जीत
सरोज दुबे
सरोज दुबे
“पिताजी, कोई सज्जन आप से मिलने आए हैं” विशाल ने कॉलेज जाते-जाते बाहर से ही आवाज दी।
इतनी सुबह भला कौन व्यक्ति आ सकता है! मैं मन में कौतूहल लिए बाहर आया। देखा, बैठक के दरवाजे पर एक अपरिचित व्यक्ति खड़ा है। मुझे देखते ही उस ने नमस्कार किया।
“कहिए?” मैंने बैठने का संकेत करते हुए पूछा।
”जी, मेरा नाम सोमेश्वर है। मैंने सुना है आप अपना रविनगर वाला मकान बेच रहे हैं, मैं उसी के लिए आया हूँ। आप कितने में बेचना चाहते हैं मकान ?”
”कम से कम चालीस हजार रुपये में,”- मैंने कहा।
“तब मैंने ठीक ही सुना है। बात यह है कि मैं जिला परिशद् में क्लर्क था। अभी-अभी रिटायर हुआ हूँ। मेरे पास तीस हजार रुपये हैं। पाँच हजार किसी तरह और जमा कर लूँगा, यदि आप पैतीस हजार में दे दें तो...। आगंतुक ने विनीत भाव से कहा। उस की आँखों में याचना का भाव उभर आया।
“आजकल की महँगाई को देखते हुए चालीस हजार कोई ज्यादा नहीं है। सिविल लाईन में मैं एक बँगला बनवा रहा हूँ। सीमेंट, लोहा, लकड़ी सभी की कीमतें आसमान छू रही हैं और तो और मजदूरी भी कितनी बढ़ गई है”।
”आप की बात बिलकुल सच है श्रीमान, पर मेरे पास इस से ज्यादा पैसा ही नहीं इतने दिनों से तो हम लोग किराए के मकान में ही गुजारा करते रहे। लेकिन अब रिटायर होने के बाद तनख्वाह तो मिलना से रही। सोचा था, यदि आप से सौदा हो जाए तो पत्नी के जेवर बेच कर...” वह एकाएक अंतरंग हो उठा।
“अच्छा मैं सोचूँगा आप कल शाम को आईए।”
वह आष्वस्त हो कर बोला- “बहुत अच्छा श्रीमान, धन्यवाद” और वह हाथ जोड़ता हुआ खड़ा हो गया। सोमष्वर से पहले भी कई लोग मकान के सिलसिले में मुझसे मिलने आए थे। उसमें से कुछ ने मकान की खामियाँ बता कर उस का मूल्य कम कराने का प्रयत्न किया था तो कुछ ने मकान को नए सिरे से बनवाने के लिए मौजूदा ढाँचे को गिराने और मलवा उठवाने में जो खर्च आएगा, उस का गणित समझाने की चेष्टा की थी।
सोमेश्वर अन्य लोगों से बिलकुल भिन्न किस्म का था। उसकी जरूरत के सामने पाँच हजार का कोई खास महत्त्व नहीं है। मकान खरीद लेना, उसके जीवन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी। मैंने मन ही मन सोचा।
“कौन था?”- कमला ने कमरे में प्रवेश करते हुए पूछा।
”रविनगर वाले मकान को खरीदने के लिए एक आदमी आया था।”
”कितने में खरीदने को कहता है?”
”मकान बदलते-बदलते परेशान हो गया हूँ। सोचा था कि यदि आप से सौदा हो जाए तो पत्नी के जेवर बेचकर सोमेश्वर ने कहा।
”पैंतीस हजार में, षरीफ आदमी है बेचारा।”
“पैंतीस में ! फिर आपने क्या कहा?”
