जमीन का टुकड़ा
सरोज दुबे
सरोज दुबे
आखिर एक दिन उसके दिन फिरे। ऊँचे खानदान और संपन्न परिवार के पचास वर्षीय विधुर बैंक मैनेजर कमलकांत से उन का रिश्ता तय हो गया।
भैया ने घर में सब को समझाते हुए कहा था, “प्रतिभा बयालिस- तेतालीस वर्ष की है, लड़का पाँच-सात साल बड़ा तो होना ही चाहिए। इस दृष्टि से लड़के की उम्र कुछ ज्यादा नहीं है”
’‘पचास वर्ष का, दो जवान बेटों का पिता, भैया को ‘लड़का’ दिखाई दे रहा है।‘’ वह इस विडंबना पर स्तब्ध थी। यों भैया ने उनसे पूछा, “प्रतिभा, इस संबंध में तुम्हें कुछ कहना है ? तुम अब बड़ी हो चुकी हो। तुम्हारे विचार जान लेना मेरे लिए जरूरी है।”
जो बात बीस साल पहले पूछनी चाहिए थी, वह बात भैया आज पूछ रहे थे। अब उन के पास कहने को था ही क्या?
भैया ने ऊपरी शान शौकत में कोई कमी नहीं की। कमलकांत को ऊँचे खानदान की पढ़ी लिखी सुसंस्कृत लड़की मिल रही थी। उन के लिए यही बहुत था। दहेज की माँग वह किस मुँह से करते।
विवाह मंडप में उन्होंने कमलकांत को पहली बार देखा। स्थूलता की ओर अग्रसर होता शरीर गेहुआँ रंग, विशाल ललाट, विरले केष, दोनों आँखों के मध्य से उठी हुई पर ओंठों के समीप आ कर फैल गई नासिका, पान के शौक का परिचय देती पीली दंतपंक्ति...
कमलकांत को देख कर वह सचमुच आहत हुई। अपने लिए भला ऐसे वर की कल्पना कभी न की थी उन्होंने। उनका मन हुआ कि भाग कर जाए और बड़ी हवेली के कुएँ में कूद पड़े, पर वह ऐसा न कर सकी। हमारे समाज में लड़कियों की आत्महत्या के पीछे भी किसी न किसी तरह की कलंक कथा की कल्पना कर ली जाती है। बस इसीलिए वह पाशाण मूर्ति सी बैठी रही।
विवाह के बाद प्रथम रात्रि को दूर की ननद ने उन्हें बनारसी साड़ी पहना दी थी। बालों में गजरा बाँध दिया था और उन्हें कमलकांत के कमरे तक छोड़ आई थी। वह दरवाजे पर ठिठक कर खड़ी रह गई। उनका मन फूट-फूट कर रोने को हो रहा था। बहुत रोकने पर भी उस की आँखों में आँसू छलक आए थे।
“आईए,” कमलकांत ने कहा।
वह आगे बढ़ कर सामने रखी कुर्सी पर बैठ गई। “यह तो आपके रोने की उम्र नहंीं है” कमलकांत ने किसी बुरे उद्देश्य से नहीं कहा, पर बात उसे चुभ गई थी।
“मुझे आपसे कुछ कहना है,” कमलकांत बोले- “मेरे दो बच्चे हैं। दोनों कालेज में पढ़ते हैं। अब तक घर पर मेरी बहन रहती थी, लेकिन पिछले वर्ष उनका देहांत हो गया। नौकरों पर इतना भरोसा मैं नहीं करता। मैंने अपनी खुशी के लिए विवाह नहीं किया। बच्चों को माँ का प्यार और संरक्षण मिल सके, इसीलिए मैंने इस उम्र में विवाह किया है।”
उसके अंदर कुछ उबलने सा लगा। पुरुश कितने गर्व से कहता है कि उसने अपनी खुशी के लिए नहीं बल्कि बच्चों के लिए विवाह किया है, मानो उसने बहुत बड़ा बलिदान कर दिया हो। लेकिन एक नई नवेली दुल्हन की आशाओं और उमंगों पर जो तुशारापात होता है, उसका वह स्वप्न में भी विचार नहीं करता।
“मेरी बात का उत्तर नहीं दिया आपने ?” कमलकांत ने पूछा ।
उनकी तंद्रा भंग हुई, संयत होकर बोली- “मै आपकी उपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयत्न करूँगी”।
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धीरे धीरे वह नए घर परिवार के तौर तरीके सीखने, समझने का प्रयत्न करने लगी। इस घर की कई बातें उन्हें अजीब लगती। पढ़ने लिखने वाले बच्चे सुबह 8 बजे तक सोए पड़े रहते। देर रात तक वीडियो देखना या अंग्रेजी उपन्यास पढ़ना, उनका शौक था। जब वे बाहर निकलते, तो घर लौटने के लिए समय का कोई बंधन नहीं था।
कभी-कभी कमलकांत जल्दी घर लौट आते या बैंक से फोन कर लेते तो वह बच्चों के संबंध में कोई संतोष जनक उत्तर न दे पाती। पहले उसने सोचा था, ’शायद मातृविहीन बच्चों को अच्छी आदतें सिखाने का किसी ने प्रयत्न ही नहीं किया।’ पर वह जल्दी ही समझ गई कि जिन बातों को वह अच्छा समझती हैं, उन्हें सीखने, समझने की इन बच्चों में कतई इच्छा नहीं है। फिर जो बच्चे उन्हें माँ का सम्मान देने को तैयार नहीं थे। उन के सामने में वह किस अधिकार से हस्तक्षेप करती?
