चौथापन
सरोज दुबे
सरोज दुबे
वह एक कुर्सी पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे थे। अचानक उन्होंने ऊब कर किताब एक ओर मेज पर रख दी। आँखों से चश्मा उतार कर मेज पर रख दिया। रूमाल से आँखें साफ कीं और निरुद्देष्य ही खिड़की से बाहर की चहल-पहल देखने लगे।
“दादाजी, यह कामिक्स पढ़कर सुनाइए जरा।” उनकी दस वर्षीय नातिन अंजु रंगबिरंगी पुस्तकें लिए कमरे में पहुँच गई।
“लाओ, देखें।” उन्होंने बड़े चाव से पुस्तकें ले लीं।
वह पुस्तकों के चित्र तो देख पा रहे थे, किन्तु चश्मा लगाने के बाद भी उन पुस्तकों को पढ़ पाना उन्हें बड़ा कठिन लग रहा था।
फिर नाम भी क्या थे पुस्तकों के -‘‘आग का दरिया, अंतरिक्ष का षैतान, छिः छि... ये क्या हैं? अच्छी पुस्तकें पढ़ा करो, बेटे।’’
‘‘अच्छी कौन सी, दादाजी ?’’
‘‘जिस पुस्तक से कोई अच्छी बात सीखने को मिले। बच्चों के लिए तो आजकल बहुत सी पत्र-पत्रिकाएँ निकलती हैं।’’
‘‘आप नहीं जानते, दादाजी, ये थ्री डाइमेंषनल कॉमिक्स हैं। इनको पढ़ने के लिए अलग से चश्मा मिलता है यह देखिए।’’
’’अरे, यह कोई चश्मा है ? लाल पन्नी लगी है इसमें तो, इससे आँखें खराब हो जाएँगी फंेको इसे।’’
’’आपको कुछ नहीं मालूम, दादाजी।’’
नन्हीं अंजू ने उपेक्षा से अपना मुँह बिदकाया और पुस्तकें ले कर तेजी से बाहर चली गई।
वह अकुलाए से अपनी जगह पर बैठे रह गए और सोचते रहे। शायद वह वर्तमान से कट चुके थे। उनका जमाना लदचुका था। उनके सिद्धांत, आदर्श और विचार अब अप्रासांगिक हो चुके थे।
अभी कुछ ही दिनों पहले की तो बात थी। उनके बेटे मुन्ना ने भी यही कहा था। हुआ यों था कि उस दिन वह कारखाने में मौजूद थे। नौकर ने एक ग्राहक को बिल दिया तो उन्हें वह बहुत ज्यादा लगा। वह एक प्रकार से ग्राहक को लूटने जैसा ही था। उन्होंने नौकर को डाँट दिया और जोर दे कर उससे बिल में परिवर्तन करने को कहा।
उसी दिन मुन्ना रात को घर आने के बाद उन पर बहुत बिगड़ा था, ’’बाबूजी, आप तो बैठे-बिठाए नुकसान करवा देते हैं। क्या जरूरत थी आपको कारखाने में जा कर बिल कम कराने की?’’
‘‘मैंने तो उचित दाम ही लगाए थे, बेटा वह नौकर बहुत ज्यादा बिल बना रहा था।‘‘
प्रत्युत्तर में जवाब आया-‘‘आप बिलकुल नहीं समझते, बाबूजी इतना बड़ा कारखाना आज के जमाने में चलाना कितना मुश्किल है। अब कामगारों को वेतन कितना बढ़ा कर देना पड़ता है, जानते हैं आप? नई मशीन के कर्ज की किस्त हर माह देनी पड़ती है सो अलग। फिर आय कर भी इसी महीने में भरना है।’’
उनकी दृष्टि में ग्राहकों से मनमाना पैसा वसूल करने का यह कोई उचित तर्क नहीं था, लेकिन वह चुप ही रह गए।
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एक बार वह बीमार पड़ गए थे। दो-तीन महीने तक कारखाने नहीं जा सके। बस, तभी अचानक मुन्ना ने उनकी गद्दी हथिया ली। फिर मुन्ना यह सिद्ध करने की कोशिश करने लगा कि व्यापार में वह उनसे अधिक कुषल है।
जहाँ उन्हें ग्राहक से चार पैसे वसूल करने में कठिनाई होती थी, वहाँ मुन्ना बड़ी आसानी से छै पैसे वसूल कर लेता था। उसने बैंकों से ऋण ले कर अल्प समय में ही मशीनें मँगवा ली थीं। किस आदमी से कैसे काम लिया जा सकता है, यह मुन्ना खूब जानता था।
जब वह स्वस्थ हो कर कारखाने पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि कारखाने का शासन सूत्र मुन्ना अपने हाथों में दृढ़ता से थामें हुए है। एक बार हाथों में शासन सूत्र आने के बाद कोई भी उसे सरलता से वापस नहीं करना चाहता।
