फेंकू उस्ताद
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
अपने आप को बातूनी में उस्ताद समझने वाले गोपाल के दिल में खुशी का पारावार न था। बात ही कुछ ऐसी थी, वह वर्षों से रोजगार की तलाश में था। सन् उन्नीस सौ सतहत्तर तक काफी दिन भटकने के बाद अंततः दिसम्बर में उसे एक टीचर की नौकरी मिल गई थी। हालाॅकि यह नौकरी कहने को तो शासकीय थी, पर पक्की न थी। सरकार ने शिक्षकों की भर्ती काफी समय से बंद कर रखी थी। यह न्युक्ति संविदा शिक्षक के आधार पर दो सौ रूपए प्रतिमाह के एक कांट्रेक्ट पर लगी थी। भागते भूत की लंगोटी ही काफी है, यही सोच कर गोपाल ने ज्वाइन करने का मन बना लिया था। वहीं दूसरी ओर लोगों में यह हवा फैली थी कि शायद सरकार कुछ समय के बाद स्थाई कर देगी। गोपाल ने सोचा चलो कुछ दिन गाँव में रहकर दिन गुजारें। घर के लोगों के ताने सुन सुन कर वह परेशान हो गया था। अतः जबलपुर शहर में रहते हुए भी गोपाल ने राजाराम डुंगरिया जैसे गाँव जाने का मन बना लिया। यहाँ खाली बैठने से कुछ कमाना ही भला है। मित्रों और रिश्तेदारों के ताने सुनने से भी छुटकारा मिलेगा।
सरकारी नौकरियों का अपना एक आकर्षण होता है। सभी के मन में यही एक ललक रहती थी कि बस एक बार घुस जाओ फिर बस जिंदगी भर आराम करो। आज गाँवों में ही नहीं वरन् शहरों में भी सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या नगण्य होती जा रही है। केवल गरीब घरों के बच्चों की बदौलत अधिकांश स्कूलें रो-धो के चल रहीं हैं। इसका एक मात्र कारण सरकारी स्कूलों में शिक्षा का गिरता स्तर था। आलस्य और अकर्मण्यता चूंकि सरकारी नौकरीयाँ आजकल घर जमाई की तरह से हो गईं हैं। एक बार घुस जाओ और जीवन भर ऐश करो ज्यादा कमाना है तो घर में ट्यूशन पढ़ाओ।सरकारी स्कूलों से लोगों का विश्वास उठ गया है।
दूसरी ओर शिक्षा के प्रति लोगों में जागरूगता भी आ गई है। वह अपने उज्जवल भविष्य के प्रति जागरूक हो गया है। सरकारी स्कूलों की विफलता की वजह से शहरों में तो प्राइवेट स्कूल गली मोहल्लों में कुकर मुत्तों की तरह ऊग आए हैं। उनमें उनके उज्जवल भविष्य के सपनें बेचे जा रहे हैं। सपनों को खरीदने वाले लाईन लगा कर खड़े हैं। लोग अपने वेतन के अलावा ऊपरी कमाई में जुट गए चूंकि सपने खरीदनें के लिए उनका वेतन पर्याप्त नहीं होता है। सरकार की इस शिक्षा व्यवस्था की विसंगतियों ने भ्रष्टाचार को जन्म दिया। खैर.....
गोपाल ने राजाराम डुंगरिया गाँव के बारे में पता लगाया। मालूम पड़ा कि यहाँ से बस से 20 किलो मीटर दूर सड़क पर एक मोड़ आता है, फिर गाँव के लिए उस मोड़ से एक बस और पकड़नी पड़ेगी। वहाँ से एक दो बस ही गाँव के लिए चलती हैं। यदि उसे पकड़ लिया तो ठीक है, अन्यथा आपको पैदल ही दस किलोमीटर जाना होगा। सब कुछ जानकारी लेने के बाद, अपना सामान जमाना शुरू कर दिया।
जबलपुर बस स्टैन्ड में जाकर सुबह से ही बस में बैठ गए, बस के चालक को राजाराम डुंगरिया जाने के बात भी बतला दी। उसने भी कहा साहब आप चिन्ता न करें, आपको मैं सड़क में उतार दूंगा फिर वहाँ से आप राजाराम डुंगरिया गाँव के लिए बस में बैठ कर चले जाना। गोपाल स्वभाव से फेंकू किस्म का आदमी था, लोग उसे इस नाम से चिढ़ाते भी थे। उसका अपना मानना था कि शिक्षकीय कार्य में फंेकू ही सफल होते हैं सो तो वह था। बस फिर क्या था -मन ही मन अपने को किस्मत का धनी मान रहा था। उसे अपनी इस संविदा नौकरी के पा जाने की बहुत खुशी हुई।
