जेबकट
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
‘हरी .... ओ हरी।’
हरी ने पलटकर देखा। मोहन था। वह पुल के नीचे वाली खड़ी ढलान चढ़, रेल - पांत पार कर, इस गुप्त मार्ग से स्टेशन पहँुचने की जल्दी में था कि इस बेईमान ने टोंककर सब गुनतरा फेल कर दिया। घर से अच्छे शगुन से निकला था। पहँुचने का रास्ता भी नया। दिन भी अच्छा। पर इस मोहन का सत्यानाश। सब गुड़-गोबर कर दिया। बेईमान कहीं का। क्या सोचा था, क्या हो गया। अब आज के दिन का राम ही मालिक है। अब तो फँस गया। सो रुकना ही पड़ेगा। तब तक मोहन करीब आ चुका था। आते ही उसने अभिवादन किया। ‘राम-राम बड़े भाई।’
हरी ने अनमने ढ़ंग से उत्तर दिया - ‘राम - राम’
मोहन ने अपनापन दर्शाते अंदाज में पूछा - “भैया, कई दिन बाद दिखे। कहाँ रहे ?”
‘कहीं नहीं रे’ हरी बोला ‘कुछ मौसम साफ नहीं था, यहाँ का। सो अड्डा बदल दिया था। सुना है, अब तो सब ठीक है।’
‘हाँ भैया’ मोहन बोला ‘यह सब तो बारीकी से अपुन को देखना ही पड़ता है। आँख बंद कर चले तो गले में फंदा। फिर चाहे टेढ़ा रास्ता चलो, चाहे सीधा।’ सही कहता है मोहन। ‘हरी बोला’ अब सुना,- तेरा काम धाम कैसा चल रहा ? एक दम डल। एकदम मंदा भैया। इस समय कड़की है। पर तू तो अपनी बता ? मोहन ने पूछा।
‘बस, तेरे जैसे हाल मेरे भी हैं। लीलत-उगलत पीर घनेरी। मन बड़ा छटपटाता रहता है। क्या करें, कहाँ जायें ? हरी ने कहा।’
‘जब सारे दिन बोहनी नहीं होती, तब लगता है जहर खाकर सो जाऊँ। पर जहर भी तो आसानी से थोड़े ही मिल जाता है।’ मोहन ने कहा।
‘सच कहता है मोहन’ हरी ने कहा - अब देख, अपुन अकल लगाते हैं। बुद्धि खरचते हैं। मेहनत करते और दुनिया भर के पाप करते हैं। जिनका माल उड़ाते हैं, उनकी आत्मा कलपाते हैं। सब बुरे काम अपुन करते हैं। पर ये साले पुलिस वाले जाने कहाँ से ऐन मौके पर टपक जाते हैं, भागीदारी के लिये। पूरी मलाई उनके हाथ, छाँछ अपने हाथ। साले। निखट्टू। थू। और हरी ने अपने मँुह भर का थूक एक जगह इक्ट्ठा कर थूक दिया। घृणा से मँुह इस तरह बनाया जैसे मँुह में कड़वी गोली हो। हरी ने कहा ‘ अब जब तू आ ही गया है तो आ बैठ ले। यहाँ से अपना शिकार भी दिखता रहेगा, और बातें भी होती रहेंगी।
मोहन नें पेंट की जेब से रूमाल निकाल, ढलान के निचले सिरे पर बिछाकर बैठ गया। वैसा ही हरी ने किया। वहाँ से दस फुट की दूरी पर सड़क है। इसी सड़क से होकर सभी स्टेशन पहँुचते हैं। पैदल, सायकल, रिक्शा, टाँगा, आटो, कार आदि। हर तरह, की इन्क्वारी यहाँबैठ कर होती रहेगी।
‘गाड़ी का पता लगाया ?’ मोहन ने पूछा।
‘हाँ, राइट टाइम है। फि़कर मत कर। राइट टाइम में भी एक घंटा है। फिर, आज कल इन सालियों का कुछ भरोसा है। अपनी मन मर्जी। जब चली जाये, कब चली आँय। दो-चार, आठ-दस घंटे लेट हो जाना इनके लिये कोई मायने नहीं रखता। मालूम है तुझे, परसों वाली पवन कल आयी थी।’
