क्रांति के बुझते-दीपक
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
एक मानव था, ढलती उमर-क्षुधित, उत्पीडित, जर्जर !
वह घिघिया रहा था रोटी के टुकडे के लिये।
एक मानव था- सम्पन्न
स्थूलकाय, तृप्त पुलकित।
वह भगा रहा था- हेयात्मक ध्वनि से?
और एक मानव वहीं खड़ा था। देख रहा था तौल रहा था दोनों को।
अभागा मानव नहीं मान रहा था। वह घिघियाये ही जा रहा था ।
उसकी ध्वनि में अभ्यर्थना थी। चिर श्रृद्धा थी। अभिशाप की व्यापक करुणा की नग्नता थी। चिल्ला रहा था वह “एक टुकड़ा केवल”
और वह मानव देख रहा था दोनों को।
“मालिक ?”
मानो कहा रहा था “फरियाद सुन लो बहुत भूखा हूँ । सच कहता हूँ , नसें टूटी जा रही हैं। माथा फटा जा रहा है।
आँखें पथराने लगी हैं। दया कर दो, बस एक बार। परमात्मा तुम्हारी रोजी बढ़ावे। सुन लो ईश्वर। सुन लो परमात्मा। फिर न आऊँगा कभी। एक बार भर सुन लो...”
खड़ा मानव सिर धुन रहा था, इस विकृत दशा पर।
सम्पन्न कह रहा था- “जा जा भाग जा”
अभागे पर क्या असर ? वह नहीं भागेगा। हर्गिज नहीं।
मार लो, पीट लो। चाहे जो कर लो रोटी लेकर ही जायगा वह।
और उस मानव की आँखें मानो कह रही थी “अरे, भाग जा दुष्ट। क्यों खड़ा है ?...खड़ा ही रहेगा ?.....पगला, धूर्त्त।
तूने पत्थर देखा है ? देखा होगा। वह रोता है, चिल्लाता है, आहें भरता देखा है कभी ?..........नहीं क्यों ? देखा होगा, तभी तो स्थिर है। अडिग है।...........”
तभी “मेरी मासूस बीबी मर जायगी । दया कर दो अन्नदाता......”
आँखें बरस पड़ी। सावन भादों सी। रो पड़ा वह फफक फफक कर।
अभिशाप की ज्वाला पानी बन कर आँखों की राह बह पड़ी।
और वह मानव -
‘अभागों’ ने मानो ‘उसे’ त्रिशूल मारा हो। तिलमिला उठा। चीत्कार कर उठा। विधाता के विधान में यह असाम्य क्यों ?....हाँ क्यों ?
उसकी दृष्टि में तो सब समान होना चाहिये। फिर फर्क.....हाँ, पैसे वाले उसे सोना खिलाते हैं। सोना पहिनाते हैं, सोने की सेज पर सुलाते हैं। रहने के लिए भव्य कीमती मन्दिर, हजारों नौकर चाकर।
कितना आराम देते हैं, पैसे वाले.......और गरीब ? उँह...उनके पास रखा ही क्या है ? कहते है, नंगा नहाए निचोडे़ क्या ?........खुद भर पेट खाने को नहीं। दूसरों को वह क्या खिलायेगा ? उस मानव ने अनुभव किया परमात्मा निष्ठुर है। बेदिल, बेरहम।
“कुछ जूठन ही........अन्नदाता ?”
“तेरे बाप का हंडा गड़ा है न ?”
‘वह’ मानव काँप उठा !
सम्पन्न कहे जा रहा था ‘भाग जा जल्दी। भिक्षा निषेध कानून बन चुका है, जानता है। पुलिस आ रही है, भाग जा। नहीं तो पकड़ कर ले जायगी। भाग भाग’
अभागे ने दोनों हाथ उठाकर कहा “भला करे”
काँपता सा बढ़ा खाली हाथ।
‘वह’ मानव देख रहा था।
सम्पन्न मानव हँस रहा था।
‘तारा’!
निराश्य और वेदना से ‘भिखारी’ हाँफ रहा था। पग डगमगा रहे थे।
घास फूस की उस जीर्ण झोपड़ी का सहारा लेते लेते लड़खड़ा उठा।
अस्थिचर्मावशिष्ट ‘तारा’ ने आँखें खोली धंसी, शुष्क शून्य।
आँखें खोलीं और फिर बन्द कर लीं। बड़े कष्ट से निहारा। जीभ से सूखे होंठ चाटे। ‘आह’ छोड़ कर गर्दन सीधी की। फिर अस्फुट ध्वनि में बोली-
“आ......गये....?”
वेदना के आँसू पीकर भिखारी ने माथा ऊँचा किया। मानो उसकी नजर कह रही थी “क्या तुम समझी थीं कि न आऊँगा ?”
“लाये ..........?” उसने पूछा।
“हाँ, लाया हूँ ।” उसने कह दिया।
“क्या”.............और एक उत्कट आशा जागृत हो उठी।
“रोटी। और क्या ?......खाओगी ?”
तारा ने दोनों हाथ पसार दिये। मानो कह दिया ‘लाओ, दो”
“आज नहीं, कल। हाँ, कल। आज फिर सही उपवास। ठीक है न ? कल दिवाली है, सबकी और अपनी भी। दिया जलेंगे, जगमग जगमग। मैं भी........तुम भी जलाओगी न ?”
और वह क्रूर ध्वनि से अट्हास कर उठा।
“रोटी”
“मान जाओ, रानी। नहीं ?...आज ही खाओगी.....फिर कल ?...सोच लो। मुझे क्या ? लो, आज ही लो।”
भिखारी ने पोटली खोलकर रख दी।
तारा का हाथ दौड़ा!
क्या ?.......पत्थर !!
