माँ
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
मन का दर्पण जब गर्द की मोटी पर्त से ढक जाता है, तब उसमें अपनी तस्वीर धुंधली दिखती है। साफ होने से, तस्वीर भी साफ दिखती है। इसी तरह उत्पन्न अच्छे-बुरे विचार हैं। उन्हें ओढ़े रहने से जीवन प्रभावित होता है। अतः समय पर निदान करना ही समझदारी है।
नरेश की शादी दो साल पहले हुई। सुंदर पत्नी थी, शिक्षित थी। पर पुलिस आफिसर की पुत्री होने से सामान्य नारियों से विचार भिन्न थे। इकलौती पुत्री के नाते माता-पिता का अधिक स्नेह भी उसके गर्व को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ। वातावरण के अनुरूप अपने को परिवर्तित करने की क्षमता का उसमें अभाव था। अतः शादी के बाद, थोड़े दिनों में, नरेश की माँ से मतभेद हो गये। इस कारण, दुखी रहता। माँ की त्याग तपस्या के कारण ही उसने जीवन पाया है, इसलिये उसके मन मंदिर में माँ सर्वोपरि हैं, उसके बाद अन्य। किन्तु सरोज का यह मान्य नहीं था। वह चाहती थी, नरेश केवल मेरा होकर रहे।
नरेश में, मां के दुख भरे जीवन से प्रभावित संस्कार थे। माँ को संसार में सबसे अधिक त्यागमयी समझता था अतः दोनों अपनी जगह ठीक हैं। सरोज में भावों-विचारों का परिवर्तन आ सकता है। पर कैसे आये ? बलात् कोई विचार थोपना-लम्बे समय तक असर नहीं डालता। असर के लिये सरोज स्वप्रेरित हो-तभी स्थायी परिवर्तन हो सकता हैं।
रविवार का दिन था। पिकनिक का प्रोग्राम बना। इस बार भेड़ाघाट का प्रोग्राम बना। वहाँ का जलप्रपात, चौंसठ योगिनी मंदिर, पंचवटी, बंदर कूदनी दर्शनीय स्थल हैं। भ्रमण के उपरांत दोनों एकांत में एक चट्टान पर बैठ गये। नरेश ने अपनी बात कहने का यह समय उपयुक्त समझा।
“सरोज हम यहाँ विश्राम की दृष्टि से बैठे हैं इसलिये की थक गये हैं। ऐसे समय में अपने जीवन की सच्चाई तुम्हें बताना चाहता हूँ। यह बात मुझे तुम्हें बहुत पहले ही बता देना था। पति-पत्नी के बीच सामंजस्य के लिये एक दूसरे के अतीत से भी परिचित रहें, तो जीवन स्वस्थ व प्रसन्न रहता है। यदि हमने गोपनीयता रखी, कृत्रिम प्रतिष्ठा की साख रखी तो भविष्य दुखदाई रहेगा। मेरा तुमसे अनुरोध है, कि मेरी बात तन्मयता से सुनकर, मुझे अपनी भूल सुधारने का अवसर दो।”
सरोज थकी थी। मंद मुस्कान से नरेश को देख, खुशी से सहमति दी। नरेश ने बात का क्रम जारी रखा - “सरोज, तुम उच्च शिक्षा प्राप्त नारी हो। अच्छे कुल के संस्कार तुम्हारे जीवन में हैं। यह तुम अच्छी तरह जानती हो, कि ऊँची इमारत पुख्ता नींव के बिना नहीं बनती। कुछ इसी तरह के विचार मेरे जीवन के संदर्भ में हैं। तुम्हारा पति आज सिविल जज है। मान प्रतिष्ठा है। पर कल क्या था ? किसके प्रयास से वह यहाँ तक पहुँचा। वही बताना चाहता हूँ।” सरोज सुन रही थी।
नरेश बोला -“जब मैं चार साल का था। जब माँ, विधवा हो गई। शादी के बाद उसे केवल पाँच साल का पति सहवास मिला। पिता जी एक सेठ के यहाँ कार्यरत थे। कोई पैतृक सम्पत्ति भी नहीं थी। अन्य कोई साधन सहारा भी नहीं था। ऐसी स्थिति में, विधवा नारी की क्या मानसिक दशा होगी। शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। पति विछोह से माँ किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गई। जीवन की इतनी लम्बी यात्रा, अकेले वह कैसे काटेगी वह। कैसे इस नन्हंे बालक का लालन पालन करेगी ? इतनी शिक्षित भी नहीं, कुछ काम कर सके। केवल मजदूरी योग्य