साली। सब स्कीम फेल कर गयी। छिः। थू ! हरी ने पुनः मँुह भर का थूक इकट्ठा का थूक दिया।
दोंनों युवक हैं। हरी की उम्र लगभग चौबीस, मोहन उससे चार साल छोटा। क्या हैं, कौन हैं। इस अता-पता से मतलब ही क्या ? हाँ, धंधा एक सा होने से दोनों में मित्रता है।
‘भैया, स्कीम फेल होने से सारी मेहनत बेकार हो जाती है मोहन ने समर्थन कर कहा सच कहँू, तो भैया, यह साली सरकार ही निकम्मी है। किसी का कोई टाइम टेबल नहीं। अपनी डफली - अपना राग सब उल्टी - सीधी दिशा भागते हैं। कहीं ऐसे काम काज होता है ? वक्त की पाबंदी भी कोई चीज है। वो नहीं, तो कुछ भी नहीं। अरे अपने हाथ में हो, तो एक दिन में सब लाइन पर लग जायें। मोहन एक साँस में गर्व से कह तो गया किन्तु हरी ने सड़क से नजर हटा, मोहन पर पटकी, तो तुरंत उसको अपनी औकात समझ आ गई। उसकी औकात तो पैर के नीचे वाली मिट्टी बराबर नहीं। पर इसके बावजूद संयत हो मोहन ने हरी से बात जारी रखी।
“भैया, सुना है पी.एम. का प्रोग्राम रद्द हो गया।”
‘हाँ... रे ! सही सुना।’ हरि बोला सब स्कीम फेल। जैसा नेता वैसी भीड़। छोटे में दो चार सौ। बड़े में हजारों। हजारों से ज्यादा। आता, तो हन्ड्रेड परसेंट का धंधा होता। वहाँ कोई पार्टनर - वार्टनर का झमेला नहीं। सीधे सौ फीसदी कमाई। महीना - पन्द्रह दिन आराम से कटते। भीड़ - भाड़ में कौन अपनी ओर देखता ? काम किया, छूमन्तर। पुलिस का सारा ध्यान तो उनकी तरफ रहता है। दंगा - फसाद गड़बड़ी ना हो, बस। बड़े - बड़े मुर्गों पर ही उनकी नजर रहती है। हम टुटपुंजियों को देखने को किसे फुर्सत ? राम राम। सब मिट्टी पलीत। थू।’ हरी ने फिर वैसा ही किया।
सड़क से आवागमन का सिलसिला चालू था। घंटी टुनटुनाता रिक्शा। पी.पी. करता आटो। सुमधुर संगीत बिखेरती कारें। पैदल भी, साईकिल वाले भी। किसी भी तरह का शिकार उनकी टोही नजर की गिरफ्त से बाहर नहीं था। पुल के नीचे से गुजरने वाले वाहन स्ट्रीट ब्रेकर की वजह वैसे ही धीमे हो जाते थे, अतः देखने में आसानी होती। अचानक मोहन जैसे शिकार पा गया हो, चिल्लाकर बोला - “अरे देख हरी मारुती की वो मेडम। गले में वह क्या चमचमा रहा है ? हार है शायद। पर क्या पता असली है कि नकली ?”
हरी की पैनी नजर ने तुरंत देख लिया हार नहीं है रे। मेडम ब्याहता है। सिन्दूर नहीं दिखता तुझे ? मंगलसूत्र है। पाप का घर। “महापाप।” हरी ने अनमने स्वर में कहा। जाने क्यों उसे मंगल सूत्र झटकने पर पाप का भय सताता रहता था।
‘पाप अच्छी याद दिलाई भैया।’ मोहन बोला ‘तूने कहा - पाप लगेगा।’ अच्छा बता। अपुन ने अपनी कला से, हाथ की सफाई से कोई कमाई की, और पुलिस वाले ने वह कमाई अपुन से झटक ली, मतलब समझ रहा है न ?
‘झटक ली और अपुन को माल की कीमत के हिसाब से पच्चीस - पच्चास दिये तो बता पाप किसे लगेगा। अपुन को, या जिसके पास माल है ?”
