जीवन की भोर
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
विजय कुमार अपने कार्यालय की जिस शाखा में गये, उस कार्यालय के होकर रह जाते थे। काफी लगन से काम करते थे, इसलिए उन्हें मैनेजमेंट अपनी कमजोर शाखाओं में ट्रान्सफर करके अक्सर भेजती रहती ताकि उस शाखा की गाड़ी पटरी में फिर से दौड़ सके। इस वजह से उनको देश के अनेक शहरों में रहने का अवसर मिला। वे अपने गृह नगर से सदा दूर ही रहे। अपनी नौकरी के दौरान उन्हांेने अपने चारों बच्चों की शादी भी कर दी थी। उनकी गृहस्थी बसा कर वे बड़े खुश थे। उनके अपने गृह नगर में केवल एक बड़ा बेटा भर रह रहा था। बाकी तीन बच्चे शहर के बाहर थे, उनमें से एक बेटी दूसरे शहर में अपने ससुराल में मग्न थी बाकी दो अन्य शहरों में। उनके छोटे से परिवार की यही एक कहानी थी। पति पत्नी दोनों को अपने जीवन यापन के लिए पेंशन तो थी ही। उनके लड़कों ने अपनी घर गृहस्थी की अपनी एक अलग दुनिया बसा ली थी। जिसमें वे सब अपने आप में मग्न थे। उनकी स्वतंत्रता में अभी तक माँ बाप की दखलंदाजी बिल्कुल भी न थी।
विजय कुमार को सरकारी कार्यालय में अपने जीवन के पैंतीस वर्ष गुजारने के बाद आज ससम्मान बिदाई दी जा रही थी। कार्यालय के सभी कर्मचारी उनकी बिदाई समारोह में उपस्थित थे। यहाँ तक कि अक्सर अवकाश में रहने वाला राम लाल भी आज कार्यालय आ पहँंुचा था। सभी ने उन्हें फूलों की मालाओं से लाद दिया था। उनके साथी गण बिदाई समारोह में अपनी स्मृतियों को कुरेद कुरेद कर विजय कुमार के संग बिताए पलों को याद कर रहे थे। कुछ अपनी गल्तियों पर उनसे निश्चल भाव से आज क्षमा माँग रहे थे। कुछ अपनी अन्तर्मन की संवेदनाओं को अभिव्यक्ति करते हुए अपनी आँखों से अश्रु बहाते नजर आ रहे थे। जो मित्र सदा अपने को भाषण कला में निपुण समझते थे, उनके मुख से तो बोल भी नहीं फूट पा रहे थे और रूँधे गले से वाचाल हो अपने स्थान पर बैठ कर रह गये थे। ऐसे सरल स्वभाव के धनी विजय कुमार की बिदाई का जो अवसर था।
विजय कुमार से कार्यालय के चपरासी से लेकर बड़े से बड़े अधिकारी तक खुश रहते थे। गीता के कर्म को विजय कुमार ने पूर्ण रूप से आत्मसात कर लिया था। वह हर की मदद को सदैव तत्पर रहते। ऐसे मित्र के विछोह से भला किसका दिल नहीं दुखेगा। सर्विस से रिटायर होना भी प्रत्येक कर्मचारी के जीवन का एक सत्य है। जो सभी कर्मचारियों के जीवन में एक बार आता ही है। आभार प्रदर्शन के साथ बिदाई की रश्म अदायगी सम्पन्न हुई। सभी ने विजय कुमार को उनके साठ साल के शानदार समय गुजारने पर बधाई दी।
रिटायर होने के बाद विजय कुमार अपने घर में आकर रहने लगे। वर्षों से उनने अपने रिटायरमेंट की कल्पना संजोए रखी थी। अपने परिवार के साथ नाती पातों के बीच ज्यादा से ज्यादा खुशियों के पल बाँटने का सपना पाल रखा था। जिसके लिए वे अपने नौकरी के दिनों में बहुत तरसा करते थे। उनका अपना घर उन्हें सपनों में आ आकर बुलाता नजर आता था। उनके अपने घर में आने के बाद बेटे की दुनिया कुछ सिमिट सी गयी थी। जिससे बेटे पर तो नहीं उनकी बड़ी बहू पर कुछ ज्यादा असर पड़ा था। उसके कार्य क्षेत्र में कुछ बदलाव अवश्य हो गया था। सास ससुर की जुम्मेदारी जो उस पर आ पड़ी थी। ससुर तो ठीक है किन्तु सास तो उसे ऐसा लगता कि जैसे वह उसके सिर पर ही बैठी हो। उसके मन के कोने में दबी कुशंकाओं और किस्से कहानियों ने तो उसकी नींद बहुत पहले ही उड़ा रखी थी।
