दर्द का दर्द
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
बाप से विरासत में प्राप्त, नारियल की रस्सी की झूलेदार खटिया। उसकी अपनी बीती जिंदगी जो कि गमलानुमा आकार में बने अपने पुरानेपन का बोध जैसे स्वतः करा रही हो। सरजू ने उसमें पचासों थिगड़े लगाये - पर कुत्ते की पूँछ की तरह, फिर जैसी की तैसी। अब तो लोग उसकी सूखी देह के साथ इसे भी मरघटाई ले जाकर, जला दें तो पिंड छूटे। इस शरीर की भी खटीया जैसी गत है। कहाँ तक झेले बेचारी ?
आज सबेरे की घटना से वह पश्चाताप् में जल रहा था। उसकी मति को क्या हो गया था ? जिस शंभू पर अपनी जान न्यौछावर किये था। बुढ़ापे की लाठी मानता। उसी पे हाथ उठा बैठा। पहिले तो ऐसा कभी नहीं किया। क्रोध में सूरज जो कर चुका था, अब पछता रहा था। मन में आ रहा था, भीतर जा चुपके से राधा से कुछ पूछे। पर खटिया में घुसने के बाद, पच्चीसों बार की मेहनत के बाद उससे उबर पाता था। ससुरी यह शक्कर की बीमारी तो दम लेकर ही मानेगी। सेठों का रोग उसे कैसे लग गया ? साली यही गुस्सा की वजह है।
“राम.... राम भैया।”
सूरज ने भीतर धँसी मिचमिचाती आँखों से देखा। बदलू था। उसके जवानी का साथी। एक यही तो था जो आकर उसकी खैर - खबर ले लेता। बाकी दूसरे तो झँकने नहीं आते। सामने से निकलते तो मुँह टेढ़ा कर लेते हैं। समय - समय की बात है। यह बेचारा माह दो माह में भूले - बिसरे आ ही जाता है।
“आ भैया ..... बैठ”
उसने बड़ी आत्मीयता से बदलू का स्वागत किया। सोचा बदलू में लाख बुराइयाँ है, एक - दो अच्छाईयाँ भी हैं।
“बोल भइया कहाँ से आ रहा है ?” सूरज ने पूछा।
“घर से।” उसकी टोही आँखों ने हालत का जायजा पल भर में भाँप लिया। सब दो माह पूर्व जैसा था। हाँ, कुछ बदला, तो सूरज का शरीर। इस बीच सूरज ने उठने की भरसक कोशिश की, तो धम् से लुढ़क गया। बदलू समझ गया, कि उसे खटिया से नीचे उतरना है। उसने सहारा दे नीचे उतारा।
“साली यह सौत खटिया एक बार पकड़ती तो छोड़ने का नाम ही नहीं लेती।” तिरस्कार के भाव से मुँह बिचका कर सरजू ने कहा।.... “अब कुछ आराम मिला। अब सुना बदलू।”
“क्या सुनाऊँ भैया ? तुम्हारी यह हालत देख, रोने का मन करता है। दवा - दारू लेते कि नहीं ? ऐसे कब तक चलेगा, यह पिंजरा। कहे देता हूँ, किसी दिन हवा में फुर्र हो जावेगा।”
सरजू ने, इस अपनेपन के कर्ज को लौटाना उचित समझा।
“अरी राधा” .... घर के भीतर झाँका। चाय नहीं तो बीड़ी का जुगाड़ पक्का है। काफी देर से तड़प थी। बदलू से बोला -“क्या जामाना था अपना ?” वह जैसे अपने जमाने में लौट गया। गठीला फुर्तीला शरीर। चालीस बोरों की खड़ी ऊँची छल्ली। एक क्विंटल का बोरा पीठ पर लाद लेता था। और जब चलता तो जैसे पांच किलो का वजन ले दौड़ रहा है। कमर उचका कर मारा तो बेचारा बोरा अपनी जगह चारों खाने चित्त। आज किसी में, ऐसी कूबत ? उसने गर्व से बदलू की आँखों में झाँका।
“अब तो सब सपना सा लगता है।”
जैसे उसने सरजू की प्रशंसा में पीठ ठोंकी। राधा तब तक दिया सलाई ले बाहर आ चुकी थी। किसी मेहमान के आने पर और क्या माँग सकते ? माचिस थमा, जैसी आयी, वैसी वापिस चली गयी। गजब की सुंदर थी। मुँह में गुड़ के खाने जैसा स्वाद लगा। काश ! यह छबीली मेरे घर की बहू बनती। पर जो बहू घर में थी - शायद उसकी याद कर मुँह में कड़वाहट फैल गयी। स्वाद पहिले का अच्छा था। सो तारीफ की।
“बड़े भाग्यवान को देवी सी बहू नसीब होती है, भैया। तुमने टेरा .... वह समझ गई .... बापू को क्या चाहिये ? वाह रे यह तेरी बहू।”
सरजू को बहू की प्रशंसा अच्छी लगी। वह इसी काबिल है। एक बहू इसके घर में भी तो है। है, इसके पाँव की धूल के बराबर ?