एक दूसरी बात भी थी जिसने उन्हें उस परिवार से अलग थलग कर दिया। रविवार के दिन कमलकांत परिवार में मांसाहार का नियम सा था। उनके अपने परिवार में मांसमछली खाना तो दूर उसने इन चीजों को छुआ तक न था। यदि कोई होटल में खा आता तो उन्हें एतराज नहीं था, किंतु घर की रसोई में इन चीजों को वह बरदाष्त न कर पाती। लिहाजा उस दिन उन का उपवास ही हो जाता।
दूसरी ओर कमलकांत की अपेक्षा थी कि उन्हें रोज सुबह बच्चों के लिए आमलेट तैयार करना चाहिए। जिस तरह उनके मित्रों की पत्नियाँ मांसाहार बनाने में पारंगत हैं, उसी तरह उन्हें भी इस पाक कला में निपुण हो जाना चाहिए। हाँ, यदि वह खाना न चाहें तो वह इसके लिए उन्हें मजबूर नहीं करेंगे।
एक दिन इसी बात को ले कर पति-पत्नी में विवाद हो गया। उन्होंने साफ कह दिया कि वह किसी भी हालत में मांस नहीं पकाएगी और खुद के खाने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता। कमलकांत ने तुरंत अपनी षालीनता त्याग दी,-“तब इस घर में रहने की क्या आवश्यकता है, मुँह काला करो यहाँ से,”-उन्होंने लगभग चीख कर कहा।
उनके स्वाभिमान को ठेस लगी पर वह चुप रह गई। मन ही मन सोचती रही थी कि यदि सचमुच वह मायके लौट जाए तो उसकी स्थिति क्या होगी। ससुराल से लौटी हुई लड़की की हमारे परिवारों में जो स्थिति होती है, वह क्या किसी से छिपी हुई है? यही सब सोच कर वह पति की ज्यादतियाँ भी सहती रही।
वह आस पड़ोस के स्नेहिल दम्पत्तियों और उनके बच्चों को देखती तो उसके मन में एक हूक सी उठती। कमलकांत से उसे वह सब नहीं मिला, जिसकी उसे अपेक्षा थी, किंतु मातृत्व शायद मिल जाए। उनके जीवन में बस यही एक साध रह गई थी।
इसी आशा में दो वर्ष बीत गए। कभी-कभी वह सोचती शायद उनकी माँ बनने की उम्र निकल गई है। वह मन ही मन उन लोगों पर खीजती, जिन्होंने उनका पत्नीत्व और मातृत्व निरर्थक बना दिया था।
लेकिन एक दिन एक दूसरा ही सत्य उजागर हुआ। कमलकांत की एक दूर की भाभी बातों ही बातों में यह भेद कह गई कि अब कमलकांत का पिता बन पाना संभव नहीं है। यह बात सुनकर वह ठगी सी रह गई। पति को बच्चे की जरूरत नहीं थी, पर उसे तो थी।
अपने सूने घर में सूनापन लिए वह घंटों अतीत में खोई रहती। किसी से बोलने बतियाने को भी वह तरस जाती। कभी वह आसपास के घरों में चली जाती या सहज ही किसी से बोल लेती तो कमलकांत सषंकित हो उठते। पत्नी से किसी का मेलजोल उन्हें पसंद नहीं था।
एकांत के उदास क्षणों में उन्हें बचपन का स्वच्छंद जीवन याद आता। अपने माता पिता याद आते। और सब से ज्यादा याद आता अंग्रेज मेम का बंगला। बचपन में अपने बाल साथियों के साथ वह उसी बँगले के समीप खेला करती थी। नगर के बाहर बने उस बँगले के विशाल प्रांगण में इमली, बरगद और पीपल के वृक्ष थे। इन्हीं वृक्षों के नीचे बालक बालिकाओं की मजलिस जुटा करती थी।