अपनी ही दुनियाँ में जीने वालों के लिए निस्संदेह ऐसा आगमन पीड़ा दायक तो रहता है। चाहे वह बाहर वालों के लिए कितना भी बड़ा सहृदय व्यक्ति क्यों न रहा हो। वह अपनें जीवन में कितना भी बड़ा कर्मयोगी क्यों न रहा हो। दुनियाँ में उसका कितना भी बड़ा नाम क्यों न रहा हो। अधिकारों और कर्तव्यों के झंझावातों में उलझा हर मानव अपने मन की आशंकाओं और कुशंकाओं की भूल भुलईयों में उलझ कर रह जाता है। वह यह भी भूल जाता है कि उसके पिता के घर से कभी यही सास- ससुर उसकी डोली को शहनाई के धुनों के बीच कंधे पर उठा कर लाये थे। उसका पति भी आखिर उन्हीं का तो बेटा है। जो बचपन से उनकी गोद में खेल कर बड़ा हुआ है। उस पर पहले तो उनका कुछ हक होगा। किन्तु लोग इस दिशा में कम ही सोच पाते हैं, उनकी नजर में तो हर पिता का यही कर्तव्य होता है। और सभी पिता यही करते हैं, इसमें सोचने के लिए कोई नयी बात नहीं। यही बात दोनों पक्षों पर भी लागू होती है।
वैसे कहने को तो उनके बेटे की घर गृहस्थी में दो ही प्राणी का पदार्पण हुआ था। पर उनका कार्य तो बढ़ ही गया था। पहिले घर में कुछ भी बना कर पेट भर लिया जाता था। ज्यादा परेशानी हुई तो होटल में जाकर कुछ खा लिया। अब सुबह शाम का खाना बनना तय है। यह बात बड़ी बहू सरोज को आभास हो गया था। उसने अपने पति विकास पर दबाव बनाना पहले से चालू कर दिया कि ‘अम्मा और बाबू जी के आने से घर का काम बढ़ जाएगा। अतः घर में एक काम करने वाली बाई की आवश्यकता पड़ेगी। जो बर्तन, झाड़ू, पोंछा और घर के कपड़ों की धुलाई भी कर सके।’
हालाकि घर में वाॅसिंग मशीन थी। पर उसे भी तो आपरेट करना होता है। कपड़ों की कालर से मैल छुटाना और उन्हें निचोड़ना होता है। विकास ने सरोज की बात मान कर एक बाई को मासिक वेतन पर रख लिया। वह घर में पोंछा लगाने, जूठे बर्तनों को माँजने के साथ ही उसके और बच्चों के कपड़ों की धुलाई भी करने लगी।
जो व्यक्ति सभी कार्य अपने हाथों से करता आया हो, उसे ओरों का कार्य कभी पसंद नहीं आता। बाई के हर काम के समय सरोज का उसके आगे पीछे घूमने में ही गुजर जाता। इससे प्रतिदिन समय का अभाव सरोज को फिर खलने लगा। फिर क्या था, उसने विकास पर दबाब बनाया कि उसे जरा भी समय आराम के लिए नहीं बचता। दिन भर भाग दौड़ करती करती, वह थक जाती है। क्यों न अब खाना बनाने वाली बाई को रख लिया जाए। जिससे हमें अपने बच्चों का होम वर्क करवाने के लिए कुछ समय मिल सकेगा। हर माँ बाप अपने बच्चों के भविष्य के प्रति ज्यादा सतर्क रहते हैं, विकास को भी उचित लगा। उसने सरोज की बात पर सहमति दिखाई।
रसोई के लिए खाना बनाने वाली बाई को भी रख लिया गया। किन्तु फिर उसके खाने बनाते समय किचिन में खड़े होकर उसका काम देखना कि वह खाना सही बना रही है या नहीं। उसके सामने फिर वही निगरानी और समय का अभाव की समस्या आ खड़ी हुई। ऐसा भी नहीं था कि उसके सास ससुर घर पर बैठकर आराम ही करते थे। वे अपने कार्य सब अपने हाथों से ही करते थे। साथ ही उनकी घर गृहस्थी में भी हाथ बटाते रहते थे ताकि उनके आगमन की वजह से किसी पर ज्यादा भार न पड़े। पर मानसिक सोच की बीमार से ग्रसित मानव का क्या किया जा सकता है।
