लाल चुनरिया
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
ठंड की कड़कड़ाती रात। गाँव के घर-घर में आग जल रही थी। मातादीन के घर के सामने परछी में अलाव था। कई आदमी एकत्र होते थे। आज उनका पड़ोसी झगडू भी बैठा था, जो अभी शहर से लौटा था। छः महीने बाद वापस आया था। शहर की रंगीनियाँ सुना रहा था। मातादीन, जानकी प्रसाद, बुधुआ, लल्लन आदि बड़े चाव से सुन रहे थे। भीतर दरवाजे की ओट में मातादीन का लड़का जानकीप्रसाद और उसकी पत्नी मन्नी भी बैठी थी। शहर की विचित्र बातें सुनकर गुदगुदी उठ रही थी, उसके दिल मेें।
झगडू की धारावहिक वार्ता जारी थी। ‘लोग कहते है, स्वर्ग आसमान के ऊपर है, लेकिन उनका यह खयाल बिलकुल गलत है। दादा शहर स्वर्ग से भी बढ़कर है। ऐसी ऐसी चीजें देखने को मिलती हैं वहाँ कि कहते नहीं बनता।’‘छक छक’ करती रेलगाडी ...‘पों पों’ करती मोटर.....‘खट् खट्’ करता ताँगा बग्घी .....टन टन करता रिक्शा....इतना मजा आता हैै कि अब क्या कहूँ तुमसे तरह तरह की दुकानें सब अपनी अपनी जगह में एक कतार से लगीं हैं। सिनेमा अलहदा......तमाशे, अलहदा...ऐसा लगता है-दिन भर खड़े देखते रहो। एक बात और संझा भई न तेल की जरूरत न दिया की.......सड़कों पर लगे खम्भे, आप ही आप एक साथ जल उठते हैं। कितनी सुहावनी लगती है वह रोशनी’।
झगडू की बातों पर कुछ को विश्वास होता, कुछ को अविश्वास। वे सोच उठते जैसा झगडू कह रहा है, क्या सच हैं ये बातें ?
जानकी जो अब तक चुप था, कुछ सोच विचारकर बोला ‘अब कब जाओगे, झगडू ‘परसों -नरसों ‘ का विचार है, जानकी भाई
झगडू बोला- ‘रमिया को लेने आया था’।
जानकी ने पास में बैठे अहमद से धीरे से पूछा। ‘ क्या भाई क्या विचार है ?’
‘जैसा तुम्हारा हो’
अहमद ने कहा ‘मेरा तो पक्का विचार हो गया है। तुम्हें भी चलना पडे़गा। आज रहे कल न रहे एक इच्छा बाकी रह जाएगी दिल में।
‘इच्छा काहे को बाकी रखो भाई, पूछ लो न दादा से’।
जानकी ने पुकारा ‘दादा’
‘क्या है रे ?’
‘हम शहर जायेंगे, दादा अहमद भी हमारे साथ जायेंगे। काम काज लग गया तो कुछ दिन रुक जायेंगे, नहीं तो चले आयेंगे’
मातादीन कुछ न बोले केवल सिर हिला कर रह गये।
.........और किवाड़ की ओट में बैठी मन्नी का हृदय..........? एक अज्ञात आशंका से ऊपर नीचे हो रहा था। न जाने क्यों उसे शहर जाने की बात पसंद न आयी थी ? वह झगडू की बातें सुनकर जितनी अधिक खुश हो रही थी, उससे अधिक दुखी हो गयी।
सबने कहा- ‘ मेरे लिए ये लाईयो, मेरे लिए वो लाइयो। पर तू कुछ नहीं बोलती मन्नी ? आखिर क्यों.........?’