अब मुन्ना कारखाने के तमाम कार्य अपनी मरजी से करता था। उनकी ठीक सलाह भी उसे अपने मामलों में दखलंदाजी लगती थी। मुन्ना अक्सर उन्हें एहसास दिलाता रहता था, ’’बाबूजी, डाक्टर ने आपको मुकम्मल आराम करने के लिए कहा है। आप घर पर रह कर ही आराम किया करें। कारखाने का सारा कारोबार मैं संभाल लूँगा। आप बेकार उधर की चिंता किया करते हैं।’’
जब उनकी पत्नी इंदु जिंदा थी, तो उसका भी यही विचार था। वह प्रायः कहा करती थी, ‘‘आज नहीं तो कल मुन्ना को ही तो संभालना है कारखाना। वह व्यापार को बढ़ा ही रहा है, घटा तो नहीं रहा? फिर वैसे भी अब लड़का बड़ा हो गया है। बाप का जूता उसके पैर में आने लगा है। तब तुम्हें खुद आगे हो कर मुन्ना को कारोबार सौंप देना चाहिए। षास्त्रों के अनुसार आदमी को चैथेपन में संसारी झंझटों से सन्यास ले लेना चाहिए।’’
और इस तरह बीमारी के दौरान अकस्मात ही उनकी इच्छा के विरुद्ध कारखाने से उन का निश्कासन हो गया था।
उन्होंने सामने आई एक नजर नाष्ते की प्लेट पर डाली। आज फिर घर का नौकर बड़ी उपेक्षा से उनके सामने सिर्फ मक्खन लगे स्लाइस रख गया था। उनके अंदर ही अंदर कुछ घुटने सा लगा था। ’यह भी कोई नाश्ता है? बाजार से डबल रोटी मँगवाई और चुपड़ दिया उस पर जरा सा मक्खन।’
जब इंदु थी, तब उनके लिए बीसियों तरह के तो लड्डू ही बनते थे घर में। मँूग, मगज, रवे के और कई पकवान बगैरह घर में बना करते थे, मठरी, सेव और कई तरह के नमकीन भी परोसे जाते थे। उनके आगे पकवानों का तो कोई हिसाब ही नहीं था और अब मात्र मक्खन लगे, डबलरोटी के टुकड़े।
वह खीज उठे और उठ कर सीधे अंदर गए बोले, ’’बरसात में डबलरोटी क्यों मँगवाती हो बहू? घर में ही कुछ मीठा या नमकीन बना लिया करो। कल जो डबलरोटी आई थी, उसमें फफूँद लगी हुई थी।’’
‘‘डाक्टर ने आपको अधिक घी-तेल वाले खाने की मनाही कर दी है। अगर आपको डबल रोटी पसंद नहीं है, तो आप के लिए दूसरा इंतजाम हो जाएगा।’’ बहू ने रूखेपन से जवाब दिया।
दूसरे दिन बहू ने उनके लिए जो नाश्ता भिजवाया, वह होटल से मँगवाया गया था। एक प्लेट में बेसन का लड्डू तथा थोड़ा सा चिवड़ा था। बरसात के कारण चिवड़ा बिलकुल हलवा बन गया था। लड्डू बेशक स्वादिश्ट था, परंतु उसमें वनस्पति घी इतनी अधिक मात्रा में था कि खाने के बाद उन्हें बहुत देर तक खट्टी डकारंे आती रहीं थीं।
वह अपने हालात से परेशान हो कर कई बार सोचते थे कि बहन त्रिवेणी उनके पास रहती थी तो बड़ा सुविधाजनक होता था। वह उनके खाने पीने का कितना खयाल रखती थी। भैया-भैया कहते उसकी जबान नहीं थकती थी।
सच पूछो तो अपनी पत्नी इंदु की मौत का आघात वह उसी के सहारे सहन कर गए थे। त्रिवेणी के रहते उन्हें कभी एकाकीपन का एहसास नहीं सालता था।
सबसे बड़ी बात यह थी कि तब मुन्ना के उपेक्षित भाव बहू के रूखेपन की अपमानजनक तेजमिजाजी और नाती-नातिनों की बदत्मीजियों की ओर उनका ध्यान नहीं जाता था। वह तो त्रिवेणी को उसके अपने घर भेजना ही नहीं चाहते थे, लेकिन बहू ने मुन्ना के ऐसे कान भरे कि उसका घर में रहना असंभव कर दिया।
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एक दिन वह शाम की सैर को पार्क की दिषा में जा रहे थे कि मुन्ना ने कार उनके सामने रोक दी, ‘‘आइए, बाबूजी, मैं छोड़ दूँ आपको पार्क तक।’’
वह कहना चाहते थे कि, ‘‘भाई पार्क है ही कितनी दूर? मैं घूमने ही तो निकला हूँ। खुद चला जाऊँगा।’’ पर वह चाह कर भी कुछ न बोल सके और चुपचाप कार में बैठ गए।
मुन्ना ने जोर से कार का दरवाजा बंद किया, फिर कार चल दी। मुन्ना ने अचानक पूछ लिया, ‘‘बाबूजी, बुआ यहाँ कब तक रहेंगी?’’
