दहेज
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
शील का मन उलझन के भँवर में इस कदर फँस गया है, कि हर चंद प्रयास के बावजूद, वह उससे नहीं उबर पा रहा है। यह उसके शांतिमय जीवन में आकस्मिक आयी असाधारण उलझन थी - जो हर तरह की काबिलियत रखने के बाबजूद उसे नहीं सुलझा पा रहा था। इस समय उसकी दशा, उस विशाल वृक्ष की तरह है, जिसे तूफान झकझोर कर चला जाता है। इस तूफान के प्रहार से उसके सिद्धांतों की जड़ें हिल गयी हैं। वह ऐसी स्थिति में करे तो क्या करे ?
शील सोचता है, जिस सिद्धान्त की रक्षा में, उसके जीवन की दिशा बदली। मान्यतायें बदलीं। क्या उसी विद्यटक धारा को, सालों के बाद पुनः जीवन के उत्तरार्ध में प्रविष्ट होने दे ? सालों पूर्व, वह अपनी कोमल भावनायें, उसी सिद्धान्त की रक्षा में मस्भीभूत कर चुका है। अब उसके पक्ष में फैसला लेना तर्क संगत भी नहीं-न्याय संगत भी नहीं है। शादी का छपा आमंत्रण पत्र क्या कोई अर्थ रखता है ?
नहीं। हरगिज नहीं।
शील सोचता है, वह बुद्धिजीवी परिवार का है। सम्वेदना भावुकता उसकी पैतृक सम्पदा है। प्यार, ममता भी विरासत की देन है। इसलिये उसने सदा चाहा है, उसके आत्मीयजन भी प्यार ममता के सरोवर में डुबकी लगायें। उस जैसा बने। पर संसार की तो उल्टी रीति है। सब अपनी मर्जी के अनुसार चलते है। वैसा ही आचरण करते हैं। जिसको जिसमें सुख मिलता है, उसी में अपना हित समझते हैं। भले ही दूसरे की दृष्टि में कुछ और हो।
शील का मन बीस साल पीछे जाता है। उसे उस समय जो ठोकर लगी थी, यदि वह उससे न सम्हलता, तो उसके जीवन मूल्य ही बदल जाते। सम्हला, इसलिये वह सम्पदा आज भी कायम है। ना सम्हला होता, तो नेस्तानाबूद हो जाती। अब उत्तरार्द्ध की ओर बढ़ते जीवन में, उसके लिये यही सम्पदा सर्वोपरि हैं। उसके एकांकी जीवन में विश्राम के लिये चार कमरों वाला मकान भी अब बड़ा पड़ता है। इस लिये अब इसकी कोई अहमियत नहीं।
पर, आकस्मिक आये, इस आमंत्रण में कुछ ना कुछ तो है। जिसके कारण मन आन्दोलित है। बुद्धि भ्रमित है। कितनी बार इसे उलट - पलट कर देख चुका है कि कुछ अर्थ समझ पाये। उद्देेश्य समझ पाये। पर हर बार विफल रहा।
तब क्या वह इसे अपमानित करने का आमंत्रण समझे ?
सभी शादी के आमंत्रण पत्र, एक जैसे होते हैं। वर, कन्या का नाम, पिता का नाम, दर्शनाभिलाषी, और वैवाहिक कार्यक्रम। ऐसा ही इसमें भी है। फिर वह विचलित क्यों हुआ ?
