धुंध के उस पार
सरोज दुबे
सरोज दुबे
वह आटो-रिक्शा से सामान उतार रही थी कि सामने शोभा दिखाई दी, ‘‘अरे मेघा, तुम तो कल आने वाली थी?’’
हाँ भाभी, लेकिन कल वहाँ ‘शहर बंद’ है, कुछ गड़बड़ हुई तो और आफत। इसलिए आज ही आ गई।’’
‘‘अच्छा’’ किया कमलजी घर में ही हैं और वह तुम्हारी नौकरानी रजनी भी आज आई है।’’
‘‘अच्छा’’ उसने बात समाप्त की।
नन्हा विक्रम आटो के रुकते ही अपने मित्रों के पास भाग गया था। उसने अकेले ही सब सामान उठाया और चल दी।
‘अच्छा है, कमल घर में ही है,’ वह मन ही मन प्रसन्न हुई।
उसने धीरे से दरवाजे पर दस्तक दी। शायद अंदर रेडियो बज रहा था। उसने द्वार पर लगी घंटी बजाई।
‘सो रहे हैं क्या ? मन ही मन बुदबुदाया। शाम के पाँच बजे इतनी गहरी नींद? वह खड़ी-खड़ी सोच रही थी।
अब की घंटी जोर से दवाई....
‘‘कौन ?..आ रहा हूँ।‘‘ कमल ने अंदर से आवाज दी।
उसे लगा, कमल को दरवाजा खोलने की कोई जल्दी नहीं है। हाथों में सामान लादे द्वार पर खड़े-खडे़ उसका सारा उत्साह ठंडा पड़ गया।
दरवाजा खोल कर कमल बुरी तरह चैंके,- ‘‘अरे तुम, तुम तो कल आने वाली थीं न?
‘‘हाँ, गलती की जो आज आ गई,’’- उसने कुढ़ कर कहा।
‘‘नहीं... मैंने तो यों ही कहा, तुमने कल आने की बात लिखी थी।’’
‘‘सो रहे थे क्या ?’’
’’नहीं यों ही लेटा था। जरा सिर भारी लग रहा था।’’
’’रजनी से कहिए कि जरा चाय बना दे।’’
‘‘रजनी ? किसने बताया तुम्हें कि वह आई थी? वह बहुत देर हुई चली गई।’’
‘‘ठीक है, मैं खुद ही बना लूँगी।’’
वह अपना सूटकेस लिए कमरे में पहुँची। ‘पर यह क्या? कौन आया था यहाँ? किसने अभी, बस थोड़ी ही देर पहले... क्या रजनी? उसके दिमाग में बिजली सी कौंधी। दूसरे ही क्षण सारी बात उसकी समझ में आ गई। कमल ने शायद इसीलिए द्वार खोलने में देर लगाई वह पीछे के दरबाजे से निकल गई होगी।
किसी भी परिवार के विध्वंस के लिए ये प्रमाण काफी थे। उसे लगा, वह क्रोध से पागल हो जाएगी। वह भाग कर बाहर गई कि वह अभी पूछेगी, ‘मेरी अनुपस्थिति में आज क्या हुआ है यहाँ?’ उसकी साँसों की गति बढ़ गई थी।
‘‘कहाँ है आप?’’ उसकी आवाज काँप रही थी।
‘‘आ रहा हूँ, भाई चाय बना रहा हूँ’’ चाय की प्याली लिए कमल रसोई से निकले विश्वास की जिस नींव पर दांपत्य जीवन फलता फूलता है, वह आज कहीं गहरे खाई में ओझल हो गया था। कमल की मीठी आवाज भी उसे कुनैन सी लगी। उसके मन में तो यह आया कि एक हाथ मार कर गिरा दे, सारी चाय। कमल को झकझोर कर कहे, ’मुझे नहीं पीनी है चाय। पहले यह बताओ कि मेरी अनुपस्थिति में आज घर में क्या तमाशा हुआ? मेरे साथ ऐसा विश्वास घात क्यों किया? दूसरों की चरित्रहीनता का तो खूब बखान करते थे, अब अपनी कहो।’
पर कमल का रसोई से निकलना और विक्रम का बाहर से आना, एक ही साथ हुआ। उस ने अपने आप पर काबू किया। क्रोध के कारण आँखों में आँसू आ गए थे। विक्रम कमल को देखते ही उनसे लिपट गया। कमल उसे उलाहना देने लगा,- ‘‘मैंने तुमसे कुट्टी कर ली है, विक्रम, तुम नानाजी के घर जा कर मुझे भूल गए। तुमने पत्र लिखने का वादा किया था न, अब मैं तुमसे नहीं बोलूँगा।’’
विक्रम हँसते हुए तमाम बहाने बना रहा था। कोई और दिन होता तो पिता-पुत्र के वार्तालाप का वह भी आनंद लेती। परंतु आज उसके हृदय में आग जल रही थी। वह कमल से एकांत में मिलने को व्यग्र थी। विक्रम के कारण वह कुछ भी न कह सकी।
अपने कमरे में आकर वह उन अवशेषों की खोज पड़ताल करने लगी। जो वहाँ हुए षर्मनाक विश्वास घात की कहानी कह रहे थे।
’’तुमने चाय नहीं ली अभी तक ? ठंडी हो जाएगी।’’ चाय की प्याली लिए कमल उसके पीछे-पीछे आए।
उसे उबकाई सी आने लगी तो घृणा से मुँह फेर लिया, ’’मुझे नहीं पीनी है चाय।’’
‘‘क्यों? गरम कर लाऊँ क्या?
