कबाब में हड्डी
सरोज दुबे
सरोज दुबे
वह धोबी के धुले हुए कपड़े लेकर ऊपर जा रही थी कि उसके कानों में सुनाई दिया-“अम्मा भी हमारे साथ चलेंगी?”
“हाँ, कह तो रही हैं।”
“फिर तो सारा मजा किरकिरा हो जाएगा।”
“वह तो ठीक है, पर उन्हें मना भी तो नहीं किया जा सकता।”
“अच्छा होता जो अहमदनगर ही निकल जाते। ”बहू का स्वर खीज से भरा हुआ था।
शरद ने एक दीर्घ निश्वास खींच कर कहा-“हूँ।”
उसे लगा कि बाकी सीढ़ियाँ अब वह नहीं चढ़ सकेगी। वह
धीरे से उसी सीढ़ी पर बैठ गई।
सुबह ही जब शरद ने अपने कश्मीर जाने की बात कही थी, तब वह कितनी खुश हुई थी। उसने सोचा था, चलो अब उसकी चिर आकांक्षा पूरी होने जा रही है। अपनी खुशी के नषे में वह बेटे शरद का पीला पड़ गया, मुख भी नहीं देख पाई थी।
‘चलो, अच्छा ही हुआ जो उसने दोनों की बातें सुन लीं।’ वह खुद को किसी तरह सम्हाल कर उठी और ऊपर गई। अलमारी में कपड़े रख कर पलंग पर निढाल हो कर लेट गई। सुबह से वह कितनी चुस्ती से काम कर रही थी। कल्पनाओं के कितने ही जाल उसने बुन डाले थे। कितनी ही बातें सोच-सोच कर वह खुश हो रही थी। वह स्कूल से कितने दिनों की छुट्टी लेगी। कौन कौन सी साड़ियांँ साथ ले जाएगी। कौन से गरम कपड़े, कौन सी दवा की शीशियाँ ले कर जाएगी, कौन सा स्वेटर पहन कर जाएगी। यह भी उसने मन ही मन तय कर लिया था, वह अपने साथ कितने पैसे ले जाएगी तथा अपने और मनीषा के लिए क्या क्या खरीद कर लाएगी, यह सब भी वह सोच चुकी थी।
उसके साथ की शिक्षिकाओं में से अभी तक कोई भी कश्मीर नहीं गया थी। श्रीमती रजनीदत्त सुनेगी तो जरूर जल कर राख हो जाएँगी। यही सब सोचते सोचते उस का सारा दिन बीत गया था।
वह अजीब स्त्री थी। उसे गहनों और कपड़ों का शौक न था। फूल उसे बहुत भाते थे। पर भरी जवानी में भी उस ने कभी फूलों से खुद को नहीं सजाया था। उसे यदि किसी बात का शौक था, तो बस घूमने का। वह भी यों ही परिचितों या रिश्तेदारों के घर नहीं,प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण स्थानों को देखने का उसे शौक था। षिल्प तथा स्थापत्यकला के उत्कृश्ट नमूनों विशेष कर दक्षिण भारत के मंदिरों की यात्रा करना उसे अच्छा लगता था। मासूम और खूंखार जंगली जानवरों से भरे जंगलों में घूमने, आकाश को छूते पर्वतों की चोटियों पर चढ़ने, तथा भगवान रामेष्वर के चरणों में लोटते सागर को देखने का भी उसे बहुत शौक था।
लेकिन बचपन से ही उस पर हमेशा जबरदस्त नियंत्रण रहा। मायके में बड़े भाई का शासन था। जब भी कॉलेज की ओर से कोई टोली बाहर जाती, तो साथ जाने की आज्ञा मांगने पर जवाब मिलता- “टोली में लड़कियाँ ही लड़कियाँ हैं यह तो ठीक है, पर क्या अजंता और एलोरा यहीं पास में हैं? चुपचाप घर बैठो। शादी के बाद मनचाहे जितना घूमना हो घूमना।”
पर यहाँ तो पति मिले तो एकदम विपरीत रूचि वाले उन्हें ं सफर करना बड़ा कष्टप्रद लगता। वह अपने दफ्तर से आते तो जैसे तैसे चाय पी कर मित्रों के जमघट में जा समाते। कभी किसी मित्र के घर जाते तो राजनीतिक बहस में ऐसे खो जाते कि समय का उन्हें ध्यान ही नहीं रहता। छुट्टी के दिन कभी फिल्म देख आते या फिर भोजन कर के जो सोते तो शाम के चार बजा देते। ऐसा था, उनका जीवन।
