कैसी है सीमा
सरोज दुबे
सरोज दुबे
“आज जरा चैक पर दस्तखत कर देना,” प्रभात ने षहद घुली आवाज में कहा ।
सीमा ने रोटी बेलते-बेलते पलट कर देखा, चैक पर दस्तखत करवाते समय, प्रभात कितने बदल जाते हैं। “आपकी तनख्वाह खत्म हो गई ?” वह बोली।
“गाँव से पिताजी का पत्र आया था। वहाँ चार सौ रुपये भेजने पड़े। फिर लीला मौसी भी आई हुई हैं। घर में मेहमान हों तो खर्च बढ़ेगा ही न?”
सीमा चुप रह गई ।
“पैसा नहीं देना है तो मत दो। किसी से उधार लेकर काम चला लूँगा। जब भी पैसों की जरूरत होती है, तुम इसी तरह अकड़ दिखाती हो।”
“अकड़ दिखाने की बात नहीं है। प्रश्न यह है कि रुपया देने वाली की कुछ कद्र तो हो ।”
“मैं बीवी का गुलाम बनकर नहीं रह सकता, समझीं।”
बीवी का गुलाम होने वाली सदियों पुरानी उक्ति पुरुश को आज भी याद है। किंतु स्त्रीधन का उपयोग न करने की गौरवषाली परंपरा को वह कैसे भूल गया ?
बहस और कटु हो जाए, इसके पहले ही सीमा ने चेक पर हस्ताक्षर कर दिए।
शाम को प्रभात दफ्तर से लौटे तो लीला मौसी को सौ का नोट देकर बोले, “मौसी तुम पड़ोस वाली चाची के साथ जाकर आँखों की जाँच करवा आना।”
अरे रहने दो भैया, मैं तो यों ही कह रही थी। अभी ऐसी जल्दी नहीं है। रायपुर जाकर जाँच करा लूँगी।”
“नहीं मौसी, आँखों की बात है। जल्दी दिखा देना ही ठीक है।”
मौसी मन ही मन गदगद हो गईं।
प्रभात मौसी का बहुत ख्याल रखते हैं। मौसी का ही क्यों, रिष्ते की बहनों, बुआओं, चाचा, ताउओं सभी का। कोई रिश्तेदार आ जाए तो प्रभात एकदम प्रसन्न हो उठते। उस समय वह इतने उदार हो जाते हैं कि खर्च करते समय आगा-पीछा नहीं सोचते। मेहमान-नवाजी के लिए ऐसे आकुल व्याकुल हो उठते हैं कि उनके आदेषों की धमक से सीमा का सिर घुमने लगता है।
“सीमा, आज क्या सब्जी बनी है ?” प्रभात पूछ रहे थे।
“बैगन की ।”
“बैगन की ? मौसी की आँखों में तकलीफ है, बैगन की सब्जी खाने से तकलीफ बढ़ेगी नहीं ? उनके लिए परवल की सब्जी बना लो।”
“नहीं मैं बेगन की सब्जी खा लूँगी, बेटा। बहू को एक और सब्जी बनाने में कष्ट होगा। कॉलेज से थककर आई है।”
“इस उम्र में थकना क्या है, मौसी ? वह तो इनके घरवालों ने काम की आदत नहीं डाली, इसी से थक जाती हैं।”
“हाँ, बेटा। आजकल लड़कियों को घर गृहस्थी संभालने की आदत ही नहीं रहती। हम लोग घर के सब काम करके दस किलो चना दरकर फेंक देते थे,”- मौसी बोली।
बस इसी बात से सीमा चिढ़ जाती है। उसके मायके वालों ने काम की आदत नहीं डाली तो क्या प्रभात ने उसके लिए नौकरों की फौज खड़ी कर दी ? एक बरतन कपड़े साफ करने वाली के अलावा दूसरा कोई नौकर तो देखा ही नहीं इस घर में।
और लीला मौसी के जमाने में घर गृहस्थी ही तो संभालती थी लड़कियाँ। न पढ़ाई लिखाई में सिर खपाना था और न नौकरी के पीछे मारे-मारे घूमना था।
सीमा सोचने लगी, लीला मौसी तो खैर अशिक्षित महिला हैं, परंतु प्रभात की समझ में यह बात क्यों नहीं आती ?’