वह चैंके, ‘‘क्यों बेटा? उससे तुम्हें क्या तकलीफ है?’’
‘‘तकलीफ की बात नहीं है, बाबूजी। माँ के मरने पर बुआजी आईं, तो फिर वापस गई ही नहीं।’’
‘‘वह तो मैं ही उसे रोके हुए हूँ बेटा। फिर उस पर ऐसी कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं है। सो वह भी रह रही है।
‘‘लेकिन हम उनकी जिम्मेदारी कब तक उठाएँगे ? उनके अपने बेटा बहू हैं। उन्हें उनके पास रहना चाहिए। फिर वह यहीं अगर तरीके से रहतीं तो भी कोई बात नहीं थी। पर वह तो हमेशा आपकी बहू ममता पर रोब गाँठती रहती हैं।’’
मुन्ना के षब्दों ने ही नहीं उसके स्वर ने भी उन्हें आहत कर दिया था। वह जानते थे कि त्रिवेणी पर लगाया गया आरोप झूठा था। आखिर त्रिवेणी उनकी एकमात्र बहन थी। वह उसे बचपन से जानते थे। लेकिन वह चाह कर भी मुन्ना से अपना विरोध प्रकट नहीं कर सके। वह जानते थे कि मुन्ना और बहू अब त्रिवेणी को घर में शांति से नहीं रहने देंगे। उसी को लेकर हर समय कलह मचा रहेगा। बात-बात पर त्रिवेणी को अपमानित किया जाता रहेगा। उसके प्रति वह यह ज्यादती सहन नहीं कर सकेंगे। इसीलिए उन्होंने त्रिवेणी को भेज दिया था।
त्रिवेणी चली गई थी। जिस दिन वह गई, उस दिन उन्हें ऐसा लगा मानो इंदु की मौत अभी-अभी हुई हो। कितने ही दिनांे तक वह अनमने से रहे थे। अब उन्हें पूछने वाला कोई न था। वह सुबह की चाय के लिए भी तरस जाते थे। वह बारबार बच्चों के द्वारा बहू के पास संदेश भेजते रहते थे, पर वह संदेश अकसर बीच में ही गुम हो जाता था। थक कर वह खुद रसोईघर के द्वार पर जाकर दस्तक देते। जवाब में बहू का तीखा स्वर सुनाई देता- ‘‘आपको चाय नहीं मिली? अंजु से कहा तो था मैंने। ये बच्चे ऐसे बेहूदे हो गए हैं कि बस अकेला आदमी आखिर क्या-क्या करे? मैं तो काम कर करके मर जाऊँगी, तब ही शांति मिलेगी सबको।’’
यह सुनकर वह अपराधी की तरह मुँह लटकाए अपने कमरे में लौट आते थे।
भोजन के समय भी अकसर ऐसा ही तमाशा होता था। कई बार उनके मुँह का कौर विश बन जाता था। पर उस जहर को निगल लेने की मजबूरी उनकी जिंदगी की विडंबना बन गई थी।
सुबह के समय वह कितनी ही देर तक गरम पानी के अभाव में बिना नहाए बैठे रहते थे। अब त्रिवेणी तो घर में थी नहीं कि सुबह उठकर गीजर चला देगी। बहू उठती थी, पूरे सात बजे के बाद और नौकर आठ बजे के बाद आता था।
जब तक पानी गरम होता था, स्नानघर में पहले ही कोई दूसरा व्यक्ति स्नान के लिए घुस जाता था। ठीक है, भला उन्हें कौन सा काम था? उनके जरा देर से नहाने में कौन सा अंतर पड़ जाता। बहू बच्चे मुन्ना सबको जल्दी थी, सबके अपने अपने काम थे।
वह इंतजार में इधर उधर टहलते हुए बार बार नौकर से पूछते रहते थे, ‘‘ गोपाल, स्नानघर खाली हो गया क्या?’’
