दौड़: एक अंतहीन
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
बैंक का परिसर और उसके सामने बड़ी दालान ! अप्रैल का महीना, दोपहर का समय था। हम सभी बैंक कर्मचारी डाइनिंग टेबल पर लंच ले रहे थे । बैंक का चैनल गेट बंद कर आर्मगार्ड वहीं स्टूल पर बैठा था। हम लोगों ने देखा एक वृद्धा अंदर आने के लिए आर्मगार्ड से अनुनय- विनय कर रही थी।
आर्मगार्ड उसे समझा रहा था - “माई तुमको जिससे काम है, वह साहब छुट्टी पर है - कल आना।” किन्तु उसे उसकी बात पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। तीन-चार बार समझाने के बाद भी वह अंदर आने की जिद कर रही थी। उसकी इस बात पर आर्मगार्ड खीझ पड़ा। उसके स्वर में गुस्सा व झल्लाहट देख उस वृद्धा ने तुरंत हथियार डाल दिए। वह वृद्धा अविश्वास मन से अंदर झाँकती हुई वापस जाने को मुड़ चुकी थी और वापस चली गई थी।
दूसरे दिन रोज की भांति सुबह दस बजे, मैंने अपनी स्कूटर बैंक की दालान में खड़ी कर ‘लाॅक’ किया। अपने हाथों में ‘लँच-बाक्स’ एवं बैग को उठाया। और अभी गेट के अंदर प्रवेश करने के लिए बढ़ा ही था, सामने देखा - वही वृद्धा लाठी टेकती मेरी ओर बढ़ती चली आ रही थी। मुझे देख उसके चेहरे में विजय मुस्कान थिरक उठी थी। आँखों में खुशी के संग कुछ आशाओं के आँसू भी तैरते दिख रहे थे। मैंने देखा-उसके दोनों हाथ मेरी ओर एकाएक जुड़ गए थे, उसके इस अभिवादन के प्रत्युत्तर में मैं क्षण भर थमा-मैं कुछ पूँछ पाता इसके पूर्व ही वह बोल उठी -
“ साहिब कर्जा खातिर आयरहिन। हमखाँ ई चिट्टी मिली रहिन।”
एक लिफाफा उसने मेरे सामने कर दिया। मैंने उसे देखकर कहा - “अम्मा जी,सामने उस टेबल पर -अभी साहब आएँगे- उनसे मिल लेना। आप अंदर आ कर उस सोफे पर बैठ जाईए। कुछ ही समय में साहब आते होगें।” कहकर मैं अपनी कुर्सी पर जा बैठा और टेबल पर रखी फाईलों में उलझ गया।
पन्द्रह-बीस मिनिट बाद मेरी नजर सोफे पर गयी तो देखा वृद्धा नहीं थी। काऊन्टर से झाँक कर देखा तो उसे मेन गेट के पास एक किनारे में दुबके बैठे पाया। उसके पोपले गालों और लम्बी नाक पर चढ़े गोल चश्में से झांकती दो आँखें कभी गेट को देखतीं तो कभी उस खाली कुर्सी को। उसके शरीर पर झुर्रियों का एक घना आवरण चढ़ा था। कांपते हाथों से वह अपनी लाठी को बीच-बीच में टटोल लेती थी क्योंकि यही लाठी तो एक मात्र उसका सहारा थी। मैं सोचने लगा... बैंक से क्या कर्ज लेने की यह उम्र है ?यह उम्र तो आराम करने की है। लड़कों से सेवा करवाने की। अरे यह भी तो हो सकता है कि वह अपने लड़के के लिए सिफारिश करने आयी होगी। यह क्या काम करेगी ? इंसान का भी कैसा जीवन है ? अपने जीवन के इस पड़ाव में भी उसे चैन नहीं। मानव जीवन भर मोह-ममता, रिश्तेनातों में बंधा रहता है। अपनी चिंताओं,उलझनों को सुलझाने में जीवन भर संघर्ष करता रहता है। और ना जाने वह कितनी आशाओं और अपेक्षाओं के साथ जीता है।
तभी हमारे लोन आफीसर राजन ने बैंक में प्रवेश किया। आते ही वे जैसे अपनी कुर्सी पर बैठे, वैसे ही वह वृद्धा एक किनारे मूर्तिवत हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। राजन के देखने के पूर्व ही वह बोल पड़ी -”साहिब आपके कहिन मुताबिक हम हॅूं राशन कारड बनवाय लिहिन। अबता तुम्हार दया हुई सरकार। हमखाँ कर्जा चाही सरकार। दुकान खोले खतिर कर्जा चाही सरकार। तुम्हार पाई पाई चुकाहूं सरकार।”
राजन ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और उसके हाथ की लाठी को देखा जो उसके कांपते हाथों के साथ -साथ कांपे जा रही थी। उन्होंने कहा -”आपको कर्जा कैसे मिलेगा माई , आप तो घर में आराम करो। फिर मुझे तो याद नहीं कि मैंने आपको कभी बुलाया हो ?”