लेकिन तब न मेम थी, न उसका पहले वाला बँंगला। बँगले की दीवारों का प्लास्टर कई जगह से उखड़ गया था। दरवाजों को समय के थपेड़ों ने तोड़फोड़ दिया था। मकड़ियों ने जहाँ तहाँ जाले बना डाले थे। बरसात के दिनों में वहाँ चारों ओर अनेक तरह के पौधे उग आते इस बँगले को ले कर बच्चों के मन में कौतूहल और भय समाया रहता।
नगर के बड़े बूढ़े बताया करते कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद एक सेवानिवृत अंगरेज अफसर वहाँ आ कर बस गया था। मेम और वह, बस दो ही व्यक्ति थे उस परिवार में। एक बार वह अंगरेज विलायत गया, तो वहाँ से लौटा ही नहीं।
मेम उसकी प्रतीक्षा में सूख गई। वह बँंगले के बाहर आराम कुर्सी डलवा कर घंटों बैठी साहब का इंतजार करती रहती, पर साहब को न आना था, न आया।
मेम विक्षिप्त सी हाथ में लालटेन लिए रात भर बंगले का चक्कर लगाया करती। लोग उसे भूत समझ कर डर जाते। मेम की मृत्यु के बाद लोग उस बँगले को ’भुतही मेम का बँगला’ कहने लगे।
उन्हें बारबार लगता कि बेवफा पति और संतान के अभाव में तड़पती हुई घोर निराषा में डूबी अंगरेज मेम, शायद वह खुद ही है। यदि यही भाव उसके मन में स्थायी हो जाता तो शायद उसके मस्तिष्क का संतुलन ही बिगड़ जाता। किंतु उनके मन में अतीत की स्मृतियों को लेकर एक दूसरा भाव भी उतना ही प्रबल था। उसीने उन्हें बावली होने से बचा लिया था।
एक दिन पति ने उन्हें एक लिफाफा थमा दिया था- “तुम्हारा पत्र आया है।” पत्र बड़े भैया का था। लिखा था, “मुग्धा का विवाह तय हो गया है। लड़की का विवाह है, बहुत सी तैयारियाँ करनी है, तुम यथा शीघ्र आने का प्रयत्न करना।”
पत्र पढ़ कर वह उल्लास से भर उठी। कमलकांत चाहते थे कि वह विवाह के समय उन के साथ ही जाए। पर उनकी इच्छा अनिच्छा का अब उनके लिए कोई महत्व नहीं था।
मुग्धा के गहने, कपड़े और श्रृंगार की वस्तुएँ खरीदते परखते समय पंख लगा कर उड़ गया। वह जान ही नहीं पाई कि महीने के तीस दिन कैसे बीत गए। उस दिन बारात आ रही थी। बड़ी हवेली को दुल्हन की तरह सजाया गया था। रंगबिरंगे बल्वों से चारों ओर जगमगाहट हो रही थी।
अचानक वाद्य यंत्रों का स्वर तीव्र हो उठा। बारात द्वार पर आ गई थी। उन्हें दूल्हा देखने की कोई जल्दी नहीं थी। अभी द्वारचार के बाद उसे मंडप में ही तो आना है। लेकिन लड़कियांे में ऐसी धैर्यता कहाँ? घंटों से सजती संवरती लड़कियों का झुंड भाग कर द्वार पर जा पहुँचा।
वह आराम से खड़ी लोगों से बतिया रही थी कि दूल्हा मंडप में आ गया। षामियाने के जगमगाते प्रकाश में वह उसे देखती ही रह गई... ’अरे... यह तो रवि है, नहीं..., रवि नहीं हो सकते। पच्चीस वर्ष हो गए इस बात को, रवि कैसे हो सकता है भला।