‘‘स्नानघर खाली हो जाएगा तो मैं खुद बता दूँगा आपको दादाजी,’’ नौकर भी बारबार एक ही प्रश्न पूछे जाने पर खीज कर कह देता था।
इस तरह केवल नहाने खाने की ही तो बात नहीं थी। घर की हर गतिविधियों में उन्हें पंक्ति के सबसे आखिरी में खड़ा कर दिया जाता था। घर में उनके दुख-सुख का साथी कोई नहीं था।
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एक दिन अचानक उनके सिर में भयंकर पीड़ा होने लगी। बड़ा नाती मुकेश कमरे में अपना बल्ला रखने आया। उन्होंने झट पकड़कर चापलूसी की। ‘‘बेटे, जरा मेरा सिर तो दबाना, बड़ा दर्द हो रहा है।’’
मुकेश ने अनिच्छा से सिर पर दो चार हाथ मारे और तत्काल उठ खड़ा हुआ। वह घबराकर कराहे, अरे बस, इतनी जोर से नहीं, धीरे धीरे... जरा और आराम से दबा दे। बड़ा दर्द हो रहा है।
‘‘मेरे हाथ दुखते हैं दादाजी।’’
वह सुनकर दंग रह गये। फिर दूसरे ही क्षण तमक कर बोले,-‘‘बूढ़े दादा की सेवा करने में तुम्हारे हाथ दुखते हैं? आने दे मुन्ना को।’’
मुकेश ढिठाई से मुस्कराता हुआ चला गया। वह पड़े-पड़े मन ही मन कुढ़ते रहे थे। उन्हें अपना बचपना याद आने लगा था। वह कितनी सेवा करते थे अपने बाबा की। वह रोजाना रात को नियम से उनके हाथ पैर दबाया करते थे। बाबा उन्हें अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाया करते थे।
उनको आज ज्ञात हुआ कि अब जमाना कितना बदल गया है। मजाल थी तब परिवार के किसी सदस्य की कि कोई बाबा की बात को यों टाल देता।
भोजन के बाद मुन्ना उनके कमरे में आया। पूछा-‘‘बाबू जी, सुना है आपने खाना नहीं खाया है आज?’’
वह मुकेश की गुष्ताखी की चर्चा करना चाहते थे। वह जानते थे कि मुन्ना सब कुछ सुनकर तपाक से कहेगा,‘‘अरे बाबूजी क्यों बच्चे के मुँह लगते हैं? नौकर से कह दिया होता। वह दवा देता आपका सिर।’’
लेकिन प्रश्न यह था कि क्या नौकर खाली बैठा रहता है, उनके लिए? दूध लाओ, सब्जी लाओ, बच्चों के कमरे साफ करो, रसोई धोओ आदि हजार काम थे उसके लिए। वह भला उनका काम कैसे करता?
