कटघरे में
सरोज दुबे
सरोज दुबे
“ऊषा, तुम स्कूल नहीं जातीं ?” -एक दिन मैंने उससे पूछा था।
“नहीं चाची, दो साल हो गये मैंने स्कूल जाना छोड़ दिया।”
“क्यों? तुम्हें पढ़ना अच्छा नहीं लगता?”
“पढ़ने का मुझे बहुत शौक है, चाची पर मैं स्कूल जाऊँगी तो घर का काम कौन करेगा ? रवि हुआ तब से माँ से ज्यादा काम नहीं होता, इसीलिए माँ ने मेरा स्कूल जाना बंद करवा दिया था।”
उसकी बात सुन कर मैं कुछ सोचने लगी। और वह फिर मसाला कूटने लगी। पढ़ने की इच्छा कंजूस के धन की तरह उसके मन के एक कोने में दबी की दबी रह गई थी। पर इसके लिये उसके हृदय में कहीं असंतोष नहीं था। जिस उम्र में लड़कियाँ बेफिक्री से हँसती खेलती फिरती हैं, उस उम्र में वह गृहिणी की तरह गृहकार्यों में जुटी रहती। आस-पड़ोस की हम उम्र लड़कियाँ जब नये-नये फैशन के कपड़े पहने सिनेमा देखने जातीं तब वह छींट का लहँगा और फटी बाँह का ब्लाउज पहने घर की सफाई में व्यस्त दिखती।
पढ़ाई के प्रति उसके रुझान को देखकर एक दिन मैंने उसकी माँ से कहा था- “दीदी, ऊषा का बहुत मन है पढ़ने का। ग्यारह बजे तक वह खाना बना लिया करेगी। बाकी काम के लिये एक नौकरानी रख लेना। कुछ ही घंटो की तो बात है।”
“बहन, हमारी जाति में लड़की की पढ़ाई नहीं देखते। हमारे यहाँ तो बस काम करने वाली लड़की चाहते हैं, क्या करेंगे ज्यादा पढ़ाकर ? उससे नौकरी थोड़े ही करवानी है।” -ऊषा की माँ ने कहा था।
मुझे याद आया...उस दिन कुछ मेहमानों के साथ जो लड़का आया था, उसी की बात कर रही थी ऊषा की माँ।
“लड़के के पिताजी का भोजनालय है। खुद का पक्का मकान है। लड़का आठवीं तक पढ़ा है, पर उसे कौन नौकरी करनी है ? घर का धंधा सम्हालेगा। अपनी ऊषा से बस दो साल बड़ा है”- वे बोली थीं।
लड़का पूरी तरह माता-पिता पर आश्रित था। आठवीं तक की पढ़ाई आजकल किस गिनती में आती है भला! और उम्र भी कितनी कम! ले देकर कुल सत्रह वर्ष! ऊषा को लेकर उस दिन कितनी ही शंकाएँ –कुशंकाएँ मन में उठ खड़ी हुईं थी।
उन्हीं गर्मियों के दिनों में ऊषा का विवाह हो गया। विवाह के बाद जब ऊषा पहली बार माता-पिता के साथ ससुराल से वापस आई तो हम सब उसे देखते ही रह गये। गोरे चौड़ेभाल पर बड़ा-सा टीका, लाल सुर्ख माँग, मेहंदी से रचे हाथ और गोटा लगी राजस्थानी साड़ी में उसका गोरा शरीर दमक रहा था। नयनों से लज्जा और हास छलक-छलक जाता था। ओठों पर मधुर मुस्कान लुका छिपी कर रही थी। हम सब खूब खुश हुये थे, उसे देखकर।
शादी के बाद उसके जीवन में बसंत आया था। एक उमँग, एक नशा सा छा गया था उस पर ... कभी सिनेमा न जाने वाली ऊषा ने कितने ही पिक्चर देख डाले थे। उस बीच कसी हुई चोटी की जगह पफ के जूड़े ने ले ली थी। ओठों पर पता नहीं कैसी तो लाली दिखने लगी थी। सूनी कलाईयों में रंग बिरंगी चूड़ियाँ खनकने लगीं। महावर लगे पैरों में तीन-तीन घुंघरुओं वाली पायल उसके आने की पहले ही सूचना दे देती। मारवाड़ी-तरीके की सितारों जड़ी साड़ी पहन कर वह चमचमाती सी इधर-उधर घूमा करती। नित नये बदलने वाले फैशन और आधुनिक तौर तरीकों से वह कोसों दूर थी। आस-पास की पढ़ी-लिखी लड़कियाँ अक्सर उसे देखकर हँसा करती ....परंतु ऊषा को इन सब बातों से कोई मतलब न था।
