घर का हीरो
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
छियासठ वर्षीय अशोक सुबह साढ़े चार बजे मार्निक वाॅक पर रोज निकल जाते थे। साढ़े छः बजे वापिस लौट कर आ जाते थे। आज आते ही उन्होंने जेब से चाबी निकाली और अपने घर के दरवाजे पर लगे ताले को खोला। अक्सर जब वह जाते तो घर के सभी सदस्य गहरी नींद में सो रहे होते इसलिए वे दरवाजे पर ताला बंद कर घूमने चले जाते थे। उनके आने के बाद ही घर के मेम्बर सो कर उठते थे। उनने बैठक रूम से अन्दर झाँक कर देखा कि उनके दोनों नाती अभी अपने बैड रूम से स्कूल जाने के लिए नीचे उतर कर नहीं आए थे। पर किचन की लाईट अवश्य जल रही थी। वह बाहर से अखबार उठा कर सौफे पर पढ़ने बैठ गया।
समाचार पत्र को सरसरी तौर पर उलटने पलटने लगा। पर उसका मन उसमें नहीं लग रहा था। उनके लिए तो अखबार के साथ साथ गरमा गरम चाय, वह भी गिलास में मिले तब पढ़ने का मजा ही कुछ और होता है। तभी समाचार उसके मस्तिष्क से होते हुए दिल में उतरते हैं। उसने मन ही मन सोचा आज तो कुछ प्रतीक्षा उसे करनी ही पड़ेगी। बहू अपने लिए मीठी चाय बनाने के बाद फिर उसके लिए फीकी चाय बनाएगी। तब चाय उस तक पहँुचेगी। आज उसे कुछ समय तो सब्र करनी ही चाहिए।
आज देरी से आया, अक्सर वह बहू के उठने के पहिले ही आ जाया करता था। खुद जाता और पहले अपने हाथ से चाय की गंजिया स्टोव में रखकर अदरक और दूध की फीकी चाय बना लेता था। अब पता नहीं बहू उसके चाय में अदरक डालेगी या नहीं? वह उसी उधेड़बुन में लग गया। सरसरी तौर पर अखबार के अठारह पेज पलट डाले थे पर न्यूज में मजा नही आ रहा था फिर चाय की प्रतीक्षा करने लगा।
समाचार के एक पृष्ठ में रायपुर नगर की न्यूज पर उसकी निगाह जा टिकी। उसे समाचार से ज्यादा रायपुर शब्द में ज्यादा आकर्षण नजर आ रहा था। चूंकि वहाँ उसकी बेटी सुनंदा की ससुराल थी। कभी कभी वह पत्नी के साथ बेटी से मिलने के लिए जाता और कुछ दिनों वहाँ रुकता था। उसकी बेटी पिता की दिनचर्या से भली भांति परिचित थी। बेटी सुनंदा उसके बिस्तर से उठने के पूर्व ही गरम गरम चाय की प्याली हाजिर कर देती। संकोचवश वह मना करता किन्तु वह कहती- “पापा जी आप गरम गरम चाय पी लीजिए। चाय से आप फ्रेश हो जाएँगे। फिर घूमने जाईएगा तो अच्छा रहेगा।”
जब वह घूम कर आता तो फिर उसके लिए चाय की प्याली प्रस्तुत हो जाती। वह थोड़ा ना नुकूर करता फिर उसकी व्यस्तता का हवाला देते हुए कहता-”देख बेटी, अभी तुझे कालेज के लिए भी निकलना है। अपने घरवालों के लिए खाना तैयार करना है। नाती के लिए टिफिन भी बनाना है। और स्वयं तैयार होकर सुबह सुबह दस किलोमीटर पढ़ाने के लिए भागना भी है। सुनंदा, अगर तू इसी तरह अपने पापा को दो बार चाय पिलाएगी। तो मैं फिर कभी तेरे घर नहीं आऊँगा। मैं कहे देता हँू।”
वह तुरंत उलाहना देती हुई कहती है- “ठीक है पापा जी, आपने मेरी शादी करके गंगा जो नहा लिया है। आप काहे को दुबारा आएँगे। अब मैं आपकी वह बेटी थोड़ी हूँ, जो आप मेरे से मिलने आएँगे। पहले तो आप हर आधा घंटे में बेटी सुनंदा जरा एक कप चाय तो बना देना। कहते हुए मेरे पीछे मस्का लगाते रहते थे। अब अगर मैंने दो बार चाय पिला दी तो आप कहने लगे मैं तुम्हारे घर नहीं आऊँगा।”
आँखों में आँसू भर कर उलाहना देती हुई सुनंदा, अपनी सासू माँ की ओर इंगित कर कहने लगी- देखा सासू माँ, आपकी प्यारी बहू को मेरे ही पापा ने रुला दिया। कह कर हमारी समधन को भी हमारे विरूद्ध खड़ा करने की कोशिश करने लगती। मैने देखा सामने कुर्सी पर बैठे दामाद अनूप का चेहरा भी उतर गया था।
सुनंदा की माँ का तो कहना ही क्या था। वह मुझसे नाराज होकर बोली- “बेटी के घर क्या उसे रूलाने के लिए आये हो ? तुम्हें कुछ लगता भी नहीं।” अब तक मैं चारों ओर से घिर गया था। भागने के सारे रास्ते बंद हो गये, तब अपने दामाद अनूप के कंधे का सहारा लेकर मैंने वातावरण को बदलना चाहा।
सुनंदा की ओर मुड़कर कहा - “अच्छा भाई ठीक है, जैसा तुझे अच्छा लगेगा वही करूँगा। वैसे ही रहूँगा। वैसे ही खाऊँगा और पिऊँगा। अब तो खुश हो जा। देख तेरे आँखों की कोरों में आँसू अभी भी भरे हैं। अनूप देखेगा तो वह कहेगा कि मेरी पत्नी को उसके पापा ने ही रुला दिया, मुझे छोड़ेगा नहीं। मुझे सीधे बगैर टिकिट के रेल में चढ़ा कर आ जाएगा।” कहकर अनूप की तरफ देख ठहाका मार कर हँसने लगा। उपस्थित सभी अनूप केा देखकर हँस पड़े। अनूप झेंप सा गया और बोल उठा- “आप भी पापा, कैसी कैसी बातें करते हैं” कह कर हँसता हुआ बाहर निकल गया।.....
