मरघट का धुआँ
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
“मानव शरीर की अंतिम यात्रा बिंदु है, मरघट ! जहाँ सभी को जाना है। कुछ इस यात्रा तक ढेर सारी अच्छाइयाँ समाज की झोली में डाल जाते हैं, जो उन्हें अमर बना देती है किन्तु कुछ ऐसे हैं, जो समाज को अपनी विकृतियाँ दे कर जाते हैं। आकाश में विलीन होता वह, मरघट का धुआँ सचमुच हमें कुछ सोचने पर मजबूर करता है।” (प्रकाशित “सन्मार्ग”सन् 1940)
अमा की काली रात है। चतुर्दिक गहन अंधकार छाया है। वातावरण शांत है। किन्तु उस शांत और शून्य वातावरण में मरघट का चण्डाल अभी भी खड़ा है। क्रियाशील सा। उसके अन्तस् में शांति नहीं।
वह मरघट का चाण्डाल। वह भी मानव है। संसार के अन्य मानव की तरह उसमें भी हाथ, पैर, आँख, कान, उदर, मुख, ललाट है। मानव होते हुए भी संसार के प्राणी उसे चाण्डाल कहते हैं। वह सुनता है। उसके हृदय में ग्लानि नहीं होती। उसे आदत है सुनने की। किन्तु एक बात उसे खटकती है। अन्तस् में शूल सा उठता है कि व्यक्ति, समाज और संसार उसे हेय दृष्टि से निहारते हैं। यह उसके लिये सदैव काँटा सी चुभने वाली पीड़ा है, वेदना है, विस्फोटक कसक है। यह उसे सहा नहीं जाता। काश ! विश्व उसे समझता, परखता, टटोलकर देखता तो उसे शांति मिलती। मानव होने की तृप्ति मिलती।
अमा की काली रात है। वह खड़ा है। दायीं ओर चिता जल रही है, बाईं और चिता सुलग रही है। पीछे चिता धधक रही है। आगे की चिता जल चुकी है। केवल कुछ अँगार और मानव शरीर के जले झुलसे हाड़ शेष हैं। कुछ क्षण बाद वे भी राख बन जायेंगे, उसे मालूम है।
उसने अनगिनत चिता जलाईं हैं। अनेक शरीर उन चिताओं में नर-नारी, युवक-युवती, अधेड़, वयस्क, वृद्ध-वृद्धा के तन क्षार-क्षार हो गये। सबके भौतिक शरीरों को अग्नि की उन बेपीर लपटों ने फूस की तरह फूँक डाला । पर वह ज्यों का त्यों है, पहले की तरह। उसके शरीर की रूह, सभी को फूँकने वाले उन अंगों में से सबके सब अभी भी क्रियाशील है।
अरे, यह क्या। दायीं और की चिता की लपटें फीेकी पड़ने लगीं। अभी तो ठीक से सुलगी भी नहीं थी। अभी तो उसमें से धधकती चटाख्-चटाख् ध्वनि नहीं निकली। फिर कैसे बुझी जा रही है ?
वह बढ़ा। बाँस के मोटे लट्ठे से बाहर की ओर जलती लकडि़याँ बुझते हुए भाग की ओर फेंक दीं। ‘अब जलेगी। धू-धू कर जलेगी। लपटें फूटेंगी। चटाख - चटाख ध्वनि निकलेगी। उसे हर्ष होगा तब। मानेगा वह चिता आनंद से जली। यदि बुझ गयी, तब मानेगा उसमें अपशकुन है। जलने वाला प्राणी अभागा है।’... पर, यह क्या ? लकड़ी बुझ गयी। .... उसने उस बुझे भाग की तरफ देखा ... वह टेढ़ा काला, सफेद, घिनौना, अधजला सिर।
वहीं बैठ गया वह।
अतीत का एक पृष्ठ उसके सामने खुला है ....।
....घमापुर की एक चौड़ी गली। अपार, जनसमूह। मोटर, ताँगा, बग्घी, रिक्शा, साईकिल कोलाहलमय वातावरण। मोहल्ला मशहूर है। लोगों का कथन है, इस गली में नरक है। मानवता को डुबाने वाला अतल गर्त्त है। उस गर्त्त की सड़ांध सभ्य समाज के लिये जहर का प्याला है। यह सभ्य समाज का कथन है। किन्तु कुछ वर्ग के लोगों का यह स्वर्ग है। उनकी दृष्टि में जन्नत का आनंद इस गर्त्त में निहित है। उस असामाजिक वर्ग को इस गर्त्त को इस गर्त्त पर नाज है। उस वर्ग का दावा है कि जो व्यक्ति इस जन्नत के मजे में एक बार भी शरीक नहीं हुआ, वह आदमी क्या खाक है। हैवान से भी बदतर है।
