मझधार में
सरोज दुबे
सरोज दुबे
मैंने उन सब शृंखलाओं को निष्ठुरता से तोड़ डाला था, जो मुझे आपसे जोड़ती थीं। मुझे आपसे जुड़ी हर चीज से घृणा हो चुकी थी। आपके संबंधी, आपके परिचित सब निर्दोष होते हुये भी मेरी नजरों से गिर गये। लेकिन कभी-कभी अनजाने में कोई न कोइ्र्र सूत्र अवश्य जुड़-सा जाता है। अभी कल की ही बात है। एक विवाह में सुनील से भेंट हो गई। एकांत मिलते ही बोला-“भाभी, भैया आपकी बहुत याद करते हैं। बड़ा दुखी जीवन है, उनका! उनकी कहानियाँ पढ़ी हैं, आपने?”
“आज बीस वर्ष बाद यह सब कहने में क्या तुक है, सुनील! ...किसी दूसरे विषय पर बात करो”- मैंने रुखाई से कहा।
“सब घरवालों की गलती थी, भाभी !”- आम लोगों की तरह उन्होंने भी आपके परिवार वालों को दोष दिया।
उसकी इस बात में कितना सत्य था, यह वह नहीं जानता था। पर आप सब जानते हैं। जानकर भी वास्तविकता को झुठलाना चाहते हैं। आपकी समझ से सारा दोष आपके अम्मा- बाबूजी का था। कहिये तो, अन्याय होते देखकर भी मौन रह जाने वाले व्यक्ति का अपराध किस प्रकार कम है? आपका कोई कर्तव्य नहीं था? मेरी मान-मर्यादा की रक्षा का भार आप पर नहीं था? वह कौन-सा आदर्श कौन सा सिद्धांत था आपका कि पत्नी गालियाँ खाती रहे, पिटती रहे और पति ही नजरें चुरा कर चलता बने।
मैंने आपकी दो तीन कहानियाँ पढ़ी हैं, मुझे पता है। आज मेरा दर्द आपके हृदय को साल रहा है। पर अब क्या लाभ है उसका, किसी के जीवन को बर्बाद कर देने के बाद आँसू बहाने से क्या फायदा? आपके आँसुओं से मुझे क्या । मेरा जो होना था वह तो हो ही चुका है। अब संसार को सुना सुना कर आत्मकथ्य कहते रहिए। बस यही तो कर सकते हैं आप! अपनी साधुवृत्ति का प्रचार करना और घरवालों के सिर पर सारे दोष मढ़ देना यही तो उद्देश्य है न आपका।
सुनील कहता था, आपने मेरी याद में पुनर्विवाह नहीं किया। बड़ा अहसान किया मेरे ऊपर! उसके लिये आपको साधुवाद देना चाहिये, नहीं? सिर्फ विवाह के ही नाम पर हृदय कैसे पसीज गया आपका? आपके विवाह करने या न करने से मेरी स्थिति में क्या अंतर आने वाला था?
