चंदेल
सरोज दुबे
सरोज दुबे
‘‘सीता...राम...सी....ता...आ...रा...आ....म...सी...ई...ता...रा....आ...म...सुबह के चार बजे थे। प्रभात बेला में राम नाम स्मरण मधुर लगा। कानों को भी, हृदय को भी। सोचा, यह कौन भाग्यवान है ? जो इतनी सुबह उठकर राम का नाम स्मरण कर रहा है? पूछने पर पता चला, वे हमारे मकान मालिक वृद्ध चंदेल जी हैं- हमारे मकान मालिक की एक सरल हृदय, भक्ति रस में डूबे सहृदय व्यक्ति की छवि मेरे मन में उभर आई। यह सोचकर प्रसन्ना हुई कि अब हमें इस नये शहर में एक सज्जन व्यक्ति का सानिध्य प्राप्त होगा।
उनका तीन ब्लाॅक का छोटा सा मकान था, जिसमें हम तीन किरायेदार रहा करते थे। उसके बायीं ओर देषी कवेलू वाला, मिट्टी का वह घर था, जिसमें चंदेल परिवार रहता था। उस परिवार में एक थी नानी। यानी चंदेल महाशय की सास। उनकी पत्नी बिन्नी जिन्हें सब बिन्नी बुआ कहते थे। चंदेल महाशय के दो युवा पुत्र और पाठशाला में जाने वाली पुत्री कमला भी, उस परिवार के सदस्य थे। चंदेल परिवार आजीविका के लिए उन तीन ब्लाकों पर निर्भर था। जिसमें हम लोग रहते थे।
चंदेल ससुराल में घर जवाई होकर आये थे। ससुराल में ससुर साले कोई नहीं थे। बस एक निरीह सास ही बची थी। बिन्नी बुआ घर के बाहर का सारा काम करतीं। राशन साग सब्जी और किराना वे ही खरीद कर लातीं। घर में नौकर कोई न था। पर नानी बिना दाम की नौकरानी थी। वह दिन रात काम में लगी रहती। बर्तन माँजना, कपड़े धोना, खाना बनाना, लीपना पोतना जैसे सभी काम... सत्तर वर्ष से
अधिक वय की नानी के जिम्मे थे। जब चंदेल खाना खाने बैठते तो नानी गर्म फुलके बना बनाकर देती और बिन्नी बुआ उन्हें पंखा झलतीं। वे हाथ धोने बाहर आते, तो बिन्नी बुआ उनके हाथों पर पानी डालतीं। पाँच छः बार कुल्ला करके अँगोछे से मुँह पोंछते हुए, चंदेल महाशय अपने शयन कक्ष में विश्राम के लिए चले जाते।
चंदेल घर गृहस्थी की ओर से एकदम बेफिक्र थे। मकान का टैक्स और बिजली का बिल भरा गया या नहीं, बाजार में अनाज और सब्जियों के क्या भाव चले रहे हैं, मिटटी के तेल और राशन के लिए बिन्नी बुआ को कितनी देर लाइन में लगा रहना पड़ा, कितनों की खुशामद करनी पड़ी, इन सब बातों से चंदेल को कोई मतलब नहीं था। उन्हें तो बस सुबह ग्यारह बजे और रात को ठीक आठ बजे गर्म और बढ़िया खाना चाहिए था। वरना वह कुहराम मचता कि न पूछिये।
लोग कहते, ‘चंदेल गृहस्थी में रहकर भी गृहस्थी से निर्लिप्त हैं। संन्यासी सा जीवन व्यतीत कर रहे हैं।’ स्वयं चंदेल भी इस बात को बड़े गर्व से कहा करते। मुझे इस बात का घोर आश्चर्य होता है कि जो व्यक्ति गृहस्थी में रहकर उसके सब सुखों का उपभोग करता है, पर कर्तव्य के नाम पर निस्पृह होने का ढोंग करता है, उसे हमारे समाज में पूज्य भाव से क्यों देखा जाता है।
घर में दो जवान बेटे थे। लेकिन वे भी पिता पर गये थे। जाने कहाँ से घूम फिर कर आते, पेट-पूजा करते और फिर कहीं निकल जाते।
घर के पास ही एक मंदिर था। चंदेल रोज शाम को वहाँ जाया करते। आसपास के कुछ बूढ़े भी मंदिर में नित्य एकत्र होते। रामनवमी को रामजी की शोभायात्रा निकलती। उसमें चंदेल सक्रिय भाग लेते। नव रात्रि में सुबह प्रभात फेरी निकलती। गाने वालों में चंदेल सबसे आगे रहते-“ श्री राम, जयराम जय जय राम...,”