कभी-कभी वह ऊब कर कहती भी- ”चलिए न, कहीं बाहर घूम आएँ”
”घूमने में क्या रखा है? व्यर्थ ही पैसों का नाष, समय का दुरुपयोग और शरीर को कष्ट। इससे तो अच्छा है कि घर के कामकाज के बाद दिन भर आराम करो। यदि घूमना ही है तो नागपुर में ही देखने लायक कई चीजें हैं। अंबाझिरी और महाराजबाग देख आओ। फिर भी मन न भरे तो अजायबघर और सेमेनरी हिल पार्क घूम आओ।
उनकी ये बातें सुन कर वह कुढ़ जाती। फिर वह मेरा चेहरा देखते तो हँस कर कहते, “अच्छा, बाबा, बोनस मिलने दो, अबकी बार जरूर चलेंगे”।
पर जीवन के दिन ऐसे ही बीतते गए। पहले सास-ससुर का भय और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ रहीं,बाद में कभी गरमी, तो कभी सर्दी, कभी वर्षों तो कभी बच्चों की पढ़ाई-यही सब न घूम सकने का बहाना बनते रहे।
एक बार उसने चिढ़ कर कहा था,- ”रहने दीजिए, आप कहीं नहीं ले जाएंगे। जब मेरा बेटा बड़ा होगा तो मुझे खूब घुमाएगा।”
परंतु सपने सपने ही रह गए। अभी दो वर्ष पहले उसने बिटिया मनीषा की और पुत्र शरद की शादियाँ भी कर दी थीं। पति की तो पहले ही मृत्यु हो चुकी थी। सारी जिम्मेदारियांँ उसी ने ही निभाई थीं। अब वह जिम्मेदारियों से निबट कर एकदम खाली-खाली सा महसूस करने लगी थी। विवाह के तुरंत बाद मनीषा ने लिखा था कि वह अपने पति के साथ दक्षिण भारत घूमने जा रही है। मदुरै, पक्षीतीर्थम, तिरुपति तथा मद्रास के मंदिरों के चित्र उस की आँखों के सामने घूम गए थे। लेकिन नव विवाहित दंपती के साथ और वह भी बेटी और दामाद के साथ वह कैसे जा सकती थी?
शरद बेटा ने जब यह समाचार सुना था तो कहा था, ”माँ, हमारे पास पैसा नहीं है, नहीं तो हम भी कश्मीर हो आते।”
वह खुद लड़के लड़की की शादियाँ कर के खाली हो गई थी। पैसा कहाँ से आता? फिर शरद अपनी पत्नी को ले कर अहमद नगर चला गया। मनीषा कुछ दिन मायके रह कर ससुराल चली गई और रह गई वह और उसकी विद्यालय में शिक्षिका की नौकरी।
वैसे एक बार शरद ने कहा था, ”माँ, अब नौकरी रहने भी दो”, फिर उसी ने कुछ सोचकर बोला था कि ”घर पर तुम अकेली कैसे रहोगी?”
“जब तक शरीर चलता है, तब तक कुछ न कुछ करते रहना चाहिए, बेटा।” वैसे उसने यह भी सोचा था कि नौकरी करते रहने से अपनी जरूरतों के लिए दूसरों का मुँह नहीं ताकना पड़ता। ऐसा ही कुछ सोच कर उसने यहीं अकेले रह कर नौकरी करना पसंद किया था।
और एक दिन पहले जब शरद ने कश्मीर जाने की बात कही तो उसने निःसंकोच कहा था, ”बेटे, मुझे भी कश्मीर दिखा दो। बहुत इच्छा है, एक बार कश्मीर देखने की।”
उत्तर में शरद ने धीरे से सिर्फ “अच्छा” ही कहा था। उस के लिए तो वह ’अच्छा’ ही कहना काफी था।
शरद जब इंजीनिरिंग पढ़ रहा था। तभी से वह उसके पीछे लगी थी, ”चलो, बेटे, कश्मीर घूम आएँ। “लेकिन शरद यही कहता आया था, “अम्मा, तुम अपने स्कूल की शिक्षिकाओं के साथ क्यों नहीं चली जातीं?”
