कभी तो अच्छे दिन आएँगे....(व्यंग्य)
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
सुबह का घूमना अच्छी सेहत के लिए फायदेमंद है। यही सीख बचपन से सुनकर बड़े हुए थे, सो रिटायरमेंट बाद आज भी नियमित दिनचर्या में शामिल कर लिया है। अधिकांश लोग जब अपने बिस्तर में गहरी नींद का आनंद ले रहे होते हंै, तब हम मार्निग वाॅक की तैयारी में जुट जाते हैं। हमारे अपने इस अभियान में एक बचपन का सहपाठी मित्र, एक नेता और एक किराना व्यवसायी काफी वर्षों से नियमित शामिल है। बीच-बीच में शरीर से अस्वस्थ दो साहित्यकार भी शामिल हो जाते हैं। पर इनका कोई निश्चित समय नहीं। जब शरीर ने धकियाया तो निकल पड़े अन्यथा बिस्तर ही अच्छा है। वह भी क्या करें बेचारे अपनी चिन्ता को छोड़कर सारी रात दूसरों की चिन्ता में डूबे जो रहते हैं। वे रात-रात भर जागकर दूसरों की चिन्ताओं को अपनी कलम की तलवार से निरीह बेजान कागजों पर अपना आक्रोश उतारते रहते हैं। उनको दूसरों की पर पीड़ा देखी नहीं जाती सो कहानियों, कविताओं, गजलों, लेखों के माध्यम से उस बेजान कागजों पर उकेरते रहते हैं। उकेरने के बाद फिर उसे छपवाने की चिन्ता में लग जातें हैं ताकि देश के लोग पढ़े और कहें कि सचमुच आप को ही नेताओं के बाद सबकी सही चिन्ता है।
इन दोंनों वर्गों को सदा आम लोंगों की चिन्ता ही नहीं बल्कि हमारे समाज देश की चिन्ता भी सताती रहती है कि सबके अच्छे दिन आ जाएँ, इसके सिवाय बेचारे और कर भी क्या सकते हैं, हालाकि उन्हें यह मालूम कि हमारा समाज और देश, हमारे देश के कर्णधारों के हिसाब से ही चलता है। अर्थात नेताओं के पीछे -पीछे चलता है। यही देश दुनियाँ के माई बाप हैं, उनसे ज्यादा जानकार इस संसार में और कौन हो सकता है। वर्षों से अच्छे दिनों के लाने का ठेका भी इन्हीं के हाथों में है। वर्षों गुजरने के बाद भी सफलता नहीं मिली तो इनमें उन लोगों का क्या दोष? यह उनकी गलती कैसे हो सकती है? प्रयास करना उनका कार्य है, सफलता या फल की आशा करना व्यर्थ है। हमारी गीता भी तो युगों से केवल कर्म के लिए ही कहती आयी है।
यह एक सच्चाई भी है कि उन्हें जनता ही अपना नुमाइन्दा बनाकर या चुनकर भेजते हैं। फिर वही देश में सरकार बनाकर जनता पर हकूमत करते हैं। या यों कहें कि यही देश की सच्ची सेवा करते हैं। देश किस रास्ते से चलेगा, पैसा कहाँ पर खर्च होगा, योजनाएँ कैसी बनेगी, कौन कैसे बैठेगा, कहाँ उठेगा और कहाँ चलेगा। वह सभी नीति निर्धारण तत्व का सर्वज्ञ ज्ञाता एवं मर्मज्ञ माना जाता है। विधान सभाओं और देश की संसद भवन में बैठकर वह कानून भी बनाता है। यह बात अलग है कि उनके पास इस कार्य के लिए कोई कानून की डिग्री नहीं होती है। ज्ञान और डिग्रियाँ तो नौकरियों के चाहने वालों के लिए होती हैं। सो उनके चयन में वही नेता काफी सावधानी बरतते हैं। कि कहीं ज्यादा ज्ञानी और पढ़ा लिखा उसके आफिस में अधिकारी बनकर न बैठ जाए। उसको तो केवल कागजों में गोल मोल भाषा में लिखना पढ़ना भर ही होता है और अन्त में हस्ताक्षर करना होता है। नेताओं को तो इन सबसे ऊपर उठकर अपने केबिन में बैठकर मंत्रालय सम्हालना होता है और देश को सम्हालना होता है। यह बात अलग है कि कभी कभी नेता अधिकारियों पर भारी पड़ जाता है, तो कभी कभी अधिकारी नेताओं पर भारी पड़ जाते हैं। जिसका पड़ला भारी हुआ उसी की पौ बारह हो जाती है। इन दोनों के अच्छे दिनों का आना उनकी इन्ही परिस्थितियों पर ज्यादा निर्भर करता है।