”कुछ नहीं कहा यही कि सोच कर उत्तर दूँगा।”
”इस में सोचने की क्या बात है ? रामावतार जी का मकान पैंतीस हजार में बिका है आपने देखी थी उस मकान की हालत? अपना मकान तो उससे हजार गुना अच्छा है।”
”वह तो ठीक है, पर पैतीस हजार से अधिक देने की उसकी सामथ्र्य नहीं है। ”तब वह कोई दूसरा मकान देखे” कमला अपना निर्णय दे कर रसोई घर में चली गई।
मुझे विश्वास था कि कमला हमेशा की तरह पहले तो नाराज होगी, पर अंत में मेरी बात मान लेगी। विशाल कहीं बाहर गया था। कमला सामने बैठी हुई सलाद की तैयारी कर रही थी। मैं सोच रहा था कि इस समय मकान की बात निबटा ली जाए। तभी हाथों में कई पुस्तकें थामे विशाल आ खड़ा हुआ। आते ही बोला, ”पिताजी, आप रविनगर वाला मकान पैतीस हजार में बेच रहे हैं?”
कमला ने तुरंत मेरी ओर देखा। मुझे लगा, मानों मैं चोरी करते हुए पकड़ा गया हूँ।
मैं बोला- ”नहीं, अभी तो कोई पक्की बात नहीं हुई।
परंतु रामसहाय तो कह रहे थे कि आपने किसी व्यक्ति से पैतीस हजार में बात तय कर ली है। वह स्वयं उस मकान को पैंतालीस हजार में खरीदने को तैयार हैं। वह कल रात आप से बात करने आएँगे।”
कमला का मुख प्रसन्नता से खिल उठा विशाल के हृदय में उत्साह समा नहीं रहा था। ’लो सब गुड़ गोबर हो गया,’ मैंने मन ही मन कहा।
”सच बात यह है कि वह आदमी काफी परेशान है...।” मैं भूमिका बाँधना चाहता था कि कमला बीच में ही भड़क उठी,-”बस, आपको तो दुनिया के सब आदमी गरीब और परेशान ही नजर आते हैं। आप कौन से धन्ना सेठ हैं? बँगले का काम पैसों के कारण ही रुका पड़ा है न ?”
”पिता जी, रामसहाय दस हजार ज्यादा दे रहे हैं। दस हजार में तो उस बंगले में आराम से टाईल्सें लग जाएँगी। एकदम शानदार दिखेगा,”- विशाल बोला।
”रामसहाय और उस व्यक्ति में बहुत फर्क है, वह क्लर्क था। रिटायर हो चुका है, सिर छिपाने के लिए जगह चाहता है। पैंतीस हजार से ज्यादा देने की उस की सामथ्र्य नहीं है। रामसहाय लाखों का वारान्यारा करते हैं। उनके लिए दस हजार अधिक देना कोई बड़ी बात नहीं है।” मैंने दबी जबान से अपना मत व्यक्त किया।
”पता नहीं, आप में राजा हरिश्चंद्र की तरह घर फूँक तमाशा देखने की प्रवत्ति कहाँ से आ गई। लेकिन मैं साफ साफ कहे देती हूँ, यह मकान रामसहाय को ही बेचा जाए,” कमला ने तुनक कर कहा।
”हाँ, पिताजी हमें तो उसी व्यक्ति को मकान बेचना चाहिए, जो ज्यादा से ज्यादा दाम लगाए। देखिए न, पिछली बार आप को सीमेंट के लिए कितनी दौड़धूप करनी पड़ी थी। किसी ने दया की आपके ऊपर? हर बोरी पर दस-दस रुपए ज्यादा देने पड़े थे। ” विशाल ने माँ का पक्ष लिया।
मैंने सहमति में धीरे से सिर हिला दिया।
“क्या सोच रहे हैं आप?” कमला ने पलँग पर बैठते हुए पूछा। ”नहीं, कुछ भी नहीं” मैंने मन की बात प्रकट नहीं करनी चाही। सोचा क्या लाभ कुछ कहने से?