विजय कुमार को अपने सभी सुनहरे सपने डूबते नजर आ रहे थे। उसे अपने पुराने दिन ही सुनहरे दिखाई देने लगे थे। काश कभी रिटायरमेंट का दिन न आता तो कितना अच्छा होता। अपनों के साथ समय गुजारने के मोह ने उसके सभी सपनों को चकनाचूर कर दिया था। वह देख रहा था कि सभी के चेहरे से खुशियाँ गायब हो चुकी थीं।
इसके बावजूद भी वह काफी आशावान व्यक्ति था। उसका मानना था कि व्यक्ति को अच्छे दिनों की आस कभी नहीं छोड़ना चाहिए। ऐसी घड़ी में भी हर इंसान को एक नई भोर की उम्मीद सदा जगाए रखना चाहिए। यही सोच लेकर विजय कुमार अपने जीवन की संध्या बेला में एक नई भोर की आस लगाए बैठे थे।
एक दिन रात में विजय कुमार टी वी में समाचार देखकर बैठक रूम से अपने बैड रूम की ओर सोने जा रहे थे। कि रास्ते में बेटे बहू के बैडरूम से जोर जोर से वार्तालाप की आवाज सुनाई दे रही थी। जिसे सुनकर वह कुछ समय के लिए ठिठक गया। उसने क्षण भर रूक कर सुना बेटा बहू को समझा रहा था। बहू अपने ढंग से पति को समझा रही थी कि- “देखो तुम्हारा छोटा भाई कितने आराम से दूसरे शहर में रहकर अपनी मिसेज के साथ ऐश से रह रहा है। और इधर मैं, रात दिन काम करके मरी जा रही हूँ। अब मुझसे नहीं होता। अब होटल से सबके लिए खाना मंगवा लिया करो.... मैं किस किस बाई के पीछे पड़कर दिन भर काम करवाती रहूँगी। सुबह से शाम मेरा इसी में समय गुजर जाता है। बहुत थक जाती हूँ और पल दो पल आराम करने को भी नहीं मिल पाता। समझे....”
विजय कुमार सुनकर आवाक् रह गये। उनके सभी सुनहरे पल बिखरते नजर आ रहे थे। उनकी कर्मठता त्याग तपस्या प्रेम सभी उसके ही अपने घर में उनका उपहास उड़ाते नजर आ रहे थे। वह चुपचाप शांत अपने बैडरूम में आये। आँख बंद कर लेट गये। बगल में सोई पत्नी को देखा, जो इन सब बातों से बेफिक्र गहरी नींद में सो रही थी। आँख बंद कर वह अपने जीवन का लेखा जोखा लगाते रहे। इस गृहस्थी में दोनों ने छोटे बड़े कार्यों को करके अपने पिता से बचत का पाठ पढ़ा। इन्हीं बच्चों के सुनहले भविष्य खातिर अपने सभी सुखों को न्यौछावर कर दिया था। इतना सब करने के बाद भी वह अपने ही घर में आज अपने आप को लाचार पा रहे थे। वह तो अच्छा था कि सरकारी नौकरी से रिटायरमेन्ट के बाद भी कुछ पेंशन मिलती है। उसने अपनी आँखों की कोरों से छलके आँसुओं को पौंछा और कुछ दृढ़ निश्चय किया। रात की बात को वह सुबह होते ही भूल गया था।
उनको अपने जीवन की सच्चाई का अहसास हो चुका था। सुबह होते ही उसने बेटे बहू से तीर्थयात्रा पर जाने की बात बतलाई। इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी। उन्होंने सभी से तीर्थयात्रा की योजना पर चर्चा की और जोर शोर से तैयारी में जुट भी गये।
घर से निकले विजय कुमार को आज पाँच साल हो गये थे। दोनों नए शहर में किराए का मकान लेकर बड़े आराम से रह रहे थे। न किसी बात की चिन्ता थी न किसी बात का गम। अब दोनों के पास अपने लिए समय ही समय था। क्या यह विजय कुमार की समस्या पर विजय थी या पराजय। वह आज भी इसमें नहीं उलझा। वह तो इतना जानता था कि यह उसके नए जीवन की भोर थी। उसे अहसास हो गया था। जीवन की यह भी एक कड़वी सच्चाई है। जो कभी न कभी जीवन में आती है। व्यक्ति को इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए .........
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”