‘‘नहीं पहले यह बताओ कि यह सब क्या है ? क्या हुआ था मेरे कमरे में?’’
‘‘वह, वह रजनी आई थी तुम्हारे कमरे में।’’ कमल का मुख फीका पड़ गया।
’’वह तो मैं समझ ही गई । पर यह सब किस बात की निशानी है ? ’’
‘‘वह डाक्टर प्रमोद के बच्चे को ले आई थी। वही यहाँ गड़बड़ करता रहा।’’
‘‘आपने उसे घर में क्यों आने दिया ? कहा क्यों नहीं कि मैं घर में नहीं हूँ’’
‘‘दरवाजा खुला था वह अंदर आ गई, तो मैं क्या करता ?’’
‘‘जो कुछ करना चाहिए, वही आपने किया।’’ उसने व्यंग्य से कहा।
कमल ने पलँग पर पड़े मोंगरे के फूल और लाल चूड़ियों के टुकडे़ उठाए। तकिए पर चिपकी मोती जड़ी िबंदी हटाई। चादर को करीने से बिछाया। लेकिन आक्रोश के कारण वह बुत सी बैठी रही।
’’जरा बाजार जा रहा हूँ। सुनार ने आज तुम्हारी चूड़ियाँ देने के लिए कहा था,’’ कमल ने धीरे से कहा।
‘‘मुझे नहीं चाहिए चूड़ियाँ। उसी को दे आओ।’’ उसने आग्नेय दृष्टि से देखा।
कमल की नजर झुक गई। धीरे से पैंरों में चप्पल डाल कर वह बाहर निकल गए।
’कैसा गऊ बन रहा है, यह व्यक्ति। आज मुझे इस तरह देख लेता तो ? क्या सहलेता चुपचाप? उसने पलँग की चादर खींच कर गुसलखाने में डाल दी। अलमारी से दूसरी चादर निकाल कर पलंग पर बिछाई और उसी पलँग पर निढाल हो कर लेट गई। पलँग की चादर उसने जरूर बदल दी थी, पर कहीं कुछ ऐसा था जो उसे चुभता जा रहा था, नुकीले काँटे की तरह।
उसने विक्रम के जन्म के समय रजनी को खाना बनाने के लिए रखा था। उसे देख कर यह कहना मुश्किल था कि वह घर की नौकरानी है। वह बढ़िया साड़ियाँ पहनती। कई तरह की बिंदियाँ लगाती। गजरा उसके बालों में सदा ही लगा रहता। हाथों में ढेर सारी चूड़ियाँ और माँग में दमकता सिंदूर। उसीको देख कर उसे पहली बार लगा था कि साँवले रँग पर सिंदूर की लाली की जो शोभा है, वह उसके गोरे रँग पर कभी नहीं आ सकती।
यह तो बनाव-सिंगार की बात थी, पर बनाने वाले ने भी रजनी को बड़े मन से गढ़ा था। उसके शरीर की गठन बड़ी सुंदर थी। विशेशकर उसकी आँखों का सौंदर्य अनुपम था।
शायद इसीलिए प्रभा दीदी ने कहा था, ‘‘नौकरानी तो लाई हो, पर अपने दूल्हे को संभाल लेना’’ यह बात सुन कर वह उस समय वह हँसी थी, परंतु आज वह बात सच हो गई।