उन्हीं दिनों पिलो कवर पर बनाने योग्य कुछ डिजाइन उसने बड़े शौक से उतारे थे। एक दिन मुझसे बे्रड रोल, गाजर का हलुवा और छोले-भटूरे बनाने की विधि भी लिखवा कर ले गई। नई-नई चीजें सीखने और बनाने का ऐसा उत्साह मैंने उसमें पहले कभी नहीं देखा था।
फिर गृहस्थ-जीवन के सुनहरे स्वप्न संजोये वह ससुराल चली गई।
कई माह बीत गये ऊषा ने माता-पिता को भी कभी पत्र नहीं लिखा। इस प्रसंग में ऊषा की माँ ने बताया था कि ऊषा की ससुराल में बहुओं का पत्र लिखना अच्छा नहीं समझते। उसके ससुरजी राजी-खुशी का पत्र देते रहते हैं।
एक दिन अचानक किसी रिश्तेदार ने ऊषा के पिता को खबर दी कि ऊषा के पैर में ‘नारू’ हो गया है। वह बड़े कष्ट में है।
ऊषा के पिता- सेठजी तुरंत जाकर उसे लिवा लाये। कुछ माह पहले की ऊषा पता नहीं कहाँ खो गई थी। गदराया हुआ गोरा बदन क्षीण होकर साँवला पड़ गया था। बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें गड्ढे में धँस गईं थी। उसकी यह हालत देखकर सभी चकित रह गये। कुछ दिनों के इलाज के बाद उसका पैर तो ठीक हो गया पर उसमें न पहले सी स्फूर्ति न उल्लास! अब वह खोई-खोई उदास सी रहती।
जब एक दिन मानसिक यातना की अति ने उस अल्पभाशिणी के ओंठों के बंधन तोड़ डाले। तब मैंने जाना कि बहता हुआ श्रोत अचानक ऐसे क्यों सूख गया।
ऊषा का विवाह रूढ़िवादी संयुक्त परिवार में हुआ था। बहुओं के रहते गृहकार्य करना सास जी अपनी मर्यादा के विरुद्ध समझती थीं। छोटी ननद अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहती। जिठानी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था। वह आये दिन बीमार पड़ जाती थी। जेठ जी कमाऊ पूत थे, अतएव सासजी इस मामले में कुछ बोल नहीं पाती थीं। अंत में आवारागर्दी करने वाले छोटे पुत्र की पत्नी ऊषा ही ऐसी निरीह जीव थी, जिसे गृहस्थी की गाड़ी में चाहे जब तक जोता जा सकता था। बात यहाँ तक होती तब भी ठीक था, लेकिन इतने पर भी सास ससुर उससे खुश नहीं थे। वे अक्सर ताना देते- “हमने तो सोचा था कि बहू आयेगी तो लड़का कुछ सुधरेगा पर बहू में कोई ढंग हो तब न! ” ऊषा की देह दृष्टि को लेकर भी सास ननद व्यंग्य कसती। यह सब सुनकर ऊषा मर्माहत हो उठती।
ऊषा ने सास-ससुर के मन की बात पति को बताई। उसे दुकान पर बैठने के लिए कई बार समझाया। परंतु पति पर उसकी बातों का कोई प्रभाव न हुआ। उल्टे उसके मन में यह गलत धारणा घर कर गई कि उसकी स्वतंत्रता पर बंदिष लगाने का कारण ऊषा ही है। इस प्रकार दाम्पत्य प्रेम का कोमल पौधा जड़ पकड़ने के पूर्व ही मुरझा गया।
मायके आने के बाद भी उसे मानसिक शांति न थी। ससुराल से पति के जो पत्र आते थे, वे उस नवयुवक की अस्थिर मनोवृति के परिचायक थे। कभी वह ऊषा के प्रति सहानुभूति व्यक्त करता। तो कभी उसे अपराधी बना डालता। उसके स्वच्छंद और सुखी जीवन में ऊषा के कारण जो व्यवधान उपस्थित हुआ था, उस संबंध में उलाहनों से उसका पत्र भरा रहता।