सरजू ने बिस्तर के नीचे से साबूत बीड़ी उसे दी। स्वयं उसको दो बार जली जलाई। कश खींचकर दोनों को राहत सी मिली। सरजू की आँखों की खाई में धसीं पुतलियाँ आने - जाने वालों का जायजा भी ले रही थीं। ट्रक - कार - रिक्शा आदि। सबेरे की घटना से उसे बेचैनी थी। बदलू ताड़ गया। सरजू की भी आँखें शंभू के सिवाय और किसे ढूँढ़ सकती हैं ?
“शंभू बाजार गया होगा ?” बदलू ने पूछा। “हाँ भैया” सरजू ने कहा।
“अरे .... ससुरी खतम।” तीसरी बार सुलगी बीड़ी बुझ के धोखा दे गई। घृणा से मुँह बिचका कर फेंक दी। बदलू की ओर देखा। वह मजा ले रहा था। यह अच्छा नहीं लगा। तीन बार का मजा चौपट। पर इससे सस्ती आवभगत दूसरी भी तो नहीं ? इसी बदलू को कभी वह शान से सिगरेट पिलाता था।
“शंभू बड़ी मेहनत करता है भैया।” बीड़ी की आखिरी कश से राख जीभ में आ गई थी, सो सरजू खटिया के नीचे ही थूक कर बोला। सबेरे चार बजे उठता है। और ठेला ले चल देता है। वहाँ सौदा भी बड़े मोल तोल से लेता है। दूसरे औने - पौने भरा और भाग आते हैं। पर शंभू सब्जी मंडी में जाहिर है। आढ़तिये तक उसकी तारीफ करते हैं।”
सरजू ने पुत्र - प्रेम उजागर किया। सबेरे की खट-पट छिपा ली। कल रात राधा के पाँव में पायल ना देख गुस्सा से भरा था। आज बाजार न जाने की मंशा बताई। समझाया। ना माना तो गुस्सा और भभकी। और हाथ अपने आप उठा और ‘पड़’ कर वापस। पिटना शंभू के लिये असहनीय बात थी। उसने दाँत पीस लाल - लाल आँखों से बापू को घूरा। और कोई अनहोनी हो, इसके पहिले राधा आड़े आ गई। आने वाली विपत्ति टल गई। दुनियाँ में राधा से अधिक प्रिय और कोई न था। उसकी बात मान, काम पर चला गया।
सरजू को शंभू के जाने के बाद असह् पश्चाताप् हुआ। प्रायश्चित के लिये उसने अपनी हथेली खटिया की पाटी पर इतनी जोर से पटकी कि उसकी आवाज से राधा बाहर आ गयी। पूछा - “क्या हुआ बापू ?”
जैसे वह अपराध की सजा भोग चुका था। संयत हो, आत्म ग्लानि दबाई। बोला -“कुछ नहीं री .... शायद खटमल छेद में घुस रहा था। उसी को मारा। तू जा।” राधा ने पाटी को देखा। लौट गई।
सड़क पर सब्जी वालों के हाथ ठेलों की कतार खत्म हो गई। शंभू उसमें नहीं था। शायद बहुत दूर आने वालों में हो। दूर तक नजर देख नहीं सकती थी। तभी एक मरियल कुत्ता पूँछ हिलाता खटिया के पास बैठने लगा। बदलू का दुतकारना बेअसर हुआ। वह बैठ गया था।
“अपना लगता है ?”