रजनी के संबंध में कितने ही किस्से प्रसिद्ध थे। उसकी दिल फेंक तबीयत को लेकर स्त्रियाँ उस पर व्यंग्य बाण कसती थीं। लेकिन वह ऐसी बातों को हँसी में उड़ा देती। दो महीने काम करके वह उनके घर से चली गई थी। किंतु जब मन होता वह दीदी-दीदी कहकर उनके यहाँ आ जाती। आज इतने वर्षों बाद यह नतीजा निकला था।
+ + +
’’तुम्हारी चूड़ियाँ,’’- कमल ने हौले से कहा।
लेकिन वह तकिए में मुँह गड़ाए वैसी ही पड़ी रही। कुछ देर बाद उसे कमरे से बाहर जाती हुई पदचाप सुनाई दी।
उसने सिर उठा कर देखा। सामने मेज पर चूड़ियाँ रखी थीं। उसने उन्हें छुआ तक नहीं। पलँग के पास ही सूटकेस रखा था। वह सोचने लगी, ’इस सूटकेस को लेकर वह सुबह ही मायके लौट जाए। यहाँ अकेले पड़ा रहने दे कमल को। लेकिन वहाँ जाकर वह कहेगी क्या? क्या बहाना बनाएगी? सच बात कहने से उसकी हेठी नहीं होगी? नहीं, मायके जाना ठीक नहीं होगा। विवाहित बेटी का स्थायी रूप से मायके में रहना, कभी आनंद और सम्मान की बात नहीं हो सकती। रजनी के कारण वह अपना घर क्यों छोड़ दे। अब वह उसे घर में घुसने ही न देगी। लेकिन कमल? वह उनसे महीने दो महीने नहीं बोलेगी। वह उन्हें पश्चाताप् की आग में जलाएगी।’
विक्रम उसके पास ही सो रहा था। वह उठकर बाहर आई। कमल हाथों का तकिया बनाए सोफे पर सो रहे थे। रसोई में टिफिन जैसा का तैसा पड़ा था। शायद विक्रम ने ही दो एक पूरियाँ खाई थीं। घड़ी देखी तो ग्यारह बज रहे थे। कमल ने अचानक करवट ली। उनके संतप्त मुख पर निष्छलता और मासूमियत दिखाई दे रही थी।
वह चुपचाप अपने कमरे में लौट आई। वह फिर सोच में डूब गई, ’अब तक उसका दांपत्य जीवन पूरी तरह सुखी था। कमल के दफ्तर में कई स्त्रियाँ कार्य करती थीं। पर ऐसी कोई बात पहले कभी नहीं हुई फिर आज क्या हो गया? कैसे बहक गए उनके कदम?
‘रजनी ने उन्हें अपने मोहजाल में फँसा लिया होगा, कमजोर क्षणों में वे निर्बल पड़ गए होंगे और रजनी ने मौके का फायदा उठा लिया होगा। वह कोई सोचा-समझा प्रणय प्रसंग न था। किसी पुरुश को अकेला पा कर उसे मोहजाल में फँसाने का शड्यंत्र था।
’लेकिन कमल निर्दोष नहीं हो सकते। उनका मन जरूर रजनी की ओर गया होगा।’
‘पर ऐसी घटना क्या उस अकेली के साथ हुई है ? संसार की कोई अनोखी बात है यह?’