सोमेश्वर की सूरत कई बार मेरी आँखों के सामने आ जाती। उस के लिए मेरा हृदय करुणा से भर जाता। मन ने चाहा कि कमला से एक बार फिर उसके विषय में बात करके देखूँ मैंने पलटकर देखा, कमला सो गई थी।
कमला की बड़ी इच्छा थी कि नए बँगले में टाईल्सें लगाई जाएँ। उसने जब से डा. राजुरकर का बँगला देखा था, तभी से वह मेरे पीछे पड़ी थी। उस समय ”देखा जाएगा” कह कर मैंने बात टाल दी थी। पर जाहिर था कि अब दस हजार मिलते देख कर कमला अपनी इच्छा को पूरा करने का अवसर खोना नहीं चाहेगी। उस की इच्छाओं आकांक्षाओं को पूरा करना मेरा कत्र्तव्य था। मैं विशाल का भी दिल नहीं तोड़ना चाहता था। अपनों को आहत करके किसी अपरिचित के लाभ की बात मुझे नहीं जँच रही थी। सोमेश्वर की बात को मैंने दिल से निकाल देना चाहा। सोमेश्वर जैसे हजारों लोग इस दुनिया में पड़े हैं। सोमेश्वर क्यों, उस से भी गिरी अवस्था के लोग हैं। आखिर इन्सान किस-किस की चिंता कर सकता है? और फिर मेरे चिंता करने से होने वाला क्या है? यही सब सोचते सोचते मैं सो गया।
दूसरे दिन शाम को सोमेश्वर के आने की बात थी। मैं उसका सामना नहीं करना चाहता था। सोचा, शाम को कहीं चल दूँगा, कमला आप ही निबट लेगी। लेकिन मेरे बाहर निकलने से पूर्व ही वह आ टपका।
मैं मन को दृढ़ करते हुए उस के सामने गया। आशा की हलकी सी किरण से उसका मुख दमक रहा था।
”क्या सोचा आप ने ?” उसका उम्मीद भरा स्वर मेरे कानों से टकराया।
“बात यह है कि उस मकान को लोग पैंतालीस हजार में खरीदने को तैयार हैं। ठेकेदार रामसहाय को शायद आप जानते होंगे, उन्हींने पैंतालीस हजार की पेशकष की है।
सोमेश्वर हत्प्रद हो गया, ”रामसहाय जी तो मेरे पड़ोस में ही रहते हैं, उन्हें न जानने का तो प्रश्न ही नहीं है। पर श्रीमानजी, वह बड़े आदमी हैं, उनके लिए पाँच दस हजार क्या चीज है?”
”पर, भई, मुझे तो पैसों से मतलब है। जो ज्यादा पैसा देगा, उसी को आखिर मैं अपना मकान बेचूँगा”।
”वह तो ठीक है, श्रीमानजी...।” कहते-कहते वह रुक गया। वह सोच में डूब गया क्षण भर में ही उस के मुख की कांति ओझल हो गई।
मैं उस की ओर देख नहीं पाया। अखबार हाथ में ले कर नजरें उस पर गड़ा दीं।
“अच्छा श्रीमान जी, तो मैं चलूँ।” -वह आहिस्ता से हाथ जोड़ कर बोला। ”अच्छा,” कह कर मैं भी उठ खड़ा हुआ। फिर भी मेरी नजरें सोमेश्वर का पीछा करती रहीं। मैं अनन्यमनस्क सा हो कर बाहर निकल आया। मैंने देखा, दूर सड़क पर सोमेश्वर पैरों को घसीटता हुआ चला जा रहा है।
अचानक ही दो कुत्तों के भौंकने की आवाज से मैं चौंक पड़ा। डाॅ. आनंद के कुत्ते टोनी के सामने कोई सूखी रोटियाँ डाल गया था। लेकिन उन रोटियों पर एक दूसरे कुत्ते की नजर पड़ चुकी थी। उसने गुर्रा कर टोनी का आहार चट कर लिया। टोनी बेचारा भौंकता रहा। मुझे एहसास हुआ कि यही पशुवृत्ति मनुष्य में भी है। पैसे वालों की महत्त्वाकांक्षाएँ गरीबों की मूलभूत आवश्यकताओं को शायद इसी तरह लील जाती हैं।