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’कुतिया ...सुअरिया...निकल जा यहाँ से। तेरा भर्तार बैठा है यहाँ? तेरे खसम की कमाई आ रही है? और फिर अश्लील गालियों की बौछार। ये गालियाँ कौन दे रहा है और किसे दे रहा है। यह समझने में मुझे थोड़ा वक्त लगा। ये चंदेल महाशय थे। जिस सास की जायदाद के भरोसे में मौज कर रहे थे, उनका पूरा परिवार पल रहा था, उसी सास का वे ऐसा अपमान कर सकते हैं। यह मैं सोच भी नहीं सकती थी। वैसे हमारे अड़ोसी पड़ोसियों के लिए यह कोई असामान्य बात नहीं थी। हर दो चार महीनों में चंदेल का ऐसा विकराल रूप देखने के वे अभ्यस्त हो चुके थे।
दुर्गुण चाहे जो हों पर चंदेल थे भाग्य के धनी। उन्हें थोड़ी सी पेंशन मिलती थी, तो क्या हुआ? लड़के निकम्मे थे तो क्या हुआ? भाग्य के बली थे। किसी ने उनके कच्चे मिटटी के उस मकान का पचास हजार में सौदा कर लिया। यह भी तय हुआ कि नया मकान बनने के बाद ही वे पुराना मकान खाली करेंगे। देखते ही देखते एक नया ब्लाक नीचे बन गया और चार ब्लाॅक ऊपर बन गये। मकान की छपाई अभी पूरी नहीं हुई थी। रँग-रोगन का तो प्रश्न ही नहीं था। पर किरायेदार आने को आकुल व्याकुल। मकान में रहने योग्य सुविधा नहीं थी। एक ही नल था लेकिन किरायेदार मानो इंतजार में ही बैठे थे। पता नहीं बेचारे कहाँ से आश्रय की खोज में निकले थे।
कल तक जहाँ तीन ब्लाक का किराया आता था। अब वहाँ सात ब्लाक का किराया आने लगा। इसी बीच चंदेल के बड़े बेटे ने कर्ज पर आटो रिक्शा भी ले लिया। बस यह कहिये कि चंदेल परिवार के दिन ही फिर गये।
लोग कहते, ‘यह सब चंदेल की रामभक्ति का प्रताप है। उन पर राम की कृपा हुई लेकिन इस कृपा ने उन्हें उदार और विनम्र नहीं बनाया। बल्कि धन के मद ने उन्हें दंभी कुटिल और क्रोधी बना दिया। बिन्नी बुआ और नानी तो सदा उनकी गालियाँ खाती ही थीं, पर अब किरायेदार भी उनकी क्रोधाग्नि का षिकार होने लगे।
जोड़-तोड़कर किसी तरह मकान खड़ा कर लेना ही चंदेल का उद्देश्य था। मकान में निर्माण संबंधी अनेक त्रुटियाँ थीं। बेचारे किरायेदारों को नित नयी समस्याओं से जूझना पड़ता। कभी किसी के स्नानगृह का पानी पाइप से निकलने से इंकार कर देता तो कभी किसी के संडास का पाइप फोड़ने को नौबत आ पहुँचती। बरसात होती तो छत अनेक स्थानों से चूने लगती। चंदेल इन षिकायतों को सुनते तो कहते मेरी कोई जबरदस्ती नहीं है कि आप मेरे मकान में रहें। जिसे रहना हो रहे, नहीं तो घर खाली कर दं।
अब शहरों में मकान मिलना इतना आसान तो है नहीं कि किरायेदार तुरंत चंदेल की चुनौती स्वीकार कर लेते। लोग रोते पीटते खुद अपनी व्यवस्था करते।
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एक दिन ऊपर के ब्लाक में रहने वाली एक महिला से चंदेल का विवाद हो गया। सीढ़ियाँ पर उनकी बेटी से थोड़ा सा कचरा गिर गया था। इस छोटी सी बात को लेकर चंदेल ने तिल का ताड़ बना दिया। चंदेल के मुख से अपशब्द सुनकर उस महिला ने नम्रता से कहा बाबाजी आप बूढ़े आदमी होकर ऐसी बातें करते हैं? यह शोभा देता है, आपको?