तभी मुन्ना बोला-‘‘दर्द निवारक दवाई मँगवाई थी न आपने। मैं लाया हूँ, दो गोलियाँ एक साथ खा लीजिए। तुरंत आराम लग जाएगा। मैं सुबह डाॅक्टर को बुलवा कर दिखवा दूँगा। अच्छा, मैं चलता हूँ। अगर रात में ज्यादा तकलीफ हो तो हमें आवाज दे दीजिएगा।’’ कहकर मुन्ना चल दिया था।
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जन्म से पहले उनकी दो बेटियाँ और थीं। वह सोचते थे कि बेटियाँ तो परायाधन होतीं हैं, दूसरे घर चलीं जाएँगी। उनका बेटा मुन्ना ही बुढ़ापे में उनकी देखरेख करेगा। उसकी बहू आ जाएगी, तो वह उनकी सेवा करेगी। फिर नाती नातिन हो जाएँगे तो वे बाबा-बाबा कहते हुए उनके आगे पीछे घूमेंगे। जब मुन्ना बचपन में आए दिन बीमार पड़ जाता था। उन्होंने उसकी बड़ी देखभाल की थी और एक से बढ़कर एक डाॅक्टर को दिखाया था। उसने कभी खर्च की परवाह नहीं की थी। न जाने कितने मंदिरों में जा जाकर मनौतियाँ मागीं थीं। न जाने कितनी रातंे जागते हुए गुजार दीं थीं। अब उसका रवैया देख कर लगता है कि उन्हांेने कितना बड़ा भ्रम पाल लिया था। वह भी कैसे पागल थे।
उनका शरीर बुखार से तप रहा था। कुछ देर तक मुन्ना के कमरे से डिस्को संगीत का शोर और बच्चों के हँगामें की कर्णभेदी आवाजें आती रहीं। इधर उनका सिर दर्द से फटता रहा। फिर देर रात बाद खामोशी छा गई। कमरे के सन्नाटे में छत के पँखे की बस खड़खड़ाहट ही गूँजती रही। उन्हें लेटे-लेटे बारबार यह खयाल सताता रहा कि बहू बेटे को उनसे कोई हमदर्दी नहीं है। बहू ने तो एक बार भी आ कर नहीं पूछा उनकी तबीयत के विषय में।
एकाएक उन्हें अपना गला सूखता सा महसूस हुआ। लो, कमरे में पानी रखवाना तो वह भूल ही गए थे। अब क्या करंे? वह उस बुखार में उठ कर रसोई तक कैसे जा सकेंगे? अचानक उनकी नजर खिड़की पर गई। सुबह का पानी से भरा गिलास रखा था। उन्होंने उठ कर वही पानी पी लिया।
वह अपनी बैचेनी को दूर करने के लिए खिड़की में ही खड़े हो गए और सूनी सड़क पर चल रहे, इक्का-दुक्का लोगों को देखने लगे। काष, वह उन्हें आवाज दे पाते, ‘‘आओ, भाई, मेरे पास बैठो... थोड़ी देर के लिए। मेरा जी बहुत घबरा रहा है। कुछ अपनी कहो, कुछ मेरी सुनो’’
सहसा वह पागलों की तरह हँस पड़े, अपने पर। अरे, जिसे छोटे से बड़ा किया, पढ़ाया लिखाया, अपने जीवन भर की कमाई सौंप दी, वह बेटा तो चैन की नींद सो रहा है। भला ये अपरिचित लोग अपना कामकाज छोड़ कर उनके पास क्यों बैठने लगे? निढाल होकर वह फिर से पलँग पर आकर लेट गए।
उन्हें याद आया कि कैसे दिन-रात मेहनत करके उन्होंने कारखाना खड़ा किया था। किस तरह मशीनें खरीदी थीं। किस तरह कारखाने की नई इमारत तैयार की थी। धूप में घूम-घूम कर, भूखे प्यासे रह-रह कर, देर रात गए तक जाग-जाग कर, वह किस तरह काम में लगे रहते थे। किस के लिए? मुन्ना के लिए ही तो और इस परिवार के सुख के लिए।
अब कहाँ गया वह सुख? इस परिवार ने क्या उनकी कभी चिन्ता की है? एकाएक उनके अन्तर्मन में एक प्रश्न कौंध गया। वह सबके सामने इतने दीनहीन क्यों बन गये है? क्यों बहू की बातें बर्दाश्त कर लेते हैं? क्या वह मुन्ना की कमाई पर पल रहे हैं? क्यों खो दी है उन्होंने अपनी शक्ति? नहीं बहुत हो चुका, वह अब और नहीं सहेंगे।
वह आवेष में उठकर बैठ गए। क्षण भर में ही उनका शरीर पसीने से लथपथ हो गया।
दूसरे दिन सुबह मुन्ना सपरिवार नाश्ता कर रहा था, तभी गोपाल ने आकर सूचना दी, ’’भैयाजी, नाष्ते के बाद आपको दादाजी ने अपने कमरे में बुलाया है।’’
मुन्ना ने नाश्ते के बाद उनके कमरे में जा कर देखा कि वह पलँग पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे हैं।
‘‘आओ, मुन्ना, बैठो’’ उन्होंने सामने पड़ी कुर्सी की ओर संकेत किया। जाने कितने वर्षों के बाद उन्होंने उसे ‘मुन्ना’ कह कर एकदम सीधे संबोधित किया था।
‘‘कैसी तबीयत है आपकी ?’’
