कागज के फूल
सरोज दुबे
सरोज दुबे
उसकी मिनमिनाहट पता नहीं कहाँ खो गई थी। वह बड़े जोष से नेता की तरह भाषण दे रहा था- ”इतने लोग नकल करते
हैं, आप उन्हें क्यों नहीं रोकते सर!”
”नियम सभी परीक्षार्थियों के लिये एक जैसे हैं। विजय तुम पुस्तक लिये बैठे थे! आईंदा इस प्रकार की बात हुई, तो रॅस्टिकेट कर दिया जाओगे।” उन्होंने संयत स्वर में कहा।
”पिछले साल प्रिन्सिपल के लड़के को पूरा पेपर लेक्चरारों ने बताया था। मल्होत्रा सर की बीवी ने सब पेपरों में नकल की । तब आपने क्या किया सर?”-उसके स्वर में रोष था।
”दुनिया के सब लोग क्या करते हैं, यह मुझे नहीं मालूम। न ही मैं दूसरों के कार्यों का जिम्मेदार हूँ। इस बार मैं एक्जाम कंडेक्टर हूँ और इस तरह की बातें मुझे पसंद नहीं हैं”- वे बोले।
रहने दीजिये, सर रूम नम्बर नौ में खुद इन्विजिलेटर ने लड़कों को नकल करवाई है”- एक दूसरे लड़के ने कहा।
”ठीक है, मैं कल देखूँगा।”
देखने-वेखने की कोई जरूरत नहीं है, सर! बस आप चुप रहिये हम खुद निपट लेंगे” - वह बोला।
”नहीं...नहीं! यह ठीक बात नहीं है। मेहनत करो और ईमानदारी से परीक्षा दो। इस प्रकार की बातों से कोई अच्छा भविष्य नहीं बन सकता”।
वैसे भी कौन-सा अच्छा भविष्य बनना है, सर डिग्रियाँ ले लेकर भी तो नौकरी नहीं मिलती। डिग्री तो बस शोभा बढ़ाने की चीज रह गई है। पढ़ रहें हैंकृटाईम पास करने के लिये सर।” उसके साथी लड़के ने कहा।
‘’बड़े लोगों के लड़कांे को कोई नहीं पकड़ता, सर यहाँ दाल नहीं गली तो वे वैल्यूअर से नम्बर बढ़वा लेंगे। वहाँ भी नहीं जमा तो यूनिवर्सिटी वाले तो हैं ही।” उसने फिर अपनी शिकायत दोहराई।
उसकी बात सच थी। उन्हें ऐसी कई घटनाओं की जानकारी थी। षिक्षा संस्थाओं की ईमानदारी और पवित्रता का मखौल उड़ा रहा था वह लड़का। वे खड़े हुये चुपचाप उसकी बातें सुन रहे थे। लेकिन दूसरे क्षण उनका मन स्थिर हो गया-“संसार” में सब कुछ होता है। पर इसका अर्थ यह नहीं हैं कि जो गलत हो रहा है, हम उसी का अनुकरण करें। हजारों विद्यार्थी ऐसे हैं, जो मेहनत से पढ़कर पास होते हैं” - उन्होंने कहा।
”मेहनत तो तब करें सर, जब कुछ भविष्य दिखाई दे। अपुन को तो किसी तरह डिग्री लेना है, बस! फिर बाप का धंधा सम्हालेंगे।” उसके साथी ने ढिठाई से कहा। उन्होंने देखा बात ज्यादा ही बढ़ती जा रही है, सो निर्णय के स्वर में बोले- “तुम लोगों को समझा देना मेरा काम था। अब कल मेरे पास शिकायत आई, तो ठीक बात नहीं होगी।” और वे चल दिये।
