एक चिरैया
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
प्रेम-प्यार का संवेदनशील हृदय सबमें है, चाहे वह व्यक्ति हो, चाहे पशु या चाहे पक्षी हो। अन्याय और उदण्डता के प्रति सभी को घोर अरुचि रहती है। अपने अपने सामाजिक परिवेष और सहिष्णुता के प्रति सभी समर्पित व कायल होते हैं। सुख और स्वतंत्र जीवन किसे प्रिय नहीं ?.......सुखान्त जीवन हरेक प्राणी को रुचि कर है, हरेक जीवन उसे आशा और मिठास की नजर से देखता है। यह कदापि कोई नहीं चाहता कि उसका श्रेणीगत प्राणी अर्थात उसका सम्पूर्ण समाज दुख, प्रतिबंध, वेदना में नाहक तड़पता, सड़ता रहे..।
मेरा एक अपना कमरा है। वहाँ पर मेरा, मेरी पत्नी और मेरे नन्हें का ही केवल आधिपत्य है। कुछ दिन पूर्व से बिना मेरी आज्ञा के एक और कुटुम्ब आ बसा था। वे तीन प्राणी थे, बडे ही सुंदर, मृदुभाषी, दयालु थे। मैं उनको देखता था। हम तीनों प्राणियों के जीवन से कहीं अधिक सुखमय जीवन वे अपना मानते हैं। उन्हंे भी संसार की तरह सुखी कहलाने वाले जीवन पर नाज है गर्व है।
मैं चाहता था, ऐसी विशुद्ध ममता जिनके अन्तस् में कल्लोल कर रही है, उनसे अपना संपर्क बढ़ाऊँ। अपने मानवीय मैत्री सूत्र में उन्हें भी बाँध लूँ । पर न जाने क्यों मुझसे वे नाराज, रूठेे, भयभीत से रहते थे। मित्रता के हाथ पसारने में न जाने क्यों उनके हृदय में कपकपी आ जाती थी। मुझे इस बात का सदा अफसोस था कि वे मुझे अपना बेगाना मानते हैं। काश ! एक बार वे मेरे इस निष्कपट दिल को देखने और परखने की इच्छा तो रखते।
एक दिन मैंने उनसे करबृद्ध प्रार्थना की। मेरी इस मिन्नत पर वे घबराये, नाराज भी हुए ! उनने आँखें भी तरेरी... साले बदमाश... आदि अपनी भाषा में दो चार सभ्य गालियाँ भी दीं। किन्तु जब मैंने बहुत ही विश्वस्त आवाज में कहा- ‘नानू मुझे गलत न मानो, मैं आपको सदा अग्रज मानूँगा। इस सेवक की नजरों में आपके प्रति हमेशा आदर रहेगा। आपकी पत्नी के बारे में मुझ पर विश्वास रखें कि यदि बड़ी भाभी के नीचे का व्यवहार कभी पायें, तो मेरे सीने पर निस्संकोच खंजर चला दें। रहा आपका वह मासूम बच्चा जैसा आपका वैसा मेरा’। एक बार आप विश्वास करके भी देख लें।
वे महाशय मेरी ओर ताकते ही रह गये। अपलक उनकी नजरों में अविश्वास और संशय की गहरी परत थी। न जाने क्यों विश्वास न आता था उन्हें मेरी बातों पर।
मैंने पुनः मिन्नत की- ‘नानू विश्वास नहीं होता ?’
शायद पसीजे। अबकी बार उनने मंत्रणा की दृष्टि से अपनी सहधर्मिणी की ओर देखा मानो वे पूछ रहें हों ‘क्या राय है ?’ सहधर्मिणी ने जैसे संकेत में कहा ‘जैसा तुम समझो।’
‘अरे वाह वे बोले ‘ऐसा कैसे हो सकता है ? शास्त्र कहता है- पत्नी, पति की अर्द्धागिंनी होती है। मैं शास्त्रों को मानता हूँ। शास्त्रों का कायल हूँ। सलाह देना तुम्हारा धर्म है। इस जटिल गुत्थी को सुलझाना तुम्हारा कर्तव्य है। सलाह दो।’ उनकी पत्नी जी को गर्व हुआ।
“तो तुम कुछ कहोगे तो नहीं ?”