“हाँ।” बेमन से सरजू ने कहा। चाह रहा था, अब बदलू खिसके। कुछ अच्छा नहीं लग रहा। बीड़ी की तड़प सता रही थी। सोचने लगा इससे तो मुँह टेढ़ा कर निकलने वाले ही अच्छे। यह तो अंगद के पैर जैसा जम गया है।
बदलू भी आवभगत के कर्ज को मयसूद वापस लेना चाहता था।
“भैया, सेठ जी तरफ गये हो ? उनका लड़का ..... रोशन” .....
सत्यानाशी कहीं का। आखिर निकालने लगा ना बाल की खाल। वैसा - ही हाल कि “देवी फिरै विपत की मारी- पँडा कहे मोहे दिशा दिखा। “मेरा तो कलेजा बैठ रहा। लड़का आया क्यों नहीं ? यह कहाँ की कथा लेकर बैठ गया ? भाड़ में जाय सब। अब तो यही मन कहता है, कह दूं भैया, अब मुझे बख्शो। कुछ काम है। तुम जाओ अब। फिर बैठेंगे। पर ऐसा कह नहीं सका।
सरजू के भीतर वाले सरजू ने पुराने साथी के लिये अभद्र विचार लाने के लिये उसे डाँटा। इस बेचारे को क्या पता - सबेरे क्या हुआ ? वाकई बुढ़ापे में बुद्धि भी सठिया जाती है।
तभी अचानक पास बैठा कुत्ता सड़क तरफ दौड़ा। इस पार से उस पार गया। फिर लौटकर उसी स्थान पर बैठ गया। जैसे वह भी शंभु के लिये आकुल था। सरजू की दृष्टि भी साथ गयी। साथ वापस आ गई। फिर गहरी साँस लेकर बोला -‘तुम रोशन की बात कर रहे थे। उसकी चाल चलन अच्छी नहीं। बड़े आदमी का लड़का। सब ढक जाता है। धन - दौलत इफरात। चाहे जितना उड़ाये।”
“बात रोशन की नहीं, भैया” बदलू बोला “आज कल अपना शंभू भी उसकी संगत में फँस गया है। बुरी संगत का बुरा असर है। तुमने जो बात जिन्दगी भर नहीं की वह कर रहा है। वह दोनों हाथ जमीन पर टेक बिल्कुल उनके करीब खिसक आया। कमरे की तरफ देखा कहीं राधा ना सुन रही हो। फिर दायें हाथ की अँगुली ओंठों पर रखकर बोला “जरा धीरे बहू अंदर है।” बदलू अपना मुँह उसके कान के पास ले जाकर बोला “दोनों दारू में धुत रहते हैं। जुआँ भी खेलते देखा है।”
सरजू के सिर पर जैसे पहाड़ गिर पड़ा। वह आघात उसे केवल दारू और जुआँ की आदत से नहीं लगा, बल्कि उसमें छिपे अन्य कारण से लगा। उसमें अभी तक स्वयं के उदर पूर्ति की क्षमता तो आई नहीं - उस पर अतिरिक्त शौक। यह बुरी लत उसके जिन साथियों में पड़ी, सब बर्वाद हो गये। फिर शंभू का तो यह प्रारंभिक जीवन है। इसीलिये राधा के पैर नंगे दिखे। इसीलिये, आज उसका तमतमाया चेहरा देखा। राधा बीच में न आती तो उसके उठे हाथ का भी आघात भी झेलना पड़ता। यदि ऐसा होता तो वह एक पल भी जीवित रहता ? राधा कचरा फेंकने बाहर आयी, फेंका और दोनों को संदेह भरी नजर से देख चली गई। उन दोनों ने भी उसे अपने - अपने भाव से देखा। बेचारी बहू। .... बेचारी मुनिया ! खूब इतराती थी ! ....