एकाएक उनके पैर थरथरा उठे, शरीर पसीने पसीने हो गया। लोगों ने सोचा उन्हें रक्तचाप की शिकायत है। शायद तबीयत खराब हो गई होगी। मझले भैया उन्हें अंदर कमरे तक पहुँचा गए। वह पलंग पर निढाल पड़ी अतीत के गहरे गर्त में समाई जा रही थी। उन्हें वह सब याद आ रहा था, जिसे वह चाह कर भी भूल न पाई थी। मधुलता के घर पर हुई रवि के प्रथम भेंट... मूक प्रणय के वे अविस्मरणीय क्षण...रवि का दूसरे शहर में तबादला... उसकी अकुलाहट और रवि का आत्मविश्वास...।
जाने से सिर्फ एक दिन पहले रवि ने उनका हाथ थाम कर पूछा था,- ”प्रतिभा, मैं कोई स्वप्न तो नहीं देख रहा था इतने दिनों? तुम मेरे साथ खुश रह सकोगी? ”
उसकी घबराहट भरी हालत देख कर रवि ने धीरे से हाथ छोड़ दिया था। उसके मुख पर लहरा कर आ गई लट को स्नेह से पीछे हटाते हुए कहा था- “जाओ, फिर जल्दी ही मिलेंगे”
वह स्नेहिल स्पर्श और उल्लास से छलकती हुई रवि की आवाज वह कभी न भूल सकी। जीवन की मरुभूमि में मरुद्यान की तरह बस यही था उनके पास। उसे विश्वास था कि बड़े भैया इस रिष्ते के लिए जरुर मान जाएँगे। वह उस दुनिया से अनजान थी, जिसमें लड़के का पढ़ा लिखा और सुदर्षन होना ही काफी नहीं होता।
कुछ महीने बाद रवि के चचेरे भाई बडे़ भैया से बात करने आए थे। उन दिनों बड़े भैया अपने ही दंभ में चूर थे। रवि का पढ़ा लिखा और डाक्टर होना उनके लिए कोई मायने नहीं रखता था। रवि के पिता क्लर्क थे। उन के पास जमीन जायदाद नहीं थी। वह किराए के मकान में रहते थे। ऐसे परिवार में विवाह की चर्चा ही उन्हें अपमानजनक लगी।
“यह रायबहादुर गोपीनाथ की हवेली है, किसी ऐरे-गैरे का घर नहीं। पहले यह बताइए कि आप लोग किस बात में हमारी बराबरी कर सकते हैं ?” -बड़े भैया बोले।
“अब जमाना बदल गया हैं। आप अपनी बहन से पूछ कर तो देखिए,” रवि के भाई ने कहा था। लेकिन बड़े भैया ने इसकी जरूरत ही नहीं समझी।
इस समाचार को जानने के बाद वह कई दिनों तक न ठीक से सो सकी, न भोजन कर सकी। वह जमाना लड़कियों के बोलने का नहीं था। विद्रोह का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। पर रवि की बात याद करके उनका मन वर्षों हाहाकार करता रहा।
इस घटना के वर्षों गुजर जाने के बाद भैया को एकाएक ध्यान आया कि अब वह बड़ी हो गई है। उसका विवाह करना जरूरी है। बड़ी दीदी तो पन्द्रह की थी, तभी पिताजी ने उनका कन्यादान कर दिया था, लिहाजा बड़े भैया ने बात चलाई।
धनी और संपन्न प्रतिष्ठित परिवार मुँह फाड़े बैठे थे। उनकी माँगों को पूरा करना बड़े भैया के बस के बाहर की बात थी।
उन के पिता रायबहादुर गोपीनाथ नगर के बहुत बडे़ व्यापारी थे। अनाज के व्यापार में उन्होंने लाखों रुपए कमाए थे। पुराने समय के लोग बताते थे कि उनके यहाँ चाँदी के रुपए बोरियों में भर कर रखे जाते थे। गोपीनाथ जिस तरह रुपए कमाना जानते थे उसी प्रकार खर्च करना भी जानते थे।
बड़ी हवेली को बनवाने और सजाने में उन्होंने दिल खोल कर खर्च किया था नगर के मंदिर, अनाथालय और पाठशाला एँ सदैव उनसे दान प्राप्त करते रहते थे।