जबलपुर बस स्टैंड से उसकी बस चल पड़ी थी। बाहर वह देख रहा था कि मकान खेत जंगल को पार करती हुई, बस भागी जा रही थी। एक घंटे के बाद बस कंडक्टर की सीटी ने उसका ध्यान भग्न कर दिया। भाई साहब आपको यहंी उतरना है- यहाँ से बस मिलेगी और उस दिशा में जाएगी, उसमें बैठ कर चले जाइएगा।
वह अपना सामान लेकर बस से नीचे उतर गया। देखा काफी सुनसान जगह थी। आदमी का नामोनिशान न था। तभी एक साईकल सवार वहाँ से गुजरा। उसे रोकते हुए पँूछा-
“ भईया राजाराम डुंगरिया के लिए यहीं से बस मिलती है न”
उसने अनजान चेहरे को देखकर कहा- “हाँ साहब, यहाँ से यार मोहम्मद की बस गाँव तक जाती है, उसमें चले जाइए। उसका आने का टाइम हो रहा है।”
कहकर वह अपनी साईकिल में तेजी से पैडल मार कर चल दिया। शायद उसको बहुत जल्दी थी । गोपाल ने सोचा था इससे कुछ गाँव की जानकारी मिल जाएगी। और कुछ बातें करके समय भी गुजर जाएगा। शायद साईकिल सवार उसके मन को भांप गया था। गोपाल दिल मसोस कर रह गया। अब केवल अकेले गाना गुनगुनाने के सिवाय कोई चारा उसके पास न रह गया था। सो उसने दिलीप कुमार की फिल्म मधुमती के गाने गुनगुनाने चालू कर दिए।
एक घंटे के बाद यार मोहम्मद की बस आई उसने हाथ देकर रोका, उसे लगा कि कहीं वह उसे छोड़कर न बढ़ जाए। यह उसका भ्रम था, वह बस वैसे ही रुकने वाली थी। गोपाल उसमें जाकर तुरंत दो खाली सीट पर बैठ गया। उसे लोगों ने बताया कि भइया यह बस अभी यहाँ एक घंटे तक घड़ी रहेगी। वह एक दूसरी आ रही बस की सवारी का इंतजार करेगी। उसकी सवारियाँ लेकर फिर चलेगी। बैठे लोगों ने अपनी सीट पर कुछ सामान रखकर बस से उतर गये। कुछ लघुशंका करने, तो कुछ यहाँ वहाँ टहलने लगे। डेढ़ घंटें के बाद वह बस भी आ गयी। उसमें से कुछ सवारी उतरीं और यार मोहम्मद की बस में आकर बैठ गयीं।
उस बस से गोपाल की सीट के बगल में एक ऊँचा बड़े डील डौल का छैः फुटा आदमी आकर बैठा। दोनों एक दूसरे को देख रहे थे। पर वार्तालाप की शुरूआत नहीं हो पा रही थी। गोपाल ने ही शुरूआत की आप राजाराम डुंगरिया जा रहे हैं। उसने भी यही प्रश्न तत्काल गोपाल पर दागा। इस तरह दोनों में वार्तालाप की शुरूआत हो चुकी थी।
बस के कंडक्टर ने सीटी बजा दी थी। बस के ड्राइवर ने इशारा पाकर बस को स्टार्ट किया किन्तु बस का एंजिन अपनी गुर्राहट के साथ आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रहा था। बस एक हिचकोले खाकर वहीं पर थम सी गयी थी। एंजिन ने कई बार अपनी ताकत लगाई पर व्यर्थ, ऐसा देख सवारियाँ स्वतः उतरने लगीं। यह उनके लिए आम बात थी। गोपाल घबरा गया, अब वह चिन्ता में पड़ गया था। उसे बैठे देखकर बस की सवारियों ने कहा- भाई साहब, बस से उतरिए और बस को धक्का मारिए। नहीं तो यह आगे नहीं बढ़ेगी। धक्का लगेगा तभी बस चलेगी समझे। वे सभी उस बस की आदत से वाकिफ थे। सभी बस से नीचे उतर कर बस को धक्का लगाने लगे। “जोर लगाके हैया....” की आवाज गँूजी । तब कहीं जाकर यार मोहम्मद की बस एक झटके के साथ चल पड़ी। इसके बाद सभी सवारियाँ दौड़ कर अपनी अपनी सीट पर बैठ गईं। सबने संतोष की एक गहरी साँस ली ।
बगल वाली सीट पर बैठे सज्जन से थमी वार्तालाप पुनः शुरू हो गयी। ज्ञात हुआ वह महाशय भी जबलपुर से ही आ रहे हैं। उनकी यहाँ गाँव में कुछ एकड़ खेती की जमीन है, उसे देखने के लिए उनका आना जाना होता रहता है। गोपाल ने उनसे आत्मीयता बढ़ाते हुए पूँछा-”आपका निवास जबलपुर में कहाँ पर है।”
