छोटे आदमी बडे़लोग
सरोज दुबे
सरोज दुबे
रामलाल मेरी ही ओर आ रहा था। उसे देखकर मैंने झट अपना मुँह फेर लिया और दूसरी ओर देखने लगा।
“नमस्ते भैयाजी”,उसने उल्लसित स्वर में कहा। मजबूर होकर मुझे उसकी ओर देखना पड़ा।
“नमस्ते”, मैंने किसी तरह कहा।
“आज कॉलेज जल्दी छूट गया ?”
“हाँ”, मैंने धीरे से कहा और अपनी गति बढ़ा दी।
रामलाल से बातें करना मुझे जरा भी नहीं रुचता, पर वह है कि जहाँ देख लेगा, बात किए बिना मानेगा ही नहीं। मेरे पड़ोस में ही उसका कच्चा खपरैल मकान है। मुहल्ले के पक्के सुसज्जित मकान बँगलों के बीच रामलाल का मकान सबसे अलग दिखाई देता है।
जब शाम को बाबूजी घूमने निकल जाते हैं, या अपनी पुस्तकों में तल्लीन रहते हैं,तब रामलाल तम्बाकू खाते हुए माँ को इधर-उधर के किस्से सुनाया करता है। कई बार बाबूजी भी इस गपषप में शामिल हो जाते हैं। रामलाल साधारण सी बात को भी इतनी रोचकता से बताता है कि सुनने वाले का मन बँध जाता है। माँ को उसकी बातों में बड़ा रस आता है। लेकिन रामलाल जैसे छोटे आदमी को मुँह लगाना मुझे जरा भी पसंद नहीं।
रामलाल की पत्नी माँ से कई बार पैसे उधार ले जाती है। वे पैसे माँ को वापस मिलते हैं या नहीं, यह मैं नहीं जानता, मुझे तो हमेशा इसी बात का संदेह रहता है कि रामलाल माँ की उदारता का अनुचित लाभ उठा रहा है। कभी अचार, कभी बर्फ, तो कभी थोड़ी सी दाल या सब्जी माँग ले जाना, रामलाल के बच्चों के लिए एक आम बात है।
इस बात पर मैं अक्सर चिढ़ जाता हूँ। पर माँ अपनी वही चिरपरिचित मुस्कान बिखेरते हुए कहती है, “गरीब लोग हैं बेटे। हमारे पास बहुत कुछ है, तभी तो हम दूसरों को दे सकते हैं। थोड़ा बहुत दे देने से कम थोडे़ ही हो जाता है।”
“माँ, दादा जी हमेशा कहते थे कि छोटे लोगों की संगत नहीं करनी चाहिए। आसपास इतने सुसंस्कृत लोग रहते हैं, पर तुम्हें यह रामलाल ही अच्छा लगता है।”
माँ, बहस में कभी हारती नहीं।
“आदमी रुपये पैसे से बड़ा नहीं होता, बेटा। छोटा बड़ा तो आदमी अपनी नीयत से होता है।” वह कहतीं।
रामलाल में एक और भी दुर्गुण है। वह कई बार षराब पी आता है। मुझे याद है, एक बार मैंने इस विषय में, माँ से बहुत कुछ कहा था। पहले तो वह चुपचाप सुनती रही फिर बोली, “षैल, पीछे वाले बसंतराज तो रोज पी कर आते हैं। कई बार अपनी गाड़ी से गिरकर हाथ पैर भी तुड़ा बैठे हैं। जब इतने पढ़े लिखे सुसंस्कृत लोगों के ये हाल हैं, तो रामलाल तो अनपढ़ गँवार है।”
माँ के इस तर्क का भला मैं क्या उत्तर देता ?
