दो पाटों के बीच
सरोज दुबे
सरोज दुबे
उसने अभी घर में कदम रखा ही था कि गायत्री देवी ने उलाहने भरे स्वर में कहा, ”प्रभा, आज चिंटू ने दिन भर परेशान किया। सर्दी के कारण हलका सा बुखार है उसे, बेचारी मधु दिन भर गोद में लिए लिए थक गई।”
मन में तो आया कि कह दें, ”मैंने तो पहले ही कहा था,” पर होंठों तक आई बात को रोक कर वह चुपचाप अपने कमरे में चली गई।
किसी तरह जल्दी-जल्दी कपड़े बदले, मुँह हाथ धोया और चिंटू को गोद में उठा लिया। देखा तो उसे सचमुच बुखार था। आँखों में अनायास ही आँसू भर आए। बीमारी में भी बेचारे बच्चे को माँ की गोद नहीं मिल पाती। चिंटू तो थोड़ी ही देर में सो जाएगा, वह संतप्त सी उसके घुँघराले बालों को सुलझाती हुई मौन बैठी रही।
”भाभी, जाओ, तुम रसोई देखो। मैं चिंटू के पास बैठ कर अपनी पढ़ाई करती हूँ, कल से मेरी तिमाही परीक्षाएँ हैं,”-मधु बोली।
“चिंटू को सुला कर अभी आती हूँ।” उसने कहा।
बच्चे को पलंग पर सुला कर जब वह रसोई में गई तो देखा अम्मा (सास) चावल धोने जा रही है। मुख का भाव देख कर उसने धीरे से कहा, “अम्मा, आप जाइए, मैं कर लेती हूँ।” पर सास चावल धोकर ही रसोई से निकलीं।
तभी मधु ने दूसरे कमरे से आवाज दी, “भाभी, भैया के लिए चाय बना देना।”
सुनील को दफ्तर से आते ही चाय पीने की आदत है। चाय बनाते-बनाते मन में कितने ही षूल चुभ गए। सुनील को दफ्तर से आते ही चाय चाहिए। कभी कोई विवादग्रस्त विषय छिड़ जाता है तो अम्मा तुरंत कह उठती हैं, “लड़का दफ्तर से थकाहारा आया है, क्यों उसे परेशान करते हो?” कभी किसी वस्तु की आवश्यकता पड़ती है तो अम्मा, बाबूजी या मधु पास की दुकान से मंगवा लेतीं हैं, सुनील से नहीं कहतीं। पर उसके विषय में कभी कोई नहीं सोचता कि वह भी तो दफ्तर से थकी हारी आती है।
आटा गूँथते हुए वह स्मृतियों के सागर में खो गई। कितने अच्छे थे वे दिन जब मधु, अम्मा और वह मिलजुल कर घर का सारा काम निपटा लेती थी। सुनील के दफ्तर से आने के पूर्व ही बहुत सारा काम खत्म हो चुका होता था। बाबूजी शाम को दोस्तों के पास से लौटते तो सीधे भोजन के लिए बैठ जाते। सुनील भी उन्हीं के साथ भोजन कर लेता था। जब अम्मा भोजन करने बैठती तो मधु के साथ उसे भी बैठा लेतीं। भोजन के बाद अकसर वह और सुनील बाहर घूमने निकल जाते। कई बार मधु और अम्मा भी साथ जातीं। कैसा स्नेहभाव था परिवार में। फिर चिंटू के जन्म के बाद तो घर में और भी खुशहाली छा गई थी। चिंटू हाथों हाथ रहता। अम्मा खुद उसकी मालिष करतीं। रोज छुहारा, जायफल, हरड़ और हल्दी घिसकर नियम से घुट्टी पिलातीं।
अभी चिंटू चार पाँच महीने का ही था कि एक दिन सुनील ने उसके सामने नौकरी करने का प्रस्ताव रखा। वह चकित रह गई इतने समय तक चिंटू को कौन सम्हालेगा और फिर घर का काम कौन करेगा? मधु तो सुबह ही कॉलेज चली जाती है। उसने साफ कह दिया था,-“न, बाबा, मुझसे नौकरी वौकरी नहीं होगी। चिंटू अभी बहुत छोटा है। इतनी देर तक उसे कौन सम्हालेगा? फिर घर में भी तो काम रहता है।”
लेकिन उसके ये तर्क किसी के गले नहीं उतरे।
सुनील बोला था, ”इतनी महिलाएँ नौकरी करती हैं तो क्या उनके घर में कोई काम ही नहीं रहता? फिर चिंटू तो सारे दिन अम्मा और बाबू जी के पास रहता है। वैसे भी तुम उसे कितना सम्हालती हो?”