उन्होनें जवाब दिया -”गोहलपुर में। “
गोपाल को सुनकर बड़ी खुशी हुई, उसके पूँछने से पहिले ही खुद बोल पड़ा -”अरे आप गोहलपुर में रहते हैं तो मैं तो आपके पास ही रहता हूँ , नाले के पास ही उत्तर मिलौनीगंज में। “
दोनों के बीच की दूरियाँ मिट गईं थी। बस में सफर कर रहे दो अजनबी के बीच, एक पड़ौसी का अपनापन आ गया था। अब फंेकू गोपाल को अपना पांडित्य बघारने का अवसर मिल गया था। वह किसी भी सूरत में अपने को कम नहीं बताना चाहता था। दूसरी बात यह कि वह अब उसके गाँव में शिक्षकीय कार्य करने जा रहा था। गोपाल अब तक अपने को जबलपुर शहर का चप्पे चप्पे का जानकार बता चुका था। वह शहर का इतिहास एवं जानकारी का ज्ञाता सिद्ध करता हुआ नजर आ रहा था। पड़ोसी को बोलने का मौका ही नहीं मिल पा रहा था या यूं कहें कि गोपाल हर जानकारी पर बाजी मारने का प्रयास कर रहा था। बगल वाले महाशय की बैचेनी बढ़ गई थी । उसने सोचा कि बात को ऐसी दिशा में ले जाएँ, जहाँ इसकी पहुँच न हो सो उसने गोपाल से प्रश्न किया - “आपको कुश्ती का शौक है।”
गोपाल ने तुरंत कहा - “हाँ बचपन में भल्लू उस्ताज के अखाड़े और कभी कभी बल्देव मालगुजार के अखाड़े में में जाकर दंड पेलते, कुश्ती भी लड़ते थे। और दंगल देखने का मुझे बड़ा शौक था।”
बगल वाले महाशय ने पूँछा -”अच्छा आपने दंगल देखें हैं ?”
प्रत्युत्तर में गोपाल ने तुरंत कहा -”शहर के सभी दंगल मैंने देखे हैं। और हाँ, मैंने दारासिंह का भी दंगल देखा है। कुश्ती देखना तो मेरा बचपन से शौक रहा है, भाई साहब।”
“अच्छा....दारासिंह का दंगल कहाँ हुआ था ?”उसने सामान्य ज्ञान परीक्षा लेते हुए प्रश्न किया।
गोपाल को यह बात सहन नहीं हुयी। वह तो पढ़ाने का कार्य करने जा रहा था। उसने कहा- “भाई साहब राईट टाऊन स्टेडियम में। सचमुच मैनें एक ही नहीं अनेक दंगल देखे हैं। पुलिस ग्राऊँड, रेलवे ग्राऊँड, जगदीश मंदिर...” अनेक जगहों के नाम ले लिए। एक लम्बी साँस लेकर फिर बोला -”मैं शहर के अनेक पहलवानों को जानता हँ, हनीफ पहलवान, शंकर पहलवान, हनुमान पहलवान आदि और उनकी अनेक कुस्तियाँ भी देखी हैं। इन पहलवानों के साथ नकाबपोश कुश्ती लड़ा करते थे। भाई साहेब, हमारे जबलपुर में हनीफ पहलवान हुआ करते थे, जो जबलपुर की नाक थे। “
बगलवाली सीट पर बैठे सज्जन ने “अच्छा “कहा ही था कि गोपाल ने हावड़ा मेल की तरह बात को आगे बढ़ाया -”हनीफ पहलवान को तो मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। उसकी कई कुस्तियाँ मैंने देखी हैं। उनसे मेरी काफी जान पहिचान काफी पुरानी है, अक्सर मिलने पर उनसे दुआ सलाम भी होती रहती है । एक समय जबलपुर में हन्नू पहलवान की हर मैदानों में तूती बोला करती थी।”
बगल वाले महाशय ने उसे विस्फोरित नेत्रों से देखा। उसने कहा -”आप हनीफ पहलवान को जानते हो ?”
गोपाल ने तुरंत कहा -”हाँ मैं अच्छी तरह जानता हँू । “
अब पड़ोसी के चेहरे में विजय मुस्कान मचल उठी थी। उसने बड़ी विनम्रता से कहा -”भाई साहब, वह हन्नू पहलवान मैं ही हूँ ।”
अब फेंकू उस्ताद पर सौ सुनार की एक लुहार की कहावत चिरितार्थ हो गई थी । गोपाल अब सकपका गया था, उसकी बोलती जो बंद हो गई थी। वह अपने को पराजित सा अनुभव कर रहा था।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”