विश्व युद्ध के समय जब अनाज की कीमतें आसमान छूने लगीं और गरीब लोग दाने-दाने को मुहताज हो गए तो उन्होंने मनों अनाज मुफ्त बाँट दिया था। उनकी इस उदारता से अंगरेज कलेक्टर इतना प्रभावित हुआ कि उसने गवर्नर से उन्हें रायबहादुर का खिताब देने की सिफारिष की थी।
पिताजी के मरने के बाद सारा कारोबार बड़े भैया ही देख रहे थे। अपने आराम मतलबी स्वभाव और खुशामदखोरों के चक्कर में उन्होंने बहुत कुछ खो दिया था। खेती और जमीन के कारण ही हवेली की इज्जत बची हुई थी। कुछ किराया भी आता था। इन सबसे घर का खर्च तो आराम से चल जाता था, परंतु लड़की के विवाह और दहेज देने के लिए गुंजाइश नहीं थी।
बड़े भैया अब जल्दी ही इस सत्य को जान गए कि अपनी प्रतिश्ठा के अनुकूल विवाह करना है तो जमीन बेचनी ही पड़ेगी। पहलेे कभी जमीन बेची न हो ऐसा नहीं था। पर इस बार बड़ी भाभी एकदम बिफर पड़ी। “सिर पर इतने बड़े परिवार का बोझ है और कमाई धेले की नहीं। अब जो कुछ बचा है, उसे भी बेच दोगे? जितनी चादर हो, उतने ही पैर फैलाए जाते हैं।”
यह बात सबके सामने हुई पर भाभी की बात का प्रतिकार किसी ने नहीं किया। उलटे मझले भैया, भाभी और किशोर भैया अपराधी भाव से दबे हुए मौन रह गए। मझले भैया ठेकेदारी में हरबार असफल हो चुके थे। किशोर भैया को पढ़ने से अधिक रुचि कालेज की राजनीति में थी ऐसे में कोई कहता भी तो क्या।
बड़े भैया ने भी तुरंत हथियार डाल दिए, ”वही तो सोचता हूँ, बाप दादा की जमीन कैसे बेचता जाऊँ? कल को तुम्हीं सब कहोगे कि बड़े भैया ने सारी जमीन बेच डाली। हाँ, मेरी कमाई की होती तो अभी खड़े-खड़े बेच देता।
फिर वर्ष पर वर्ष बीतते गए। उनकी सब सखी सहेलियों की डोलियाँ उठ गईं और बड़े भैया घर बैठे लोगों को बड़ी बड़ी बातें बताते रहे। कभी वह लड़को में खोट निकालते तो कभी उनके खानदान में, यदि बात सिर पर आ ही जाती तो साफ कह देते, “ मुझसे जो बन पड़ेगा, वह दूँगा, दहेज का करार न हमारे खानदान में कभी हुआ है, न मैं करूंँगा।”
जब लोगांे को मुँह माँगा दहेज मिल रहा था, तब वे बड़े भैया की बातों में क्यों आते। कुछ वर्षों में किशोर भैया का भी विवाह हो गया। सब अपने आप में मग्न हो गए। बड़े भैया लोगों के सामने शान से कहते, “जब हमारे योग्य लड़का मिलेगा तब विवाह करेंगे। कुलीन परिवार की लड़की है, कहीं भागी थोड़े ही जा रही है।”
घर में रिश्तेदार पूछते तो भैया-भाभी कहने लगते, “ पता नहीं कैसी फूटी किस्मत पाई है, हम तो परेशान हो गए लड़का ढूंढ़ ढूंढ़ कर, ’मंगली’ जो है।”
उन्हें उसी दिन मालूम हुआ कि वह मंगली भी है। कुछ वर्षों बाद उन्हें चश्मा लग गया। वह थोड़ी मोटी हो गई और उम्र तो बढ़नी ही थी। ऐसे में भैया-भाभी को बहानों की कमी हो भी कैसे सकती थी।
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“कैसी तबीयत है, बुआजी?”