वह कुछ कहती, इससे पहले ही अम्मा बोल उठी थीं- “अरे प्रभा, जब नौकरी मिल रही है तो कर ले। तुम्हारे बाबूजी रिटायर हो गए, नहीं तो कोई जरूरत ही नहीं थी। चंद्रा को देखो, बच्चो को नौकरानी के भरोसे छोड़ कर नौकरी कर रही है। चिंटू के लिए तो ऐसी कोई समस्या ही नहीं हैं।
“महँगाई बहुत बढ़ गई है, बहू, नहीं तो मैं तो खुद औरतों के नौकरी करने के पक्ष में नहीं हूँ। घर की ऐसी क्या चिंता है ? तुम्हारी अम्मा और मधु तो हैं ही,”-बाबूजी ने भी धीरे से कहा था।
मधु ने तो उसे झकझोर कर ही रख दिया था-”हाँ कह दो न, भाभी। कैसी हो तुम ? आजकल नौकरी मिलती ही कहाँ है ?”
अंत में उसे ‘हाँ’ कहना ही पड़ा था। जिस दिन उसको पहला वेतन मिला था, उस दिन गायत्री देवी ने सबको मिठाई बाँटी थी। दूसरे ही महीने में उन लोगों ने मकान भी बदल लिया था। दो चार माह तो बड़े आनंद से गुजरे, फिर मधु को लगने लगा कि उसे पढ़ाई के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाता। बाबूजी का विचार था कि चिंटू अब कुछ जिद्दी हो गया है, बाहर घूमने की जिद करता है। बूढ़ा आदमी आखिर उसे कितनी देर बाहर घुमाए। घर की सफाई, छानना-बीनना, सिलना-पिरोना और नौकरानी से मगज मारी का काम अम्मा को ही करना पड़ता था। धीरे-धीरे उन्हें भी यह महसूस होने लगा कि उसकी नौकरी से घर और बच्चे की सारी जिम्मेदारियाँ उन्हीं के सिर पर आ पड़ी हैं।
”आज इतनी देर कैसे हो गई ? बाबूजी कबसे भोजन के लिए तैयार बैठे हैं।,”-सुनील ने रसोई के दरवाजे पर आ कर कहा।
वह चुपचाप रोटियाँ बेलती सेंकती रही। कहने को था ही क्या। बीमार बच्चे के कारण देर हो गई, यह भी क्या कह कर समझाने की बात है।
“तुम्हारा तो दिमाग सातवें आसमान पर रहने लगा है। बात का उत्तर भी देेते नहीं बनता,”-तभी सुनील ने खीज कर कहा।
मधु आकर भोजन परोसने लगी। एक अजीब सा तनाव छा गया था, सारे वातावरण में।
इन दिनों सुनील को भी उससे कई शिकायतें थीं। वह बताया हुआ काम करना भूल जाती है। पहले की तरह खुश नहीं रहती। अपने कमरे में पहुँचते ही बिस्तर पर निढाल हो कर लेट जाती है। न रेडियो सुनने में रस लेती है और न उसकी मधुर बातों में।
सुनील की शिकायतें सुनकर उसका मन बरसाती नदी की तरह उमड़ने लगता। बहुत बार सोचती, कह दे, “नवाब साहब, आप तो सुबह सात बजे सो कर उठते हैं, पर मुझ पाँच बजे ही उठना पड़ता है। आप दफ्तर से अम्मा-बाबू जी के साथ बातें करेंगे या चिंटू के साथ खेलेंगे, पर मुझे दफ्तर से आते ही रसोई में घुसना पड़ता है। बच्चा गोद में आने के लिए तरसता रहता है। पर उसे ले नहीं पाती। ऊपर से घर वालों की नाराजगी अलग।”
लेकिन उसे पता था, सुनील से यह सब कहने का कोई लाभ नहीं है। वैसे ही वह कितनी बार कह चुका है, “अम्मा और मधु के कारण तुम्हें तो धर की कोई चिंता ही नहीं है। दूसरी नौकरी पेशा स्त्रियों को देखो, नौकरी करते हुए कैसे घर भी संभालती हैं बेचारी।“
उसने बहुत बार नौकरी छोड़ने की भी सोची, पर जब चादर से बाहर निकले पैरों को समेटने का अवसर आएगा तो जो कलह घर में उठेगी उसकी कल्पना से ही उसका मन क्षुब्ध हो उठता था।
कहीं पढ़ा था कि ‘आर्थिक स्वतंत्रता नारी स्वतंत्रता का आधार है।’ मगर इतने दिन के अनुभव ने उसकी यह धारणा बना दी थी कि नौकरी और आर्थिक स्वतंत्रता दोनों भिन्न चीजें हैं। नौकरी आर्थिक स्वतंत्रता का साधन नहीं, बल्कि शोषण का साधन है।
साल भर के अनाज के लिए मधु की फीस के लिए, अम्मा की साड़ियों और बाबूजी के कपड़ों के लिए पैसा उसी से लिया जाता था, परंतु अपने लिए कुछ खरीदना हो तो सुनील और अम्मा की इजाजत हो तभी खरीद पाती थी। कितने बंधन, कितनी हिदायतें, कितने तर्क वितर्क कई बार उसका मस्तिष्क घूम सा जाता।