त्यौहारों पर, माँ रामलाल के घर मिठाई भेजतीं। मेरे जन्मदिन पर उसे और उसके परिवार को निमंत्रण देतीं। रामलाल की पत्नी बरतन साफ करने से लेकर द्वार के बाहर झाड़ने बुहारने तक का काम बड़ी खुशी से करती। रामलाल बाजार से सामान लाता, पानी भरता और मौका पड़ता तो जूठी प्लेटें तक साफ करता। ऐसा कोई काम नहीं था, जिसके लिए माँ या बाबूजी ने कहा हो और उसने कभी इनकार किया हो।
परंतु इन सब बातों में भी मुझे रामलाल का स्वार्थ ही नजर आता। मैं सोचता, ‘माँ खाने-पीने को देती है। रुपया पैसा देती है, इसीलिए रामलाल सेवा में लगा रहता है ’
वैसे माँ उसकी प्रशंसा करते हुए कहतीं,-“रामलाल आदमी देखकर काम करता है। आसपास इतने घर हैं। जाता है, कभी किसी के दरवाजे पर ? रामलाल हमारा नौकर नहीं है, फिर भी, जो काम नौकर नहीं करते, वह काम भी रामलाल खुशी से कर देता है।”
मुझे पता है कि रामलाल उन लोगों के काम भी प्रसन्नता से कर देता है, जिनसे उसे कभी भी कोई लाभ नहीं हो सकता। सामने वाले दादाजी की दवा लानी हो, बंटी का डब्बा पहुँचाना हो, या रमेशी की चिट्ठी डाक में डालनी हो तो रामलाल कभी इन्कार नहीं करता। परन्तु उसके पड़ोसी रामानुजम पैसे दे कर सामान चढ़वाना चाहें, नियायत राय रुपये देकर कार साफ करवाना चाहें, या बसंतराव बिजली का बिल भरवाना चाहें तो रामलाल जगह से हिलने को भी तैयार नहीं। इस बात में मुझे रामलाल का अड़ियलपन दिखाई देता। सच कहूँ तो यह देखकर मुझे उस पर बड़ा क्रोध आता।
मैं माँ से कहता भी, “यह रामलाल एकदम झक्की आदमी है। लोग पैसे दे रहे हैं, कोई मुफ्त काम तो ले नहीं रहे हैं ? पता नहीं किस बात का इतना घमंड है इसे ? और नहीं तो, अपनी मरजी से इसके उसके काम करता फिरेगा।”
“बहुत सी बातों को मनुष्य दूसरों के कहने से नहीं समझ पाता। उन्हें वह जिन्दगी के अनुभवों से ही समझता है।” -माँ बोली थी। उस समय माँ की बात सचमुच मेरी समझ से बाहर थी। लेकिन माँ ने कितना बड़ा सच कहा था, यह मैं आज समझ पाया हूँ।
उस दिन अचानक बादल घिर आए और आँधी-तूफान के साथ भयंकर वर्षों होने लगी। बाबूजी ने पिछले साल, घर के पिछवाड़े में हैंड-पंप लगवाया था। इस कारण वहाँ तमाम मिट्टी निकली पड़ी थी। वर्षों का पानी वहीं किनारे से होकर बाहर निकलता था। परंतु मिट्टी पड़ी होने के कारण पानी एकत्र होने लगा। सुबह से ही वर्षों का रंग देखकर मजदूर भी नहीं आए थे। देखते ही देखते घर के चारों ओर, पानी ही पानी हो गया। बस घर में पानी भर जाने की ही देर थी।
बाबूजी एक दिन पहले ही दफ्तर के काम से बाहर गए थे। मैं मिट्टी हटाने में असमर्थ था और पानी बढ़ने के साथ-साथ बाबूजी की अदूरदर्शिता को कोस रहा था। माँ अलग परेशान थी। बसंतराव, नियामतराय, रामानुजम तथा अन्य पड़ोसी अपनी-अपनी बालकनी या छतों पर छाता ताने हमारा तमाशा देख रहे थे। उनके परिवार भी इस दृष्य का मजा ले रहे थे। वे सब लोग बाबूजी की नासमझी को लेकर बातें बना रहे थे और मैं असहाय और परेशान उनके, चिल्ला-चिल्ला कर पूछे गये प्रष्नों के उत्तर दे रहा था।
उस समय मुझे रामलाल की याद आई। पर वह अपने काम पर जा चुका था। दूसरा उपाय न देख मैंने कुदाल, फावड़ा निकाला और अनाड़ी की तरह मिट्टी के ढेर पर प्रहार करने लगा। एक तो वर्षों की झड़ी और ऊपर से तीखी दृष्टि यों से बेधती लोगों की आँखें मुझे और भी बेबस किए दे रहीं थीं। तभी देखा रामलाल की पत्नी और बड़ा लड़का मेरे पास आकर खड़े हो गए हैं।
“लाओ बबुआ, यह काम तुम से नहीं होगा।” रामलाल की पत्नी ने कुदाल मेरे हाथ से ले लिया।
उस समय ऐसा लगा, मानो किसी बहुत अपने ने आकर मुझे संकट से उबार लिया हो। आधे घंटे तक निरंतर परिश्रम करने के बाद उन लोगों ने पानी जाने के लिए मार्ग बना लिया।
कीचड़ मिट्टी से सने हुए जब वे लोग जाने लगे तो मैंने पहली बार उनसे आत्मीयता दिखाते हुए कहा,-“चाची चाय पी कर जाना। हाथ पैर यहीं धो लो।”
“नहीं बबुआ, कपड़े बहुत खराब हो गये हैं। चाय किसी और दिन पी लेंगें।” -वह बोली।
उस समय मैं माँ से दृष्टि नहीं मिला सका। न ही रामलाल की पत्नी की सज्जनता के विषय में कुछ कह सका।
दरअसल मैं सोच रहा था कि रामानुजम का बेटा मिक्की अभी कूद कर मेरी सहायता के लिए चला आएगा। रामानुजम स्वयं उससे कहेंगे, “जाओ षैल की सहायता करो। जब तुम बीमार थे, तब तुम्हारे लिए कितने दिनों तक रोज टिफिन लाता था षैल।”
नियामत राम अपने मुस्टंडे नौकर को बुलाकर आदेश देंगे, ‘जाओ, देखो तो षैल क्यों परेशान हो रहा है ? ये लोग कई मौकों पर हमारे काम आए हैं। हम खड़े-खड़े तमाशा देखते रहे, यह ठीक नहीं होगा।’
लेकिन मैं भ्रम में था।
इस घटना को शायद मैं भूल भी जाता। पर कुछ ही महीनों बाद एक घटना हुई जिसे भूलना मेरे लिए असंभव है।
गर्मियों के दिन थे। नेहा दीदी अपने बच्चों के साथ आई थीं। एक दिन बाबूजी, माँ और दीदी को एक विवाह में जाना था। सोनू वहाँ परेशान करेगा, यह सोचकर दीदी उसे मेरे पास छोड़ गई थीं।
उस दिन दोपहर में मेरा एक मित्र मिलने आया। हम लोग बातें कर रहे थे और सोनू की बालक्रीड़ाएँ भी देख रहे थे। लेकिन जब मित्र को विदा करके लौटा तो सोनू गायब !