सरजू की चिन्ता थी, राधा के बाप को दिया वचन। बदलू का लड़का राधा के लिये शंभू का प्रतिद्वन्दी था। तब उसने शंभू के सद्गुण बढ़ाचढ़ा बखाने थे। पुत्र प्रेम में यहाँ तक कह गया, कि मेरी बात कभी झूठी पड़े तो मुझे दस जूते मारना। राधा भी उस वचन की गवाह है।
उसे लगा, मानो राधा के बाप ने क्रोध में, तड़-तड़ दो जूते सिर पर मार दिये।
हे राम ! अब तुम्हीं लाज बचा सकते हो।
पर ये बदलू का बच्चा उस हार का बदला तो नहीं ले रहा ? मुसीबत में जब आदमी लाचार रहता है, तभी दुश्मन हमला करता है। पर यह भी, झूठ नहीं कि शंभू के आचरण बदले हैं। डाक खाना में जमा पूँजी तो थोड़ी -थोड़ी हथिया चुका। बहू की पायल भी नहीं छोड़ी। अब मकान का नंबर है।
बदलू ने सांत्वना दी। जैसे जख्म पर, मलहम पट्टी की।
“सब्र से काम लो भैया। कुआँ में गिर गये अब साहस से ना निकले तो डूब जाओगे।”
शंभू का फिर वह तमतमाया चेहरा दिखा। डूबने में हित है। अपने बेटे द्वारा किया अपमान क्या कोई बाप झेल सकता है ?
सरजू ने उसी जगह से पुनः दो बीडि़यां निकालीं। एक उसने, एक बदलू ने जलाई। उसकी खास जरूरत थी। शंभू जब अपने हिस्से में आने वाली सम्पत्ति फूँक रहा है, तब इस सड़ी सी चीज का क्या ? बदलू के चेहरे पर रौनक आ गयी। तभी लगभग पचास वर्षीय महिला सिर पर बड़ी टोकनी रखे, बाजू से निकली, सरजू के मकान के पिछवाड़े चली गयी। बदलू की आँखों में चमक आ गई। नीचे से ऊपर तक देखा। इस उमर में ऐसा गजब ! आँखों के इशारे से परिचय पूछा। सरजू श्रद्धा भाव से बोला - “भीखम की घरवाली। बेचारी डेरी से गोबर ला कंडे पाथती है। घर बैठे बिक जाते। मरद रिक्शा चलाता। आल औलाद नहीं सो मजे में हैं।”
बदलू बोला-“भाभी भी तो इसी उमर की होंगी, जब परलोक सिधारी। कैसा रूप रंग था। कितना सगापन था। बोली में कितनी मिठास।” बदलू अपना काम कर चुप हो गया। सरजू का दिल दर्द से आहत तो था ही, परलोक वासी पत्नी के विछोह के दर्द ने और आहत कर दिया। उस तड़प से वह रो पड़ा।
बदलू पछताया। अप्रासांगिक बात छेड़कर उसने गलती की। उसे सुधारी। आठ हाथ के बने कमरे को ललचाई नजर से देखा, जिसमें लड़का-बहू रहते हैं। यह अभागा, घास फूँस की झोपड़ी में। एक किराये के घर में था, तब यही हाल इसका था। भाभी के साथ खुद भीतर - इसका बाप बाहर। उसने दिलासा दी। “रो मत भैया, भाभी अपना फर्ज कर के गई हैं। अपनी छाया में तो बैठे हो। अपने साथियों में किसने यह काम किया ? सब पराई छाया में मरेंगे।”
सरल - निश्छल सरजू को इस अप्राप्त सुख से, किंचित सुख की अनुभूति हुई। पास बैठा कुत्ता अचानक फिर पूँछ हिलाकर उठा। भौं .... भौं .... पाँच-सात दफे भौंका। सड़क के पास गया। उसकी बिरादरी का अनजान सड़क से निकल रहा था। उस पर कुछ असर ना हुआ, तो अपना कर्तव्य पूरा कर लौट आया। दोनों उसे जाते आते देखते रहे। बदलू ने छोड़ी बात आगे बढ़ाई -“तुमने सुना है, भैया सरकार सड़क चौड़ी कर रही है। यह सरकार भी हमें चैन से नहीं रहने देती।”
उसका आशय मकान से सबन्धित था।
“सुना है।” सरजू लापरवाही से बोला -“जैसा हाल सबका होगा, मेरा होगा।”
उसने यह जगह जब ली थी, तब लोग सड़क किनारे बसना पसंद ना करते थे।
अब उल्टा है। बदलू के मन माफिक जवाब ना मिला।
“और चारा ही क्या है ?” जैसे जलन शांत कर बोला। अब कुछ और। “भैया डाकखाने के क्या हाल है ?”