अतीत की कितनी ही स्मृतियाँ उसकी आँखों में सजीव हो उठीं। बिलासपुर वाले बड़े मामाजी का वर्षों किसी स्त्री से संबंध था। मामी तो मामी, यह बात माँ तक को पता थी। एक बार उन्होंने कहा भी, ’’भौजी, तुम कैसे चुपचाप सह लेती हो, कुछ कहती क्यों नहीं।’’
’’जब उनका दिल वहाँ लग ही गया है, तो कहने से मानेंगे थोड़े ही। लड़ाई झगड़ा कर के दुनिया को तमाशा दिखाने से कौन सा लाभ?’’ वह बोलीं थीं।
इस बात को लेकर बड़े मामा और मामी को कभी किसी ने लड़ते झगड़ते नहीं देखा था। अपनी इस सहिष्णुता के कारण मामी पूरे परिवार की ही नहीं बल्कि मामा की भी आँखों में सदैव चढ़ी रहीं।
कुछ वर्शांे बाद बड़े मामा के मन से वह स्त्री उतर गई। पीछे अपने बुरे दिनों में वह कई बार बड़ी मामी के पास आती। मामा मुँह छिपाए कहीं निकल जाते लेकिन मामी द्रवित हो कर उसे रुपए पैसे और पुरानी साड़ियाँ दे दिया करतीं।
पता नहीं आर्थिक परतंत्रता के कारण या उस समय की मान्यताओं के कारण परुषों के ऐसे संबंधों को स्त्रियाँ प्रायः चुपचाप सह लिया करती थीं। लेकिन धीरे धीरे समाज के मानदंड बदले, स्त्रियाँ षिक्षित और स्वावलंबी हुई। उनकी मानसिकता बदली उन्होंने स्त्रियों और परुषों के लिए दोहरे मानदंडों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। लेकिन दुनिया का कोई कानून, कोई नियम ऐसी घटनाओं को रोकने में कामयाब न हो सका।
वैसे एक हादसा उसके साथ भी हुआ था। एम.ए. करते ही कार्तिक से उसका विवाह तय हो गया था। वह उसके साथ यहाँ-वहाँ घूमती फिरती भी रही। पर दहेज के लालच में उसने विवाह संबंध तोड़ दिया। कमल को विवाह के पहले और विवाह के बाद भी कई ऐसे पत्र मिले थे, जिनमें कार्तिक और उसके संबंध में ऐसी बातें लिखी थीं, जिन्हें पढ़कर कोई भी पुरूश विचलित हो सकता था। उन पत्रों ने उसके चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया था।
पर विशालहृदय कमल ने भी उन बातों की चर्चा नहीं की। सिर्फ इतना ही कहा था, ‘‘तुम्हारा इसमें कोई कुसूर नहीं है। तुम तो यही सोचती रही होंगी कि उससे तुम्हारा विवाह होने वाला है।’’
कटु से कटु बहस के बीच भी कभी उन्होंने कार्तिक के प्रसंग को उठाने की क्षुद्रता नहीं की। मानों उसके विवाह पूर्व के संबंधों का कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं था।
अब आज कमल स्वयं अपराधी के कटघरे में खड़े हैं। वह क्या निर्णय लेगी उनके संबंध में? इस घटना को लेकर उसे अपने परिवार का विध्वंस कर लेना चाहिए? क्या यह समझदारी की बात होगी?
असावधानी के कारण जिस तरह मनुष्य के बहुमूल्य वस्तुओं का हरण हो जाता है, चोरी हो जाती है। उसी तरह आत्मसंयम के अभाव में स्त्रियों के षील का हरण हो जाता है, पुरूशों के चरित्र का पतन हो जाता है। आत्मसंयम खो देने से ही कमल से यह भूल हो गई होगी। बहुत संभल कर चलने वाला भी कभी फिसल कर गिर जाए तो क्या आश्चर्य?
उसे याद आया, आत्मग्लानि से कैसा निश्प्रभ हो गया था, कमल का मुख। जो व्यक्ति चरित्रवान हो, जिसमें किसी प्रकार का छिछोरापन न हो, वह बस एक बार गिर जाए तो क्या उसे त्याग देना चाहिए? उसी बात का हमेशा ताना दे कर उसे अपमानित करना चाहिए? अपने व्यंग्यवाणों से उसे छलनी कर देना चाहिए?
पता नहीं, यही सब सोचते सोचते कब उसकी आँख लग गई।
+ + +
लगभग एक माह बीत गया। कमल से उसकी बातचीत नहीं के बराबर ही थी। दफ्तर से आने के बाद कमल अकसर विक्रम को पढ़ाने बैठ जाते थे। कभी कहीं बाहर भी निकल जाते। इधर कई दिनों से वह उन्हें चिंतित और व्यग्र देख रही थी। विक्रम को पढ़ाते पढ़ाते कहीं खो से जाते। भोजन भी ठीक से नहीं कर रहे थे। वह सोचती, यह सब उसके अबोला करके रूठ जाने के कारण ही है। कई बार उसका मन द्रवित हो उठता। पर उस घटना की याद आते ही उसे कमल से वितृश्णा हो उठती। उसका मन कड़वाहट से भर जाता। वह सोचती उन्होंने जो किया है, उसकी कुछ तो सजा उन्हें मिलनी चाहिए।