हरी सोच में पड़ गया। कहाँ की बात पँूछ बैठा मोहन। साल, चार साल छोटा। बात इतनी बड़ी। साला बेवजह दिमाग चाटता है। पर उत्तर तो देना था सो बोला - ‘मोहन, मेरे ख्याल से पाप दोनों को लगेगा। जिसे ज्यादा हिस्सा सो जियादा। कम हिस्सा सो कम।’
‘नहीं मोहन ने प्रतिवाद किया।’ गलत है यह। अच्छा मान लो तुमने उस कार वाली मेडम का मंगलसूत्र पार कर दिया, समझ लो झटक लिया। यह तो तुम हम जानते हैं, कि मंगलसूत्र ब्याहता की सुहाग की निशानी होती है, सो औरतों को बड़ी शिरधा (श्रद्धा) उस पर रहती है। उसके जाने पर, उनकी शिरधा पर सीधे चोट होती है और आत्मा किलपती है। आत्मा किलपने से तुम्हें कोसेगी, सीधे तुम्हें। अब बताओ, पूरा पाप लगा कि नहीं ? तुम से तो पुलिस वाला बाद में झटकेगा। ‘तब तक पाप रुका थोड़े ही रहेगा। भैया, यह तो बिजली के करंट जैसा है, छुआ, तुरंत असर।’
‘हरी निरुत्तर सा दिखा। साला। कुछ दिन में हरी का उस्ताद बन जायेगा। उम्र में छोटा बात बड़ी। अब टापिक बदलना उचित समझा। बोला - छोड़ यार, ये पाप-पुण्य के पचड़े। अपुन को इससे क्या लेना ? क्या देना ? मतलब है अपने हुनर से, जिससे पेट पलता है। यह सब गुरू के विषय हैं। वह अपुन से बहुत सीनियर है। उसके सामने हम तुम बाल बराबर नहीं। मालुम, गुरू क्या कहता है ? गद्दी - तकिया लगाये बैठे सेठ- साहूकार, आफिस के बाबू आफिसर, छोटे-बड़े नेता सब अपनी जमात के हैं। बाद में उसकी यह बड़ी बात मेरी समझ में आयी - कि भोली - भाली जनता हो जिसने भी ठगा - वही जेबकट हुआ। वाह गुरू। और वाह तेरी दलील।’ हरी ने अपने सोच समझ के दायरे के अनुसार मोहन को तसल्ली देना चाही। थोड़े रुककर अचानक चिल्ला पड़ा। “मोहन देख ... गौर से देख, उस रिक्शा को। देख, वह आदमी सामने की जेब का माल अंदर छुपा रहा है। साला। स्टेशन अभी आया नहीं, चौकसी पहिले। साला समझता है, स्टेशन पर सारे जेबकट रहते हैं। चल उठ। गाड़ी का टाइम हो रहा है। आसामी तुरंत थोडे़ मिल जाएँगे ? दस चक्कर लगाओ तो एक मिलेगा। चूके सो गया।
“हरी, रिक्शा बाद में देखना, मोहन बोला पहिले उस खाकी वर्दी वाले को देख। साला, सायकल सड़क पर चला रहा है और देख आजू - बाजू रहा है। हम दोनों को देख लिया उसने। सत्यानाश। सब गुड़ गोबर हो गया।” यह अपशगुन जैसा था। दोनों के चेहरे पर उदासी छा गयी।
मोहन ने हरी से आग्रह जैसे स्वर में कहा - ‘चल भैया, आज बस स्टेंड चलें।’
‘नहीं रे’ मोहन ने आग्रह ठुकराया। हरी ने कहा ‘बस स्टेंड पर साला गुरू होगा’। पत्ती मांगेगा। वहाँ उसी की बपौती है न। अपने को साला राजा समझता है। अब सब कुछ भगवान पर छोड़। वे ही लाज रखेंगे।
अब सोच विचार न कर। राम का नाम ले। आज वे ही नैया पार लगायेंगे। मोहन, आज तूने सब गड़बड़ कर दिया। अब भैया, जैसा भाग्य में लिखा होगा - वह ही पायेंगे। चल, हिम्मत से काम ले।” दोनों निरुत्साहित, एक दूसरे का हाथ पकड़ - सीधी ढलान पर बढ़ चले। आगे रेल पातें हैं, उसके बाद रेल्वे स्टेशन।
मोहन आज तूने पाप पुण्य की बातें याद दिलाकर सचमुच हमें तो भूखा मार डाला। धंधा चौपट कर दिया। साला। मूड खराब हो गया। हम पाकिटमारों को ऐसी बातें करना क्या शोभा देता है ? आखिर इस देश में हमसे भी तो बड़े - बड़े पाकिटमार हैं। क्या कभी वे भी ऐसा सोचते हैं ?
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’