बड़े गर्व से मेरी ओर देख कर मुस्कराईं, फिर शरमा कर आँखें झुका लीं उनने।
‘बोलो’-जहाँगीर के अंदाज में गंभीर स्वर में बोले वे -‘हम तुम्हारी सलाह पर गौर करेंगे।’
“क्या सच ! खिल गयीं वे।”
“हाँ...हाँ...।”
एक बार, बोलने के पहिले उनकी हिरणी सी आँखें मेरी ओर मुड़ीं -फिर वे बोलीं -“नाथ, आदमी तो अच्छा है”.....
कह कर बस झेंप गयीं वे। लालिमा दौड़ गयी मुख पर। पति महोदय ताड़ गये। उन्हें दाल में काला नजर आया।
“तो क्या तुम उसे...”
उन महाशयजी ने मुझे क्रूर दृष्टि से देखा जैसे खा जायेंगे। वे बोले “साहिब राम राम... दूर की दोस्ती ही अच्छी है। आपसे मित्रता कर हम अपने ही हाथ, अपने ही सीने मे आग नहीं लगा सकते। ‘‘सलाम”
वे समझ गयीं। लाचार ध्वनि में बोली- “अब मैं क्या करूँ ? आप ही सोचिये, यदि मैं इनके खिलाफ जाती हूँ । तो मेरे लिए नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। मुझे चैन से रहना दूभर हो जायगा।” फिर जरा रुकीं, न जाने उन्होंने क्या सोचा -‘ठहरिये’ नजरों से मुझे इशारा किया। धीरे-धीरे, प्यार से, दुलार से, मीठी बनकर अपने पतिदेव के पास गयीं और कहने लगीं-“परिचय ही दे दो बिचारे को। भला मनुष्य है। मित्रता वाली बात में मुझे भी शक है।”
प्रस्ताव पास हो गया। सगर्व बोले “पहिले अपना परिचय दो, हमारे वंश में ऐसा रिवाज है।”
“अभी लीजिये साहिब” पुलक होकर मैंने कहा- “इस बड़ेे का नाम है ...........और आपकी बहू जो मायके गयी है, उसका नाम है रेवती देवी। और मेरे नन्हें से बच्चे का नाम है, कमल नयन।”
“तो सुनो जी” वे बोले-“हमें महाराज चिरवासींग कहते हैं। हमारी महारानी चिरैया देवी, हमारा लड़ला बेटा चिरौटे कुमार”
इस घटना के तीसरे दिन मेरी पत्नी मायके से आ गयी। मेरा बेटा कमलनयन भी आ गया। मैंने उनसे कहा-“रेवती, तुम्हारे जाने के बाद मैंने तीन व्यक्तियों से मित्रता की है। और अपने कमरे में रख लिया है। बड़े ही सज्जन हैं। भैया तो जैसे-तैसे ठीक ही हैं पर भाभी बड़ी रहम दिल वाली हैं। मुझ पर मेहरबान हैं। गजब का हुश्न है। इतनी सुन्दर है ....कि बस”
“लट्टू हो गयी है, तुम पर ?” रेवती ने चिढ़ते हुए कहा।
“दिलोजान से फिदा हो गयी मुझ पर। कमाल का हुश्न है, जालिम के पास। शराबी, नयन, गुलाबी गाल, पतली कमर”.....
रेवती के काटो तो खून नहीं। आँखें उसकी अंगारों सी जल उठी। क्रोध में आपे से बाहर हो गयी। मैंने और भी उसे चिढ़ाने के लिहाज से कहना चाहा- “रेवती.... ?”