उसके तीन मुद्देे विचलन का कारण है। पहला, कन्या निशा के पिता का नाम, शील कुमार श्रीवास्तव, जो कि उसका स्वतः का नाम है। दूसरा दर्शनाभिलाषी, प्रेषक, निधि श्रीवास्तव, भूतपूर्व पत्नी तलाकशुदा। तीसरा स्वयं लिखित अनुरोध, कृपया एक दिन पूर्व पधारें। यह किसकी लिखावट है, नहीं समझ पाया।
निधि श्रीवास्तव वर्षों पूर्व शील की पत्नी थी। पिता साधन सम्पन्न रईस थे। उसकी तीन पुत्रियों में निधि बड़ी थी। शील ने जब एम.एस.सी. प्रथम श्रेणी में पास की और तुरंत कालेज में उसे लेक्चरशिप मिल गयी तो निधि के पिता ने उसे निधि के जीवन साथी के योग्य समझा। अन्य मापदण्डों की अनदेखी कर दी। मध्यम, बुद्धिजीवी परिवार आदि की बातें बेकार। निधि से विवाह हुआ, तो उसे कुछ ही माहों में मालूम हो गया, कि निधि के विचारों और उसके विचारों में किसी प्रकार का तालमेल नहीं है। उसने एकरूपता लाने के भरसक प्रयत्न किये। पर सफल न रहा। इसके बाद, एक कन्या निशा जन्मी। सोचा, संतान के आने से कुछ परिवर्तन आयेगा। पर उसमें भी विफलता। धन के मद का नशा उसके हर आचरण को प्रभावित किये था। इसलिये निधि से जिस तरह की आत्मीयता पाने वह लालायित था, ना पा सका। रोज साधारण बातों पर विवाद हो जाते। इससे शील - टूटने लगा। किसी तरह उसने दो साल निबाहा। परिवर्तन की आशा मंे प्रतीक्षा की। पर निष्कर्ष शून्य ही रहा। इसके बाद एक साधारण विवाद ने उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना दिया, सम्बन्ध विच्छेद जैसे घिनौने कृत्य के लिये बाध्य किया और वह अंततः हो ही गया। तब यही बेटी निशा, साल भर की थी।
शील का जीवन सम्बन्धों के विच्छेद से तहस - नहस हो गया। उसकी माँ वह आघात न सह सकी। चल बसी। एक साथ दो प्रहार से वह कुछ विक्षिप्त सा हो गया। पर पिता ने, नजदीकी रिश्तेदारों ने उसे सान्त्वना दे, दूसरी शादी के लिये राजी कर लिया। शील ने निधि वाला शादी का एलबम जला दिया - जिससे उसकी कोई भी स्मृति शेष न रहे। दूसरी पत्नी पल्लवी उसके जीवन में आयी जो उसकी भावनाओं के अनुरूप सिद्ध हुई। किन्तु वह भी अधिक सहयोग न दे सकी, और दो पुत्रों को जन्म दे, वह भी उसके जीवन से पृथक हो गयी। अब तीसरी शादी का प्रलोभन उसके विचारों को प्रभावित ना कर सके और शेष बचे जीवन को विधुर जीवन में बिताने का दृढ़ संकल्प किया जो आज तक निभा रहा है। अब वह कॉलेज में प्रोफेसर है। दोनों लड़के अजय और संजय बोर्डिंग में पढ़ते हैं, कभी छुट्टियों में सिर्फ आते हैं। पिता का साया भी उस पर से अब उठ गया है। वह ही एक मात्र था, सो शादी के बाद, अपनी सर्विस के साथ दूसरे शहर में रह रहा है। इस घर में वह अकेला है साथ में - साहित्य है बस। लॉज में खाता, घर आकर सोता। एकाकी किन्तु शांति भरा जीवन है।
इस जगत में उससे बदतर स्थिति में जीने वाले, अनगिनत लोग हैं। जो जी कर अलविदा हो जाते हैं। कोई याद नहीं करता उन्हें। यही हश्र उसका भी होना है। शील की संक्षिप्त जीवन गाथा थी यह।
शील सोचता है। किस रिश्ते से यह आमंत्रण उसके पास आया है ? अब उससे निधि का रिश्ता ही क्या है।
पत्नी का रिश्ता तो तलाक के दिन से ही समाप्त हो चुका था।
दोस्त का रिश्ता, वह तो कभी स्थापित ही नहीं हुआ।
अब बचा कौन सा रिश्ता ?
सभी पुरानी स्मृतियों को तो वह नष्ट कर चुका है।
फिर किस रिश्ते से वह इस आमंत्रण पर विचार करे ?
मानवता के ?
ऐसा उदाहरण अन्यत्र है क्या ? कहीं भी - दूर या पास ?
होगा - पर उसे नहीं दिखता।
पर दिल के कोने से किसी ने जैसे प्रश्न किया।
और बेटी निशा का ? तलाक के बाद क्या वह भी समाप्त हो गया था ?
-हाँ। वह भी। उसके माँ की मांग थी, उसकी परवरिस की। जो उसने उससे बलात् छीनी थी। अब क्या बचा ?
-फिर आमंत्रण के लिये, आमंत्रण पत्र ही केवल महत्व पूर्ण नहीं होता। उसके लिये व्यक्तिगत पत्र भी भेजा जाता है। उसी का महत्व होता है। क्या वह आया है ?
