गिरा दो ये मीनारे.... मचा दो इन्कलाब!
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
अरुण अस्ताचल की ओर थकाहारा भागा जा रहा था। चारों ओर एक अजीब सा वातावरण। चतुर्दिक दिशाएं संध्या के रक्तावरण में नर्हाइं थीं। अरुण, निशा की बाहों में छिपने जा रहा था।
संकीर्ण गली में एक छोटा सा मकान। साफ सुथरे दो कमरे और सामने एक दालान। वहीं जीर्ण-शीर्ण अवस्था में एक टेबल और साथ में दो तीन कुर्सियाँ पड़ी हैं। यत्र-तत्र परम पिता परमात्मा के एवं भारत के क्रांतिकारियों के, कुछ चित्र टंगे हैं। सामने आँगन में लगे पीपल की छाया में बाबू गोपाल उदास, किसी गूढ़ - चिन्तन में डूबे हुये आराम कुर्सी डाले बैठे हुए हैं।
बाबू गोपाल। वे अपने परिवार के साथ पिछले कई वर्षाें से उसी मकान में रह रहे हैं। उनके शांत सौम्य - गंभीर चेहरे पर पता नहीं क्यों आज अथाह घनघोर चिन्ताओं की रेखाएँ झलक रही हैं। व्याकुल परेशान आँखे शून्य में खोई हैं, अपलक किसी शून्य की ओर निहारे जा रहीं हैं। लगता है कि वे किसी दिवास्वप्न मेें खोये हुये हैं। अतीत का चलचित्र चल रहा है।
आज से पचास वर्ष पूर्व।
जब भारत माँ अपनी ममतामयी बांहों को पसारे अपने लाड़ले सपूतों से, दूध की कीमत चुकाने के लिये करुणामयी पुकार कर रही थी। नारीत्व लुट रहा था, माँ के लाल, माँ से बिछुड़ रहे थे। चारों ओर मौत का तांडव... हाहाकार... चीत्कार... प्रलय सा मचा हुआ था।
तब माँ की पुकार सुन भारत माँ के लाड़ले, उन बर्बर अट्टहास करते पिशाचों पर टूट पड़े। अम्बर, सागर और पृथ्वी से उठती हुई, भीषण प्रलयंकारी सी लाल - लाल लपटों से भारत वीरों का खून खौल उठा था। वे बंदी भारत माँ की हथकड़ी- बेड़ियां तोड़ने हेतु अपने तन-मन-धन, को स्वतंत्रता की बलिवेदी में अपनी आहुति देने लगे थे। सुभाष, आजाद, भगत सदृश्य रणबांकुरे वीर सपूत केसरिया बाना पहिन कर हंसते-हंसते प्राणोत्सर्ग कर रहे थे।
आजादी के दीवाने स्वतन्त्रता की प्रज्वलित - धधकती मशाल अपने बलिष्ठ हाथों में थामे थे। इन्कलाब के नारों का उद्घोष करते, बीस वर्षीय बाबू गोपाल का भी खून उफानंे ले रहा था। उन्होंने जनता के मन में चेतना का शंखनाद करते हुए ललकारा - कूद पड़ो इस संग्राम में। नवयुवकों को स्वतंत्रता का मूल्य बताया। उनमें राष्ट्रभक्ति का मंत्र फूँका। फिर कुछ साथियों को एकत्रित कर तूफान मचा दिया। एक ऐसा तूफान जिसके विशाल ज्वार - भाटे में न जाने कितने राष्ट्रद्रोही बह गए। वे हाथों में क्रांति की मशाल थामे निरंतर आगे बढ़ते जा रहे थे।
माँ के सपूत जब सीने पे गोली खाते तो पृथ्वी पर ऐसे तड़पते जैसे जिद्दी बच्चा अपनी मां की गोद में मचलता है और थककर फिर निश्चिन्त सो जाता है। पृथ्वी पर उनका खून टपक न पाता, उसी समय माँ के लाल दौड़ कर उसे माथे पे धारण कर लेते और फिर वे भी सिर पर कफन बांध निकल पड़ते, उनके स्वप्नों को साकार करने। बाबू गोपाल की वह टोली भी गाजर, मूली की तरह काट रही थी, उन कामान्ध हुकमरानों को जिनके अत्याचारों की कहानी लिखने को लेखनी सक्षम नहीं। कैसा अभूतपूर्व दृश्य था --
‘स्वतंत्रता’ कितनी मोहक कल्पना है। व्यक्ति सर्वस्व की बाजी लगाकर भी उसे साकार करने को आतुर हो उठता है। हाथ में तिरंगा लिए हृदय में धधकती हुई, वह प्रतिशोध की ज्वाला, आँखों से निकलती हुई वे चिनगारियां जो शत्रुओं को दावानल की भांति समेटने के लिए व्याकुल थी। वे ब्रिटिश प्रशासन रूपी मीनार को गिराने के लिये कटिबद्ध थे। वे सभी ...