मेघ सी गरज-बरस पड़ीं वे- “खबरदार जो मुझे अब रेवती कहा मैं आपकी कोई नहीं। जाइये उसी के पास। वही आपकी सब कुछ है। मैं अब कोई नहीं, उसमें तो सब कुछ है। मुझमें क्या धरा है ? हटिये जाइये उन्हीं के पास।”
शब्दों के उस तमाचे को खाकर भी मुझे रंज न हुआ और उकसाना चाहा उसे। पीछे से जाकर उसके कंधे पकड़ लिये। आशिक, माशूक की तरह बोला- ‘‘रेवती तुम मेरे हृदय की परी हो, तुम तो मेरी रानी हो। मेरी कल्पना, मेरी रूह, मेरी दुनिया हो रेवती।’’
“ मैं कहती हूँ । मजाक पसन्द नहीं मुझे। सब जानती हूँ तुम्हारी इन मीठी-मीठी बातों को। दुनिया को बनाना, पर रेवती को नहीं बना सकते। दिल जलाकर घाव पर नमक मिर्च छिड़कना, तुम पुरुषों का काम ही है।’’
गजब अन्तिम पंक्ति में तो गजब ढा दिया। समस्त पुरुष जाति पर कलंक का टीका। मैं मन ही मन बोल उठा- “मेरी रानी छींटा कसी मुझ पर ही कर लो। समस्त पुरुष वर्ग पर नहीं। उन विचारांे ने भला क्या किया ? सुनेंगे तो गाली देंगे रेवती।’
बहुत हो गया अब। रेवती को शान्त करने और उसका पारा घटाने के लिहाज से मैंने कहा- ‘अच्छा, जो हुआ सो हुआ। झगड़ा मिटाओ। वे मेरे कमरे में हैं। चलो चलकर परिचय करा दूँ।’
मैं आगे बढ़ा, पीछे-पीछे वे। उनकी मरम्मत के लिए आते वक्त हाथ में उन्होंने झाडू भी थाम रखी थी। मैं न जान सका।
मैं कमरे के भीतर गया। वो भी संग-संग आयीं। “कहाँ है वह ?” तैश में पूछा।
“यहीं तो थीं” मैं बन कर उनसे बोला,और आवाज लगाई- भाभी... ओ भाभी...।
तभी भाभी जी मधुर ध्वनि में बोल उठीं चींचीं......चींचीं.....इंगित कर मैंने रेवती से कहा देखा- यही मेरी भाभी है। प्रणाम करो।
रेवती का सिर शर्म से झुक गया। गाल लाल हो गये। उसने झाडू फेंक दी वहीं। तदनंतर मैंने पूरी कहानी रेवती को सुनायी।
दूसरे दिन रेवती के लिए अलग से एक आईना लाना पडा। मेरा आईना जब वे पिता जी घर गयी थीं, तो ले गयीं थीं, और वहीं हमारे कुॅवर साहब ने चौपट कर दिया था। वह आईना मुझे बड़ा प्रिय था। वैसा हिन्दुस्तान में क्या विश्व में मिलना कठिन है।
आईना लाकर मैंने रेवती को दिया। छुट्टी का दिन था। मैं कमरे में आकर लिखने लगा। दोपहर को रेवती ने जब सब कामों से छुट्टी पायी, तब वह मेरे ही कमरे में आकर अपने साैंदर्य को बनाने, सुधारने, संवारने में लग गयीं।
सिंगार के बाद आईना रेवती ने वहीं खूटी से टाँग दिया। फिर चली गयी। मैं लिखने में मग्न था। किन्तु कोई मेरा ध्यान भंग करने की चेष्टा कर रहा था। मैंने नजर उठाकर देखा तो भाभी जी आईने में अपना प्रतिबिम्ब देख रहीं हैं।
प्रतिबिम्ब या और कुछ?