-नहीं आया।
-तब उसे, निश्चित रूप से, अपमानित करने की दृष्टि से निधि का सोचा समझा षड़यन्त्र है। एकाकी, शांतिमय जीवन को तहस - नहस करने का। धन के नशे में चूर व्यक्ति से और किस प्रकार की अपेक्षा की जा सकती है ?
-यदि यही सत्य है, तो भरी महफिल में जलील होने से उसकी क्या स्थिति होगी। जीवन भर सत्य से संजोई साख पल भर में धूल में मिल जायेगी। यह स्थिति स्वाभिमानी के लिये मौत से बदतर है।
हे ईश्वर, कितनी उलझन में है वह।
जो उसे विद्वान कहते, मूर्ख हैं वे। जो एक साधारण समस्या का निदान ना खोज सके, वह किसी भी तरह की श्रेष्ठता पाने का हकदार नहीं।
शील का मस्तिष्क अब कई तरह के विचारों के अन्तर्द्वन्दों से जैसे फट जायेगा। उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था इसीलिये ऐसे समय में किसी साथी की जरूरत रहती है। स्वतः की बुद्धि दिग्भ्रमित होने से सहायक की सहायता महत्वपूर्ण होती है। पर उसके आसपास तो कोई नहीं है।
-एक बात हो सकती है। आमंत्रण पत्र फाड़कर फंेका जा सकता है, उसी तरह जिस तरह निधि के सभी चित्रों को फाड़कर फेंका था।
उस समय उसका वह कृत्य ना किसी ने देखा और ना किसी ने पूछा। इस समय भी ऐसा करने पर ना कोई देखेगा, ना ही कोई पूछेगा। किन्तु शील उस समय जो कर चुका था, अब उसकी पुनरावृत्ति का साहस उसमें नहीं था। ना ही अब वह वैसा कर सकता है।
शायद, उसे देखने वाला कोई बड़ा हो गया।
निशा की शादी।
शील पुनः सोचता है। जब उसने उसे अन्तिम बार देखा था, साल भर की थी। दुधमँुही - अनजान। तब उसे क्या समझ - कौन आया, कौन गया ? उसने तो निधि को ही अपना सर्वस्व जाना होगा। पिता का नाम याद तो उसे स्वप्न में भी न आया होगा। उसके, और निधि के विवाद में उसका क्या दोष है ?
तो निशा की खातिर ही सही। इस आमंत्रण पर विचार करे और जाये। वह तो अब तक जीवन के कई पड़ावों को पार कर इक्कीस की होगी। वह भी तो आखिर उसी का अंश है ना ?
-दूसरी बात।
- अभी तक के विचार - उसके अपने विचार थे। अपनी उपज सभी श्रेष्ठ समझते हैं - जब तक दूसरे की उपज की बानगी, देखने ना मिले, उपज की सही कीमत नहीं आँकी जा सकती। बाजार धारा का सही सच्चा नियम है।
- सामने वाले पक्ष ने, किस मानवीय सम्वेदना से प्रेरित हो - सालों साल के लम्बे अंतराल के बाद जो यह स्मरण पत्र भेजा है - या भेजने का साहस जुटाया है, उसकी असलियत वहाँ जाने पर ही हासिल हो सकती है।
-यह अन्तरात्मा की सलाह थी।
शील ने यही उचित समझा। रही आघात् की शंका सो उसने जब बड़े-बड़े आघात् झेले तो एक और सही।
शील ने अपने बैंक खाते से बड़ी राशि निकाली। एक सोने का हार -कुछ कपड़े खरीदे। लड़की की शादी में, खाली हाथ नहीं जाया जाता।
शील आमंत्रण पत्र पर मुद्रित कार्यक्रम स्थल पर गया। वह अत्याधुनिक होटल जैसा विशाल भवन था, जिसकी साज - सज्जा का कार्य अनेक लोग कर रहे थे। ‘अतिथि गृह’ का बोर्ड उसमें टँगा था। शील ने आटो से उतर कर देखा तो वहाँ घर का कोई सदस्य स्वागत के लिये उपस्थित नहीं था। उसे कुछ अच्छा नहीं लगा। पर दूसरे ही क्षण मन को सान्त्वना मिली। जब इतना भव्य आयोजन है, तो सभी व्यस्त तो होंगे ही। फिर शुभ कार्य का दिन तो कल है। इतने में एक तीस वर्षीय युवक ने आ उसका अभिवादन किया और उसका सूटकेस बड़ी विनम्रता से थाम लिया। बोला -
“कृपया पधारिये।”
“आप क्या उनके रिश्तेदार हैं ?”
