मंगलवेला
सरोज दुबे
सरोज दुबे
रात के ग्यारह बज चुके थे। ठंड के दिनों में सूनी सड़क पर मैं और महेंद्र मौन चले आ रहे थे। लगता था, मानो हम किसी मातम से लौट रहे हों। ”अच्छा, कल आता हूँ।” महेंद्र ने कहा और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना अपने घर की गली में मुड़ गया। मैं निराषा के गर्त में डूबा हुआ, कब अपने घर के सामने आ पहुँचा, पता ही न चला।
”क्या हुआ?” रानी पूछ रही थी।
”कुछ नहीं”
और कुछ पूछे बिना रानी अंदर चली गई। कपड़े बदल कर मैं अंदर गया तो देखा वह खाना गरम कर चुकी थी।
”न, रहने दो। खाने की जरा भी इच्छा नहीं है।”
“थाली परोस दी है। थोड़ा सा ही खा लो।”
मैं चुपचाप बैठ जाता हूँ। सुबह के बने भरवाँ परवल शायद मेरे लिए विशेष तौर पर बचा कर रखे गए थे। रानी आँवले का अचार निकाल लाई है। पर मैं सिर्फ कौर गटक रहा हूँ। मन न जाने कहाँ कहाँ भटक रहा है।
”क्या कहा उन लोगों ने ? रानी के प्रश्न से मेरी तंद्रा टूटी।
”फलदान में ही दस हजार माँगते हैं”
“दस हजार ! फिर विवाह में भी तो लेना देना पड़ेगा।”
“वही तो।”
“महेंद्र ने कुछ नहीं कहा क्या ?”
”कहा जरूर। पर वे सिर्फ पैसे की भाषा जानते हैं”
“अच्छे परिवार की पढ़ी लिखी सुषील लड़की नहीं चाहिए उन्हें। बस, पैसा ही चाहिए लड़की चाहे जैसी हो।”
“पैसे हों तो सभी ऊँचे खानदान के बन जाते हैं। पैसे की चकाचैंध के सामने लड़कियों के सारे अवगुण छिप जाते हैं।”
मुझे लगता है नींद, रानी को भी नहीं आ रही है। रात का सन्नाटा बढ़ चला था। धीमी धीमी चूड़ियाँ की खनखनाहट वातावरण की निस्तब्धता को भँग कर रही थी। मैं मुड़ कर रानी की ओर देखता हूँ, पर यह आवाज रानी की चूड़ियों की नहीं है। तो...? तो क्या जया भी जाग रही है? मेरे मन में एक टीस सी उठती है। रात के अंधेरे में भीगी पलकें खोले मैं छत की ओर देखता रह जाता हूँ।
दूसरे दिन महेंद्र आता है। “एक लड़का और मैट्रिक पास है। खेतीबाड़ी है। अभी नौकरी नहीं है। पर घरबार सब है, गाँव में। पाँच हजार में मामला तय हो सकता है”-वह बताता है।
रानी और मैं दोनों चुप रहे। लगता है कि बात विवाह जैसे पवित्र बंधन की नहीं, बल्कि लड़कों के क्रय और विक्रय की है। और इस क्रय विक्रय के बाजार में मेरी हस्ती कुछ भी नहीं है। पता नहीं क्यों, मुझे महाकवि निराला की ’सरोज स्मृति’ बारबार याद हो आती है। एक कवि पिता की व्यथा को उजागर करती हुई कविता की वे पंक्तियाँ।
शाम को पड़ोस के सत्यानारायण जी दिखाई देते हैं। “क्यों भई, रिश्ता कहीं जमा ?” वह पूछते हैं।
“नहीं। आइए, बैठिए,” मैं उनको बैठने के लिए कहता हूँ।
“क्यों? बहुत दिनों से तो प्रयत्न कर रहे है आप।”
“दस हजार फलदान में माँगते हैं।”
“अरे भइया, दस हजार रुपए की कीमत ही क्या है आज ? मेरे साले ने अपनी बेटी की शादी में तो कार दी है दहेज में। फलदान में इक्कीस हजार दिए थे। अच्छा लड़का चाहिए तो पैसा भी वैसा ही खर्च करना पड़ता है।”