‘‘मैं बूढ़ा हूँ तो कोई जवान मकान मालिक ढूढ़ ले। मकान का किराया भी नहीं देना पड़ेगा।’’
महिला को काटो तो खून नहीं। वे क्या कह रही थीं, यह सुन पाना कठिन था। बस चंदेल की ही दहाड़ सुनाई देती थी। रात को जब उनके पति घर लौटे तो उन्हें इस घटना की जानकारी हुई।
चंदेल ने अपना वही पुराना राग अलापा। हमारा मकान खाली कर दो। हमें लड़ाई झगड़ा नहीं करना है।
‘मकान में रहते हैं, तो पैसे देते हैं। मुफ्त में नहीं रह रहे हैं। मकान के पीछे क्या किसी की इज्जत लोगे ?
चंदेल ने तुरंत बड़े लड़के को आदेश दिया- ’फेंक तो रे इस साले का सामान! बड़ा इज्जतदार बनता है... ‘अनेक गंदी-गंदी गालियों की बौछार कर अपना मुख पवित्र करते रहे।
दोनों लड़के सामान फेंकने दौड़े। बड़ी मुश्किल से अन्य किरायेदारों की मध्यस्थता से मामला शांत हुआ। चंदेल विजयी होकर गर्व से सिर उठाये, किरायेदार की माँ बहनों से अपना रिश्ता जोड़ते हुए नीचे उतरे।
पता नहीं, उस रात वे किरायेदार दंपति सो सके या नहीं। किंतु उनका यह अपमान देखकर सारी रात मेरे हृदय में अग्नि सी जलती रही।
‘भोर हुई तो फिर वही-‘सीता...राम...सी...ता...आ...रा..आ...म...
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मुझे चंदेल का मकान छोड़ देने पर भी उनके चरित्र का यह विरोधाभास वर्षों तक याद आता रहा। कभी उस ओर का कोई परिचित मिल जाता तो बताता चंदेल के घर में सब आनंद है। चंदेल पहले की तरह ही मजे से जी रहे हैं। घर में बहार आ गई है, पर उनकी गाली गलौज की आदत नहीं गयी। स्वभाव और भी उग्र हो गया है।
चंदेल के विषय में यह सब सुनकर मन आक्रोश से भर जाता। ऐसे पांखडी और दुष्ट प्रकृति के लोग आनंद से जिये जाते हैं। इनके लिए कर्मफल ईश्वरीय दंड किसी का विधान नहीं है? बस, राम का नाम लिया और सारे पाप नश्ट! मेरा यह आक्रोश चंदेल की अपेक्षा राम के प्रति ही अधिक था।
कई वर्ष बीत गये। चंदेल की मृत्यु हो चुकी थी। एक जगह बिन्नी बुआ से भेंट हो गयी कुछ अन्य स्त्रियाँ भी साथ थीं। चंदेल की बात निकली तो किसी ने कहा “चंदेलजी बड़े भाग्यवान थे। सुख से जिये, सुख से चले गये।”
बिन्नी बुआ उदास होकर बोली- ‘बिटिया सुख काहे का! एक ओर सीताराम... सीताराम जपते रहे दूसरी ओर जिंदगी भर कलह करते रहे। चीखना, चिल्लाना, गाली गुप्तार यही सब तो करते रहे। न आप शांति से रहे, न दूसरों को रहने दिया। इसे कोई सुख से जीना कहते हैं? वर्षों से बिन्नी बुआ के हृदय में मानों धधकता हुआ ज्वालामुखी अब फूटकर बह निकला हो।
एकाएक बिन्नी बुआ के इस रूप को देखकर मैं चौंक पड़ी। मामूली सी पढ़ी-लिखी बिन्नी बुआ ज्ञान की कितनी बड़ी बात कह गयी थीं।
सरोज दुबे
(प्रकाशित- लोकमत समाचार पत्र, 5 जुलाई 1992)