हर वर्ष ही तो स्कूल में कहीं न कहीं जाने का कार्यक्रम बनता, पर ऐन वक्त पर सब गड़बड़ हो जाता। एक बार स्कूल में मास्टर हेमचंद्र ने कहा था, “चलिए, बच्चों को ताजमहल ही दिखा लाएँ”
“बच्चे इतनी दूर जाने को कहाँ तैयार होंगे?” उसने कहा था।
“तो चलिए, हमीं लोग घूम आएँ” अवकाश प्राप्ति की राह पर खड़े सूखे ठूंठ जैसे हेमचंद्र की यह बात सुन कर उसे बड़ा क्रोध आया था। उसकी मोटी ताजी, कर्कषा पत्नी को याद करके उसने गुस्से से कहा था, “पहले अपनी पत्नी से इजाजत तो ले आइए।”
हेमचंद्र ने उसकी बातें सुन कर खीसें निपोर दीं थीं। इन्हीं सब बातों की स्मृति में खोए खोए न जाने कब आँख लग गई।
सुबह उठी तो शरद को चाय देते हुए उसने कहा, “बेटे, मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही। तुम्हीं लोग हो आओ कश्मीर। एक ही क्षण में पति-पत्नी के चेहरों पर चमक आ गई।
शरद बोला, ”चलिए, आपको चौधरी चाचा को दिखा दूँ। फिर कल जाना नहीं हो पाएगा। और बहू चहक कर बोली,- ”चौधरी चाचा से कहिएगा कि बीच-बीच में घर आकर भी अम्मा को देखते रहें”। डाक्टर चौधरी उन के परिवार के डाक्टर थे। वहाँ तो वह अकेली भी जा सकती थी।
“नहीं, अभी डाक्टर को दिखाने की कोई जरूरत नहीं है, उसने रूखे से स्वर में कहा।
दूसरे दिन शरद अपनी पत्नी को लेकर कश्मीर चला गया। वह उन्हें विदा करने नहीं गई थी। शरद ने साथ चलने के लिए एक बार भी फिर नहीं कहा। उसकी तबीयत के विषय में भी कुछ नहीं पूछा। अगर सचमुच उस की तबीयत खराब होती तब भी वह उसे यों ही छोड़ कर चला जाता। ऐसी ही कुछ बातें सारे दिन उसके मन में सुलगती रहीं। स्कूल में भी मन नहीं लगा। दो दिन बाद ही वह एक सप्ताह की छुट्टी लेकर बड़े भैया के यहाँ भोपाल चली गई।
भैया ने सहज ही पूछा- “तुम क्यों नहीं चली गईं शरद के साथ? घूम आतीं”।
उसने उलाहना देते हुए कहा था- ”कॉलेज में पढ़ती थी तब तुमने नहीं जाने दिया। बहनोई तो खूब घूमने वाला ढूँढ़ा ही था। अब बच्चों के साथ क्या जाती?”
भैया यह शिकायत सुन कर हँसे फिर कुछ रुक कर बोले, ”अच्छा, दीवाली की छुट्टियों में आना। हम सब चलेंगे कश्मीर”।
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दीवाली के समय सचमुच भैया ने उसे पत्र लिख कर बुलाया था। वह बहुत खुश हुई थी। भोपाल पहुँच कर उसे आश्चर्य हुआ कि उसका भांजा राकेश अभी तक होस्टल से नहीं लौटा था।
पूछने पर भैया ने बताया- ”वह नहीं आ रहा है, कहता है दोस्तों के साथ घूमने जाऊँगा। हमारे साथ उसे हँसी दिल्लगी करने कहाँ मिलेगी?”
“आजकल के बच्चों को माता-पिता के प्यार की, सुख-दुख की कोई परवाह ही नहीं है। उन्हें तो बस अपनी खुशी से मतलब है,” भाभी ने दुखी हो कर कहा।
यह मेरे या भैया के घर की ही कहानी नहीं, हर घर की कहानी है। वह यही सोच रही थी।
जम्मू, पहलगाम, बैरीनाग, श्रीनगर और गुलमर्ग आदि खूब घुमाया भैया ने। वैश्णवदेवी और षंकराचार्य के मंदिर भी दिखाए। कश्मीर को किसी ने पृथ्वी का स्वर्ग सत्य ही कहा है। ऊँचे-ऊँचे बर्फीले पर्वत और उन के बीच बसा हरा-भरा शहर श्रीनगर, मतवाली चाल से बहती झेलम नदी, सेबों और लीची से लदे हरे भरे वृक्ष, हर तरफ गुलाबी रंग के वहाँ के लोग। कितना मोहक था सब कुछ। एक दिन उस ने बर्फ भी गिरती हुई देखी। कैसा अलौकिक दृष्य था वह। मन की सारी मलीनता खो गई थी वहाँ।
जब वह लौटी तो एक असीम आनंद ले कर।
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स्कूल में पहले ही दिन साथ की शिक्षिकाओं ने बड़ी उत्सुकता से सब बातें पूछीं। कहाँ कहाँ गई थीं? किस के साथ गईं? क्या क्या देखा? खरीद कर क्या लाईं?
वह संक्षेप में उत्तर दे कर, अपनी कक्षा में चली गई। अर्द्ध अवकाश के समय भी वह कक्षा से जल्दी नहीं लौट सकी। विद्यार्थी भी तो अपने मन की जिज्ञासा शांत करना चाहते थे। जब वह लौटी तो षिक्षक कक्ष में प्रवेश करते ही उसने सुना कि कोई सहकर्मी शिक्षिका हँसते हुए कह रही थी, “बेचारे भैया-भाभी को खूब बोर किया होगा इन्होंने। उन दोनों के बीच में इनका क्या काम था? इसी को कहते हैं, कबाब में हड्डी।” और इसके साथ ही एक मिली-जुली हँसी सुनाई दी।
वे षब्द और उनकी हँसी, छुरी की तरह उसका कलेजा चीर गए। उसका अगला पीरियड खाली था। वह मेज पर सिर रखे सोच रही थी कि बिना पति के भारतीय नारी क्या हर जगह “कबाब में हड्डी” की तरह ही जीवित रहती है।
सरोज दुबे
(प्रकाशित- सरिता, वयोवृद्ध विषेशांक सितम्बर 1981)