“जी नहीं। यहाँ की सेवा का भार मुझे सौंपा है। कृपया क्षमा करें, मुझे अन्य जानकारी नहीं है।”
शील के मन में और कुछ उससे पूछने की उत्सुकता थी जो कि उसने क्षमा मांगकर पहिले ही समाप्त कर दी। युवक सूटकेस थामे आगे, शील पीछे एक बड़े हाल से होते हुये आगे गलियारे की तरफ वह ले गया। कतारबद्ध आमने - सामने पचास कमरे। सब पर अतिथि का नाम, पते की तख्ती टँगी थीं। कमरे के दरवाजे पर कीमती पर्दा। संभवतः वह पहला अतिथि था -
क्योंकि वहाँ का माहौल एकदम शांत था। शील ने देखा - कमरा नं. 1 श्री शीलकुमार श्रीवास्तव, माननीय आत्मीय, वह रुक गया। युवक भी रुक गया और दरवाजा, खोलकर ‘कृपया आइये’ के सम्बोधन के साथ शील को भी अंदर ले गया। कितनी सुंदर व्यवस्था है। शील ने मन ही मन प्रशंसा की। लम्बी यात्रा की शारीरिक थकावट, और बीती हुई जिन्दगी में पुनः प्रवेश से उत्पन्न अच्छे बुरे की संभावनाओं के विचारों से मानसिक थकावट के कारण अब वह विश्राम चाहता था। जो कि उसे अब वह मिल गया। युवक ने पुनः कहा - “कृपया फ्रेस हो जाइएगा, चाय, नास्ता भोजन आपकी सेवा में आ रहा है।”
सभी कार्यों से निवृत्त हो शील पलंग पर लेट गया। सोचने लगा - काश। उसके जीवन में वह व्यवधान न आया होता तो इसका आयोजक वह होता। कैसी होगी निधि और उसकी परम सौभाग्यशाली पुत्री-निशा। निधि की दर्पभरी आकृति तो संभवतः याद आ सकती है किन्तु निशा की आकृति की तो कोई निशानी नहीं है। इतने सालों का अन्तराल हो गया है। ना उसने कभी निधि के जीवन में झाँकने की चेष्टा की और न ही निधि ने उसके। इस लम्बे अंतराल ने सभी कुछ बदल डाला। जैसे मैं युवक से प्रौढ़ हो गया। वह भी युवती से वृद्धावस्था की तरह बढ़ रही होगी।
निधि।
शील सोचता है, इतने सालों बाद क्या यह संयत और सहज भाव से सामना कर सकेगा। उसकी गर्वीली धन के मद में चूर मुखमुद्रा। ईश्वर ने उसे क्यों इतना निष्ठुर बना दिया था। क्यों नहीं उसमंे पति की इच्छा के अनुरूप चलने के गुण आये ? एक छोटा सा विवाद था। सुधीर का आना-जाना उसे अच्छा नहीं लगता था। उसने इतनी सी बात नहीं मानी। नहीं मानने से कई बातें उपजीं, और उनसे एक वक्त ऐसा आया, कि निशा भी उसी दायरे की लपेट में आ गयी - और दम्भ के इस नशा ने सब कुछ चौपट कर दिया। छि.... । पता नहीं, बाद में दोनों के किस तरह सम्बन्ध रहे हों ?
और निशा ?
निशा तो विवाद की टूटन से बेखबर होगी। उसके अपने दोनों पुत्र हमेशा बहिन के अभाव से दुखी रहते थे। जब उन्हें निशा एक बहिन के रूप में प्राप्त होगी तो कितने खुश होंगे।
शील का हृदय पुनः पुत्र-पुत्री प्रेम से अभिभूत हो गया।
शील को इस भवन में आये, काफी समय हो गया। पर अभी तक अगवानी को घर का कोई सदस्य नहीं आया था, अतः उसे खलने लगा।
थोड़ी देर पहिले वह जिस कमरे में शांति अनुभव कर रहा था, उसी में अब ऊब होने लगी थी। उसे इस तरह का व्यवहार अप्रिय लगने लगा, और मन में शंका कुशंका उठने लगीं। यहाँ आकर उसने अवश्य भूल की है। और जब भूल की तो उसका फल भी भोगे।
शील के मन में विचार आया, अभी कुछ नहीं बिगड़ा। कोई बहाना बनाये। और छुटकारा पाये। पर नहीं, यह घटिया और ओछा विचार है।
तो क्या, एक दिन पहिले उसे इस भव्य वैभव के दर्शन के लिये बुलाया गया है ?