“न होने दीजिये! ”-पीछे से किसी लड़के ने कहा।
“कितने उद्दण्ड हो गये हैं लड़के !”- उन्होंने मन में सोचा।
परीक्षा आरंभ होने को दो ही दिन हुये थे। पर नकल करने की सैकड़ों शिकायतें आ रही थीं। कल प्रोफेसर अवस्थी ने एक ही कमरे के विद्यार्थियों से एक टोकरी कागज निकलवाया था। नकल होती है, ये वे जानते थे, लेकिन इतने बड़े पैमाने पर नकल होती होगी, इसकी कल्पना उन्हें नहीं थी।
कल अंग्रेजी पेपर के दिन लड़कों की इतनी भीड़ थी कि वे देखकर घबरा गये। सच में क्या इतने परीक्षार्थी हैं! बाद में उनके एक साथी प्राध्यापक ने बताया- ”घबराओ मत गुरू, इन लड़कों में से तीन चौथाई इन परीक्षार्थियों की सहायता करेंगे। वैसे इन सहायकों में से अधिकांश फेल्यूअर हैं”।
इधर कई वर्षों से उन्होंने इन्विजिलेशन नहीं किया था। उन्हें लगा इतने वर्षों में काफी फर्क पड़ चुका है। परीक्षा शुरू होने के बाद वे राउंड पर निकले। कॉलेज के कमरों से थोड़ी दूरी पर धूप में तपता हुआ लड़कों का हुजूम खड़ा था। वहाँ से बीच-बीच में आवाजें कसी जा रही थीं। पत्थरों में बाँधकर कुछ कागज भी फेंके गये थे। अचानक एक लड़का पता नहीं कैसे दूसरी मंजिल की खिड़की पर पहुँच गया। सेंटर पर नियुक्त सिपाही उसे पकड़ने दौड़ा लेकिन लड़का फुर्ती से उतर गया। “ऐसे लड़कों को तो सरकस में भर्ती हो जाना चाहिये।” -वे बोले।
सरकस में तो ये क्या जाएँगे साब! समाज में ही उत्पात मचाते रहेंगे। हुल्लड़ करने के लिये जमा हो गये हैं, यहाँ मन बहलाने के लिये अच्छा अवसर मिला है, इन्हें।”-कॉलेज का क्लर्क कह रहा था।
उन्हें याद आया, वैभव और षालिनी भी तो इसी कॉलेज में पढ़ते थे। नकल-वकल की बात उन लोगों को कभी सूझी ही नहीं। न उन्होंने ही कभी बच्चों की इस तरह उन्नति चाही। पर एक्जाम कंडक्टर बनने के बाद तो वे यह महसूस कर रहे थे कि बच्चों के माता-पिता भी इसी मनोवृत्ति के हैं।
पता नहीं दूर-दराज के रिश्तेदारों और परिचित- अपरिचित लोगों में यह बात कैसे फैल गई कि वे अमुक कालेज में परीक्षा कंडेक्ट करने वाले हैं। एकाएक घर में आने वालों का ताँता लग गया। वे परेशान थे कि लोग उनसे कैसी सहायता चाहते हैं। यदि परीक्षा की व्यवस्था करने वाला खुद ही परीक्षार्थियों को नकल करने की छूट दे दे, तो परीक्षा का अर्थ ही क्या है, भला !