-’मन्नी चुप’ ! हृदय अब भी वैसा ही कह रहा था।
‘परसांे रात से देख रहा हूँ । तू अनमनी सी रहती है। न वो हँसी, न मुस्कराहट, न वह चपलता... तुझे तो प्रसन्न होना चाहिये.......मैं शहर जा रहा हूँ , अच्छी जगह जा रहा हूूँ।
वेदना पिघल गयी। आँसू छल छला आये, उसकी बड़ी बड़ी आँखों में।
‘आँसू ! तेरी आँखों में आँसू, मन्नी कैसा कर रही है री !! अच्छा, मैं समझा, तुझे मेरे जाने का दुख हो रहा है। पगली...’ कहकर जानकी ने मन्नी को गुदगुदाया- ‘अरे मैं हमेशा के लिए थोड़े ही जा रहा हूँ । थोडे दिन रहूँगा। फिर लौट आऊँगा तेरा भइया अहमद भी तो जा रहा है, मेरे साथ। मन्नी की उदासीनता दूर न हुई जानकी ने लाख प्रयत्न किये, पर असफल रहा।
अन्त में जानकी झल्ला उठा-‘मुँह बनाकर बैठी है........बाप मर गया हो, जैसे कुछ मिजाज ही नहीं मिलता...।’
मन्नी के आँसू इस चोट से और छलछला आये। झर झर कर निकल पड़े आँख के कोरों से। आज तक मन्नी का रोना जानकी ने न देखा था। यह प्रथम अवसर था, अतः उसका कृत्रिम क्रोध दया की आर्द्रता में परिणत हो गया।
‘तू चूप थी, इसलिए गुस्सा आ गया, मन्नी वरना तू बोल। आज तक कुछ कहा तुझसे ?’‘फिर रोती क्यों है ?
‘बाप की याद आ गयी।’ बात बनायी मन्नी ने।
‘ओह, मैंने क्या समझा था’ठंडी सांस ली जानकी ने‘ अच्छा बता, क्या लाऊँगा तेरे लिए ?
‘जो अच्छा जँचे’
‘तू बता न ?’
‘कह दिया न जो मन भाये ....।’
‘लाल चुनरिया लाऊँ ? तुझे पसंद है न ?’
‘हाँ’ अवरुद्ध कण्ठ से कहा उसने !
मानो जानकी इसी उत्तर की प्रतीक्षा में था। झट से बाहर निकल गया।
मन्नी के प्राण छटपटा उठे। मानो उसका प्रियतम हमेशा के लिए विदा हो गया है। वह हृदय के उद्विग्न बेग को न रोक सकी। रो पड़ी फूट-फूटकर। झगडू, मोहनिया, अहमद बाहर खड़े थे। बहुत से आदमी एकत्र थे। जानकी अपने बाप के पास गया। पैर छुए, ममत्व फूट पड़ा बाप का। जानकी ने कोई खयाल न किया, उसके हृदय में तो आज ऐसी उमँग थी.........जो उसे विक्षिप्त कर रही थी।
और मन्नी..............?
बेबस पंछी पिंजडे में तड़प रहा था। पर उसके निष्कपट प्रेम को कैद करने वाला दूर निकलता जा रहा था ..................क्रमशः दूर।
एक माह बाद जानकी का पत्र आया।
अहमद और वह मजे में है। एक ही कमरे में रहते हैं। जानकी रिक्शा चलाता है और अहमद एक कपड़े की दुकान पर काम करता है और साथ में रुपये भी भेजे थे जानकी ने’।
एक दिन शहर में अनायास दंगा हो गया।
मामूली बात ने तूफान मचा दिया।....दो आदमियों की आपस की लड़ाई की घटना ने साम्प्रदायिकता का बवण्डर खड़ा कर दिया ..... मौकेे से लाभ उठाने वाले उपद्रवी कृतघ्न लोगों ने हवा फैला दी कि ‘हिन्दू मुसलिम झगड़ा हो गया’ दूकानें और बाजार बन्द होने लगे ! चारों ओर भगदड़ मच गई। भय व दहशत का माहौल बन गया। हिंसा, लूटपाट, आगजनी ने जोर पकड़ लिया।
अचानक अहमद को जानकी का खयाल आया। अभी अभी वह आगे के बाजार से कुछ लेने गया था। कहीं फँस तो नहीं गया वह ? हृदय सिहर उठा अहमद का। दौड़ा पागल सा। सभी लोग इसी ओर को भागे आ रहे थे लेकिन वह विपरीत दिशा को भाग रहा था...न जाने क्यों उसका हृदय भय से आतंकित हो उठा था।
जानकी का रिक्शा...............खाली रिक्शा............विकल दृष्टि रुकी ! कॉप उठा वह !! लड़खड़ा पड़े पैर !!! पास आया देखा, जानकी का लहू लुहान शरीर और बगल मे दबी थी लालचुनरिया.............लालचुनरिया ! चीखा पड़ा अहमद, सिर पटक दिया खून से लथपथ जानकी की छाती पर।
अहमद के पग बढ़ते ही न थे। बीच बीच मे काँप उठता था वह। जानकी ....उसका पिता......इकलौता बेटा...चुनरिया बगल में दबाये था। और आँखों में लिये था, आँसू...