किसी आयोजन की भव्यता, तो मिलने वाले शिष्टाचार से आँकी जाती है। जहाँ यह नहीं, - कुछ नहीं। उसे कोई भी शान प्रभावित नहीं कर सकती। वह कल भी मध्यम वर्गीय बुद्धिजीवी था, आज भी है। जिसे यह शान अच्छी लगे उसे मुबारक। उसे तो वह कल भी तुच्छ मानता था, आज भी, भविष्य में भी मानेगा।
शील तभी कमरे में बजने वाली अलार्म से संभल कर बैठ गया। एक सुन्दर, सुशील लड़की ने अभिवादन कर, मुद मुस्कान के साथ प्रवेश किया। ‘मुझे विश्वास था, आप अवश्य आवेंगे।’ चाय - नाश्ता भोजन आदि से निवृत्त हो गये होंगे। सफर की थकावट होगी। आराम मिला की नहीं ? कहते हुए वह पलंग पर बैठ गयी।
शील को समझते देर न लगी कि इतने अधिकार के साथ कहने वाली लड़की निशा के अतिरिक्त कौन हो सकती है। उसके मीठे - शिष्ट कथन से पूर्व के विचार क्षण भर में तहस-नहस हो गये। आत्मीयता उमड़ पड़ी। कम्पित स्वर में उसके मुख से निकला।
“निशा बेटी।”
“हाँ पापा।”
और शील ने जरा भी देरी ना की उसे अपनी छाती से लगाने में ? पहिली बार जो पिता अपनी पुत्री से मिले, वह अनुपम दृश्य अवर्णनीय है। दोनों की आँखों में प्रेम के आँसू छलक आये। थोड़े देर बाद निशा ने अपने को संयत किया। बोली - पहिले यह बताओ पापा, मुझे अपनी बेटी माना की नहीं ?
एक बेटी अपने पिता से अपने जन्म की सत्यता पूछे ? इससे बड़ी चोट क्या हो सकती है ? शील निश्छल भाव से, हुये प्रहार से मर्माहत हो तड़प सा गया। प्रोढ़ शील अब अबोध बालक की तरह सुबक सुबककर रो पड़ा।
“बेटी निशा, बस। अब इस तरह का प्रश्न कभी मत करना। नही तो तेरा पापा, जीवित ना बचेगा। ईश्वर साक्षी है, मेरे मन में यह भेद कभी नहीं आया - कभी नहीं बेटी निशा। मेरी बच्ची, तू मेरा अंश है। बस आगे कहने की शक्ति मुझमें नहीं है।”
उसका कंठ अवरुद्ध हो गया था, किन्तु अश्रुधारा अविरल बह रही थी। कड़ा कारुणिक दृश्य। शायद कमरे का वातावरण भी सिसकने लगा था। निशा पुनः संयत हुयी। उसने अपने रूमाल से पहिले पापा के आँसू पोंछे, फिर अपने। बोली - “पापा बस कीजिये। आप रोयेंगे तो मैं भी रोऊँगी। और मैंने आपको यहाँ रुलाने के लिए थोड़ी ही बुलाया है। अपने आप को सम्हालिये पापा। आप इस तरह दुखी होंगे..... यह जानती तो कभी मैं वह प्रश्न न करती। आप तो हर-तरह विद्वान और योग्य महापुरुष माने जाते हैं। मुझे मालूम है, आपके पढ़ाये छात्र आज कलेक्टर, इंजीनियर, डॉक्टर जैसे ऊँचे पद पर हैं। कोई सुनेगा तो क्या कहेगा ?”
लड़की होकर, माँ जैसी आत्मीय गम्भीर सीख से शील भाव विभोर हो गया।
पूछा - “यह तुझे कैसे मालूम हुआ ?”
उसी से, जिसके द्वारा आमंत्रण पत्र भेजा।’
‘तो वह आमंत्रण तूने भेजा।’
‘हाँ पापा। लेकिन माँ के कहने से।’
‘और वह .... हाथ से लिखा ’ ....
‘मैंने लिखा था।’
‘ओह, मेरी बेटी निशा, अब मुझे विश्वास हो गया कि’ ....