एक सज्जन उनसे यह आग्रह करने आये थे कि उनकी बहन का रोल नम्बर खिड़की के पास लगाया जाय।
“आपकी बहन अस्वस्थ हैं क्या?” उन्होंने पूछा था।
”हूँ... हूँ...!” सज्जन मुस्कुराये थे। मैं कोशिश करूँगा। आप रोल नम्बर दे जाईये।” उन्होंने किसी तरह टाला।
बाद में वैभव ने उन्हें समझाया था- ”पापा, इन महाशय की बहन बीमार-वीमार नहीं हैं। बहन खिड़की के पास बैठेगी तो नकल करवाने में सुविधा रहेगी।”
वैभव की बात सुनकर उन्हें उन महाशय की मुस्कराहट का राज समझ में आया।
दिन में पत्नी का आराम करना मुश्किल हो गया था। जाने कहाँ-कहाँ के परिचित और अपरिचित लोग उन्हें पूछते हुये आते। कुछ लोगों ने तो सेंटर तक आने की भी हिम्मत की थी। ज्यादातर लोग उनसे वैल्यूअरों के पते जानना चाहते थे। उन्हें आश्चर्य था कि ऐसे लोगों में अधिकांश लोग प्रतिष्ठित सुशिक्षित और संभ्रान्त परिवार के थे। परीक्षा आरंभ होने के कुछ दिन पूर्व एक सज्जन आये थे।
इधर-उधर की चर्चा करने के बाद धीरे से बोले-”बड़ा बच्चा आप ही के कालेज से बैठ रहा है। ट्यूशन बगैरह तो सब लगा दिया था। पर वह कहता है, मुझे याद ही नहीं होता। तब आप ही सम्हालियेगा” इतना कहकर वे दाँत निपोर कर हँस दिये। लेकिन उन्हें हँसी नहीं आ सकी। बहुत गुस्सा आया। मन तो हुआ ऐसे व्यक्ति को अभी घर से निकाल दें। कैसे-मूर्ख लोग हैं।
और आज विजय की शिकायत आई थी। वह बी.ए. में उनका विद्यार्थी था। कई बार पुस्तकें माँगने घर आ चुका था। झेंपू और दब्बू किस्म का लड़का था वह। उसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। चैक पर कई बार उन्होंने उसे लड़कों के साथ पान-खाते देखा था। चुनाव के समय भी उन्होंने उसे प्रचार कार्य करते देखा था। परन्तु वह नकल-वकल भी कर सकता है, उन्हें विश्वास नहीं था।
पेपर छूटने को लगभग बीस मिनिट शेष थे कि चपरासी ने आकर सूचना दी-” साब, रूम नम्बर चार में एक लड़का बहुत उपद्रव कर रहा है।” वे तुरंत रूम नम्बर चार में गये। उन्हें यह देखकर फिर विस्मय हुआ कि उपद्रव करने वाला लड़का विजय ही था। रूम नम्बर चार के इन्विजिलेटर बड़वाइक का कहना था कि विजय बहुत सारे नकल कागज लिये बैठा था। कागज माँगने पर भी उसने दिये नहीं। सीधे गाली-गलौच और हाथापाई पर उतर आया। विजय का चेहरा क्रोध से तमतमाया हुआ था। वह इन्विजिलेटर उसका मुँह ही देखता रहा गया। वे क्रोध से लाल हो गये- ”तुम्हारी यह हिम्मत! कल से परीक्षा देने नहीं बैठ सकोगे समझे! अपनी नेतागिरी कहीं और दिखाना। परीक्षा देनी है, तो तरीके से दो। लास्ट वार्निग दे रहा हूँ तुम्हें! और वे तेजी से लौट आये।
पेपर छूट चुका था। वे अपने कार्यों में व्यस्त थे तभी विजय ने बाहर से आवाज दी- “सर, एक मिनिट! वे उठकर बाहर आये। लड़कों से घिरा वह सामने ही खड़ा था।
“सर, आप क्या यह सोचते हैं कि मैं आपसे डरता हूँ ? मैं किसी से नहीं डरता। प्रिन्सिपल से नहीं, पुलिस वालों से नहीं, किसी से भी नहीं। सब तो नकल करते हैं। हम पर क्यों रुआब गाँठा जा रहा है। मैं देखता हूँ, मुझे कौन रोकता है”। उसके स्वर में लेष मात्र नम्रता नहीं थी।