अशोक ने अपने घर की दीवार में टँगी घड़ी की तरफ नजर डाली, पौने सात बजने वाले थे। आठ बजे उसे दूध लेने सरदार की डेरी में जाना होता है। जहाँ उसके बचपन के मित्र कमल से रोज मुलाकात होती है। वहाँ दोंनों एक दूसरे की प्रतीक्षा करते रहते हैं। रास्ते में दोनों अपने अपने बचपन की स्मृतियाँ एक दूसरे से साझा करते हुए अपने अपने घर को चल देते हैं। उस दोस्त का घर डेयरी से दूसरी दिशा में है किन्तु वह उसके साथ बचपन की स्मृतियों को साझा करने की लालच में पूरे मोहल्ले का चक्कर लगा कर उसे घर छोड़ फिर अपने घर जाता। यह उसकी वर्षों से नियमित की रोटीन थी। उसके घर के आसपास वाले उससे पूँछते कि भैया कमल कहाँ से दूध लाते हो? क्या कोई नई डेयरी खुल गयी है? तो वह मुस्करा कर रह जाता। उसे जो अपने दोस्त अशोक से मिल कर जो आनंद की अनुभूति होती, वह उन पूँछने वाले को बता कर हास्य का पात्र नहीं बनना चाह रहा था। दूसरे लोग क्या जाने इस उम्र में अपने बचपन की यादों को कुरेदने से कितनी खुशियाँ मिलती हैं। यही तो वह खजाना होता है जिसे जितना लुटाओ उतना ही मजा आता है और मन को अपार खुशियाँ मिलती हैं।
उसने देखा किचन की लाईट बंद हो गई। बहू अपनी चाय बनाकर अपने बैड रूम में चली गई, वह अपने कमरे में इत्मीनान से बैठ कर चाय पिया करती थी। अशोक को इस बात का अहसास हो गया था कि शायद वह मार्निंगवाक से आने की अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाया होगा। अपने मन को समझाने के लिए इससे बड़ी समझदारी और क्या हो सकती थी। चूंकि वह जानता था कि दरवाजा की चूँ चपाट और उसकी आवाज के साथ ही हाॅल की जगमगाती रोशनी में वह अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका था। पर अपने मन को समझाना भी एक कला है जो सबको नहीं आता। इससे मन में अशांति पैदा नहीं होती न ही गुस्सा या क्रोध आता है। इससे मनुष्य के अंदर प्रसन्नता और संतुष्टि का बोध बना रहता है।
वह सिर झटक कर उठा और किचन में जाकर पुनः लाईट जलाई और फिर अपने हाथ से चाय बनाने में जुट गया। उसने अपने साथ साथ अपनी पत्नी और बेटे के लिए चाय का अदहन रखकर खौलने का इंतजार करने लगा। चाय बनाना भी एक कला है पहले उसे कम आँच में पकाया जाता है फिर उसे उफान के लिए तेज आँच में रखा जाता है। तब चाय पीने का मजा आता है।
उसका अपना मानना था कि एक बार सबकी चाय एक साथ बन जाने से गैस और समय की बचत होती है। वह अपने आप को बड़ा किस्मतवाला मान रहा था कि आज उसे एक अवसर चाय बनाने के लिए फिर नसीब हुआ। जब मोदी रेल में चाय बेचकर देश के प्रधानमंत्री बन सकता है, तब वह अपने घर में चाय पिलाकर अपने घर का हीरो तो बन ही सकता है। ......
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”