दो उँगलियाँ
सरोज दुबे
सरोज दुबे
उनकी बात सुनकर मैं चैंकी नहीं। मुझे मालूम था, कि वे ऐसी ही कोई बात कहेंगी। क्या पता, शायद बुढ़ापा ऐसा ही होता होगा। या फिर बीमारियों ने उनकी सहनशक्ति क्षीण कर दी होगी। लेकिन यह बात अब समझ में आती है। उस समय तो यही लगता था कि वे एडजस्टमेंट करना नहीं चाहतीं। जान बूझकर समस्या खड़ी कर देती हैं।
पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। जनवरी में हम लोग खंडवा जा रहे थे। यात्रा के एक दिन पहले की बात थी। वे ऊनी कपड़ों से लदी-फदी, दहकती अंगीठी पर हाथ सेंक रही थीं।
“मैं नहीं चल सकँूगी तुम लोगों के साथ। शरीर में शक्ति नहीं है, और ठंड इतनी पड़ रही है। तुम लोगों को जाना हो तो जाओ।” उन्होंने ठंड से काँपते हुए कहा था।
लो सब गुड़-गोबर हो गया। मैंने मन ही मन कहा। कितनी मुश्किल से वर्षों बाद कहीं जाने का प्रोग्राम बन सका था। अब ये न जायेंगी तो कहीं जाया भी कैसे जा सकेेगा ? कहाँ छोड़ंेगे इन्हें ?
“आप प्रोग्राम कैंसिल कर दीजिए, माँ इतनी ठंड में नहीं चल सकेंगी।” मैंने रजनीश से कहा।
क्यों नहीं चल सकेंगी?’ उन्होंने मुझसे ही प्रश्न किया था।
“आप तो अपने सामने किसी की चलने ही नहीं देते। रास्ते में कुछ हो गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे।” मंैने चिढ़कर कहा था।
रजनीश अपनी जिद से उन्हें साथ ले गये थे। मजे की बात यह हुई कि घर के सादे भोजन के बदले रास्ते भर अगड़म-बगड़म खाकर भी उन्होंने आनंद के साथ यात्रा की, और वहाँ से लौटकर लगभग दो माह बिना किसी ओषधि के पूर्ण स्वस्थ रहीं।
“ये मरी छुट्टियाँ भी तुम लोगों को गर्मी में ही मिलती हैं। भला यह भी कोई समय है, घूमने -फिरने का ?” वे कह रहीं थीं।
मैं चुपचाप कपड़ों पर प्रेस किये जाती हूँ। मन में बहुत कुछ घुमड़ता है,कहने के लिए पर कहती नहीं। अंदर कोई चीख चीखकर कह रहा है। कौन- सा समय सूट करता है आपको, घूमने के लिए ? ठंड का ? वर्षों का ? नहीं ! कोई नहीं ! हर मौसम को आप इसी तरह कोसती हैं। आपकी आदत ही ऐसी है। मेरी चुप्पी उन्हें खल रही है। मैं चाहती हूँ, वह उन्हें सालती रहे। मैं इस विषय में कुछ भी नहीं बोलूँगी।
शाम को रजनीश कालेज से लौटे तो उन्होंने फिर अपनी बात दोहरायी, “बेटा, मुझसे तिरोड़ी तक आना-जाना नहीं हो सकेगा। करीब 300 कि.मी. की यात्रा है। ऊपर से गर्मी ऐसी पड़ रही है कि प्राण निकले जा रहे हैं।”
और दिनों की तरह रजनीश ने किसी तरह की बहस नहीं की। सीधे ही कहा, “ठीक है। पंद्रह दिन के लिए कुसुम को उसके मायके भेज देंगे। मैं तो तुम्हारे पास हूँ ही।”
बात अपनी जगह इतनी ठीक थी कि वे चाह कर भी विरोध न कर सकीं। कुछ सोचती हुई चुपचाप बैठी रहीं।
रजनीश किताबें उठाकर कहीं बाहर जाते हैं। मैं रात के भोजन की तैयारी में व्यस्त हूँ। अचानक वे पानी पीने के बहाने रसोई में आकर बैठ गयीं।
“तुम चली जाओगी तो मेरी फ़जीहत हो जायेगी। रजनीश को तो देखती हो, उसके पैर घर में टिकते ही नहीं। मैं कुछ कहूँगी तो व्यर्थ ही चिड़चिड़ करेगा। मैं मरी बुढ़िया घर में अकेली कैसी रहूँगी ?” उन्होंने बिना किसी भूमिका के कहा।
“एक नौकरानी दिन-रात आपके पास रहेगी। पड़ोस भी अच्छा है। फिर सिर्फ पंद्रह दिन की ही तो बात है।” उन्होंने मेरी बात मानो सुनी ही नहीं।