”चुपचाप जाकर अपना काम करो। मूर्खतापूर्ण बकवास सुनने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है।” इतना कहकर वे चलने को हुये। तब उसने उन्हें रोकते हुये कहा-”सुनिये सर, आपने एक बार मेरी फीस भरी थी। उसका आप अहसान जता रहे होंगे। ये लीजिये, सर अपने पैसे! उसने जेब से बहुत से नोट निकालकर हवा में उछाल दिये। उसके साथी आपस में मसखरी करते हुये नोट बीनने लगे।
उन्होंने कभी विजय की फीस भरी थी, इस बात को वे भूल चुके थे। आज विजय सरेआम उस उपकार का बदला चुका रहा था। कॉलेज के अनेक लेक्चरार खडे़ तमाशा देख रहे थे।
”जिस दिन मैंने तुम्हारी फीस भरी थी। उस दिन तुम्हारे लिये रुपये का जो मूल्य था, उसकी कीमत तुम जिंदगी भर अदा नहीं कर सकते। अपनी षराफत का प्रदर्शन कालेज के बाहर जा कर करो”-उन्होंने विचलित हुये बिना कहा और आॅफिस में आ बैठे। बाहर नारों की आवाजों से वातावरण गूँज रहा था।
यद्यपि ऊपर से वे शांत प्रतीत होते थे। पर भीतर-ही-भीतर वे बहुत क्षुब्ध थे। उनके दिमाग में विजय की ही बात घूम रही थी। जिस लड़के के मुँह से आवाज नहीं निकलती थी, वह लड़का इतना उद्ण्ड कैसे हो गया? क्या सचमुच पैसा मनुष्य के मानसिक संतुलन को इतना प्रभावित करता है? इतनी अधिक तीव्र होती है, दौलत की चमकार!
सेंटर का काम खत्म होने के बाद वे सीधे प्रिन्सिपल के बँगले पर गये। उन्होंने संक्षेप में उन्हें सारी घटनाओं की जानकारी दी। उनकी बात सुनकर प्रिन्सिपल मूछों में मुस्कराये फिर गंभीरता से बोले-”वर्माजी, आज के जमाने में ईमानदारी और नियम ही सब कुछ नहीं हैं। मनुष्य में लचीलापन होना भी बहुत जरूरी है। जब कठोरता से काम न चलता दिखे, तो नरमी बरतनी चाहिये। शायद आप नहीं जानते, वह लड़का सत्ताधारी दल की युवक षाखा का अध्यक्ष है। विदेषी षराब की दो-दो दुकानों का मालिक है। शहर की पाॅलिटिक्स को भी ध्यान में रखनी चाहिए। मेरे पास पहले ही सारी सूचना आ चुकी थी। मैं आपको बुलवाने ही वाला था।”
“किसी के लीडर होने या षराब की दुकानों के मालिक होने से हमें क्या मतलब है, सर ! शहर के पाॅलिटिक्स को देखकर हम यह तो नहीं कह सकते कि कुछ लोगों को नकल करने की छूट दे दें और कुछ को नकल करने के अपराध में रॅस्टिकेट करवा दें। यह तो बड़ी अन्यायपूर्ण बात होगी।” -उन्होंने कहा।
“न्याय-अन्याय की बात नहीं है, मिस्टर वर्मा। बात व्यवस्था की है, जो लोग दब सकते हैं, उन्हें अनुचित कार्य करने से रोक दो। परन्तु जिन्हें रोकना मुश्किल दिखे, उनके कार्यों को निग्लेक्ट कर दो। आप देखते हैं कि बहुत बार आग्रह करने पर भी दो सिपाही सेंटर पर उपस्थित रहते हैं। आप सोचिये, यदि विजय जैसे लड़कों ने उपद्रव किया तो सेंटर की सारी व्यवस्था गड़बड़ा जायेगी। तब दूसरे विद्यार्थियों की कितनी हानि होगी?