“ठीक है,” उसने धीमे से कहा।
दो दिनों से वह इसी कमरे में पड़ी थी। मृणाल उसकी खूब देखभाल कर रही थी। मुग्धा की विदाई के समय भी उसने उन्हें उठ कर नहीं जाने दिया। मुग्धा ही उनसे मिलने आई थी।
तभी कमलकांत आ गए, “आज शाम की गाड़ी का आरक्षण है। तुम भी अपनी तैयारी कर लो। परसों से भुवन की परीक्षा है।”
उन्हें सूझा ही नहीं कि वह पति को क्या उत्तर दें। “बुआ का स्वास्थ्य तो आज यात्रा करने योग्य नहीं है,”-मृणाल ने कहा।
कमलकांत ने उसकी बात पर ध्यान न देते हुए सीधे उसी से कहा- ” इतने दिन यहाँ रहने के बाद भी मन नहीं भरा? आज नहीं चलना है तो फिर आने की आवश्यकता भी नहीं है। देखता हूँ, भाई लोग कितने दिन खिलाते हैं।”
पति के मुख से कटुक्तियाँ सुनने का यह पहला अवसर नहीं था किंतु मृणाल के सामने वह लज्जा से गड़ गई। उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना पति कमरे से निकल गए।
धीर धीरे सब मेहमान चले गए। अब अपनी दुष्ंिचता में डूबी हुई, वह अकेली ही बच गई थी। एक दिन शाम को सब लोग बैठे बातें कर रहे थे कि बड़ी भाभी थाल में उनकी विदाई का सामान सजा लाई। कुमकुम लगा कर बड़ी भाभी उनकी गोद भरना ही चाहती थी कि वह पीछे हट गई।
”भाभी, मेरी विदाई क्यों कर रही हो ? मैं अब उस घर में नहीं जाऊँगी।”
बड़े भैया और भाभी मानो आसमान से गिरे, ”कैसी नासमझी की बात करती हो, प्रतिभा?”
“जिस घर में आए दिन मेरा अपमान हो, उस घर में अब मैं नहीं रह सकती,”-वह बोली।
”तुम सबके शादी -ब्याह करते-करते हम लोग बूढ़े हो गए। हमें भी अपने बच्चों के लिए कुछ करना है या नहीं ? सब सोच समझ लो रानी।”
“प्रतिभा, यह तुम्हें शोभा देता है क्या ? क्या कमी है तुम्हें उस घर में, धनदौलत, मानसम्मान सब कुछ मिलने के बाद भी तुम खुश नहीं हो? पति पत्नी में कहा सुनी तो होती ही रहती है। इसके लिए क्या कोई घर छोड़ देता है?”- किशोर भैया ने कहा।
बड़े भैया इधर कुछ वर्षों से सीमेंट पाइप का व्यापार कर रहे थे। इस धंधे में उन्होंने अच्छा पैसा कमाया था। मझले भैया और किशोर भैया भी अपने निर्वाह लायक कमाने लगे थे। तीनों भाईयों ने जमीन जायदाद के हिस्से कर लिए थे। प्रत्येक भाई के हिस्से में लाखों की जायदाद आई थी। पर एक उनका बोझ उठाने की कल्पना मात्र से तीनों भाई विचलित हो गए।
“मायके में पड़े रहने से तो अपने घर में रहना ज्यादा अच्छा है, प्रतिभा दीदी।”-मझली भाभी ने उन्हें धीरे से सलाह दी।
“इतने बड़े घर में तुम सब रह सकते हो तो मैं क्यों नहीं रह सकती ? क्या यह मेरे पिता का घर नहीं है?” वह रोने को हो गई।
“हम ने तुम्हारी शादी कर दी, प्रतिभा। अब तुम्हारा अधिकार उस घर पर है, “बड़े भैया ने समझाया।”
“वह शादी नहीं थी बड़े भैया...वह तो समाज के सामने आपने फर्ज का निर्वाह भर किया था।”
“तुम्हारी इतनी उम्र हो जाने के बाद इससे अच्छा घर-वर मिलना कठिन था। हम तो कोशिश कर करके हार गए थे।”
“बड़े भैया, मैं एकदम चालीस बयालीस की नहीं हो गई थी। सच बात यह थी कि आप बिना दहेज के ऊँचा घर वर चाहते थे,”-आखिर वह कह ही गई।