‘क्या पापा ?’ बीच में निशा ने पूछा।
कि ... तू मेरी माँ बनकर आयी है।’
‘नहीं पापा, मेरा जन्म तो पहिले हो गया था। उनका स्वर्गवास बाद में।’
शील निरुत्तर हो गया। सही कहा था, उसने। उसे इस बेझिझक बात से हँसी भी आयी। निशा, विदुषी तो है ही, वाक् - पटु भी है। उसे समझ में आ गया कि उसे कोई भी धोखा नहीं दे सकता।
“अच्छा बेटी,” शील बोला -“योग्यता के इतने सारे गुण कैसे आये तुममें ?”
“सच बताऊँ पापा” आँखों की पुतलियों को वह नीचे ऊपर कर वह बोली -
“आप की कृपा और माँ के आशीर्वाद से।”
“मेरी कृपा की भागीदारी नहीं, निशा केवल माँ का मार्गदर्शन ही योग्यता का कारण है।” शील ने पूरा श्रेय मांँ को दिया।
निशा अब जैसे इस बाँधी हुई भूमिका के करीब पहँुच चुकी थी, सो हाथ आए अवसर को चूकना उसने सीखा ही नहीं था। पिता का अच्छा मूड देखकर प्रश्न किया “अच्छा पापा, सच - सच बताइये - जब आप इतने विद्वान हैं, अच्छे विचारक भी हैं, तब आपसे इतनी बड़ी त्रुटि कैसे हो गई ? निशा ने सीधे शील को ही उस विघटन के लिये जिम्मेदार बनाना चाहा, जबकि कारण और ही था। किन्तु शील तुरंत ही उसका आशय भाँप गया। जैसे अनकहे उसने कह दिया - ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।’ मांँ में उतनी समझ न थी, आप तो समझदार थे। आप चाहते, तो वह विच्छेद टल सकता था। शील ने पैनी दृष्टि से निशा को देखा। फिर मुस्करा दिया। बोला - मनुष्य का स्वार्थ कभी उस भूखी बाघिन जैसा बन जाता है, जो पेट की भूख, अपने नवजात शिशुओं को खाकर बुझाती है। यही हाल स्वार्थी मनुष्य का है, वह बलि के समय अपना पराया बिल्कुल नहीं देखता। शील के इस उत्तर से निशा संतुष्ट नहीं हुई। बोली - नहीं पापा, और किसी संदर्भ में यह बात उचित हो सकती है। इसमें नहीं। इस प्रतिवाद ने दूसरे ढंग से बात करने को बाध्य किया - बोला - “बेटी, अब इसके लिये किसी भी विवाद के पचड़े में ना पड़े ंतो अच्छा है-होनी या दुर्भाग्य को ही दोषी माने तो उपयुक्त रहेगा। कोई दुर्भाग्य आने से मति फिरती है और तब गल्ती का अहसास होता है। तब तक तो बहुत देर हो चुकी होती है।
चतुर निशा फिर भी समझ गई, कि पापा सीधा उत्तर टाल रहे हैं। अधिक कुरेद कर, वह जिस गम्भीर विषय पर जाना चाहती - वहाँ नहीं पहँुच सकती। अतः उसने अन्य पारिवारिक प्रश्न करना उचित समझा। कुछ जानकारी ली, कुछ दी। तीन घंटे के दरम्यान उसे जो चाहिये था, मिल गया।
शील भी स्वाभाविक स्थिति में आ गया था। यहाँँ आकार उसने अच्छा कार्य किया - ना आने से अनर्थ होता। समय के साथ मानव की मान्यता और विचार भी बदलते हैं। निशा की योग्यता देखते हुये लगता है, निधि भी बदली - उसके विचार भी बदले हैं। सब कुछ जानने के बाद निशा बोली - “पापा, जो कि आपके होने वाले दामाद हैं - अच्छी तरह जाँचा परखा। अच्छाइयाँ भी, बुराईयाँ भी। मेरी दुष्टि में जो कमजोरीयाँ दिखीं, वे उसे बतायीं, उसने सुधारीं। मेरी त्रुटियाँ उसने बताई। मैंने सुधारीं। अब भविष्य में जो त्रुटि होगी, मिलजुल कर सुधार लेंगे। आप भी कल उससे मिलेंगे, तब आप जान जायेंगे कि हमारा चुनाव किस सीमा तक सही है।”
छोटे मुँह और बड़ी बात। जैसी कहावत, पूरी - पूरी निशा की योग्यता पर ढलती है। निश्चय ही इस योग्यता का श्रेय, माँ को जाता है। क्योंकि इतनी छोटी उम्र में विचारों का ऐसा बड़प्पन, इस उम्र की विरली लड़कियांे में पाया जाता है। शील उस प्रतिभा से चमत्कृत था।
शील ने पूछा - “निशा, तुम्हारे नाना - नानी, मौसियाँ कैसी हैं ?”