देश की संसद और विधान सभाओं में सभी नेता मिलकर भाषण-मंथन खूब करते हैं। उनका मानना है कि समुद्र मंथन के बाद ही तो अमृत निकलता है। इससे समाज और देश को बहुमूल्य रत्नों की प्राप्ति होगी, जिससे दोनों का भला होगा। जनता उनके इस समुद्र मंथन को बड़ी कौतूहल के साथ देखती रहती है, आशाएँ लगाए रखती है। उसके अंदर आशा विश्वास की लहरें ज्वार भाटा की तरह उठतीं बैठतीं रहती हैं। बड़ी बेसब्री से वह इसका इंतजार करता है। इस बार समुद्र मंथन में उसे कोई न कोई अनमोल रत्न अवश्य मिलेगा। जिससे उसकी सभी समस्याएँ छू मंतर हो जाएँगी।
ईश्वर ने उसके अंदर सब्र करने की अद्भुत शक्ति प्रदान की है। वह सालों से इंतजार करता आ रहा है कि उसके जीवन में कभी तो सुबह होगी। कभी तो अच्छे दिन आएँगें। कभी तो उनके जीवन में दुख की छाईं बदलियाँ छटेगीं किन्तु ऐसा होता नहीं है। वह हर बार मृगतृष्णा में ही उलझ कर रह जाता है। किन्तु नेता कभी भी हार मानने वाला प्राणी नहीं हैै। वह फिर जनता के पास जाता है और आशा विश्वास का ताना बाना बुनने में जुट जाता है। चूँ कि हर बार उसे ही तो वोट देना होता है, उसे ही वोट देने का अधिकार होता है। और सामने खड़े उन नेताओं को ही उन्हें चुनना होता है।
आजादी के बाद जनता अच्छे दिनों के आने के इंतजार करते करते अपने जीवन के सड़सठ वर्ष बिता चुकी है और उस आशा विश्वास में कई तो स्वर्गलोक सिधार गए हैं। पर वह भी जाते जाते अपनी अगली पीढ़ी को वही आशा और विश्वास का मूलमंत्र उनके कानों में फूंक गए हैं कि बेटा, आशा और विश्वास का दामन कभी न छोड़ना। एक दिन वह सुबह अवश्य आएगी। उनपर विश्वास रखना और अपनी आशा को कभी मरने मत देना।
तबसे वह हर बार आशा और विश्वास की प्रकाश किरणों को आता देख कर सम्मोहित हो जाता है, भरमा जाता है। और अपना कीमती वोट पाँच साल के लिए उसे दे देता है चूंकि इसके अलावा उसके सामने क्या विकल्प है उसे तो बस आशा के साथ केवल विश्वास ही करना है। करना न करना नेता को ही है। वही उसका भाग्य विधाता है। उसे तो बस अपना वोट डालना है और उनको ही चुनना है इसलिए बेचारा फिर समवेत स्वर में कहने लगता है कि चलो उस बार न सही इस बार तो हमारे अवश्य अच्छे दिन आएँगे।...
किन्तु नेता मानता ही नहीं। जनता हर बार देखती है कि सुबह की किरणें इस धरा पर बिखरने के पूर्व ही फिर वही अंधियारा गहरा जाता है। उन किरणों पर पहला अधिकार तो नेताओं का ही होता है। जिसका वे भरपूर फायदा उठाते हैं। इनका उस तक पहुँचना दूभर हो जाता है। फिर कभी कभी ऐसा भी होता है कि नेताओं के इस मंथन से कई योजनाएँ असफल भी हो जातीं है। जिसकी चिन्ता उन्हें कभी नहीं होती है, चिन्ता हो भी क्यों ? योजनाएँ तो सफलता के लिए ही बनती है, सफल होना या असफल होना तो क्रियान्वयन करने वालों पर होता है। अतः पढ़ा लिखा अधिकारी रखा किस काम के लिए जाता है ? उस पर पूरा टोकरा उड़ेल दिया जाता है। अगर दोनों में भाईचारा का रिश्ता बन गया तो असफलता का पूरा टोकरा जनता पर डाल दो। आखिर यह काम भी तो जनता के लिए हो रहा है। दूसरी ओर बेचारी जनता के पास समय कहाँ है कि वह इन दोनों से उलझे और अपना समय बर्बाद करे। चूंकि उसी ने तो सामने वाले को पाँच साल का समय दे रखा है। उसके पहले वह कुछ बोल ही नहीं सकता है और न कुछ कर सकता है। दूसरी ओर शासन ने सेवारत कर्मचारियों को तो रिटायरमेंट तक सारे अधिकार दे रखे हैं। जो मर्जी में आए वह करो, तुम चिन्ता मत करो। बस अब जो भी कुछ भोगना है, केवल बेचारी जनता को ही भोगना है।
