति की अनुपस्थिति में यह निकल भी सके।
वेदना पीडि़त सुनंदा की नींद उचट गयी। वह हड़बड़ा कर उठ बैठी। उसका दिल धड़कने लगा कि कही यह स्वप्न सत्यता में परिणत न हो जाय ?
आँखें मलकर वह बाहर आयी तो देखा जेल से छूटकर आया उसका पति मेला, झुककर अपने नेत्र विहीन पिता के चरण स्पर्श कर रहा था।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’