“साहिब आप ई चिट्ठिया भिजवाइन रहिन ... हमार घर मा चार प्राणी हो सरकार ... जवान ब्याहाबरा लड़कवा टरक मा दबकर मर गिहिस ...हुजूर ... ओकर ओरत अऊ तीन छुटका-छुटका नाती बिटवा हयं हुजूर ...आपन कहत हऊ आराम करऊ माई ...अब आपहॅूं बतावे सरकार, कैसन आराम करिन। अब हमहूं धंधा पानी करब ...ओंखां पाले पोसे खातिर। कर्जा चाही हुजूर ...।”
कहकर बैंक का प़त्र राजन के सामने रख दिया। पत्र काफी पुराना लग रहा था। जगह-जगह से फट गया था। राजन ने पत्र खोलकर देखा। पत्र एक साल पूर्व लिखा गया था और ऋण आवेदक को सात दिनों के अंदर बैंक में आकर मिलने को लिखा गया था। राजन अभी दो माह पूर्व ही ट्रांसफर होकर आए थे। उन्होंने मुझे आवाज दी। पत्र देखकर बोले- यह पत्र किसने भेजा था। मैंने लिखावट देखकर बताया कि यह सिंगारे साहब की लिखावट लग रही है। जो छः महीने पहले ट्रांसफर होकर चले गये थे।
मैं वृद्धा की ओर मुड़ा और बोला - “ अम्मा जी यह पत्र तो एक साल पहले भेजा था। उस समय आना चाहिए था। उन साहब का तो ट्रांसफर हो गया। उस समय क्यों नहीं आईं ? और यह पत्र तो भोला प्रसाद के नाम से है, यह कौन है ? उसे आना चाहिए था। “
“भुलवा मोर बिटवा रहिस हुजूर... ऊही टरक मा मर गहिस हुजूर ...” कह कर वह रोने लगी। फिर संयत हो कर बोली - “ऊ बेरा हमहूँ भुलवा कै संग आय रहिन सरकार “।
मैंने पूँछा - “तो क्या उन्होंने कर्जा देने से मना कर दिया था।”
“नाहीं हुजूर हमखाँ ऊ साहिब कहिन रहिन, ई करजा खातिर राशन कारड चाही। राशन कारड लोगन की जान पहिचान कहाबै । औ हमार पास ऊ राशन कारड न रहे सरकार। हम ओकर खातिर कोरट कचहरी के चक्कर लगाय रहिन। अब ई कारड बनवाय के लायहों सरकार। “ कहकर उसने अपना राशन कार्ड गंदे से थेैले से निकाल कर राजन के हाथों में पकड़ा दिया।
“साहिब अब ता हमखाँ करजा मिल जइहे न हुजूर ... भगवान तोर भला करिहे। मोर बहू नाती नतवा तुहें अशीष दइहें हुजूर ...आपुन सब जुग जुग जिऔे साहिब ...भगवान तोर रोजी रोटी में बरक्कत करे हुजूर... हमार बिटवा के आत्मा तोखाँ आसिरवाद दैहें ...हम तोर पाई पाई चुका दइहैं हुजूर ...”कहते कहते उसकी सांसंे फूल आईं थीं।
उसकी बूढ़ी आँखें कभी राजन के चेहरे में तो कभी मेरे चेहरे में कुछ समाधान ढूढ़ने का प्रयास कर रही थीं। कांपती बूढ़ी हड्डियों में अभी भी कुछ कर सकने की ताकत मचल रही थी। उसके अंदर आशा विश्वास और कर्म की लहराती तरंगों में हम दोनों कभी उतराते तो कभी डूबते नजर आते। उसके साहस दृढ़ता और धैर्यता को हम सभी अपलक निहारे जा रहे थे।
राजन अपने हाथ में लिए कभी उस राशन कार्ड को देखता तो कभी उस अपराजेय वृद्धा को जो अपने जीवन के सूर्यास्त में भी जवान बेटे की मौत के आघात के बाद भी नहीं टूटी थी। अपने परिवार के लिये कुछ कर सकने को एक अपराजिता सी खड़ी, आज भी दृढ़ संकल्पित नजर आ रही थी। उसके जीवन की अन्तहीन दौड़ को देखकर हमारी नजरें उसके सामने झुक गईं थीं।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
(प्रकाशित विजय विकास)