अभी पिछले सप्ताह भी ऐसा ही हुआ था। सीमा ने करेले की सब्जी बनाई थी । प्रभात ने देखा तो बोले, “करेले बनाए हैं ? क्या मौसी को दुबला करने का विचार है ? उनके लिए कुछ और बना लो।”
सीमा एकदम हतप्रभ रह गई। मौसी हँसी, “नहीं...नहीं... कुछ मत बनाओ, बहू बस, दाल को तड़का दे दो। तब तक मैं टमाटर की चटनी पीस लेती हूँ।”
मौसी बहू के रहते तुम्हें काम करने की क्या जरूरत है? आओ, उस कमरे में बैठें।” -प्रभात बोले।
सीमा अकेली रसोई में खटती रही। उधर साथ वाले कमरे में मौसी प्रभात को झूठे सच्चे किस्से बताती रहीं, “तुम्हारी बड़े नानाजी खेत में पहुँचे तो देखा, सामने गाँव के धोबी का भूत खड़ा है...”
मौसी खूब अंधविश्वासी हैं। मनगढ़ंत किस्से खूब बताती हैं भूतप्रेतों के। प्रभात के बड़े नाना, मझले नाना और छोटे नाना के,दूध सी सफेद छोटी नानी के, प्रभात की ननिहाल के, जमींदार महेंन्द्र प्रताप सिंह और रूपा डाकू के भी। इन किस्सों के साथ-साथ मौसी लोगों की मेहमानवाजी और बढ़िया भोजन को भी खूब याद करतीं। उनकी व्यंजन की चर्चा सुनकर श्रोताओं के मुँह में पानी भर आता।
मौसी मूँग के लड्डू, खस्ता-कचैरी, मेवे की गुझिया और खोए की पूरियों की याद किया करतीं।
प्रभात उनकी हर फरमाइश पूरी करवाते। सीमा को कॉलेज जाने तक रसोई में जुटे रहना पड़ता। थकान के कारण खाना भी न खाया जाता। उस दिन भी ऐसा ही हुआ था। कॉलेज से लौटकर वह कुछ खाना ही चाहती थी कि प्रभात के मित्र आ गए। उसने किसी तरह उन्हें चाय नाश्ता करवाया। दूध का बरतन उठाकर अलमारी में रखने लगी, तो सहसा चक्कर खाकर गिर पड़ी। सारे कमरे में दूध ही दूध फैल गया।
मौसी और प्रभात दौड़े आए। अपने निश्प्राण से शरीर को किसी तरह खींचती हुई सीमा पलंग पर जा लेटी। आँखें बंद करके वह न जाने कितनी देर तक लेटी रही।
प्रभात को मेरे चैतन्य होने की आहट मिलते ही आए और धीरे से उसे उठाते हुए कहा-“सुनो, अब उठकर जरा रसोई को देख लो। तब से मौसी ही लगी हुईं हैं।”
शरीर में उठने की शक्ति ही नहीं थी। ‘हूँ’ कहकर सीमा ने दूसरी ओर करवट ले ली।
“तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, यह मैं मानता हूँ। परन्तु अपने घर का काम कोई और करे यह तो शोभा नहीं देता।” प्रभात धीरे से बोला।
सीमा का मन हुआ वह चीखकर कह दे, कि ‘मौसी के घर में कभी बहू बेटी बीमार होती हैं, तब क्या वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं? एक समय भोजन बना भी लेंगी, तो ऐसी क्या प्रलय हो जाएगी ?” लेकिन कहा नहीं। आवाज कहीं गले में ही फँसकर रह गई। आँखों से आँसू बह निकले। उठकर बचा हुआ काम निपटाया।
मौसी प्रभात की प्रशंसा करते नहीं थकतीं। उस दिन किसी से कह रही थीं, “हमारे परिवार में प्रभात हीरा है। सबके सुख-दुख में साथ देता हैं, रुपये पैसे की परवाह नहीं करता। ऐसा आदर सम्मान करता है कि पूछो मत। बहू बड़े घर की लड़की है, पर प्रभात का ऐसा शासन है कि मजाल है कि बहू जरा भी गड़बड़ कर जाए।”
यह प्रशंसा वह पहली बार नहीं सुन रही थी। ऐसी प्रशंसा प्रभात के परिवार के हर छोटे बड़े के मुख पर रहती है। ससुराल वालों को इतना आतिथ्य सत्कार तथा सेवा करने और बैंक के चेक फाड़कर देने के बाद भी वह प्रभात के इस सुयश की भागीदार कभी नहीं बन सकी। या यों कहा जाए कि प्रभात ने इसमें उसे भागीदार बनाया ही नहीं। बल्कि अपने लोगों के सामने उसे बौना बनाने में ही वह गर्व महसूस करते रहे। उसकी कमियों और गलतियों को वह बढ़ाचढ़ा कर सुनाया करते और सारा परिवार रस ले लेकर सुना करता।