“मैं तो सबसे कहती हूँ कि बहू के कारण ही मेरी ठकुराई है। मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती, पता नहीं कब क्या हो जाये।” वे कातर होकर बोलीं।
मैं द्रवित हुई, “तब मेरे साथ ही नागपुर चलिये। वहाँ डाॅक्टर अग्रवाल को भी दिखा देंगे।”
“अच्छा !” उन्होंने चैन की साँस ली।
नागपुर में डाॅक्टर अग्रवाल को दिखाया था, उन्हें। शहर के अन्य कई आयुर्वेदिक और एलोपैथिक डाॅक्टर भी उनका इलाज कर चुके हैं। परंतु परिणाम वही ढाक के तीन पात। दो-तीन दिन बाद ही वे दवा लेना बंद कर देतीं। कहतीं, “मेरी बीमारी डाॅक्टर की समझ में नहीं आती। दवा खाओ तो तकलीफ और बढ़ती है। लगता है, मेरे पेट में फोड़ा हो गया है, या फिर खून में जहर हो गया है।”
कई बार रजनीश दवाईयों की भरी हुई षीषियों का विशाल संग्रह देखकर चिढ़ जाते, “माँ तुम दवा तो पीती नहीं हो, क्या फायदा है डाॅक्टरों को दिखाकर ?”
“दवा बहुत गरम है। तुम लोगों की दवा के लिए क्या मैं अपनी जान दे दूँ। पता नहीं कैसे डाॅक्टर हैं, तुम लोगों के जमाने के। हमारी माईन्स में एक डाॅक्टर पाठक थे...। ”
कभी उन्हें जादू-टोने का शक होता, तो कभी चंद्रपुर की आबोहवा के दुश्परिणाम का। वे अक्सर कहा करतीं, “यह चंद्रपुर नहीं नरकपुर है। अंगे्रजों के जमाने में जिस अफसर से सरकार नाराज हो जाती थी, उसका तबादला इसी जिले में कर देती थी। बस, फिर काले पानी की सजा ही समझो। भगवान ने मुझे भी काले पानी की सजा दे दी है।”
उन्हें नित नयी शिकायतें हुआ करतीं। आस-पड़ोस के लोग और कुछ दिन के लिए आनेवाले मेहमान भी उनके मुख से बीमारी की चर्चा सुनते-सुनते ऊब जाते। पर उन्होंने भी ऐसा श्रोता ढूँढ़ लिया था, जो कभी किसी की बात सुनकर ऊबता नहीं। कई बार वे कमरे में टँगे श्रीकृष्ण के चित्र के सम्मुख रोतीं, ‘भगवान, मेरी नैया कैसे पार लगेगी? कौन मेरी सेवा करेगा ? कौन...? किसे फुर्सत है? बहू घर-गृहस्थी देखेगी, लड़के-बच्चे देखेगी कि मेरी सेवा करेगी ? लड़का अपनी नौकरी देखेगा कि मुझे देखेगा ? अब उठा ले ईश्वर...!’ अंतस का हाहाकार, स्वर को करुण बना जाता। सुनने वाला खुद कुछ क्षणों को भावविह्नल हो जाता।
वह पितृपक्ष की पंचमी का दिन था। बाबूजी का श्राद्ध था उस दिन।
“ऐसा लगता है आज मुझसे चलना-फिरना बिल्कुल नहीं हो सकेगा।’ उन्होंने सुबह उठते ही घोशणा कर दी।
मेरा मन आक्रोश से भर उठा। मुझे पक्का विश्वास हो गया, कि बुआ ठीक ही कहती है। ‘इनकी जिंदगी से यही आदत रही है। कुछ न कहकर परेशान करती ही रहेंगी। अभी तक तो केवल हाथ में झुनझुनी आने की शिकायत कर रही थीं, अब सुबह से ही ऐसा क्या हो गया इन्हें ? दुनिया में बहुत से बीमार देखे हैं, पर इनके जैसा कभी न देखा न सुना।”
उस दिन कुछ लोग भोजन के लिए आमंत्रित थे। रसोई से बाहर आयी तो दोपहर के दो बज चुके थे। उस समय वे बुआ से पैरों में तेल लगवा रही थीं। उनकी हालत तेजी से बिगड़ती जा रही थी। डाक्टर ने बताया कि उनका दाहिना अंग पैरेलिसिस की चपेट में आ गया है।
हम सब स्तब्ध! क्या सच में ही वे कभी चल-फिर नहीं सकेंगी। उनकी सेवा का गुरुत्तर भार कौन वहन करेगा ? और सेवा तो किसी न किसी तरह हो भी जायेगी, पर उनकी मानसिक अशांति का कौन-सा इलाज हो सकेगा ?