”आप की बात सच है जिसके पास पैसा है, वह देता ही है। परंतु जिसके पास नहीं है, वह क्या करे ? अपना और बच्चों का पेट भरने के बाद जो बच सका, वही है मेरे पास। फिर दो बच्चियाँ और भी तो हैं।”
”आप मेरी बात का बुरा मत मानना भाई, जब पैसा नहीं है तो झुकना आपको ही पड़ेगा। रामनगर वाले जगन्नाथ की बहू पिछले साल जल गई थी। अब लोग तो कुछ भी कहते हैं, लेकिन मुझे तो वह सज्जन आदमी दिखते हैं। लड़का भी अच्छा है, डेढ़ हजार कमा रहा है। आप कहें तो मैं बात चलाऊँ।”
मुझे लगा मानो वह जया को कसाई के हाथों सौंपने की बात कह रहे हों। रानी पास ही खड़ी थी। मैं डरा कि कहीं वह कोई कड़ी बात न कह दे। “अभी एक जगह बात चल रही है। यदि वहाँ तय न हो सका तो आप से बात करूँगा,” मैंने जल्दी से कहा।
वह बौखलाए से बाहर निकल गए। रानी अपनी नीची नजरें उठा कर मुझे देखती है।
”लोगों को कहने दो। लड़की हमारी है, हमें जहाँ शादी करनी होगी, वहीं करेंगे,” मैं उसे दिलासा देता हूँ।
आए दिन ऐसा ही होता है लोग बाग ऐसे-ऐसे लड़कों की चर्चा करते हैं कि मन क्षुब्ध हो उठता है। रानी को भय है कि कहीं किसी के लिहाजवश मैं ‘हाँ’ न कह दूँ। शायद ऐसा ही भय, जया के भी मन में हो। वह दिनों दिन दुबली होती जा रही है। उसके मुख की कांति फीकी पड़ गई है।
“गया प्रसाद जी की मंजरी का भी ब्याह तय हो गया।” एक दिन रानी ने बताया
“अच्छा”
मेरा यह ’अच्छा’ कहना उसे जरा भी न भाया।
“अब कुछ न कुछ करना ही होगा। जहाँ जाओ लोग एक ही प्रश्न पूछते हैं। घर आते हैं तब भी वही,” -उसके चेहरे और स्वर में एक क्षुब्धता थी।
”पर लड़की को कुएँ में तो नहीं धकेला जा सकता न।”
रानी की आँखों से अचानक आँसुओं की धार वह चली। मैं सामने बैठा असहाय सा देखता रहा। कैसी रस्में है हमारे सामज की? लड़कों का यौवन सुख का, उल्लास का, अभिमान का कारण बनता है और लड़कियों का यौवन चिंता का, दुख का, निराषा और अपमान का।
महेंद्र ने कई बार ब्राम्हण समाज की सभा के विषय में बताया था। गरीब विद्यार्थियों की सहायता और दहेजप्रथा के विरोध में वहाँ कई प्रस्ताव पास हो चुके थे। महेंद्र एक दिन मुझे भी वहाँ ले गया। सभा के अध्यक्ष किशोरीलाल जी का भाषण सुनकर मैं बड़ा प्रभावित हुआ। कितना अपनत्व और स्नेह था उनमें। अपनी जाति के बंधुओं के लिए लौटते समय महेंद्र ने बताया कि किशोरीलाल जी का बड़ा बेटा स्थानीय कालिज में प्राध्यापक हो गया है। लड़का जया के लिए एकदम उपयुक्त रहेगा।
दूसरे दिन बड़े उत्साह से मैं महेंद्र को लिए किशोरीलाल जी के घर पहुँचा। महेंद्र ने सारी बात उनके सामने रखी।
”दहेज के संबंध में मुझे कुछ नहीं कहना है, परंतु जिस पद पर वह कार्य कर रहा है, जैसी उसकी प्रतिश्ठा है, उसके अनुरूप तो विवाह कार्य होना ही चाहिए। विवाह कोई बारबार तो होता नहीं है वह बोले।
स्पष्ट न कहते हुए भी उन्होंने प्रकारांतर से यह बात साथ कह दी कि वह ऐसे परिवार में विवाह करना पसंद करेंगे, जहाँ सारा विवाह कार्य उच्च स्तर का हो।