एक दिन रात के नौ बजे गए थे, पर कमल का कहीं पता नहीं था, मन में अनेक प्रकार की ए लिए वह कई बार बाहर तक देख आई थी। सोचने लगी, नाराज हो कर कहीं निकल तो नहीं गए? मनुष्य के मन का क्या भरोसा? कहीं दुर्घटना का शिकार तो नहीं हो गए? ऐसे ही अनेक प्रश्न उसे व्याकुल कर रहे थे।
तभी द्वार की घंटी बजी। विक्रम ने दौड़ कर दरवाजा खोला। देखा, तो विवेक थे वह कमल के दफ्तर में कार्य करते थे और उन के अच्छे मित्रों में से थे।
’’चाचाजी, आज पिताजी अभी तक घर क्यों नहीं आए? नन्हें विक्रम ने उन्हें देखते ही पूछा।
‘‘भई, दफ्तर से तो हम और आप के पिताजी साथ ही निकले थे। कहीं किसी काम से रुक गए होंगे’’
विक्रम उदास हो कर अंदर चला गया। ‘‘आप से कुछ कह रहे थे?’’ उसने अपनी व्यग्रता छिपाते हुए विवेक से पूछा।
‘‘न, नहीं तो’’
फिर बातों ही बातों में विवेक बता गए कि रजनी कुछ दिन पहले दफ्तर में आई थी। शायद उसके घर में किसी की तबीयत खराब थी। इलाज के लिए कमल से रुपए माँग रही थी। कमल ने उसे सौ रुपए दिए, पर वह दो सौ रुपए के लिए अड़ी रही। तब कमल ने सौ रुपए सुरेंद्र से माँग कर दिए।
’तब वह उसी के साथ होंगे,’ उसने मन ही मन कहा। उसके शरीर में आग सी लग गई कि ‘वह यहाँ चिंता में मरी जा रही है और वहाँ’ कमल के प्रति उपजी सहानुभूति और दुष्ंिचता उसी क्षण मिट गई। उसकी जगह क्रोध और ईश्र्या ने ले ली।
विवेक घर से निकल ही रहे थे कि कमल आ गए। विक्रम पहले ही सो गया था उसने अनिच्छा पूर्वक खाना गरम किया और मेज पर लगा दिया। कमल ने मुँह हाथ धोया, कपड़े बदले और सोने के लिए जाने लगे। खाने की ओर उन्होंने देखा तक नहीं।
‘‘जब बाहर खाने का मन हुआ करे, तो पहले ही बता दिया कीजिए।’’ -
विशाद में डूबी हुई आँखों को उठा कर उन्होंने उसे देखा तिरस्कृत स्वर में बोले, ‘‘कल से मेरे लिए खाना मत बनाना।’’
द्वेश, चिंता, और वितृश्णा के सर्प उसे रात भर डसते रहे। ’क्यों दिए दो सौ रुपए उन्होंने उसे? बिना किसी कारण के कोई यों ही रुपए नहीं दे देता, क्या वह संबंध केवल उसी दिन का नहीं था? दफ्तर से कहीं निकल जाते होगें, तो उसे क्या पता लगता है?’ उस घटना से उद्वेलित मन जरा शांत हुआ था कि आज फिर आन्दोलित हो उठा।
लेकिन आश्चर्य उसे एक ही बात का था कि जो पुरुश दूसरी स्त्री पर पैसे लुटाता है, उसके साथ मौजमजा करता है, उसके चेहरे का रंग, उमंग और उल्लास कुछ और ही होता है। परंतु कमल के बुझे-बुझे से चेहरे पर केवल विशाद ही दिखाई देता है। चिंता और परेशानी से अकुलाए कमल की अशांति उससे छिपी न थी। कभी-कभी उसे लगता कि कहीं दफ्तर से संबंधित कोई ऐसी बात तो नहीं है, जो उन्हें परेशान किए हुए है।
एक दिन इसी प्रश्न का उत्तर जानने के लिए वह विवेक के घर गई थी। लेकिन विवेक कहीं बाहर गए थे, इसलिए वह जल्दी ही लौट आई।
घर आ कर देखा, द्वार खुला हुआ था। कमल दफ्तर से आ चुके थे। पर अंदर से एक नारी का स्वर सुनकर वह द्वार पर ही रुक गई।
’’बाबू मैं रुपए लिए बिना नहीं जाऊँगी। तुम्हें विश्वास नहीं है तो मेरे साथ खुद अस्पताल चलो। तुमने दफ्तर आने से मना किया था, इसीलिए मुझे यहाँ आना पड़ा। जल्दी से रुपए दो, दीदी आ जाएगी तो मुश्किल होगी’’ यह रजनी थी।
‘‘तुम मुझे जबरदस्ती बदनाम करना चाहती हो। तुम जहरीली नागिन हो, ’’कमल क्रोधित हो कर बोल रहे थे।
’’उस दिन तो बड़ा प्यार दिखा रहे थे, बाबू दूसरे की औरत क्या मुफ्त में मिल जाती है ?’’