मैंने उसे घर के आसपास देखा पर उसका कहीं पता न था। मैं एकदम घबरा गया। भागकर रामलाल के घर गया। वह उसी समय काम से लौटा था। मैंने उसे, ज्यों त्यों सोनू की बात बताई। दुर्योग से मैंने उसी दिन अपना स्कूटर सुधारने के लिए मिस्त्री को दिया था। सोचा मिक्की का स्कूटर मिल जाए तो मैं भी सोनू की खोज में निकलूँ। तीन वर्ष का बच्चा जाने कहाँ निकल गया ? क्या पता, कहीं कोई उठा न ले गया हो। दिल में हजारों आ एँ होने लगीं।
मिक्की के नौकर ने बताया कि मिक्की घर में नहीं है। रामानुजम और उनकी पत्नी आराम कर रहे हैं। वह उन्हें नहीं जगाएगा। मैं दौड़ा-दौड़ा बसंतराव के यहाँ गया। वह बाहर निकलने की तैयारी में थे। बोले,- “मैं एक जरूरी मिटिंग में जा रहा हूँ। ऐसा करो, नियामतराय के यहाँ देख लो। शायद वह घर ही में हो।”
मरता क्या न करता ! मैं जल्दी से नियामत राय के घर पहुँचा। उनकी पत्नी दरवाजे पर मिल गई। सोनू की बात बताकर मैंने उनसे थोड़ी देर के लिए स्कूटर माँगा। मुझसे अनेक प्रश्न पूछने के बाद उन्होंने कहा कि गाड़ी की चाबी बाबूजी ने कहीं रख दी है और इस समय वह सो रहे हैं। यदि साइकिल चाहिए तो मैं ले जा सकता हूँ।
हारकर मैंने साइकिल उठाई और निकला। आसपास की हर सड़क छान मारने पर भी सोनू नहीं मिला। मैं रोने को आ गया। घर लौटकर देखा तो वहाँ भी सोनू नहीं था। न रामलाल का ही पता था।
अब बाबूजी आएँगे तो मैं क्या कहूँगा ? दीदी को क्या जवाब दूँगा। रह रहकर मेरे मन में यही विचार घुमड़ रहे थे। आसपड़ोस के लोग मेरी लापरवाही को लेकर चर्चा में व्यस्त थे और पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने की सलाह दे रहे थे।
तभी देखा रामलाल साइकिल पर सामने की ओर सोनू को बैठाए चला आ रहा है। मेरी जान में जान आई। सोनू कुलफी वाले के पीछे-पीछे निकल गया था। कुलफी वाला उसे लेकर पुलिस थाने जा रहा था। इसी कारण रामलाल को देर लग गई थी।
कुछ ही देर बाद माँ और बाबूजी आ गए।
आते ही सोनू की बात बताना ठीक न होगा, यह सोचकर, न मैंने कुछ कहा ना रामलाल ने।
माँ बड़े उल्लास में थी, “विवाह अच्छी तरह संपन्न हो गया। कुमुदिनी ने तुम्हारे लिए मिठाई भेजी है।” वह बोलीं।
“पहले रामलाल को भिजवा दो।” मैंने कहा।
माँ ने दीदी के हाथों रामलाल को मिठाई भिजवा दी और मुझे प्लेट थमाते हुए बोलीं- “आज रामलाल पर बड़े उदार दिखाई दे रहे हो ?”
मैं क्या कहता ? मेरी आँखों से आँसू बह चले। माँ ने चौंक कर पूछा,-“क्या हुआ रे...?”
मैंने कहा,- “रामलाल ने आज मेरे प्राण बचा लिए।”
सरोज दुबे
(प्रकाशित- मुक्ता, द्वितीय अक्टूबर 1989)