उस दिन मुझे बड़ा धक्का लगा। हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और थे।
अक्सर शाम को महेंद्र घर आ जाता है। गपषप में शाम अच्छी कट जाती है। महेंद्र ज्योतिष सीख रहा है। कौन सी रेखा क्या कहती है, इस विषय पर रोचक चर्चा हुआ करती है। रानी और जया भी इस चर्चा में शामिल हो जाती हैं।
हमारी इस महफिल में अचानक एक सदस्य और सम्मिलित हो गया। वह था अखिल। मेरे किसी समय के पड़ोसी वीरेंद्र का भतीजा। वह यहाँ बैंक में हिदी अधिकारी हो कर आया है। वह नए विचारों का युवक है। महेंद्र और अखिल अकसर वाद विवाद में उलझ पड़ते हैं। मैं तटस्थ भाव से मजा लेता रहता हूँ। पर रानी तटस्थ नहीं रह पाती। वह झट अखिल के पक्ष में बोल उठती है।
अखिल को देख कर रानी मन ही मन पछताती है। काष, वह हमारी जाति का होता। कितनी अच्छी जोड़ी होती जया की उसके साथ। रानी कोई बात मन में रख नहीं पाती। एक दिन एकांत में उसने ऐसी ही कुछ बात कही। मैं शुरू से ही परंपराओं के प्रति अधिक कठोर रहा हूँ। ऐसी बेतुकी बात सुन कर मेरे मुँह से कोई कड़ी बात निकल जाती तो यह स्वाभाविक ही था। पर उसकी भरी हुई आँखें देख कर मैंने खुद को रोक लिया।
इस बीच एक घटना घटी। हमारे महल्ले के नीरव बाबू की बड़ी लड़की ने मेडिकल कॉलेज के किसी डाक्टर सुधींद्र से अदालत में विवाह कर लिया। मैंने कई बार उस लड़की को सड़क से आते जाते देखा था। बड़ी सीधी सी दिखाई देती थी वह लड़की। उसके विवाह के लिए नीरव बाबू पिछले दो तीन वर्षों से परेशान थे। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी न थी। लड़का बहू को लेकर अलग हो चुका था। पत्नी सदा बीमार रहती थी। माँ को लेकर आए दिन मेडिकल कॉलेज का चक्कर लगाने की जिम्मेदारी लड़की पर ही थी। शायद वहीं कुछ...
”कहते हैं, दो साल से उनका मामला चल रहा था। माँ बाप को क्या कुछ दिखा नहीं ?”
”मुझे तो पहले से ही शक था।”
“नाक कटवा दी लड़की ने, हमारी भी तो लड़कियाँ हैं।”
जहाँ-तहाँ लोग ऐसी ही चर्चा कर रहे थे। शाम को इस विषय पर अखिल और महेंद्र में जोरदार बहस हो गई।
अखिल आया। तब नीरव बाबू के ही परिवार की बात चल रही थी। वह कुछ देर चुपचाप बैठा सुनता रहा। फिर बोला- “अच्छा हुआ। जब तक हमारे देश में अंतर्जातीय विवाह नहीं होंगे तब तक दहेज प्रथा नश्ट नहीं हो सकती। लोग लड़कों के भाव बढ़ाते ही जाएँगे”
“दहेज को मारो गोली। लड़की और उस के परिवार के भविष्य की बात सोचो। लड़की न मायके की रही और न ससुराल की। अभी तो ठीक है, पर आगे डाक्टर से न बनी तो क्या होगा? इधर माँ बाप किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहे। रिष्तेनाते सब टूटे वह अलग।”
“जाति, वंश और कुल का विचार करने के बाद भी सुखी जीवन का क्या भरोसा है ? सब कुछ ले देकर भी तो लड़कियाँ जला दी जातीं हैं। कई लड़कियों को ससुराल में नरक सा जीवन बिताना पड़ता है। अखबार पढ़ते हैं न आप?”
“बहुत पढ़ने से ही तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, अखिल। पहले अपने दिमाग का...”