बहुत सोचने पर भी बेचारी ऊषा यह समझ ही न पाई कि आखिर उसका कसूर क्या है। सास-ससुर की उससे जो अपेक्षा थी। उसे पूरा करने का कोई उपाय न था। “धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा।”
“धैर्य से काम लो”-ऐसे ही एक दो वाक्य कहकर मैं उसे हिम्मत बँधाया करती। लेकिन पति के उलाहनों से आहत होकर जब वह आँखों में आँसू लिये रुँधे कंठ से कहती - “चाची मन होता है, जहर खाकर मर जाऊँ!” तब मेरा भी धीरज भाग जाता।
बचपन से ही उसने मेहनत करना सीखा था। काम से घबरा जाने वाली लड़की वह नहीं थी...परंतु ससुराल वालों के रूखे व्यवहार और पति की नादानी ने उसके सपनों को जला कर राख कर दिया था।
कुछ माह बाद उसके ससुर उसकी विदा करा ले गये। समय बीतता गया मेरे मन में कई बार उसकी याद आती और एक वेदना -एक आक्रोश जगा कर चली जाती।
“ऊषा के ससुरजी ने सेठजी को बुलवाया है”- एक दिन ऊषा की माँ ने बताया।
मन में कई प्रकार की शंका -कुशंका लिये हुये सेठजी, समधी के घर पहुँचे। औपचारिकताओं का निर्वाह करने के बाद ऊषा के ससुर बोले- “रमेश दुकान पर नहीं बैठता। हम लोग उसे समझाकर हार गये। बहू का बोझ तो हमने किसी तरह उठाया। पर अब उसके बढ़ते हुये परिवार का बोझ हम नहीं उठा सकेंगे। आप उसे अपनी दुकान पर बैठा कर देखिये शायद वहाँ आपके पास सुधर जाये”
सेठजी समधी की बात सुनकर आग बबूला हो गये। “मैंेने आपके लड़के को सुधारने का ठेका नहीं लिया। जब आप में लड़के का परिवार पालने की ताकत नहीं थी, तो आपने उसकी शादी क्यों की?”
“मैने तो अपना कर्तव्य का पालन किया, शादी कर दी। इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं जिंदगी भर उसका और उसके परिवार का बोझ ढोता रहूँगा।”-ससुरजी ने कहा।
अंत में दो चार खरी-खोटी सुनाकर ऊषा के पिता बेटी को साथ लिवा लाये।
ऊषा गर्भवती थी। शरीर बहुत दुर्बल हो चुका था। माता-पिता ने उसके खाने-पीने की विशेष व्यवस्था की। डाॅक्टर का भी परामर्ष लिया। लगभग दो माह बाद एक स्वस्थ शिशु के रोदन से घर-आगँन गँूज उठा। परंतु इस सुखद समाचार को सुनकर भी ससुराल से कोई न आया।
उसी समय कुछ कारणों से हमें वह शहर छोड़ना पड़ा। मुझे आज भी वह करुण दृष्य याद है। जब चलते समय ऊषा मुझसे लिपटकर बुरी तरह रो दी थी।
लगभग तीन वर्ष बाद कल अचानक ऊषा की माँ नागपुर रेल्वे स्टेशन पर मिल गई। ऊषा के विषय में पूछा तो बोली-“क्या बताऊँ बहन, उसके ससुर ने ऐसे अलग कर दिया। उनने खुली छत के ऊपर टीन का शेड डालकर दो कमरे बनवा दिये थे। वहीं ऊषा रहती थी। गर्मियों के दिन की बात है, नीचे भट्टी जलती थी और ऊपर टीन तपता था।” ऊषा दूसरे बच्चे की माँ बनने वाली थी। एक दिन गर्मी के कारण जी घबराया तो एकदम गिर पड़ी। बच्चा तो गया। फिर ऊषा को यहीं ले आये हैं।
एक हँसती खेलती बालिका को लेकर ऐसी करुण कहानी का सृजन हो जायेगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। ऊषा की माँ उसके ससुराल वालों के अपराध गिनाये जा रही थी। परंतु मेरे मन की अदालत के कटघरे में ऊषा के माता-पिता स्वयं मुजरिम बने खड़े थे।
सरोज दुबे
(प्रकाशित- मधुप्रिया जुलाई द्वितीय 1983)