सरजू इसे ना बताना चाहता था। इज्जत ढकी रहे तो बनी रहती है। उसने उड़ती नजर घर के तरफ देखा - राधा भीतर ही थी। ढाँकने की कला वह जानता न था। बोला - भैया मेरा सब कुछ तो जानते हो। चार हजार जमा थे। कुछ मौत मट्टी में, कुछ शंभू की शादी में। धंधा के लिये ठेला कसवाया, कुछ पूँजी और कुछ के जेवर गहने। थोड़ा ही बचा होगा। बस !
बदलू चेहरे पर सहानुभूति के भाव ला समर्थन करता रहा।
सरजू को अब उसका बैठना भारी लग रहा था। चाहता था, वह जावे और हम आराम करें। शरीर टूट रहा था। यह बात बदलू भाँप गया। बारह का टाइम होगा। सभी सब्जी भरे ठेले निकल गये। बेच - भाँज फुर्सत। मेरा शंभू केवल बचा। जाने कहाँ, कैसे होगा ? इस सत्तुर हाथ को सबेरे क्या हो गया ? यदि बात लग गई और कुछ का कुछ कर बैठे। हे राम ! उसे लौटा दे। राधा को पायल दूसरी ला दूँगा। बस, वह आ भर जाय।
सरजू के मन की उठा पटक बदलू भाँप गया। सम्वेदना के स्वर में बोला - ‘चिन्ता ना करो भैया, आ जायेगा। कोई काम में फँस गया होगा। सरजू जैसे इसी के लिये जो रुका था। सोचा डाँट - डपट दूँ।’
राधा तीर की गति से बाहर आयी। चेहरा आग बबूला। जैसे अब तक दोनों की सब बातें सुन रही थी। क्रोध से लाल आँखें भर कर बदलू पर बरसी।
‘किसके कान खेंचोगे, काका ? हिम्मत है, हाथ लगाने की ?’
राधा के तेवर से बदलू सकपका गया। हित की बात, अहित कैसे लगी इसे ? ‘ खबरदार।’ अपने हाथ की उँगली उठा, बदलू को सावधान किया। जैसे हमला करने वाला योद्धा अपने प्रतिद्वंदी को सचेत करता है। आगे बोली - ‘ अब उनके बारे में कुछ ना कहना। अपनी यह लल्लो - चप्पो कहीं और जाकर हाँको। जैसे हैं, मेरे हैं, समझे। हर बात में अपनी टाँग न अड़ाया करो।’ वह जिस गति से आयी, उस से वापस।
सत्यानासिन राँड। बदलू मन ही मन बुदबुदाया। उठा और ‘राम - राम भैया’ कह सड़क की तरफ चला गया। उसके जाने के बाद, राधा पुनः बाहर आयी। इस बार संयत थी। बोली - ‘बापू तुम बेकार चिन्ता ना किया करो। पायल मेरी गई, मैं चिन्ता करूँ। तुम्हें क्या ? जो ले गया - लाकर भी देगा। चलो, अब खा लो।’
सूरज को भूख नहीं थी अब। उसने हाथ के इशारे से बताया और उसे जाने को कहा वह समझ नहीं पर रहा था। राधा ने उसके साथी से जो सलूक किया। यह उचित है या अनुचित ? वह हिम्मत कर उठने का प्रयास किया किन्तु विरासत में प्राप्त, उस गमलानुमा खटिया में फिर समा गया।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’