गिरा दो ये मीनारें ... मचा दो इन्कलाब .....इन्कलाब जिन्दाबाद
के नारों से पूरे नभमंडल को गुंजायमान करते हुए, जिस गली - कूचे से निकल जाते ,उसमें और भी भारत माँ के वीर सिपाही सम्मिलित होते जाते।
सहसा ... सनसनाती हुई लाठियों की बौछारें। धांय -धांय ... करती हुई गोलियां यहां से वहां सन सनानंे लगीं। वे गोलियां ऐसी सन सना रहीं थीं, जैसे मानव रक्त की प्यासी हों। उनकी प्यास कितने देशभक्तों के लहू को पीकर अब भी अतृप्त सी जान पड़ रहीं थीं। तभी एक सनसनाती हुई गोली बाबू गोपाल के सीने में खूनी प्यास बुझाने चली गई। महेन्द्र ने गिरते गोपाल बाबू को सम्हाल लिया और कंधे पर लादे सावधानी पूर्वक चल दिये। मरणासन्न अवस्था में भी उनके मुख से दर्द - मिश्रित आवाज निकल रही थी - गिरा दो ये मिनारें... मचा दो ... इन्कलाब ...
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रोमांच हो आया ...
चैदह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस की रात्रि के बारह बजे वह यूनियन जैक जो भारत माता के कलेजे में शूल की तरह चुभा था - निकाल फेंका। पन्द्रह अगस्त की सुबह आजादी की प्रथम सुबह थी। कुर्बानियों का फल, हमारे सामने था। सारे भारतीय, आजाद पंछी की तरह खुशी से नाच उठे, झूम उठे। उनके दिलों में उमंग - उत्साह की हिलोरें मचल रहीं थी। चारों ओर हर्षोल्लास और खुशी का वातावरण छा गया था।
अनुशासन कर्तव्य त्याग जैसी समर्पित भावनाएँ ही किसी देश की प्रगति की सीढ़ियां हैं। जिससे उस लक्ष्य तक पहंुचा जा सकता है, जहां छोटे-बड़े, सभी के चेहरों में खुशहाली स्वतंत्रता की आभा मचलती दिखे। किन्तु आज वह उन आशाओं की आभा ....
स्वतंत्रता के पचास वर्ष बाद....
सुराज ! भारत माँ अवाक्।।
यह कैसा सुराज है ?
दुलारी बहिन आजादी, पचास बार राखियाँ बाँध चुकी। हम स्वर्ण जयंती भी मना चुके हैं। किन्तु चारों ओर अशांति, मँहगाई, भुखमरी और बेकारी अपनी भयानकता से, मानव रक्त को चूसकर अतृप्त ही बनी हुई है। आज देश में चारों ओर आतंक और उग्रवाद का तांडव नर्तन हो रहा है। नेताओं की विश्वसनीयता, धूल - धूसरित होती जा रही है। भ्रष्टाचार, घोटाले, अपनी चरम सीमाओं को लांघ चुके हंै। राष्ट्रभक्ति और जनसेवा की भावना दिलों से निकल कर दीवारों पर एक आकर्षक फ्रेम में सज-धज कर शोभायमान पा रही हैं। राष्ट्रीय एकता के स्वर गुम होते जा रहे हैं। संसद की बुनियाद भी थरथराती नजर आने लगी है। क्या यही सुराज का स्वरूप था, जिसके लिए हमने वर्षों तक संघर्ष किया। और ना जाने कितनों ने अपनी आहुतियां दीं थीं।
आज गोपाल बाबू का श्रृद्धा विश्वास डगमगाने सा लगा था। एक ओर देश पर आग के गोले की तरह बरसते हुए ये प्रश्न तो दूसरी ओर पैंतीस वर्षीय बड़ा चिरंजीव मधु ! जिसे अनेक विपदाएॅ सह ऊँची से ऊँची शिक्षा दिलायी। किन्तु आज वह उद्विग्न मन चिंताओं से विंधा बेचारा कृशकाय होता जा रहा है। नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खाता फिर रहा है। वह मेरे सामने आने में झिझकता है। अपने को लज्जित अपराधी सा महसूस करता है। सामने आते ही ऐसा लगता है कि अब वह रो देगा।