निशा ने कहा - “नाना नहीं हैं। मृत्यु के पूर्व, अपनी पूरी प्रापर्टी अपनी तीनों पुत्रियों में बाँट गये हैं। एक हिस्सा माँ को दिया, यह होटल माँ के हिस्से में आया। इसका शादी के बाद उद्घाटन होगा। दो हिस्से, दोनों मौसियों को मिले। दोनों शादी शुदा हैं। संतानें भी हैं। नानी छोटी मौसी के साथ रहती हैं। सभी कल आवेंगी। आपसे मिलेंगी। एक क्षण रुक निशा ने अपने पिता शील की आँखों में कुछ झाँकते हुये फिर बोली “पापा मेरी माँ में अब बहुत परिवर्तन आ गया है। जिसने उन्हें पहिले देखा था, वे अब देखने पर विश्वास नहीं करते। यह मेडम पहिले की हैं या और दूसरी...। आप भी मिलेंगे, तो हैरत में पड़ जायेंगे। परिस्थितियों के मुताबिक आदमी भी बदल जाता है, क्यों ना पापा ?”
“हाँ बेटी।”
“आप में भी परिवर्तन आया होगा। पहिले तो नहीं देखा था। आज देखकर अंदाज लग सकता है। आपके कुछ-कुछ बाल भी सफेद हो चले हैं।”
शील बहुत पहिले से एक प्रश्न पूछना चाहता था, जो किसी हिचकिचाहट से किसी तरह दबाये था। निशा के अन्तिम वाक्य से मुस्कराते हुये, पूछ बैठा- “बेटी, इस घर से सुधीर साहब का भी सम्बन्ध था। वे अब कहाँ हैं ?” “कौन सुधीर ?” निशा बोली “मैंने तो आज तक इस नाम का कोई व्यक्ति ना देखा - ना सुना।”
शील ने उस जानकारी की जिज्ञासा को खत्म करना ही बेहतर समझा। अन्यथा निर्मित वातावरण दूषित हो जाता। उसने निशा से कहा- “आगे की बात कहो ं”
“आपसे पृथक होने के बाद, माँ को नानाजी के प्रभाव से लेक्चरशिप की नौकरी मिल गयी - .... बाद में प्रोफेसर, अब कालेज में प्रिन्सिपल हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा है। उनकी लोकप्रियता का अंदाज कल की उपस्थिति से आप लगा लेंगे।”
“पापा जी, आपने मुझे इतने साल तड़पाया, मैंने भी वह बदला आपको रुलाकर लिया। इस उम्र में आपकी आँखों से आँसू बहे, यह साधारण बात नहीं है। सो मेरा कर्ज बराबर हो गया ना ?”
निशा ने शरारत से, आँखों की पुतली फिर नीचे ऊपर की। शील को उसकी यह भाव भंगिमा अच्छी लगी अतः उसकी बात का अनुमोदन किया।
“हाँ, ठीक कहती हो निशा।”
“पर एक कर्ज आप पर बाकी है। उसका श्रेय भी मैं लेना चाहती हूँ। मेरी बात पूरी गम्भीरता से सुनिये।” “निशा भी गम्भीर मुद्रा में बोली “कल शादी में, मैं व्यस्त रहूँगी। उसके बाद विदा और ससुराल चली जाऊँगी। आपसे बात करने का अवसर मुझे नहीं मिलेगा। इसलिये अपना कर्तव्य निभाने मैंने आपको एक दिन पहिले बुलाया है, कि मेेरे मन की बात पूरी हो जाय। आप पापा, यह तो जानते ही हैं, कि माँ के जीवन का लक्ष्य मुझ पर केन्द्रित है। मेरे जाने के बाद, वे अकेली रह जावेंगी। इसलिये मेरी इच्छा है - और यदि आप उसे पूरी करने का वचन दें तो कुछ माँगू ?”