महेंद्र आगे कुछ कहता कि मैंने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा- “अखिल, अभी तुम लोगों का बचपना है। दुनिया में सब बातें लाभ या हानि का विचार करके ही नहीं की जातीं। हर चीज के दो पहलू होते हैं। जाति प्रथा में भी अनेक दोष हैं। परंतु बिना मर्यादा के समाज में कोई अनुशासन नहीं रह पाएगा।”
अखिल चुप रह गया। शायद उसने मेरा लिहाज किया था, परंतु दूसरे दिन एक आश्चर्यजनक बात हुई। नीरवबाबू ने उसी शाम एक शानदार दावत दे डाली। जो लोग एक दिन पहले घृणा और तिरस्कार पूर्ण बातें कर रहे थे, उनको मैंने वहाँ दावत उड़ाते देखा।
“जिसकी लड़की है, उसे एतराज नहीं, तो हमें क्या पड़ी है ? क्यों भाई ?” एक सज्जन ने मुझसे कहा।
मैंने धीरे से सिर हिला दिया। मुझे लगता है कि लोगों के मन में कहीं ईश्र्या का भाव भी छिपा बैठा रहता है। एक सामान्य से क्लर्क आदमी की लड़की को इतना अच्छा वर कैसे मिल गया? लेकिन कोई किसी से कहता नहीं। सब अपने मन के इस भाव को दृढ़ता से छिपाए रहते हैं।
इस घटना के बाद मैं और सक्रिय हो उठता हूँ। दूसरे शहरों में बसे अपने रिश्तेदारों से मिलता हूँ। सब यही चाहते हैं कि लड़की गोरी, सुंदर, षिक्षित और अच्छा दहेज लाने वाली हो। बात आजा कर कहीं जन्मपत्री पर अटक जाती, तो कहीं दहेज पर। जो लोग रिष्ते के लिए तैयार हैं, वे षारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या किसी भी दृष्टि से जया की तुलना में कुछ भी नहीं हैं। मैं लौट आता हूँ।
रानी ने इधर बड़ी दीदी के बेटे देवेंद्र को पत्र लिखवाया था। सुना था कि उसका काम अच्छा चल रहा था। रानी ने पाँच-सात हजार उधार में देने की बात लिखवाई थी। पैसा लौटा देने की प्रतिबद्धता भी लिख दी गई थी। कई दिनों बाद जो उत्तर आया, उसमें देवंेद्र ने अपनी असमर्थता प्रकट की थी।
पत्र रानी ने फाड़ कर फेंक दिया। वह अब पहले सी नहीं रही। मर्जी के खिलाफ बात को मुश्किल से बर्दाश्त कर पाती है। अम्मा और बाबूजी के जमाने में बहुत सहा उसने तब घर में आए दिन मेहमान भरे रहते थे।
दोनों दीदियाँ बाल-बच्चों सहित महीनों यहीं बनी रहती थीं। उनकी प्रसूति, बच्चों की छठी आदि सब यहीं होते। रानी सेवा करते करते थक जाती, ऊपर से हर दो तीन घंटे में बाबूजी के खाने पीने की फरमाइष आती रहती। चाहे घर में बच्चों को न मिले, पर उन्हें तो चाहिए ही। वह भी रानी के ही हाथों का बना हुआ। बड़ा प्यार था उनका रानी पर, रानी ने भी उसी तरह निभाया।
उसने कभी उफ् तक नहीं की। कभी किसी की शिकायत नहीं की।
अम्मा भी उसे बहुत चाहती थी। परंतु बेटियों के कष्ट के सामने रानी की तकलीफ उन की दृष्टि में कोई मायने न रखती थी। अम्मा के पास जो जेवर थे, वे कभी रानी से छिपा कर और कभी उसके सामने ही पोते पोतियों के जन्म पर, मंुडन आदि में तुड़वा कर उपहार में दे दिए गए। अम्मा की जब मृत्यु हुई तब सोने के एक मंगलसूत्र तथा एक अँगूठी के सिवाय उनके बक्स में कुछ न मिला।
मेरा और बाबूजी का वेतन भी अम्मा के हाथों में दे दिया जाता था। पीछे उनके बक्से से जो रुपया मिला, वह आशा से काफी कम था। अंत में रानी को यही बात चुभ गई। उसे लगा उसके साथ धोखा हुआ है। वह छली गई है। भविष्य के लिए क्या बचा था? बाबूजी तो उड़ाऊ-खाऊ थे ही, पर अम्मा ने भी कुछ नहीं सोचा। उस दिन से रानी ने अपना हाथ खींच लिया। ममता की छाया भी समेट ली। उसके सामने चार बच्चे थे। विवाह योग्य बेटी थी। जरजर सा पुष्तैनी मकान था।
”पाँच हजार रुपयों का इंतजाम हो गया है। आप रायपुर वाले ओवरसियर लड़के से रिश्ता तय कर लीजिए,” रानी ने कहा।
”रुपए कहाँ से आए?” मैं चकित था।
”अखिल ने दिए हैं। जया को पता न लगने देना। बड़ी स्वाभिमानी है वह। अखिल ने खुद मना किया है।”
”लौटाओगी कैसे ?”