आशा, लता भी तो शादी के योग्य हो र्गइं। कहां -कहां नहीं भटका, किन्तु हाय रे नसीब ! इन अभागी शिक्षित सुंदर बच्चियों के लिए योग्य वर भी न मिल सके। जहां -कहीं भी जाता, वहां दहेज रूपी राक्षस, अपने भयानक मुख, लपलपाती जिव्हा से काटने को दौड़ता।
सुमन ! मेरी पत्नी बेचारी ! कितनी भोली भाली है !!! जो अपने हृदय में अनेक आशाओं, आकांक्षाओं की दीप-मालिका को संजोये, जब नई नवेली दुल्हन बन इस घर में कदम रखे थे तो सोचा होगा, अपने पिता के यहां जिन सुखों से वंचित रही, वे सुख अभिलाषायें अपने पति के चरणों में पाऊँगी। किन्तु हाय ! उसे क्या सुख मिले ? यही न केवल रूखी - सूखी रोटियां और तन को ढंकने फटी हुई साड़ी। मैं कितना अभागा हूँ। मैं बड़ा पातकीय हूूँ। जो इन सबकी आशाओं और अपेक्षाओं का बड़ी बेदर्दी से गला घोंटता रहा।
सहसा वे बुदबुदा उठे दोस्त महेन्द्र, तुम सही कहते थे। गोपाल, तुम कभी उन्नति नहीं कर सकते। तुम इस झोपड़ी नुमा मकान में गुदड़ी के ही लाल बने रहोगे। क्योंकि तुममें इस बदलते हुये समय और बहती हुई हवा के साथ, रूख बदलने के भाव नहीं। वह प्राचीन भारत ! शायद कल्पना की बात है, इतिहास का स्वर्णिम-काल उलट सा गया है। अब तो यहां भ्रष्टाचार, जात-पाँत, भाई भतीजावाद के दर्शन, सरलता पूर्वक होने लगे हैं। उच्च आदर्शों सिद्धातों की बानगी सूर्य लेकर खोजने निकलोगे तो भी बड़ी मुश्किल से पा सकोगे। क्या तुम नहीं जानते ?
महेन्द्र ने, गोपाल बाबू के कंधे पर हाथ रख कर कहा था। जानते हो वह बेचारा जयराम। जो आजादी के समर में अग्रणी रहने वाला, हमेशा अपने हाथों में तिरंगा झंडा थामे रहने वाला - स्वतंत्रता सेनानी जयराम...। आजादी के 25 साल गुजरने के बाद भी, तिरंगा लेकर यहां - वहां घूमता रहता था। क्यों ... ? जानते हो, ...? क्योंकि आज भी वह अपने झंडे, अपने देश को सुरक्षित, स्वतंत्र नहीं समझता था। तभी तो उसने पाया, चिथड़े कपड़े...और भूखा पेट ...।
गोपाल बाबू, समझदार जो थे न। उन देश भक्तों ने उस तिरंगे को भवनों, चैपाटियों, चैराहों की अनुपम शोभा बढ़ाने के लिए यहाँ -वहाँ लगा दिए। और अपने देश के प्रति कर्तव्य की इतिश्री मान बैठे।
गोपाल ...मेरे मित्र, आजादी प्राप्त करने से भी बड़ा कार्य उसकी सही हिफाजत एवं सही ढंग से आत्मसात करना है। आप तो देख ही रहे हैं, मंचों चैराहों और देश की संसद- विधानसभाओं में, आज भी प्रस्ताव पारित किए जाते हैं , प्रार्थनाएँ, संकल्प दोहराए जाते हैं। स्वतंत्रता के पावन पुनीत दिवस पर तिरंगे के नीचे खड़े होकर राष्ट्र की उन्नति एवं विकास हेतु प्रतिज्ञाएँ आज भी होती हैं। लेकिन राष्ट्र के नवनिर्माण की वह बुनियाद, क्या पक्की बुनियाद बन पाती है ? गरीब मजदूर के गाढ़े पसीने की कमाई का मूल्यांकन, क्या सही हो पाता है? क्या हम विकास की दिशा में सही अग्रसर हो रहे हैं ? आज हमारा चिंतन और सोच किस दिशा में जा रहा है। हम सचमुच राष्ट्र के प्रति कितने कृतघ्न होते जा रहे हैं, क्या कभी कोई सोचता है ?