क्षण भर में मैं समझ गया। उस आईने में उन्हीं का प्रतिबिम्ब नजर आता था, और वे समझती थीं कि मेरी सखी इसमें कैद है। बंधन में है।
वह कारुणिक दृश्य था। वे बार बार सक्रोध उस आईने में चोंच मारती और वैसा ही उनका प्रतिबिम्ब करता। आगे, पीछे, अगली, बगली, सब तरफ से उन्होंने जान की बाजी लगायी। कि आईने में कैद उनकी सखी निकल आवे किन्तु वह हो तब न।
मुझे उनकी इस विकृत दशा पर बड़ा क्षोम हो रहा था। दया आ रही थी और साथ ही मजा भी। चार घंटे से अधिक हो गये। वे हार गयीं, थक गयीं। शरीर शिथिल पड़ गया। तब उनने अपने पतिदेव को पुकारा। पति देव हारे, थके आये थे। अतः वे बिना कुछ सुने बूझे अपने घौंसले में जाकर छिप गये। अन्य साथी भी आये पर वे भी किनारा काट गये।
किसी ने भी उनकी सहायता न की किन्तु इन्हें कहाँ आराम ? इन्होने तो आईने के भीतर रहने वाली उसे सखी को बंधनमुक्त कराने का बीडा ही उठा लिया। वह अपना अविरल परिश्रम किये ही जा रही थी। वे जब क्रोधित हो आईने में बड़ी जोर से चोंच मारकर चिल्लाती थीं, तब उन्हें लगता था, इसके भीतर कैद में मेरी सखी तड़प रही है। वह भी मुक्त होने के लिए चोंच मार रही है। उनका पूरा शरीर तब काँप उठता। बुद्धि पर अँधेरा छा जाता।
मैंने लिखना बन्द कर दिया। उनकी नादानी देखने लगा। नादानी या विशुद्ध प्रेम ? अपनी सखी को मुक्त करने वाली कल्पना भी कैसे सजीव और ओजपूर्ण है। इनके प्रेम की उस धरातल में भी कैसी असीम अनन्त गहराई है। कैसी सुन्दरतम भक्ति, मानव के लिए कैसा प्रेरक सन्देश परतंत्रता को मिटाने का कैसा अनूठा संघर्ष। मैं द्रवित, हो उठा, वह श्रद्धा देखकर। उनका उन्मुक्त वीरांगणी जोश देखकर।
सचमुच ही उस दिन मेरे रोम-रोम भर आये। अन्त में जब वे अपने निष्फल प्रयत्न में हार गयीं, तब मेरी ओर निहारा दयनीय करुणा भरी नजर से। इसके पहिले भी अनेक बार उनने नजर बचाकर मेरी ओर देखा था। पर इस दृष्टि में और पहिले की दृष्टि में जो अन्तर था वह जमीन आसमान का।
मैं उठा, उनकी अक्ल पर तरस खाकर, आईना को उल्टा कर दिया। किन्तु मैंने देखा वे ज्यों की त्यांे बैठी हैं, वहीं मूर्तिवत् ! पाषाणवत् !!
रात्रि को यह घटना रेवती से मैंने कही। उसका भी हृदय दया से अभीभूत हो उठा। दूसरे दिन सुबह मैं आफिस चला गया। दोपहर में भोजन करने घर आया। तभी याद आयी कल वाली घटना, अपने कमरे में आया तो देखा वह आईने के नीचे प्राणशून्य पड़ी थी। उसी के आसपास विकल उसका पति फड़फड़ा रहा था। कितना करुणाजनक प्रेम था। वह मुझे लगा जैसे सहस्त्रों बिच्छुओं ने डॅस लिया हो। आत्मा हाहाकार कर उठी ? नस-नस, रोम-रोम चीत्कार कर उठा ! मेरी आँखों तले अँधेरा छा गया। पग डगमगाने लगे। मैं लड़खड़ा कर कुर्सी पर बैठ गया। मैं जब संयत हुआ तो उठा। उस दिन मुझसे खाना नहीं खाया गया। उठकर विधिपूर्वक उनकी अन्त्येष्टि क्रिया की।
इस बात का निरीक्षण दूर दूर से उनके पतिदेव ने भी किया। आज कई दिन बीत गये। वह आईना ज्यों का त्यों उल्टा टँगा है। मैंने रेवती को भी कह दिया है कि उसे स्पर्श न करे। वह आईना हत्यारा है। किन्तु जब जब उसे एक बार देखता हँू। तो लगता है, जैसे कोई हत्यारा निर्दयता से मेरी आत्मा पर छुरियाँ चला रहा है और मैं मूक शान्त हँू। सब सहता जा रहा हँू।
उस स्वर्गवासी का पति उसी आईने पर बैठकर न जाने कैसी आँखांे से मेरी ओर देखता है ! जैसे उसकी पत्नी की हत्या का दोषी मैं हँू या ईश्वर ही जाने उसकी नजर में क्या है ?.........
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’