”जो हो गया वह अब बदल नहीं सकता। मोटी सी बात यह है कि तुम्हें अपने घर वापस जाना चाहिए। यही दोनों परिवारों के लिए सम्मान की बात है। तुम यहाँ रहोगी तो लोग सौ प्रकार की बातें करेंगे। तुम्हारी भी बदनामी होगी और हम सबकी भी,”- मझले भैया ने एक तरह से निर्णय ही दे दिया।
पिता की इतनी बड़ी हवेली में उसके लिए कोई जगह नहीं थी। लाखों की जायदाद में से कोई उन्हें दो समय का भोजन और तन ढकने को कपड़ा देने को भी तैयार नहीं था।
वह बीच सभा में सिर नीचा किए बैठी थी। दर्प से उठे मस्तक उन्हें कुचल देने को तैयार बैठे थे। इतने लोगों के होते हुए भी कमरे में ष्मशान की सी शांति छाई हुई थी। लेकिन तभी एक घमाका हुआ।
”पिता जी, यदि बुआ अपने घर नहीं जाना चाहती तो यहाँ क्यों नहीं रह सकतीं ? आप तीनों भाइयों के होते हुए बुआ का वहाँ अपमानित होना, क्या हम सबका अपमान नहीं है?”-यह मृणाल थी।
सबने चौंक कर उसकी ओर देखा, स्वयं उसने भी।
“मृणाल, तुम अंदर जाओ। बड़ों के बीच में बच्चों का बोलना शोभा नहीं देता,”-बड़ी भाभी ने मृणाल को डाँटा।
“बड़े लोग अनुचित कहें, अन्याय की बात करें, तब भी छोटों का विरोध अवांछनीय है ? दादाजी की इतनी बड़ी हवेली के होते हुए क्या बुआ सड़क पर निकल जाएं?”
“मृणाल, इस मामले का तुमसे कोई संबंध नहीं है। तुम अपनी वकालत के पैंतरे अदालत में दिखाना,”-मझले भैया बोले।
“चाचाजी, यह अकेली बुआ की बात नहीं है। यह तो आप हमारी आने वाली पीढ़ी के सामने एक असंगत पूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करने जा रहे हैं। हम तीन बहनें हैं, यदि हममें से किसी बहन को मायके लौटना पड़ा तो हमारे साथ भी आप लोग यही सलूक नहीं करेंगे?”
“बेटे, विवाह के बाद लड़की का अधिकार पति के घर और उस की संपत्ति पर होता है।”
“अधिकार तो पिता और पति दोनों की संपत्ति पर होता है पिताजी। किंतु इस अधिकार के लिए जो संघर्ष करना पड़ता है, वह निराश्रित हो कर तो नहीं किया जा सकता ?”
“लो, पढ़ाओ लड़की को और वकालत ? वह आपका ही सिर मूँड़ने को तैयार बैठी है,”- बड़ी भाभी ने पति को तुरंत ही उलाहना दे डाला।
“माँ, आप अपने ही घर की लड़की को आश्रय देने को सिर मुंड़ाना कहती हैं ? हमारे यहाँ तो सैकड़ों लड़कियाँ ससुराल में जला कर मार दी जाती हैं। उस का कारण ससुराल वालों की पैशा चिक मनोवृत्ति तो है ही लेकिन एक जबरदस्त कारण उनके अपने घरवालों की निष्ठुरता भी है।”
“बुआ पढ़ी लिखी हैं, अपने निर्वाह लायक खुद कमा सकती हैं। पति की जायदाद को ले कर कोर्ट में चक्कर लगाने की मन स्थिति उनकी नहीं है। वह तो सिर्फ यही चाहती हैं कि इस घर में सबके साथ प्रेम और सम्मान के साथ रहंे, यदि आप लोग यह नहीं चाहते तो मैंने भी यह निश्चय कर लिया है कि जहाँ, जिस हाल में वह रहेंगी, मैं उनके साथ रहूँगी। उन्हें आत्मघात के लिए यों ही नहीं छोड़ दूँगी ।”
एक क्षण को सन्नाटा छा गया। वह कुछ कहना चाहती थी पर उसकी आवाज मानों गले में ही अटक गई।