बिजली सी काैंधी पत्थर !!!
“खाओ- अरे, खाती क्यों नहीं? खाओ, रानी !!”
फिर अट्हास।
‘छि: यह क्या कर रहे हो मित्र ? देवी को पत्थर ? उफ, फेंक दो उसे”
दोनों की नजरें मुडीं। आश्चर्य से निहारा। दरवाजे पर एक युवक खड़ा था। सुन्दर सुडौल।
‘नहीं पहचाना ?” युवक आकर बैठ गया। “मै हूँ नीरज। पहिचान गये ? जेल वाला नीरज ?
“नीरज”
भिखारी की रूह काँप गयी।
नीरज ?
तारा की आँखें सजल हो उठीं।
“नीरज तुम ..........?”
भिखारी का हृदय गदगद हो उठा।
“और तुम्हारी यह क्या दशा है ? राष्ट्र के भावी कर्णधार ! तुम भिखारी ? अरे यह क्या स्वांग है। तुम भिखारी कैसे बन गये मित्र ?”
नीरज के इस प्रश्न से ‘भिखारी’ ने देखा, मानो कह रहा हो जो मानव आदि से ही समर्पणमय हो, त्यागी हो, वह कभी सम्पन्न बन सकता है। नीरज तुम भी कैसे बातें करते हो। तुम तो..............
और नीरज ने पोटली खोलकर रख दी। रोटी नहीं मिष्ठान्न था।
“लो, पहिले खालो। फिर बातें होगीं।
“मैं भूखा नहीं और तारा ? तारा भी नहीं। कष्ट क्यों किया नीरज ?”
“यश, तुम बड़े हठी हो। खा लो इसे... मेरी कसम खा लो।”
”नीरज”
यश की आँखें बह पडीं।
तारा भी रो उठी, साथ ही नीरज।
यश ने पोटली ले ली।
.....नीरज और यश। दोनों क्रांतिकारी थे। सन् उन्नीस सौ बयालीस में स्वतंत्रता के संग्राम में दोनों को पारितोषिक स्वरूप मिला कारगार। पाँच वर्ष के कारावास में दोनों घुल मिल गये, एक हो गये।”
देश स्वतंत्र हुआ। दोनों कारावास से मुक्त हुए और फिर दोनों जुदा जुदा हो गये।
नीरज ने पूछा और बहन तारा से कैसे मुलाकात हुई ?
‘कारागार से मुक्ति के बाद तारा मुझे न मिली। मेरा शरीर टूट गया। दर दर छानी। तारा को खोजा । आखिर एक दिन मेरा अविरल प्रयास सफल हुआ। तारा मिल गयी। तारा मिली किन्तु भिखारिन के वेष में। उसके बाद मैं बीमार पड़ गया। मेरी हालत न सुधरी, मेरा स्वास्थ दिनों दिन गिरता गया। उठने की क्षमता मेरी खत्म हो गयी थी। अब हमारे पास जीवन यापन का कोई चारा शेष न रहा । मैं पंगु था ही। कौन मुझे कार्य देता ? मैं भिखारी हो गया, नीरज !
....और आज भी भिखारी हूँ ।.......लगता है, जीवन के अन्तिम क्षण तक भिखारी रहूँगा।”
यश ने पकड़कर कहा “नीरज कैसे पागल हो”
नीरज की आँखों में लबालब आँसू भरे थे। उन्हें पोंछकर नीरज ने कहा “भैया यश बात मानोगे एक। कसम मेरी खाकर कहो, हाँ”
“मानोगे ?..........सच ?”
“हाँ।”
“तो चलो, आज से तुम दोनों मेरे यहाँ”.....
“चलूँ । यही न ?”
नीरज ने सउल्हास सहमति सूचक सिर हिला दिया।
क्षण भर यश मौन रहा। कुछ सोचा फिर बोला “नीरज कल से तुम्हारे यहाँ,.....नीरज, हम दोनों रहेंगे”
नीरज को मानो वरदान मिल गया।
दूसरे दिन, दिन भर नीरज व्यस्त रहा। यश और तारा के लिये कपड़े खाने की सामग्री आदि का बन्दोबस्त करता रहा। गोधूली बेला में वहाँ इक्का लेकर चला।
आज दीवाली थी। सारा वातारण जगमगा उठा था। चतुर्दिग आनंद का त्यौहार.....और नीरज का हृदय खुशी से उछल रहा था कि आज उसे मानो अपना बड़ा भाई और बहन मिलने वाली है.... जीवन में वह अमृत पा जायगा।
यश की कुटी आ गयी। इक्का रुक गया।
नीरज ने आगे बढ़कर देखा तो अनायास उसकी खुशी पर बज्र टूट पड़ा। दोनों ने इस संसार को त्याग दिया था और देखा नगर कमेटी के लोग उन्हें लावारिस समझ कर गाड़ी में डाल रहे थे.....
यह क्या हो गया ? नीरज को काठ मार गया। सन्न सा रह गया शरीर। उसमें चेतनशक्ति न रही और गिर पड़ा।
नीरज के हृदय की घनीभूत वेदना आँखों से टपक पड़ी, टप् टप्....। वह बोला- “यश, वास्तव में तुम कल सच्चे विद्रोही थे और आज सच्चे त्यागी हो....तुम अटल वीर तुम धन्य हो”।
नीरज का माथा झुक गया। तब मानो वह दिशाओं को सम्बोधन कर कह रहा था- “देखा भ्रान्त मानव आज दीवाली मना रहे हैं.....दीपक जल रहे हैं, नये नये परिधान में......पर ये क्रांति के बुझते दीपक ?.....इनको जलाने की शक्ति ?”
और दिशायें मौन एकदम चुप थीं।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’