अब तो आपके सब भाई-बहिनों के विवाह हो चुके हैं। सुनती हूँ, सब बहुएँ सुखी हैं। अम्मा का वह तेज राख बनकर रह गया है। आपके और भाई आपकी तरह दब्बू थोड़े ही हैं पत्नियों पर अकारण होनेवाले अत्याचार को सहने से उन्होंने साफ इंकार कर दिया होगा। कहाँ गई अब अम्मा -बाबूजी की वह तेजी? लड़कों का रुख देखकर वे खुद ही शांत हो गयीं, सारा रुआब धरा रह गया।
सुनती हूँ, आपकी आज भी वही जिंदगी है। आप अपनी कहानियों में तेजस्वी पात्रों की रचना कर सकते हैं- विद्र्रोह के गीत गा सकते हैं, पर वास्तविक जीवन में रहेंगे कायर ही। सच बात कहने की -अन्याय का प्रतिकार करने की शक्ति आप में है ही कहां। आप दूसरों को राह दिखाने का दम भर सकते हैं- मंजिल की बुलंदियों पर पहुँचने का स्वप्न दिखा सकते हैं, पर स्वयं रहेंगे मझधार में ही।
माँ हमेशा कहती थीं--,“मेरा दामाद बिल्कुल ‘गऊ’ है।” तब वे क्या जानती थीं कि आपका यही ‘गऊपन’ मेरे जीवन में विश घोल देगा। ‘गऊ’ भी समय आने पर अपने सींगों का प्रयोग कर लेती है, पर आप में तो वह सामथ्र्य भी नहीं है। और सच कहूँ? यह आपका गऊपन नहीं है, यह ओढ़ी हुई मक्कारी है! ढोंग है! अपनी कमजोरी को छिपाने का नाटक है! दिखावा है! ‘गऊ’ कहलवाने में आप शायद गौरव का अनुभव करते होंगे पर मुझे तो अब यह विशेषण कायरता और बुजदिली का ही प्रतीक लगता है।
एक दिन किसी बात पर आपकी अम्मा खूब नाराज हुई थीं। मैं अपने कमरे में बैठी न जाने कितनी देर तक रोती रही। बड़ी रात गये आप दुकान से लौटे तो मुझे देखकर बहुत क्षुब्ध हुये थे। फिर दुखी होकर बोले थे-“मालती, तुम नहीं जानती मैं कितना मजबूर हूँ। मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूँ । बिजनेस के लिए पूँजी भी मेरे पास नहीं। अलग होने की बात कहूँगा तो बाबूजी फूटी कौड़ी भी नहीं देंगे। तुम्हें लेकर कहाँ जाऊँ ! ”उस दिन आपकी मजबूरी को मैंने रोते हुये स्वीकारा था। लेकिन जब मेरे सम्मान का प्रश्न आया, तब भी आपको अपनी मजबूरी ही याद आती रही? दुनिया में खुले आकाश की भी कमी थी?
पेड़ की छाया में भी मैं आपके साथ खुशी से रह लेती। डिग्री और पूँजी के अभाव में क्या लोग जीते नहीं है? पर आप तैयार होते तब न! आपको वहाँ फ्रिज का पानी कहाँ मिलता? रात को दूध पीने की आपकी आदत का क्या होता? और रात-दिन गद्दियों पर पैर रखकर बैठने वाले आप जमीन की कठोरता को बर्दाश्त कर पाते? सोने-चाँदी के सिक्कों के लिए पसीना बहा पाते? इसी से तो आपने अपना अलग रास्ता चुन लिया था।
आपके परिवार के लोगों ने कभी सीधे मुँह बात नहीं की। गंदी-गंदी गालियों के सिवा मुझे कुछ नहीं मिला। अम्मा ने कितनी ही बार मारा-पीटा । पता नहीं आपके परिवार को लोग किस दृष्टि से सुसंस्कृत कहते थे! शायद पैसों की वजह से! वैसे किसी में इन्सानियत तो थी ही नहीं ! क्या कसूर था मेरा? बस यही न कि मेरी माँ आपके माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाती थीं। सब देख-सुन कर भी आप की जबान कभी नहीं खुलती थी। अपने व्यक्तिगत् स्वार्थ के लिये ही सही पर आपके संयम की तारीफ की जानी चाहिये।
अकेले में आप, मेरे चोटों को सहलाते और धीरज देते। मैं चिढ़ती, रूठती और कई बार आप पर क्रोध भी करती फिर भी मेरे मन में आपके लिये श्रद्धा थी, प्रेम था। पर अब मेरा भ्रम टूट चुका है।