हम लोग भोजन कर ही रहे थे कि अचानक दरवाजे पर लगी घंटी बज उठी ।
”कोई रामसहाय साहब आए हैं” राघव ने आकर सूचना दी।
विशाल किसी तरह मुँह का कौर पानी से निगल कर बाहर भागा। कमला ने भी जल्दी से हाथ धोते हुए कहा,- ”चलिए, वह आ गए। भोजन बाद में आराम से करेंगे।
भोजन अधूरा ही छोड़ कर मैं बैठक में आ गया। रामसहाय सोफे पर बैठे थे। लगभग 50-52 बरस की उम्र होगी, पर इस उम्र में भी उनका गोरा रंग दमक रहा था। सरकारी निर्माण कार्यो में उन के द्वारा किए गए घपलों की चर्चा मैंने कई बार समाचार पत्रों में पढ़ी थी। प्रत्यक्ष रूप से उन्हें देखने का मेरा प्रथम अवसर था।
बड़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। रामसहाय सरकार तक अपनी पहुँच, व्यावसायिक सफलता और समष्द्धि के विषय में बताते रहे। कमला और विशाल मंत्रमुग्ध हो कर उन की ओर देख रहे थे। और मैं सोच रहा था कि सभ्य समाज में वार्तालाप का क्या यही विषय रह गया है।
रामसहाय ने उठते हुए कहा-”अच्छा भाई साहब, तो पैंतालीस हजार में तय रहा, आपके मकान का सौदा।
”आप तो एक और से बात कर चुके थे। रात को विशाल आप का संदेश ले कर आया। बड़ी मुश्किल से तैयार हुए यह, उसे न करने के लिए,”- कमला ने बताया।
”मैं दस हजार ज्यादा भी तो दे रहा हूँ न।”-रामसहाय भला क्यों हार मानते।
कमला ने जो बात सौजन्यता वश कही थी, वह अंत में उनका ओछापन सिद्ध कर गई। शायद यह बात कमला के भी ध्यान में तुरंत आ गई। परंतु तीर तरकस से निकल चुका था। वह धीमे से ‘हूँ’ कह कर चुप हो गई।
”राम सहाय जी, आप क्या करेंगे उस मकान का ? आप के रहने योग्य तो वह है नहीं,” सहसा मैं पूछ बैठा।
”आप ने शायद मेरा बँगला नहीं देखा। सेठ द्वारकाप्रसाद के बाद शहर में कोई शानदार बँगला है तो वह मेरा ही है। पैसा है, तो खरीद लेता हूँ। थोड़ा ठीक-ठाक करवा कर निकाल दूँगा। कुछ न कुछ दे कर ही जाएगा।”
एकाएक मेरी आँखों के सामने से धुंध छट गई। मन हुआ कह दूँ, सोमेश्वर आश्रय खोज रहा है और आप व्यापार की बात सोच रहे हैं। खूब पड़ोसी धर्म निभा रहे हैं, आप। पर कहा सिर्फ यही- “लेकिन वह मकान मैं सोमेश्वर को ही बेचना चाहता हूँ।”
”मैं तो सोमेश्वर से दस हजार अधिक दे रहा हूँ।” रामसहाय के गर्व ने हार नहीं मानी।
”रुपया ही तो सब कुछ नहीं है, रामसहाय जी। मनुष्यता भी कोई चीज है, मुझे क्षमा कीजिए” मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए।
रामसहाय आवाक् मुझे देखने लगे। विशाल भी स्तब्ध था, पर कमला के मुख पर कोई असंतोष नहीं दिखाई दिया। दोनों की जीत जो हो चुकी थी।
सरोज दुबे
(प्रकाशित-सरिता अक्टूबर 1983)