शील की समझ में निशा की बात कुछ तो आ गयी थी - पर क्या हो सकता है ? क्या इसका निर्णय जल्दबाजी में लिया जा सकता है ? इस उम्र में पुनः पूर्व जीवन में प्रवेश ? संभव है क्या .... पर जब तक, पूरी बात की जानकारी ना मिले कुछ सोचना व्यर्थ है। वह सहज भाव से बोला -
“कहो बेटी वचन देता हूँ, यदि मेरे बस की बात होगी तो अवश्य दूँगा।”
“है, आपके बस की बात, पापा” वचन मिलते ही बिना देरी किये निशा बोली - “आप अच्छी तरह जान गये होंगे, पापा कि मेरी मां ने कितने कष्ट भोगे हैं। अपना सुनहरा जीवन प्रायश्चित की आग में तिल-तिल कर जलाती रहीं। इससे कठिन प्रायश्चित और क्या हो सकता है ? मैं यह जानती हूँ कि आपने भी कष्ट भोगे हैं पर दूसरी शादी कर जीवन की सरसता पुनः प्राप्त कर ली थी। अतः माँ का त्याग ऊँचा रहा - आपसे सम्बन्ध विच्छेद के बाद उनने ऐसा कुछ नहीं किया। पूरा जीवन, पूरा यौवन काल प्रायश्चित में काट दिया। ऐसी मिसाल और कहीं आपको मिलेगी ? नासमझी मंे गलती सभी से होती है। किसने गलती की, छानबीन करने का अब यह समय उपयुक्त नहीं। इसीलिये मेरी प्रार्थना है, आग्रह है कि आप दोनों, अपने - अपने एकाकीपन को समाप्त कर पुनः एक हो जायें। ऐसा हो जाये, तो मैं अपना विवाहित जीवन सुख से बिता सकूँगी। और समझूँगी, कि आपने सर्वोत्कृष्ट दहेज मुझे दिया है। कहते - कहते निशा की आँखें पुनः भीग र्गइं। उसका आग्रह निश्चय ही प्रासंगिक था। कभी ऐसा भी हो सकता है कल्पना नहीं की थी। महत्वपूर्ण बात तो यह थी, कि दोनों के कल्याण के लिये उन्हीं से उत्पन्न पुत्री की यह मांग थी।
किन्तु निधि के विचार ?
शील बोला - बेटी, यदि तुम्हारी माँ के भी यही विचार है तो तुम्हारी इच्छा पूरी अवश्य करूँगा।
“मेरे पापा, “रुंधे कण्ठ से निशा बोली - मैंने अब आपसे सबसे कीमती उपहार पा लिया। मैं जानती थी, कि इससे उपयुक्त अवसर जीवन में कभी न मिलता। सच पापा, में सब कुछ पा चुकी।” दोनों की आँखें फिर गीली हो गईं। निशा अपना लक्ष्य पूरा कर, चली गई।
शील उस रात काफी देर तक जागता रहा।
दूसरे दिन प्रातः
निधि अतिथि गृह में सभी अतिथियों से मिलने आयी। अधिकांश कमरे भर चुके थे। सबसे पहिले शील के कमरे में आयी। देखकर शील चौंक गया। त्याग - तपस्या की धीर - गम्भीर आकृति। यह निधि है या कोई देवी ? निधि - अभिवादन कर सौजन्य भाव से बोली -“आपने आकर बड़ी कृपा की। निशा को पूरा भरोसा था- आप आवेंगे।
“और आपको ?” मुझे भी।”
शील ने वे उपहार तुरंत निकाले और निधि को सौंपते हुये बोला - “यह छोटी सी भेंट- अपनी बेटी के लिये।”
शील ने अपनी आँखें झुका ली। निधि - उन्हें लेती हुई बोली -“अब इसकी क्या आवश्यकता थी ? कल आपने जो अनमोल उपहार उसे दिया, वह क्या कम है ?”
निधि, उस तरह के अभिवादन के लिये झुक गई- जैसे पत्नी पति के समक्ष पल्लू से सिर ढाँक करती है।
शील के समक्ष सभी बातें स्पष्ट थीं। निशा, कल की बात माँ को बता चुकी थी। निधि की यह मौन सहमति थी। झुकी हुई निधि को उठा सकने की क्षमता जैसे शील खो चुका था। पर आँखों को अपना कृत्य करने से नहीं रोक सका, उनमें प्रेमाश्रु छलके और निधि के पल्लू से ढँके माथे पर ‘टप-टप’ गिर गये। जैसे उसने इस रूप में, अभिवादन का उत्तर दिया हो।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’