दमे की बीमारी के कारण माँ की हालत गंभीर हो गई थी। मेरे मझले भैया मुझे लिवाने आये थे, अम्मा ने उस दिन कितनी ही बातें सुनाई थीं। उन्होंने मुझे भेजने से भी इंकार कर दिया था। मेरे बहुत रोने-धोने पर अनेक कठोर षब्द कहते हुये अंत में उन्होंने जाने की इजाजत दी थी ।
मैं साल भर मायके में रही। आप-आज्ञाकारी पुत्र! एक लिफाफा खरीद कर दो पंक्तियाँ भी कभी नहीं लिख सके। न और किसी ने ही मेरे पत्रों के उत्तर देने की जरूरत समझी। एक दिन जाने कैसे धूमकेतू की तरह आप अचानक आ टपके। किसी मित्र की बारात में आये थे। आप माता पिता की चोरी से एक दिन के लिये आये थे।
कुछ ही माह बाद शांति दीदी की शादी में विमलेश लिवा ले गये थे। घर में पैर रखते ही आपकी अम्मा ने सिर से पैर तक नजर दौड़ाई। प्रकृति ने आपकी चोरी पकड़ ली थी। अम्मा ने सब काम छोड़ कर मुझे आड़े हाथों लिया। मजबूर होकर मैंने सब बात सच-सच बता दी। गुस्से के मारे अम्मा का चेहरा लाल हो उठा था। तुरंत आपको बुलवाया गया। पता नहीं दूसरे कमरे में आपसे उनकी क्या बात हुई पर अम्मा की बात से यही जाहिर हुआ कि आपने मेरी बात को झूठ करार दे दिया। मैं आपसे मिलना चाहती थी पर मुझे इसकी इजाजत नहीं दी गई। “हमारा लड़का-हमारा खानदान ऐसा नहीं हैं”-अम्मा ने गरजते हुये कहा।
मार पीट कर अपमानित करके और मेरे मायके वालों की अनेक पीढ़ियों का उद्धार करते हुये मुझे वापस मायके भेज दिया गया। आपकी संवेदनशीलता , भावुकता और उदारता कहाँ गई थी उस समय? दे सकते हैं आप मेरी इस बात का जवाब?
आपके तलाक के नोटिस ने मेरी माँ के प्राण ले लिये। आप लोग इतनी नीचता पर उतर आयेंगे यह तो किसी ने सोचा भी नहीं था। भैया लोगां का यह अटल विश्वास था कि आप कोर्ट में अपने पिता श्री के सामने सच बोलने की हिम्मत कर ही नहीं सकते। एक मेरे ही हृदय में यह विश्वास था कि चाहे जो हो, मैं आपकी पत्नी हूँ, भरे कोर्ट में आप मेरी इज्जत नहीं लुटने देंगे। लेकिन मेरा विश्वास झूठा निकला। मेरी आँखों की याचना व्यर्थ हो गई। देवी देवताओं से माँगी गई मनौतियाँ निश्फल हो गईं। आप निष्ठुर होकर झूठ बोल गये।
उसी दिन मैंने आपकी असलियत को पहचाना आप छोटे बच्चे नहीं थे कि माता-पिता ने आपको बहका लिया हो। वैसे भी इस विषय में उन्हें दोष देना बेमानी होगी। उन्हें तो वास्तविकता का पता ही नहीं था। मेरे ऊपर होने वाले हर अत्याचार के पीछे आप थे। आपका मौन और आपकी दुर्बलताएँ थीं। माता-पिता की नाराजगी के भय से आप झूठ बोल गये। ईश्वर का भय आपको नहीं लगा। पत्नी और होने वाले संतान का मोह नहीं हुआ। श्रवणकुमार के बाद माता-पिता के भक्तों में आपका ही नाम आना चाहिये। पर नहीं... मेरा यह कहना भी अनुचित है। आप माता-पिता के भक्त थे ही कहाँ ? आपको तो उनकी संपत्ति का लोभ था। अपने स्वार्थ के लिये आप आज्ञाकारी होने का ढांेग रचते रहे। नहीं तो कहो आज कहाँ गई वह भक्ति! वह श्रद्धा! आज क्यों उनके अपराध गिना रहे हो? आज क्यों समाज के सामने उनके चरित्र को नंगा कर रहे हो?
अब आपको मेरी याद आ रही है ? जिस दिन मेरी हर
धड़कन आपका नाम जप रही थी, मेरे कान आपके मुँह से दो बोल सुनने को तरस रहे थे, मेरी आँखें बेबसी से आपको निहारे जा रही थीं, उस दिन कहाँ गया था आपका यह अनुराग? आपके कारण समाज मे मेरी और मेरे परिवार की कैसी लज्जाजनक स्थिति हो गई थी, इसकी कभी कल्पना की है, आपने? लोगों ने कैसी-कैसी बातें कहीं ! सड़क पर सिर उठा कर चलने लायक भी नहीं रह गये थे, हम लोग!