बड़े भैया कुछ क्षण मौन ही रह गए। उन्होंने सामने बैठे हुए सौरभ और निखिल की ओर देखा। वे दोनों मृणाल से छोटे थे, लेकिन बच्चे नहीं थे कि उन्हें कुछ भी कह कर समझा दिया जाए। मृणाल के इस तरह बीच में पड़ जाने से मामले का रुख ही बदल गया। उन्होंने पत्नी की ओर देखा, जिसके मुख पर पराजय की खिन्नता विद्यमान थी।
”जब बात यहाँ तक आ ही गई है तो अब सच बात कह देना ही उचित है। प्रतिभा के विवाह के लिए मैं बीजापुर की जमीन बेचना चाहता था लेकिन माधुरी की नाराजगी के भय से यह नहीं हो सका। वह जमीन का टुकड़ा हमारे पास न होता तब भी हमारी स्थिति में कोई अंतर आने वाला नहीं था किंतु उस जमीन के मोह के कारण प्रतिभा का जीवन बरबाद हो गया। इसके लिए मैं और माधुरी जिम्मेदार हैं”
बड़े भैया की इस साफगोई से सारा परिवार स्तब्ध रह गया।
“मुझे पता था, अंत में आप मुझे ही बुरा बनाएंगे”-बड़ी भाभी वितृश्णा से बोलीं।
दरअसल वर्षों से यह बात बड़े भैया के दिल में खटक रही थी। जबसे उनके हाथ में व्यापार का पैसा आया था, तबसे इस बात को लेकर वह आत्मग्लानि का अनुभव कर रहे थे। आज भी वह बहन को बड़े होने के नाते अधिक स्नेह करते थे, उसके लिए दिल खोल कर खर्च करते पर अब उसके लिए सुखी दाम्पत्य कहाँ से लाते?
उसके मायके में रहने को वह अपने पर बोझ नहीं समझते थे। लोग इस संबंध में क्या कहेंगे इस की भी उन्हें चिता नहीं थी। किंतु परिवार की महिलाएँ इस बात को हृदय से स्वीकार नहीं कर पाएँगी और आए दिन बहन का अपमान होगा, इस चिंता से वह कैसे बचते? इसीलिए उन्होंने सोच लिया था कि प्रतिभा को अपमान ही सहना है तो ससुराल में सहना ही भला। लेकिन मृणाल ने सारे समीकरण ही बदल दिए।
“सुनो माधुरी, जिसके हाथ में अधिकार रहता है वह अपनी हर बात को उचित समझता है। अपने ही किए कार्य को न्याय मानता है।
“हम दूसरों को जलाते हैं, कुढ़ाते हैं, रुलाते हैं और सोचते हैं कि यह हमारा क्या कर लेंगे पर निराश्रितों की ‘हाय’ बहुत बुरी होती है माधुरी। उससे हम बच नहीं सकते। हमारी धनसंपत्ति, एश्वर्य, पारिवारिक समृद्धि हमें उससे बचा नहीं सकती।”
“तो आप मुझे यह बता रहे हैं कि मैंने सबका अधिकार मारा है, अन्याय किया है और जो मैं हमेशा बीमार रहती हूँ वह इसी का फल है”
“नहीं, माधुरी, बताने या समझाने से कोई यह नहीं समझ सकता। मैं भी ऐसा विद्वान नहीं हूँ जो यह बात किसी के कहने या पढ़ने से समझ जाता पर जीवन के अनुभव ने मुझे यह सिखा दिया है।”
“मृणाल, तुमने अच्छा ही किया जो मुझे दर्पण दिखा दिया और सत्य कहने के लिए मजबूर कर दिया। जो जमीन मैं प्रतिभा के विवाह के समय बेचना चाहता था, उसे अब बेचकर सारा रुपया मैं उसके नाम जमा कर देना चाहता हूँ। मुग्धा का कमरा खाली है, वह आज से प्रतिभा का हुआ। मैं प्रतिभा के लिए जो कर रहा हूँ, वह बहुत नहीं है क्योंकि आज मेरे इस प्रायश्चित से उसके बीते दिन फिर थोड़े ही लौट सकेंगे। शेष जीवन अपनों के बीच सुख और शांति से तो गुजार सकती है।”
बड़े भैया की आँखों से आँसू वह निकले। कुछ समय पहले जहाँ घृणा, तिरस्कार और क्रोध के घनघोर बादल छाए थे वहीं अब स्नेह-प्रेम की मीठी सरिता बह रही थी।
सरोज दुबे
( प्रकाशित- सरिता, दीपावली विषेशांक नवम्बर द्वितीय 1993)