हमारे देश का जनसेवक बेचारा जयराम ! जैसे आज भी फटे-पुराने कपड़े पहिने, हाथ में पुराना फटा तिरंगा लिए, झोपड़ी में भूखा पेट, स्वाभिमान की रक्षा करता हुआ जी रहा है। आज लोग उसके मरने पर सौ-पचास रुपये का अमूल्य दान देकर, दानवीरता का पद ग्रहण कर अपने कर्तव्य से मुक्ति पा लेते हैं, या शमशान तक, पद - यात्रा का गौरव लूट कर, जलती चिता पर पाँच चिलपियाँ डालकर, उसके दुखी परिवार के सहयोगी बन जाएंगे। बहुत अधिक हुआ, तो शोकसभा का आयोजन कर श्रद्धांजलि अर्पित कर लेंगे। संवेदना के दो शब्द बोल कर समाचार पत्रों में अपनी विज्ञप्ति छपवाकर वाह - वाही लूट लेंगे।
मेरे मित्र गोपाल, आज रिश्वतखोरी भ्रष्टाचार को भी, लोग जन्म सिद्ध अधिकार मान बैठे हैं। बेचारे गरीब इस चक्रव्यूह में व्यर्थ पिसते हैं। तुम्हारा बेटा इसलिये तो दर-दर की ठोकरें खा रहा है।
सुनो गोपाल ! स्वर्ण-पर्व उदयांचल पर चमक चुका है। कहते थे समाजवाद आएगा परिश्रम के फल लाएगा, सुख चैन की बंशी बजेगी। राम राज्य की बात भी सुन रखी थी। लोगों ने स्वर्णाअक्षरों से अपनी डायरी में यह बात लिख रखी थी। उस डायरी पर अब धूल की परतें जम चुकी हंै। सब्जबाग सुनते - सुनते तुम्हारा बेटा पच्चीस वर्ष में ही बूढ़ा सा दिखाई देने लगा है। उसके पिचके गाल, धंसी हुई आँखें, रूखे अधपके बाल ही क्या तुम्हारी तपस्या एवं त्याग का प्रतिफल है ? क्या उसकी दुर्दशा देखकर तुम्हारा क्रांतिकारी रक्त नहीं खौलता। मँहगाई के बोझ ने क्या तुम्हें इतना दबा दिया है कि तुम आह भी नहीं भर सकते। कब तक, इतनी ठंडी आहों को समेटते रहोगे। एक दिन ये गर्म जलधारा बनकर फूट ही पड़ेगी। तब इन्हें कौन सम्हालेगा ? जरा सोचो गोपाल बाबू ! जन भावना पर थोड़ा तो विचार करो मेरे दोस्त, तुम्हें यारों ने कितना समझाया कि राष्ट्र को तुम जैसे नेताओं की अत्यन्त आवश्यकता है। तुम ही संसद में बैठकर जनभावनाओं की बात गँुजाकर उनके अधिकारों की रक्षा कर सकते हो। किन्तु तुम तो ठहरे सिद्धांतवादी, आदर्शवादी। मात्र एक सौ पचहत्तर रुपये समाज का, देश का पुनरुत्थान करने का पुरस्कार स्वरूप पंेशन पाकर शांत बैठ गये। और अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान बैठे। क्या मिला इस देश को... और क्या मिला तुम्हें ... और तुम्हारी आने वाली पीढ़ी को ... ?
हाँ ... तुम्हें मिला अकाल, मँहगाई, भ्रष्टाचार, बेकारी और ऊपर से हर संसदीय - सत्र के नवीन उपहारों के रूप में क्रमशः सैल्स टैक्स, इन्कम टैक्स, प्रापर्टी टैक्स आदि। बड़े - बड़े घोटाले, कर्ज से लचार अर्थ व्यवस्था की गाड़ी कब तक आदर्शों का जामा पहिन पायेगी ? उस दिन देखो, उस बेचारे सुन्दर को जो एम.ए. पास कर चुका था, किन्तु जनसेवा का व्रत लेने वाले जनसेवक ने उसकी ऐसी सेवा कर दी कि बेचारा आज भी वह ईसा मसीह जैसे क्रास की तरह अस्पताल में पड़ा, जन-गण-मन का राष्ट्रगीत गाने को भी ललायित है। शायद परिवर्तन के युग में जनसेवा की परिभाषा ने भी करवट बदल ली है। आज समय भी इसी करवट पर क्यों बैठने को उद्यत् है ? समझ में नहीं आता गोपाल बाबू ....।
महेन्द्र की एक-एक बात उसके कानों में गूँज रही थी।
गोपाल बाबू की नसों में तनाव आ गया। लहू तेजी से दौड़ने लगा, मुठ्ठियां भिंच गईं। मुख मुद्रा गंभीर हो गई। संध्या की रक्तिम लाली ने उनके मुख मण्डल को और भी रक्तिम बना दिया। आँखों से उठती चिनगारियाँ जिसे देख ऐसा लगता था कि मानो इस रौद्र रूप में राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक विषमताओं के विरोध करने की शक्ति समा गई हो। यही विषमताएँ, हमारे आजाद भारत के विकास गति को अवरूद्ध किये हैं। सामने दालान में लगी हुई उन राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की तस्वीरें, हवा में झूलकर मानों अपनी सहमति प्रगट करतीं दिखाई पड़ रही थीं। अचानक उनका स्वर हवा में गूँज उठा।
गिरा दो ये मीनारें - .....मचा दो इन्कलाब .....इन्कलाब जिन्दाबाद।।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
(प्रकाशित युगधर्म सन् 1972)