मुझे आज भी याद है, बड़ी भाभी का दीपेश रात को बारह बजे हुआ था। उतनी रात को मिठाई बुलवाई गई थी। घर भर में कोलाहल मच गया था। और कुछ नहीं मिला तो हम भाई बहिनों ने बेलन लेकर काँसे की थालियाँ पीट डाली थी। माँ चिल्लाती ही रह गई थीं...“अरे मरो, बजाना है, तो पूजा घर से षंख उठा लाओ। मेरी थालियाँ क्यों फोड़ रहे हो?” लेकिन वहाँ खुशी के कारण होश किसे था? खूब धूम- धाम से छटी बारसा हुआ था। लोग आज भी याद करते हैं।
और बेटा राकेश हुआ तब? लड़का होने की खबर से भी परिवार में किसी के मुख पर प्रसन्नता नहीं आ सकी थी। आ भी नही सकती थी। नौकरानियों से ही मुहल्ले वाले उसके जन्म की बात जान सके थे। न सोहर गाए गये न बधाई। पुत्र को जन्म देकर भी हँसी मेरे ओंठों को नहीं छू सकी थी। पर वही समय मेरे जागने का था। मै जागी। मैंने आत्मग्लानि को त्याग कर नया जीवन जीने का फैसला किया।
बचपन में राजेश अपने पिता के विषय मे पूछा करता था। फिर शायद वह अपने जन्म के पीछे की कहानी जान गया। इसी से जब दूसरे बच्चे बड़े गर्व से अपने पिता के विषय में बातें करते तो उसका मुँह कैसा हो उठता था। आँखें जमीन की ओर झुक जाती थीं। ऐसी ही स्थिति तो आपने उसे उपहार में दी थी।
इस फरवरी की बीस तारीख को राकेश पूरे बीस वर्ष का हो जायेगा। अब उसके लिये चिंता करने की जरूरत नहीं है। यदि दुर्भाग्यवश कोई मनुष्य नाली में गिर जाये या गिरा दिया जाये तो इतने मात्र से वह नाली का कीड़ा नहीं बन जाता। अपनी प्रतिभा, लगन, आत्मविश्वास और कर्मठता से वह मनुष्य ऊँचा उठ सकता है। उसे ऊपर उठने से कोई नहीं रोक सकता। राकेश को मैंने ऐसी ही षिक्षा दी है। जनमते ही उसे जो कलंक मिला है। वह उसके चरित्र की चंद्रमा जैसी उज्जवलता को नहीं ग्रास कर सका। उसके लिये चिंता या अफसोस करने की न आपको आवश्यकता है, न अधिकार।
जब मुझ पर अत्याचार हो रहे थे। तब आप सौम्य, शांत और गंभीर बने रहे। आपके कंठ का स्वर कभी तेज नहीं हो सका, क्योंकि जो गुजर रही थी वह दूसरे की बेटी पर गुजर रही थी। अब सहने की बारी आपकी है। पर अब तो कंठ का स्वर कुंठित हो चुका है। उसकी तीव्रता बोथर हो चुकी है। आप चींखना भी चाहेंगे तो चीख कंठ में ही घुटकर रह जायेगी। अब लेखनी से ही विरोध करते रहिये। अब वहाँ किसे फुर्सत है आपका रोना पढ़ने-सुनने की!
एक दिन वह था, जब मुझे पग-पग पर -आपके नाम की, आपके आश्रय की जरूरत महसूस होती थी। राकेश को आपकी कमी खटकती थी। लेकिन आज हमारी कमी आपको महसूस हो रही है। अब चाहे क्रांति के गीत गाइये... चाहे विद्रोह के हाट... अब तो वह उठ चुकी है, अब रहना मझधार में ही है।
सरोज दुबे
(प्रकाशित-मधुप्रिया, दिसम्बर प्रथम 1982)