इस संबंध में सीमा को अपनी देवरानी मंगला से ईश्र्या होती है। देवर सुनील उसके सम्मान को बढ़ाने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते। हैदराबाद से वह साल में एक बार घर आते हैं। छोटे बडे़ सभी के लिए कुछ न कुछ लाने का उनका नियम है। लेकिन लेनदेन का दायित्व उन्होंने मंगला को ही सौंप रखा है।
जब सारा परिवार मिलकर बैठता है तब सुनील पत्नी को गौरवान्वित करते हुए कहते हैं- ‘मंगला, निकलो भई, सब चीजें दिखाओ सबको, क्या-क्या लाई हो तुम उनके लिए।” सबकी नजरें मंगला पर टिक जाती हैं। वह कितनी ऊँची हो जाती है सबकी दश्टि में।
मंगला की अनुपस्थिति में जब परिवार के लोग मिल बैठते हैं, तो उसके लाए उपहार की चर्चा होती है। उसकी दरियादिली की प्रशंसा होती है। परंतु सीमा की मेहनत की कमाई से भेजे गए, मनीआर्डरों का कभी जिक्र नहीं होता। उसका सारा श्रेय प्रभात को जाता है। कभी बात चलती है, तो अम्मा उसे सुना कर साफ कह देती हैं-“सीमा की कमाई से हमें क्या मतलब ? प्रभात घर का बड़ा बेटा है। उसकी कमाई पर तो हमारा पूरा हक है।”
कभी कभी सीमा सोचती है, ‘नेकी करते हुए भी किसी के हिस्से में यश और किसी के हिस्से में अपयश क्यों आता है ?’ वैसे इस विषय में ज्यादा सोचकर वह अपना मन खराब नहीं करती। फिर भी उसका स्वास्थ ठीक नहीं रह पाता। पिछले दिनों डाॅक्टर ने बताया था, “पैर भारी है। थोड़ा आराम करना चाहिए।”
इधर मौसी कहती थीं, “एक रोटी बनाने का ही तो काम है, घर में न चक्की पीसनी है, न कुएँ से पानी खींच कर लाना है। खूब मेहनत करो और डट कर खाओ। तब तो सेहत बनेगी।”
और एक दिन सेहत बनाने के चक्कर में लड्डू बाँधते-बाँधते कॉलेज जाने का समय हो गया था। सीमा जल्दी-जल्दी सीढियाँ उतरने लगी तो अचानक पैर फिसल गया। तीन-चार सीढ़ियाँ लाँघती हुई वह नीचे गिरी। चोट तो उसे विशेष नहीं आई, पर पेट में दर्द होने लगा।
“इनके लिए बिस्तर पर आराम करना बहुत जरूरी है।”- डाॅक्टर ने प्रभात से कहा था।
प्रभात ने लापरवाही के लिए सीमा को जी भर कर कोसा, किंतु इस परिस्थिति में डाक्टर की सलाह मानना आवश्यक हो गया।
झाड़ू पांेंछा तो महरी करने लगी। पर भोजन बनाने भर का भार मौसी पर आ पड़ा। वह नाश्ता और खाना बनाने में परेशान हो जातीं। अब वह बिना मसाले की सादी सब्जी से काम चला लेतीं। कहतीं, “अब उमर हो गई। काम करने की पहले जैसी ताकत थोड़े रह गई है।”
सीमा का मन होता पूछे मौसी से-, “सिर्फ खाना ही तो बनाना है। और खाना बनाना भी कोई काम है ? तुम तो कहती थीं, दाल-चावल और सब्जी रोटी तो कैदियों का खाना है। तुम ऐसा खाना क्यों बना खा रही हो, मौसी ?”
किसी तरह सप्ताह बीता था कि मौसी का मन उखड़ने लगा। एक दिन प्रभात से बोलीं- “बेटा, तुम्हारे पास बहुत दिन रह लिया। सुरेखा रोज सपने में दिखाई देती है। जाने क्या बात है। बहू जैसी ही उसकी भी हालत है।”
प्रभात सन्न रह गए, कहा- “मौसी, ऐसी कोई बात होती तो सुरेखा का पत्र जरूर आता। तुम चली जाओगी तो बड़ी मुसीबत होगी। अच्छा होता जो कुछ दिन और रुक जातीं।”
पर मौसी नहीं मानी। वह बेटी को याद करके रोने लगीं। प्रभात निरुपाय हो गए। उन्होंने उसी दिन गाँव पत्र लिखा ।
सुशीला जीजी पिछले साल दो माह रह कर गई थीं। उन्होंने भी एक पत्र विस्तार से लिखा। कई दिनों बाद गाँव से पत्र आया कि पन्द्रह दिनों बाद अम्मा स्वयं आएँगी। पर पन्द्रह दिनों के लिए दूसरी क्या व्यवस्था हो सकेगी ?
प्रभात को याद आया कि मंगला की बीमारी का समाचार मिलते ही गाँव के लोग किसी तरह हैदराबाद तक दौड़े चले जाते हैं। फिर सीमा के लिए ऐसा क्यों ? शायद इसका कारण वह स्वयं ही है। जिस तरह सुनील ने अपने परिजनों के हृदय में मंगला के लिए स्नेह और सम्मान के बीज बोए थे, वैसा सीमा के लिए कभी किया था उसने ?