जनता तो बेचारी सारी जिन्दगी रोजी रोटी और मकान में ही उलझी रहती है। उसका सारा जीवन उसी में गुजर जाता है। इन व्यवस्थाओं और विसंगतियों के बीच वह भी कुछ सुनहरे सपने देखता है, संजोता है। उसे अपना जीवन स्तर को ऊँचा उठाना है, सुधारना है। अपने माँ बाप परिवार को अच्छे से पालना पोसना है। अपने बच्चों को अच्छे से पढ़ाना लिखाना है ताकि वे भी बुढ़ापे में उसका सहारा बन सके। और अपना भी अच्छा भविष्य बना सकें। समय के हिसाब से उसे तो अपने परिवार की गाड़ी को चलाना ही नहीं दौड़ाना भी होता है। प्रतीक्षा और समय सदा नेताओं के या शासन तंत्र के पास ही हुआ करता है। इसीलिए जब वह देखता है कि सरकार की शिक्षा नीति ही दो भागों में बटी है। उन लोंगों ने इसका भी व्यवसायीकरण कर रखा है। अपनी दुकानें खोल रखीं हैं, जो जितना पैसा खर्च करेगा उसको उतनी ही ऊँची और अच्छी शिक्षा मिलेगी। इससे उनकी इनकम का द्वार खुलेगा।
दूसरी ओर सरकारी साक्षरता के अभियान के लिए सरकारी सस्ती स्कूलें हैं। जिसमें चपरासी या क्लर्क तो बन ही सकते हैं। तब बेचारी जनता भी सोचती है कि सस्ती शिक्षा से उसका काम नहीं चलेगा। अगर जीवन में आगे बढ़ना है, तो अच्छी अर्थात महगी शिक्षा की ओर जाना होगा। इसके लिए वह उस दिशा में अपने कदम बढ़ाती है। शुरू के दिनों में पहले तो वह कर्जा लेकर काम चला लेता है। जब बेचारे का कर्जा से भी काम नहीं बनता, तो अपने देश के नेताओं के गिरेवान में झाँक लेता है और उनका पथ अनुगमन कर लेता है। देश में हुए अरबों के घोटाले इस बात की सत्यता को सिद्ध करते हैं। जनता को तो मूर्ख समझा जाता है। उसे जो बात समझा दी जाए मीडिया और समाचार पत्रों के माध्यम से बेचारा उसे ही सत्य मान लेता है। यह बात अलग है कि पत्रकारों एवं मीडिया में भी कुछ नेताओं से भी ज्यादा होशियार हो जाते हैं। क्योंकि ये पढ़े लिखे तो होते है तो फिर ये लक्ष्मी मैया के सच्चे उपासक या भक्त बन जाते हैं। बगैर चढ़ोत्तरी के कुछ काम ही नहीं करते। इनकी भी दुकानदारी चल पड़ती है।
इनमें से कुछ तो जन्म जात वैरागी होते हैं, जो सरस्वती पु़त्र बन कर ही अपना जीवन गुजार देते हैं। और अपने आपको सर्वश्रेष्ठ कहलाने के चक्कर में पड़कर जीवन भर कुढ़ते रह जाते हैं और दूसरों को कोसते रहते हैं। उनका काम इसके सिवाय कुछ नहीं होता। पर आम जनता जो देश में सबसे अधिक जनसंख्या के आधार पर होती है। वही इन विसंगतियों के बीच में पिसती है। आज वही देश में सहानुभूति के पात्र हैं। वे बेचारे दो जून की रोटी के लिए बस शरीर का पसीना बहाते रहते है। और भाग्य की लकीरों पर ज्यादा विश्वास करके मेहनत करके अपनी सारी उम्र गुजार देते हैं। यही वर्ग देश में सबसे बड़ा है। जिसका सभी शोषण करते हंै।
तब यह शोषित वर्ग भाग्य की दुकान खोले पंडित मुल्ला मौलवी पादरी की कृपा के सहारे चमत्कार की आशा में अपनी किस्मत चमकाने में फंस जाता है। उनकी कृपा पाने अपनी जमा पूंजी को लुटाने तत्पर हो जाता है। हालाकि इनकी किस्मत तो कभी नहीं चमकती पर उनकी किस्मत अवश्य चमक जाती है। यह वर्ग अपने अच्छे दिन की आशा संजोये इंतजार करती रह जाती है। उसकी यह आशा पिछले 1947 से आजादी के बाद से अपनी द्वारा चुनी सरकार से सदा लगी रही है। स्वराज्य एवं सुराज की आशा में वह हर समय अपनी कल्पनाओं में सोते जागते एक सपना संजोए रहता है। अपने अंदर उसने आशाओं और विश्वासों का समुंदर पाल रखा है जिसकी लहरों से उसको एक ही आवाज उभर कर सुनाई देती है कि कभी तो उसके अच्छे दिन आँऐंगे ....... कभी तो उसके अच्छे दिन आँऐंगे.........
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”