गाँव मे उसे देखकर लड़के दौड़ पडे। क्षण ही भर में गाँव में खबर फैल गयी।
‘अहमद आया है शहर से’
मन्नी ने सुना। उसे तो वरदान सा मिल गया, दौड़ पड़ी द्वार पर। दिल तो कह रहा था कि दौड़कर पगडंडी पर पहुँच जाये और अपने प्रियतम के चरणों में गिर पड़े। किन्तु समाज के बन्धनों ने उसे पीछे खींच लिया फिर भी आँखों में आशा चमक उठी - ‘आ रहे है वे, दर्शन होंगे’।
दूर से देखा अहमद चला आ रहा है। हाथ में लिये लाल चुनरिया।
अहमद को आता देख मातादीन उठे।
‘आओ बेटा अच्छे तो रहे ?’
अहमद चुप। जैसे काठ मार गया हो।
‘बड़े दुबले हो गये बीमार रहे क्या ?’
मानो अहमद के जिव्हा ही नहीं
‘बड़ा नटखटी है रे, कैसा मुँह बनाकर खड़ा है। ये क्या........लालचुनरिया ?......भाभी को लाया है ?’
अहमद स्तब्ध, मौन !
‘जानकी को कहाँ छोड़ आये ?
आँसू, टपक पड़े... मन्नी सिहर उठी, तड़प उठी।
‘मेरा जानकी कहाँ है ? बूढा कंठ चिल्ला उठा !
‘चाचा ...जानकी....अब न जायेगा....!’
‘क्यों’?
दिशाएँ डोल उठी।
‘परमात्मा के यहाँ.....’और रो पड़ा अहमद।
‘अहमद’!! बूढी आँखें रो पड़ी’ मेरा बेटा नहीं मर सकता। नहीं मर सकता !!’ वृद्ध मातादीन को ठेस लगी। ऐसी ठेस लगी कि उसकी आँखों के अंधेरा छा गया। पृथ्वी घूम उठी !
‘जानकी ! जानकी !!’
मातादीन पागल से दौड़ पडे़।
मन्नी निष्प्राण सी अचेत होकर गिर गयी। अहमद पत्थर सा रह गया। बहते रहे आँसू....छल छल छल.....
पर लालचुनरिया....?
अहमद के हाथों में लालचुनरिया हवा में फड़-फड़ा रही थी।
अभी भी अहमद के हाथों में वह उड़ रही थी, मानो उससे कह रही हो, भाई मुझे जकड़ क्यों रखा है ? बता, मुझे पहनने वाली कहाँ हैं ? मैं उससे लिपट कर रोऊँगीे। उस अभागिन के शरीर में लिपट कर उसे ठंडक पहुँचाऊँगी.....
.....और उस गाँव का वातावरण पूछ रहा था- शहर स्वर्ग है ? स्वर्ग... ? नहीं !!
इंसानों को धर्म-मजहब, ऊँच-नीच, जात-पाँत, में बाँटने वाला है।
और यह इन्सानियत को एक ही घूँट में पीने वाला क्रूर.......नृशंस........दैत्य है !!!
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’