“व्यवहारिक दृष्टि से शायद आपकी बात सही हो, सर, परंतु मैं दूसरी विचारधारा का व्यक्ति हूँ। अच्छा हो सेंटर के लिये आप किसी दूसरे व्यक्ति को नियुक्त कर दें।
”नहीं...नहीं वर्मा जी, आप तो बुरा मान गये” प्रिन्सिपल ने स्नेह से उनके कंधे पर हाथ रखा। ”यह तो बहुत मामूली-सी बात है। सेंटर चलाने में आपको परेशानी न हो सिर्फ इसीलिये मैंने आपको यह सलाह दी। आप कल से नार्डीकर को विजय के रूम में नियुक्त कर दीजिये।”
रात को बड़ी देर तक उन्हें नींद नहीं आई। जीवन के शाश्वत मूल्य- मापदंड क्या इतनी तेजी से बदलते जा रहे हैं? जिस देश में षराब बंदी के लिये सारे देशवासियों ने आंदोलन किया था- महिलाओं तक ने दुकानों पर धरना दिया था। उस देश में षराब की दुकानों का स्वामी होना गौरव की बात समझी जाने लगी। पूरे चालीस वर्ष भी तो नहीं बीते इन बातों को! ऐसी बातें सोचते -सोचते उन्हें कब नींद आ गई पता नहीं चला।
दूसरे दिन उन्होंने नार्डीकर को विजय के कमरे में नियुक्त कर दिया। कुछ लेक्चरारों को उन्होंने यह कहते सुना-” भैया, अपने हाथ-पैर तुड़वाने हैं! करने दो सालों को नकल! नकल करने में भी तो अकल लगती है।” उन्हांेने कोई टिप्पणी नहीं की किसी तरह परीक्षा निपटा देना ही उनका उद्देश्य रह गया था। फिर छोटी मोटी घटनाओं को छोड़कर कोई विशेष बात नहीं हुई। परीक्षा शांति से निपट गई।
छुट्टियों के बाद कॉलेज खुले दो दिन हुये थे। प्राध्यापक सुबह आते, दस्तखत करते, गप्प मारते और वापस लौट जाते। उस दिन वे सुबह कॉलेज पहुँचे तो चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। ” आज अभी तक कोई नहीं आया! ”-उन्होंने मन-ही-मन कहा तभी चपरासी ने पूछा -”साब, आप नहीं गये ?”
”कहाँ?- कॉलेज में अभी तक कोई नहीं आया है?”
सब लोग विजय पेटकर के नये मकान में गये हैं। वहाँ खाना-पीना है, आज बहुत दूर वर्धा रोड पर उसने बँगला बनवाया है, साब! उसने सबेरे ही गांधी चौक पर दो गाड़ियाँ लगवा दी थीं। सब लोग जल्दी से दस्तखत करके चले गये आप नहीं गये, साब?
”नहीं”- उन्होंने अनन्यमनस्क भाव से कहा।
”जाईये न साब, खाने-पीने का बढ़िया इंतजाम है”
उन्होंने धीरे से ”हूँ” कहा और दस्तखत करके चले आये।
पत्नी रसोई में लगी हुई है। वे असमय ही अपने कमरे मेंआकर लेट जाते हैं। मन जाने क्यों उदास है। इतने पढ़े-लिखे सुशिक्षित समाज के ये लोग दारू और मटन के लिये कहीं भी चले जाते हैं। जिस वर्ग के व्यक्तियों को उनकी बौद्धिकता के कारण समाज में सम्मान का पात्र समझा जाता है, उसका कोई आदर्श नहीं है? कहाँ गई उसकी गरिमा? कहाँ गया उनका स्वाभिमान? इसी विजय पेटकर ने तो चीखकर बड़वाइक से कहा था- ”तुम दो कौड़ी के लेक्चरार मुझ पर शासन करते हो! और उनके स्वयं के साथ जो कुछ हुआ वह भी तो सब के सामने की ही बात थी।
मेज पर सजे कागज के फूल हवा के झोंके से हिल उठते हैं। उन्हें लगता है, आज का सारा बुद्धिजीवी वर्ग कागज के फूलों की तरह है। कागज के फूलों की भाँति वे अहसास दिलाते हैं कि हम हैं, पर वास्तव में वे ’वे’ नहीं हैं। जो दिखाई देते हैं, उनमें रंग और आकार तो है। परंतु उनमें सुगंध नहीं है- आत्मा नहीं है। हवा फिर तेज हो रही है। कागज के फूल पुनः हिल उठते हैं।
सरोज दुबे
(प्रकाशित-मधुप्रिया अक्टूबर प्रथम 1983)