पिछले दिनों दफ्तर में अर्चना अपने बच्चे के जन्मदिन पर उसे बड़े आग्रह से अपने घर लिवा ले गई। उसे बहुत जल्दी करने पर भी घंटा भर लग ही गया था। घर लौटी तो सुनील दरवाजे पर ही उबल पड़ा था-”तुम्हें इतनी देर कैसे हो गई? तुम्हारा दफ्तर तो कबका छूट गया।”
“अर्चना के बच्चे का जन्मदिन था। रमा के साथ वह मुझे भी अपने घर खींच ले गई।”
“ऐसे कैसे खींच ले गई ? चिंटू कबसे रो रहा है। अभी घंटे भर बाद बाबूजी को खाना चाहिए, अपने घर की परिस्थिति का कोई विचार ही नहीं करती हो तुम।”
मधु और अम्मा बैठी तमाशा देख रहीं थीं। बाबूजी ने ही अपना चश्मा साफ करते हुए दबे स्वर में कहा था,- “अरे भई, तुम भी कई बार दोस्तांे में रह जाते हो। एक दिन बहू को देर हो गई तो इतना नाराज होने की क्या बात है?”
बाबूजी की सहानुभूति पाकर उसके आँसू बह निकले थे। बाबूजी और द्रवित हो कर बोले थे,-”जाओ, बहू, जाओ जब खाना बनेगा, तब खाएँगे ऐसी कोई जल्दी नहीं है।”
सुशीला दीदी ने कितनी बार बुलाया है, सोच रही थी कि महीना पंद्रह दिन के लिए चली जाऊ। पर चिंटू की तबीयत ठीक ही नहीं हो पा रही है,’-भोजन करते करते गायत्री देवी बोली।
“चिंटू ठीक भी हो जाएगा तो उसे दिन भर सम्हालेगा कौन ? तुम्हारा जाना नहीं हो सकता अम्मा,”-मधु ने तरकारी परोसते हुए कहा।
“पैंसठ की उमर हो गई, अब हमेशा घर गृहस्थी और बच्चे को सम्हालना बस का नहीं रहा, बेटा।”
हर बात की अपराधी फिर वही। क्षुब्ध होकर वह कह ही उठी,- “आप चली जाओ अम्मा, यहाँ जैसा होगा, देखा जाएगा।”
अम्मा सचमुच चली गई। उसने चिंटू को संभालने के लिए एक आया रख ली थी। जैसे तैसे काम चल रहा था।
गायत्री देवी बड़ी खुशी खुशी गई थीं। अब बहू को आटे दाल का भाव पता चलेगा। दफ्तर में दिन भर कुर्सी तोड़ कर घर आती है और ऐसा दिखाती है मानों बोझा ढो कर आ रही हो। पहले तो कई बार हाथ पैर दबा दिया करती थी, पर अब तो हाथ लगाने की भी कसम खा ली है। बड़ा घमंड हो गया है। कोई बात कहो, तो मुँह फुलाए रहती है। ऐसी ही बातें सोचती हुई, वह अपनी बहन के यहाँ पहँुच गई थीं।
उनकी दीदी का घर विगत वैभव की याद दिलाता था। जीजाजी अपने जमाने के माने हुए रईस थे। जीजाजी की मृत्यु के बाद उनका मुनीम आनंदराव सारा कारोबार देखता रहा, लेकिन जैसे ही दीदी को उसकी नीयत में फर्क महसूस हुआ उन्होंने सारा कारोबार रोक दिया। बड़ा लड़का ट्रक दुर्घटना में मारा गया था। बड़े संकट के दिन थे, पर दीदी ने बड़ी हिम्मत से काम लिया। अभी कुछ वर्ष पहले छोटे लड़के द्विजेंद्र ने चैक में दुकान लगाई थी।
उन्हें देखकर बड़ी खुशी हुई। सुशीला दीदी ने खुद घूमघूम कर सारा घर दिखाया। दूसरे दिन द्विजेंद्र ने दुकान से लौट कर बताया,- “अम्मा, ’बाबुल’ फिल्म लगी है, मौसी के साथ देख आओ तुम भी।
सुशीला दीदी ने एक अरसे से फिल्म नहीं देखी थी। गायत्री देवी के साथ सिनेमा का कार्यक्रम बना। दीदी का सिनेमा जाना भी घर में एक अभूतपूर्व घटना थी।
बड़ी बहू जबरन अपनी नई रेशमी साड़ी रख गई,बोली- ”अम्मा, इसी को पहन कर जाना होगा।”
छोटी बहू ने अपना सफेद षाल लाकर ओढ़ा दिया। बड़ी नातिन सुजाता ने उनकी चप्पलें साफ करके सामने ला दी। मझला नाती महेंद्र आटोरिक्शा लाने दौड़ा। जब दोनों बहनें आटोरिक्शा में बैठीं, तो पूरा परिवार विदा करने को दरवाजे पर खड़ा था।
सिनेमा देख कर लौटीं तो दीदी के सिर में बेहद दर्द था। छोटी बहू रसोई छोड़ कर उनका सिर दबाने लगी। बड़ी बहू चाय बना कर ले आई। बहुएँ बारबार पूछ रही थीं- “अम्मा” कैसा है दर्द? कहें तो महेंद्र को भेज कर डाॅक्टर रामगोपाल को बुलवा लें।”
और सुशीला दीदी सकुचाई सी कह रही थी “अरे बाबा, तुम लोग अपना काम करो मुद्दत बाद फिल्म देखने के कारण सिरदर्द हो रहा है। तुम लोग क्यों इतना परेशान हो रही हो?