‘‘तबीयत तो ठीक है। मैंने एक दूसरी ही चर्चा के लिए तुम्हें बुलवाया था’’
‘‘कहिए !’’
‘‘यहाँ इस घर में पड़े-पड़े अब मेरा मन नहीं लगता। स्वास्थ्य भी बिगड़ता रहता है। बेकार पडे़-पड़े तो लोहा भी जँग खा जाता है। फिर मैं तो हाड़माँस का आदमी हूँ। मैं चाहता हूँ कि घर से निकलूँ और...’’
‘‘काफी दिनों से मैं भी यही सोच रहा था, बाबूजी।’’ मुन्ना ने उनकी बात पूरी होने से पहले ही बीच में बात लपक ली और बडे़ निर्विकार भाव से बोला-‘‘आपका चौथापन है। इस उम्रमेंलोग वानप्रस्थी हो जाते थे, मोह ममता को तिलांजलि दे देते हैं। आप भी हरिद्वार चले जाइए और वहाँ किसी आश्रम में रह कर ईश्वर की आराधना में अपना जीवन बिताएँ।
सुनते ही उन्हें जोरों का गुस्सा आ गया। वह क्रुद्ध सिंह की तरह गरज उठे, ‘‘मुन्ना’’ अभी मेरे हाथ पाँव चलते हैं। दुनिया में बहुत से अच्छे काम हैं, करने के लिए। मैं भी घर में निठल्ला नहीं पड़ा रहना चाहता। घर से बाहर निकल कर समाज सेवा करना चाहता हूँ।’’
‘‘तो फिर कीजिए समाज सेवा किसने रोका है ?’’
अपने हाथ पैरांे से तो करूँगा ही समाज सेवा। मगर उसके लिए कुछ धन भी चाहिए, इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम कम से कम दस हजार रूपए महीना मुझे जेबखर्च के तौर पर देते रहो।’’
मुन्ना के कान खड़े हो गए, ‘‘दस हजार रूपए। किस पर लुटाएँगे इतने पैसे आप?’’
हमेशा की तरह वह कमजोर नहीं पड़े, झुके भी नहीं। बल्कि वह मुन्ना से आँखें मिला कर बोले- ’’इससे तुम्हें क्या? मैं बहन त्रिवेणी को भी मैं अपने साथ रखना चाहता हूँ। तुम मुझे मेरा खर्च, दे सकोगे या नहीं यह कहो।
‘‘कैसे दे पाऊँगा, बाबूजी इतना पैसा ? अभी जो बम्बई से नई मशीन मँगवाई हैं उसका पैसा भी भेजना बाकी है।
तुम खुद मुझे इन झगड़ों से दूर कर चुके हो। यह देखना तुम्हारा काम है। मैं भी कोई मतलब नहीं रखना चाहता। कारोबारी बखेड़ों से मैं इतना जानता हूँ कि यह कारखाना मेरा है और मैं चाहूँ तो इसे बेच भी सकता हूँ। या किसी के भी सुपुर्द कर सकता हूँ। लेकिन मैँ ऐसा नहीं करना चाहता। मेरा तो इतना ही कहना है कि जब तुम लोग अपने खर्च के लिए हजारों रुपए महीना निकल सकते हो तो क्या मेरे लिए दस हजार रुपए महीना भी नहीं निकल सकते? आखिर मैंने भी बरसों कारखाना चलाया है और अभी भी चलाने की हिम्मत रखता हूँ। तुमसे नहीं सम्हालता तो मुझे सौंप दो फिर से’’
मुन्ना कोई उत्तर नहीं दे सका। वह सिर झुकाए बैठा रहा। कमरे का वातावरण बोझिल हो चला था फिर मुन्ना ने ही धीरे से कहा ‘‘अच्छा होता, बाबूजी आप हरिद्वार...
‘‘नहीं मुन्ना, तुम अपने ढंग से जीना चाहते हो, तो मैं भी अपने ढंग से’’
‘‘ठीक है।’’ कहकर मुन्ना उठ कर बाहर जाने लगा। आज उनकी अन्र्तात्मा में एक गजब की स्फूर्ति प्रवाहित हो चुकी थी। उन्होंने अपने चैथेपन में पहली बार उन्नत मस्तक को उठा कर देखा कि मुन्ना सिर नीचा किए कमरे से बाहर जा रहा था।
सरोज दुबे
( प्रकाशित- सरिता, प्रथम 1987)