उन्हीं दिनों आठ हजार में एक प्लाट खरीदा था। तीन हजार देना शेष था। पर अब...? अब कुछ नहीं हो सकेगा। बादल घिर-घिरकर आकाश को कृष्णवर्ण कर देते या फिर जोरों से बरस पड़ते। वातावरण एकदम भयावह लगने लगा था।
रिटायर्ड सिविल सर्जन की दवा चल रही थी। दवाईयाँ खाते-खाते वे परेशान हो गयीं, “मैं अब दवा नहीं खाऊँगी। सारा शरीर जल रहा है।”
एकाएक मेरी सहिष्णुता जवाब दे गयी, “आज तक तो आपने दवाईयाँ ठीक से नहीं खायीं पर अब हम लोगों पर दया कीजिए। डाॅक्टर जो दवा दे रहा है, वह चुपचाप खाती जाईये !” मैंने कहा।
उनके म्लान, रक्तहीन और निस्तेज मुख पर हीनता तैर गयी थी। रजनीश पास ही खड़े थे। धीरे से बोले, “रहने दो, अब कोई लाभ नहीं होना है।”
मैं उनका मुख देखती रह गयी। कितने बदल गये थे वे। उनके स्वरकी तीक्ष्णता, झल्लाहट और चिड़चिड़ाहट सहसा कहाँ चली गयी ? शायद माँ ने कभी न सोचा होगा, कि वे इतनी लगन और सहानुभूति से उनकी सेवा कर सकेंगे।
अश्टमी के दिन सुबह अचानक उनकी आवाज एकदम अस्पष्ट हो गयी। पता नहीं वे क्या-क्या कहतीं। किसी की समझ में न आता। हैरान होकर बुआ मेरे पास आयीं। “जाओ बहू, भौजी पता नहीं क्या कहती हैं, तुम्हीं देखो।”
आटे से सने हुए हाथों को धोकर मैं उनके पास पहुँची। वे एक हाथ पर दूसरे हाथ की मुट्ठी बाँधकर कद्दूकस करने का अभिनय कर रही थीं। परंतु समझता कौन?