गायत्री देवी यह सब देख सुन कर गदगद हो गई। क्या सेवा-जतन कर रही है बहुएँ। एक हमारी बहू है कि अपने कामों से ही फुरसत नहीं। ये बहुएँ भी तो नौकरी करती हैं।
बड़ी बहू किसी स्कूल में शिक्षिका थी। छोटी बहू एक कालिज में लेक्चरर। बड़ी बहू सुबह जाती थी और छोटी दोपहर को। सुशीला दीदी सुबह से ही नौकरानी को तरह-तरह के आदेश देने में लग जाती थीं। बहुओं को फुरसत कहाँ? बड़ी बहू ने स्कूल जाने से पहले कुछ खाया या नहीं। उसका रिक्शा आया या पैदल ही जा रही है। छोटी बहू का टीनू क्यों रो रहा है, उसने ठीक से खाया-पिया या बच्चों की परेशानी में ही रह गई, बड़ी बहू को किसी पार्टी में जाना है- वह ढंग से तैयार हो कर जा रही है या यों ही कोई भी साड़ी बाँध कर चल दी - इन सब बातों की चिंता अगर किसी को थी तो सुशीला दीदी को।
आखिर तंग आकर गायत्री देवी ने एक दिन कह ही दिया था,- ”दीदी, जीजाजी आप के लिए इतना सब छोड़ गए हैं। आप को क्या जरूरत है, बहुओं की इतनी खुशामद करने की? अब वे जानें और उनकी गृहस्थी जाने।”
दीदी हौले से मुसकराई और बोली,-”गायत्री, जब हमारे बेटे-बेटी नौकरी करते हैं, तब हम उन्हें सिर-आँखों पर बैठा लेते हैं, लेकिन जब बहुएँ नौकरी करतीं हैं तो हम उनसे थोड़ी सी सहानुभूति दिखाने में भी कंजूसी करते हैं। सच पूछो तो नौकरी और गृहस्थी इन दोनों पाटों के बीच में पिस जाती हैं बेचारी बहुएँ। लड़कों की तरह बहुओं से नौकरी करवाने के विषय में तो हम आधुनिक बन जाते हैं, परंतु बहुओं से अपेक्षा वही पुरानी परंपरा की रखते हैं कि घर आते ही रसोई में घुस जाए। इसी कारण परिवार में कटुता उत्पन्न होती है। जब हम एक दूसरे का दर्द समझ लेंगी, तभी परिवार में स्नेह और शांति रह सकती है।”
उस दिन गायत्री देवी के कानों में कितनी ही बार दीदी की बातें गँूजती रहीं। उनकी आँखों में दीदी के परिवार की कई घटनाएँ चलचित्र की तरह घूम गईं। दीदी बहुओं का दर्द समझती हैं, इसीसे बहुएँ भी उनका इतना खयाल रखती हैं। उन्होंने सोचा, वह दीदी के पास महीने भर रहने के विचार से आई थीं, परंतु सप्ताह भर में ही उनकी आँखें खुल गईं।
जब वह बिना सूचना पंद्रहवें दिन घर लौटीं, तो सुनील और बाबूजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। प्रभा रसोई से निकल कर आ रही थी। मलिन मुख, निस्तेज आँखें और थका हुआ शरीर लिए वह उनके पैर छूने को झुकी तो उन्होंने झट से गले से लगा लिया। “कितनी दुबली हो गई है, प्रभा। नौकरी और गृहस्थी “दो पाटों के बीच” में पिस रही है, हमारी बेचारी बहू।
प्रभा चकित सी उनका मुख देखती रह गई। आज कैसी बातें कर रही हैं अम्मा?
सरोज दुबे
(प्रकाशित- सरिता, अगस्त 1989)