है। समय के साथ धीरे-धीरे उसने अपने को संयत किया। परमात्मा ने उसे दुर्दिनों की चक्की में डाल ही दिया, तब उसमें साहस से निपटने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं। नारी में पुरुष की अपेक्षा अधिक सहनशीलता होती है, यह तुम अच्छी तरह जानती हो। अतः मॉं ने, मुझे पालने में ही प्रमुख ध्येय बनाया। मजदूरी करना आरंभ कर दी। प्रारंभ में एक दाल-मिल में काम किया। यौवनावस्था के कारण अनेक प्रकार की कठिनाइयां भी झेलती रही। पर मुझे शिक्षित करने में कोई कसर बाकी न रखी। कष्ट झेलती रही, मुझे पालती रही। कई मौके आये, बीमारी में बर्तन भी बेचने पड़े।”
नरेश की आँखें गीली हो गई थी! रूमाल से आँखें साफ कीं। सरोज में सुनने की जिज्ञासा बढ़ रही थी। बोली- ‘कहते रहिये, मैं सुन रही हूँ।’
“माँ ने बचपन में मुझे जो संस्कार दिये, उसके कारण, दिन-रात पढ़ाई की, कि मुझे कुछ बनना है। और जब मैंने मेट्रिक की, तब मुझमें विश्वास जागा कि मैं कुछ करुँ। उसका सहारा बनूँ। काम पर से जब वह शाम को लौटती थी, तब उसका मुरझाया थकान भर चेहरा देखकर रोना आता था। उसने अपनी यौवनावस्था की आशायें, उमंगे बलात् संयम की भट्टी में गरम की थी। अतः उसका असर शरीर की दशा देखकर लगाया जा सकता था। मैंने तब कुछ बच्चों को पढ़ाकर अतिरिक्त आय कमाने की सोची। किन्तु कमरा एक ही था, वह भी बहुत छोटा सा, कच्ची मिट्टी का खपरैल वाला। फिर भी चार बालकों के साथ दो माह का समय उसी में काटा। तीसरे माह एक अतिरिक्त कमरा किराये पर लिया। पढ़ने वाले बालकों की संख्या बढ़ी। टय्ूशन से मिलने वाली राशि बढ़ी। माँ की थकावट कुछ कम हुई। मेरी काम की लगन, उत्साह बढ़ता गया। मैंने जब बी.ए. की डिग्री पायी मेरिट में, तो उस दिन माँ की प्रसन्नता का कोई ठिकाना न था। जैसे उस दिन उसे अपनी त्याग, तपस्या का फल मिल गया हो। पर मुझे संतुष्टि न थी। ‘लॉ’ करने के लिये सोचा। फिर पढ़ाई चालू की। ट्यूशन भी करता रहाँक्रमशः माँ का भरोसा भी बढ़ता गया। एल.एल.बी. करने के बाद सीनियर वकील के साथ कोर्ट जाने लगा। कुछ आय बढ़ी, तो माँ का काम पर जाना छुड़ा दिया। प्रेक्टिस के साथ मैंने पी.एस.सी. का फार्म भरा था। उसमें भी दोनों तरह की परीक्षाओं में सफल रहा।”
नरेश रुक गया। सरोज बिल्कुल उससे सट गयी थी। उसने पूछा- “फिर ?”
“सिविल जज बन गया।” नरेश ने कहा -“माँ ने अपनी तरफ से शादी का प्रयास मेरी प्रेक्टिस आरंभ करते ही चालू कर दिये थे। पर मुझे मनाने सफल न हुई। मैंने उन्हें वचन दिया - माँ, मैं अपनी शादी तुम्हारी इच्छा के अनुरूप ही करूँगा। यह जीवन तुम्हारे दृढ़ संकल्प से बना है। यदि तुम आंरभ में टूट जातीं तो क्या मैं इस ऊँचाई तक पहँुच पाता ? और सरोज माँ की सहमति के बाद तुम मेरी जीवन संगिनीं बनीं।
नरेश रुक गया। उसकी आँखें पुनः गीली हो गई थीं। अबकी बार सरोज ने उसकी आँखें पोंछीं।
“इसके बाद का विवरण मुझे मालूम है। ‘सरोज ने आत्मीयता से कहाँ’ नरेश तुमने अपने जीवन की सच्चाई बताकर मुझ पर भी उपकार किया है, अब घर चलें।” काफी शाम गुजर चली है।
वह खड़ी हो गयी। लौटते समय सरोज, चुप रही। गुमसुम सी, पश्चाताप् की अग्नि में जल रही थी। दरवाजे पर माँ को इंतजार करते खड़ा पाया तो सरोज ने दौड़कर माँ के पैर पकड़ लिये। रोते हुये कहा - माँ, मुझे क्षमा करो।” तो माँ ने उसे बलात् उठा हृदय से लगा लिया।”
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’