अनेक चीजें दिखा-दिखाकर मैं हार गयी और समझाते-समझाते वे हार गयीं। पर पेट में आग थी। वे गुस्सा होकर दूसरी ओर करवट लेतीं और फिर बताने का प्रयत्न करतीं। बड़ी मुश्किल से समझ में आया कि सेबफल किस कर देने के लिए कह रही हैं।
उन्हें अस्पताल में भर्ती करने की बात हो रही थी। अचानक उन्होंने रजनीश को अपने पास बुलाया और दो उँगलियाँ दिखाकर कुछ कहने लगीं। आवाज बिल्कुल बंद हो चुकी थी सिर्फ होंठ हिल रहे थे। उनके मुख की भावभंगिमा से लगा, मानों वे कोई महत्त्वपूर्ण बात कहने को व्यग्र हों। सबने अंदाज लगाया, दो नाती हैं, शायद उन्हें पूछ रही होंगी । घर की गंभीर परिस्थिति से अनजान वे कहीं बाहर खेल रहे थे। दोनों बच्चों को लाकर उनके सामने खड़ा किया गया। उन्होंने दोनों के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा, पर दो उंगलियाँ दिखाना बंद न हुआ। दो पान मँगवाकर उनके सामने रखे। प्रतिदिन सुबह चाय के साथ दो बिस्कुट खाने का उनका नियम था, सो बिस्कुट का डिब्बा लाकर दिखाया, पर वे संतुष्ट नहीं हुई। मैं संतप्त हो उठी, ‘अच्छी आफत है। भगवान मेरी तरह संसार की किसी बहू की फजीहत मत करना।’
उनका अस्पताल से जीवित घर लौटना असंभव लगता था। शायद वे स्वयं ही इस बात को महसूस कर रही थीं। कई वर्षों से मौत को आमंत्रित करती माँ ने मृत्यु को सामने खड़ी देखा। इकलौते बेटे, नातियों और परिवार को सदा के लिए छोड़ने का समय आ गया था। बाहर हवा के तेज झोंके से पीपल के पत्ते हवा में उड़कर दूर-दूर तक बिखर गये। अब डाली, वृक्ष और कोपलों से पुनः जुड़ पाने का संयोग शायद कभी न मिले। माँ की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। वे रो रही थीं। सारा परिवार रो रहा था।
कई कीमती इंजेक्शनों और दवाओं की लंबी-चैड़ी लिस्ट थामे रजनीश घर लौटे थे, “लाओ, माँ के संदूक की चाभी दो, पैंसों की जरूरत है।”
“उनका इलाज उन्हीं के पैसों से कराना उचित होगा?” मैंने असहमत होते हुए कहा।
“कल बैंक से निकालकर लाऊँगा तो संदूक में डाल देना। इस समय सौ-दो सौ, जितने भी हों, दे दो” पता नहीं क्यों संदूक खोलने की इच्छा नहीं हुई। मैंने, पास से ही रुपये दे दिये। चार-पाँच दिनों के कष्ट के बाद वे चल बसीं।
रजनीश इलाहाबाद से दसवाँ करके लौटे तो बोले, “जरा माँ का संदूक तो खोलना, तेरहवीं के लिए पैसों की आवश्यकता है। शायद कुछ हों।
”मैं चाभी निकालकर संदूक खोलने बैठी। कुछ परिवारिक चित्र और ब्लाउज पीसेज सलीके से एक पोलीथीन में सबसे ऊपर रखे थे। फिर कई पोलीथीन की खाली थैलियाँ, आवश्यकता पड़ने पर हम लोगों को देने के लिए सहेजकर रखी थीं। मैं संदूक खोलते-खोलते ही भावुक हो उठती हूँ। मनुष्य क्या-क्या जोड़ता है, संभाल-संभालकर रखता है और एक दिन... सब कुछ यहीं रह जाता है। खाली हाथ अकेला चल देता है, शरीर तक साथ नहीं जाता।
कुछ सोने-चाँदी के पुराने आभूषण, बाहर पहनने की साड़ियाँ, दो-तीन ताबीज और विभिन्न आकार-प्रकार के कुछ पर्स-बस यही सब था संदूक में।
रजनीश पर्स से नोट निकालकर गिनते जा रहे थे-“बड़ी भारी समस्या हल कर दी माँ ने।” उन्होंने नोट पुनः पर्स में रखते हुए कृतज्ञ भाव से कहा।
“क्यों? कितने है?” “दो हजार। ”
“दो हजार!” मेरी आँखों के सामने दो उँगलियाँ दिखाती माँ... आ खड़ी हुई। कितनी व्याकुल थीं वे, हमें यह बताने के लिए कि घबराना मत, दो हजार रुपये मेरे संदूक में हैं।
बरबस मेरी आँखें भर आयीं। “क्या हुआ?’ रजनीश पूछ रहे थे। ”
“कुछ नहीं।’ किसी तरह रुधें कंठ से मैंने कहा।”
सरोज दुबे
(प्रकाशित- सारिका, पुरस्कृत कहानी, जून 1984)