“जैसे देवेंद्र के लौटाती। जया के विवाह के बाद पीछे का मकान किराए पर उठा दूँगी। वह तो न कर रहा है, पर मुझे तो लौटाना ही है। समय पर दे दिए, यही क्या कम है ?”
मैं चुप हो गया। कुछ देर इधर उधर की बातें करने के बाद रानी सुख की नींद सो गई। पर मेरी आँखों में नींद न थी। मेरी आँखों के सामने बारबार अखिल और देवेंद्र के चित्र घूमते रहे- देवेंद्र, जिसका जन्म इसी घर में हुआ था, जो कई महीनों तक मेरे पास रहा था, जिसके लिए दवा तक अम्मा खरीद कर भिजवाया करती थीं, जिसकी मेडिकल की पढ़ाई के लिए अम्मा और रानी घर में जैसे तैसे बचत किया करती थीं। और अखिल, जो कोई उसका सगा न था। बस एक परदेसी युवक, वह अपना मददगार कैसे बन गया?
एक दिन अखिल की खिड़की के उस पार जाती निगाह और अनुराग की लाली से भीगा जया का मुख देख, मैं षंकित हो कर उठ कर बैठ जाता हूँ। मैं देखता हूँ, जया अवरूद्ध कंठ से कह रही है, “तुम मुझे माफ करना, अखिल। मेरे बाद कंचन है। बिन्नू है। उनका क्या होगा? मैं अपनी खुशी के लिए उनका जीवन बरबाद करना नहीं चाहती।” आँसुओं की झड़ी किसी तरह रुक नहीं रही है।
“मुझे पता था, तुम यही कहोगी। कोई बात नहीं जया, जिंदगी में हर चीज नहीं मिलती। तुम जिस बात में खुश हो, मैं उसे ही अपनी खुशी बना लूँगा।”
उसकी आँखें भरी हैं, पर मुख पर तेज है। शायद निष्छल और पवित्र प्रेम का, उत्सर्ग के भाव का। वह तेजी से बाहर निकल जाता है।
मैं रात भर बेचैन रहा।
“सुनो, वे अखिल वाले रुपए कहाँ हैं ?”
“क्यांे? सवेरे-सवेरे उन का क्या करना है?”
“वे लौटाने होंगे”
“क्यों भला ?”
“मैं बिना दहेज के विवाह करने का निश्चय कर चुका हूँ”
“बिना दहेज के तुम्हें अच्छा लड़का कहाँ मिलेगा ?”
“क्यों ? अखिल अच्छा नहीं है।”
रानी विस्फोरित नेत्रों से मुझे देखती रह गई।
“लेकिन...लेकिन, समाज क्या कहेगा ? रिश्तेदार क्या कहेंगे ?”
“मुझे किसी के कहने की कोई परवाह नहीं। दो वर्षों से मैं दर-दर भटक रहा हूँ। समाज के लोगों में ही तो घूमा हूँ। परंतु एक भी तो ऐसा न मिला, जिसने मेरी मजबूरी समझी हो। सब के सब पैसे के भूखे मिले।”
अंदर साथ के कमरे में किसी के पैरों की ध्वनि आकर थम जाती है, लेकिन मैं अपना स्वर धीमा नहीं कर पाता।
“सोच लो फिर पीछे पछताना न पड़े”
“मैंने सब सोच लिया है। पछताएँ तो वे जो दहेज के कारण जला दी गई हैं। जो ससुराल में तिलतिल कर घुल रही हैं। जो अनमेल विवाह की व्यथा सह रही हैं। जया के लिए क्या पछताना है ? उसके लिए तो यह “मंगल वेला” है ।”
“अम्मा जया दीदी रो रही हैं?” बिन्नी सहमें से स्वर में कह रही है।
रानी उठ कर अंदर चली गई। मैं अविचलित भाव से अखबार उठा लेता हूँ। मुझे पता है कि बेटी जया के आँसू प्रेम-सुख, आनंद और अनुराग के मिले जुले आँसू हैं।
सरोज दुबे
( प्रकाशित - सरिता, द्वितीय फरवरी द्वितीय 1986)