’’तुम किसी की औरत नहीं हो... वेष्या हो, वेष्या... तुमने मुझे फँसा लिया।’’
‘‘तुम क्या छोटे बच्चे हो बाबू ? मत दो रुपए मैं दफ्तर में आ कर सबके सामने यह बात कहूँगी। कल यहाँ आकर तुम्हारे पड़ोसियों को बताऊँगी। तब देखती हूँ, तुम कैसे सिर उठा कर चलते हो?
कमल शांत हो गए, ‘‘अभी मेरे पास रुपए नहीं है।
‘‘वह मैं नहीं जानती। किसी से उधार ले कर दो। बीबी के गहने बेच कर दो। मुझे रुपए चाहिए बस।’’
‘‘तेरे जैसी नीच औरत के लिए मैं अपनी पत्नी के गहने कभी नहीं बेच सकता।’’
दरवाजे के बाहर खड़ी मेघा का क्षण भर में ही मन का सारा विश ‘अमृत’ हो गया। षीतल जल के एक छींटे से ही मन का सारा कलुश धुल गया।
‘‘तब मैं अभी शोर मचाती हूँ’’-रजनी ने धमकाते हुए कहा।
‘‘नहीं, नहीं...’’ कमल अकुला कर बोले।
रजनी के तेवर देखकर मेघा से रहा नहीं गया। वह देहरी को लांघते हुए कमरे में आ गई।
‘‘उसे देख कर कमल शर्म और संकोच से गड़ गए। रजनी भी एक क्षण को घबरा गई।
‘‘क्या बात है रजनी?’’ उसने पूछा
‘‘नहीं, कुछ भी नहीं, दीदी’’
‘‘कुछ कैसे नहीं? अभी तो तू इनसे कह रही थी कि मैं चिल्ला दूँगी।’’
‘‘हाँ, यह मेरे साथ जबरदस्ती कर रहे थे।’’
‘‘दीदी, मैं पिछली बार तुम्हारे यहाँ आई थी, तब क्या हुआ, यह इन्हीं से पूछो’’ उसने सारा अपराध कमल के सिर मढ़ने की कोशिश की।
‘‘मुझे किसी से कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं है, मेरे पति एक षरीफ आदमी हैं। तेरे जैसी बदचलन और छिछोरी औरतों के चक्कर में वह कभी नहीं पड़ सकते।’’
‘‘सच बात आपको मालूम नहीं है, दीदी’’
‘‘चुप रह, दीदी की बच्ची मुझे सब पता है, भले घर के परुषों को फँसाने का तेरा तो धंधा ही है। तू दफ्तर जा कर इनसे दो सौ रुपए ऐंठ लाई और अब यहाँ भी झूठा नाटक कर के पैसे माँग रही है ?’’
‘‘क्यों नहीं माँगूगी रुपए ? इन्होंने जो किया है, उसका फल कौन भुगतेगा? मैं सबके सामने यह बात बोलूँगी। विक्रम के सिर पर हाथ रखवाऊँगी इनसे। ‘‘उसने आखिरी दाँव फेंका।
पल भर को वे दोनों स्तब्ध ही रह गए। लेकिन दूसरे ही क्षण मेघा ने रजनी का हाथ पकड़ लिया और डपट कर बोली,- ‘‘तेरी यह मक्कारी मेरे साथ नहीं चलेगी। तू सीधे से घर से निकलती है या मैं आस-पड़ोस के लोगों को आवाज दूँ?’’
तब भी रजनी अनापषनाप बकती रही। उसने किसी तरह उस आफत को चलता किया। कमल को कई दिनों की दुष्ंिचता और तनाव से मुक्ति मिली। रजनी के चले जाने के बाद कुछ क्षणों तक कमरे में निस्तब्धता छायी रही। तभी कमल ने मेघा के दोनों हाथ थाम लिए और आवेष में अपने गले लगा लिया।
‘‘मेघा, मुझे क्षमा कर दो, मैं सममुच तुम्हारा अपराधी हूँ’’
मेघा की आँखें भी आँसुओं से धुंधला गईं थीं। दोनों की धुंधलाई आँखों से बरसते ये आँसू अपनी गृहस्थी के सुख-शांति और आनंद के आँसू थे और पष्चाताप् के भी।
सरोज दुबे
(प्रकाशित- गृहशोभा अक्टूबर 1992)