पन्द्रह दिनों के बाद अम्मा गाँव से आ गई । उनके आते ही प्रभात निश्चिंत हो गए। उन्हें विश्वास था कि अम्मा अब सब कुछ संभाल लंेगी। मार्च का महीना था। वह अपने दफ्तर के कार्यां में व्यस्त हो गए। सुबह घर से जल्दी निकलते और रात को देर से घर लौटते।
पिछले वर्ष जब मंगला को आपरेशन से बच्चा हुआ था, उस समय अम्मा हैदराबाद में ही थीं। उन्होंने उसकी खूब सेवा की थी। उसकी सेवा का औचित्य उनकी समझ में आता था। लेकिन सीमा को क्या हुआ, यह उनकी समझ में ही न आता। वह दिन भर काम करे और बहू आराम करे, यह उनके लिए असह्य था ।
प्रभात के सामने तो अम्मा जी चुपचाप काम किए जातीं, परन्तु उनके जाते ही व्यंग्य बाण उनके तरकस में कसमसाने लगते। कभी वह इधर-उधर निकल जातीं।
मोहल्ले की स्त्रियाँ मजा लेने के लिए उन्हें छेड़तीं,- “अम्मा हो गया काम ?”
“हाँ भाई काम तो करना ही है। पुराने जमाने में बहुएँ सास की सेवा करती थीं। आज के जमाने में सास को बहुओं की सेवा करनी पड़ती है।”
सीमा सुनती तो संकोच में पड़ जाती। किस मजबूरी में वह उनकी सेवा ग्रहण कर रही थी, इसे तो वही जानती थी।
उसी समय प्रभात को दफ्तर के काम से सूरत जाना पड़ा। उनके जाने की बात सुनकर सीमा विकल हो उठी थी। जाने के दो दिन पहले उसने प्रभात से कहा भी,- “अम्मा से कार्य करवाना मुझे अच्छा नहीं लगता। उनकी यहाँ रहने की भी इच्छा नहीं है। उन्हें जाने दीजिए। यहाँ जैसा होगा देखा जाएगा।”
“परिवार से संबंध बनाना तुम जानती ही नहीं हो,”- प्रभात ने उपेक्षा से कहा था।
प्रभात के जाते ही अम्मा मुक्त हो गई थीं। वह कभी मंदिर निकल जातीं, कभी अड़ोस-पड़ोस में जा बैठतीं। सीमा को यह सब अच्छा ही लगता। उनकी उपस्थिति में जाने क्यों उसका दम घुटता था।
उस दिन अम्मा सामने के घर में बैठी बतिया रही थीं। सीमा ने टंकी में से आधी बाल्टी पानी निकाला और उठाने ही जा रही थी कि देखा, अम्मा सामने खड़ी हैं। उसे याद आया अम्मा पीछे वाली पड़ोसिन से कह रही थी-“प्रभात पेट में था, तब छोटी ननद की शादी पड़ी। हमें बडे़-बड़े बरतन उठाने पड़े, पर कहीं कुछ नहीं हुआ। हमारी बहू तो दो-दो लोटा पानी लेकर बाल्टी भरती है, तब नहाती है।”
सीमा ने झंेप कर बालटी भरी और उठा कर स्नानघर तक पहुँची ही थी कि दर्द के कारण बैठ जाना पड़ा। जिसका भय था, वही हो गया। डाक्टर निरुपाय थे। गर्भपात कराना जरूरी हो गया।
अम्मा रो-रोकर सबसे कह रही थी,- “हम इतना काम करते थे, तो भला क्या इन्हें बालटी भर पानी नहीं दे सकते थे। हमारे रहने का क्या फायदा हुआ ?”
उसी दिन शाम को प्रभात घर लौटे अस्पताल पहुँचे, तो गर्भपात करके डाक्टर बाहर निकल रही थीं। उन्होंने दुख व्यक्त करते हुए कहा,- “सारी, मैंने आपको इनके आराम के लिए आपसे कहा था। किन्तु आपने ध्यान नहीं दिया। बच्चा निकालना जरूरी हो गया था... लड़का था, आपने यह सुनहरा अवसर गवाँ दिया... सारी...। ”प्रभात किंकर्तव्य विमूढ़ से सिर झुकाए डाक्टर को देखते रह गए।
फिर अचकचा कर पूछा-“ कैसी है सीमा ?” उसके चेहरे में व्याकुलता झलक रही थी।
“अभी ठीक है”-प्रति उत्तर मिला।
सरोज दुबे
(प्रकाशित- सरिता प्रथम अगस्त 1980)