इस गर्त की राह मरघट का वह चांडाल भी निकलता है। इस रुपहले संसार की रुपहली तस्वीरें देखता, नये-नये गुल खिलते देखता, नये-नये नजारे होते देखता। शायद उसे मजा आता है।
नुक्कड़ पर पश्चिमी ओर भव्य महल है। खूबसूरत और आलीशान। उसमें रहती थी चम्पा बाई। जालिम का जैसा नाम है, वैसा रूप भी। कमाल का गला, कमाल का हुश्न, कमाल की शोहरत उसने पायी। रुपयों की वर्षा होती है, उस पर। आदमी, हाँ...आदमी ही उसके तलुआ चाटने को लालायित रहते हैं, समाज में मर्यादा ठुकराकर ये प्रत्येक चाहते हैं, चम्पाबाई इनकी पुतलियों में समा जाये। शराब के प्याले में भरकर उसे पी लें। अमृत की मिठास मिलेगी। उन्हें खबर नहीं , घर में प्रतीक्षा करती उस लक्ष्मी की , जो घर में बैठी सिसक रही है। जिसके रोम - रोम में, साँस साँस में समर्पण की भक्ति है। जिसके मुख पर अन्तिमकाल भी वह नाम होगा, जिसे वह एक बार देवता बना चुकी। किन्तु उसका वह देवता .... छिः, कामी, लम्पट, कृतघ्न, थूकने काबिल ... नहीं ये गालियाँ हैं। इन गालियों से उसके सती हृदय को ठेस पहुँचेगी, आह री ! नारी ....।
उन मरने वाले पतंगों पर चम्पाबाई है, जो सिर ऊँचा किये तमाशा देखती है। अपनी महत्ता पर हँसती है, मुस्कराती है, किलकारियाँ भरती है।
वह रुक जाता।
गले में लटकाये बारह सिरों की मुंडमाला को खटखटाने लगता है। उन्हें चूमता है, उस कभी न कष्ट होने वाले रूप को हृदय से लगाता है। चम्पाबाई चांडाल को भय से देखती और काँप उठती है।
बढ़कर वह पूछता-“ले, मुझसे भी लेगी कुछ ?”
“मशान बाबा।” वह टालने का उपक्रम करती।
वह कहता “एक तो ले ले चम्पाबाई। हुस्न का ढ़ाँचा यह भी है। फर्क केवल इतना ही है, इस पर हुस्न का चमड़ा नहीं है और तुझ पर हुस्न का चमड़ा मढ़ा है। तेरा चेहरा धोखेबाज है। यह सच्चा है। दुनिया तुझे बहुत कुछ देती है, मुझसे यही सही। मेरा दिल न तोड़, एक तो ले ले।”
उस मुंड माला को देखकर चम्पाबाई के अन्तस् में भय छा जाता। सिहर उठती है वह। सहमी - डरी सी विनय कर कहती -“मशान बाबा, देख तू मुझे परेशान न कर। ले पैसा और भाग । कहाँ से आकर तू खड़ा हो जाता है। राम जाने.... ना जाने तेरा कैसा भयानक रूप है। तेरा रात को जब ख्वाब में नजर आता है। तो कपकपी छूट जाती है। मुझ पर रहम कर बाबा और भाग जा।”
वह पैसा नहीं लेता और भाग जाता है। जाने के पहिले एक अनूठी प्रकार की हँसी वह चम्पाबाई के कानों में भर जाता।
वही चम्पाबाई आज उस रूप के साथ जल रही है। अकेली बिल्कुल अकेली। न आज वे हैं, जो उसके गले, उसके सौन्दर्य पर न्यौछावर थे, और न आज वे हैं, जो उस पर रुपया बरसाते थे। अभागिन अकेली ही भस्म हो रही है।
संसार की विचित्र परम्परा है।
वह मन ही मन कहता -“चम्पाबाई, देखा ? आज तेेरे हाड़ - मांस से प्यार करने वाले छलिया नहीं आये। जिन्हें तेरे रूप से मुहब्बत थी, गले से प्यार था। उन में से आज दोनों नहीं। परवाने दूसरे पर मंडराते होंगे। तेरे साथ कोई भी, एक व्यक्ति भी नहीं आया। किन्तु सदैव, जिसे तू घृणा और तिस्कृत दृष्टि से देखती थी - आज वह मशान बाबा तेरे सामने खड़ा है। तुझे आज मेरी इन मुंडमालाओं से डर नहीं लगता ?”
चटाख् ! चटाख् ! बायीं ओर की चिता का कपाल चटका, बड़ा भयानक स्वर है। इसका कपाल भी बड़ा मजबूत था -- पत्थर सा।
सेठ हजारी लाल .... !
बाप रे ! कैसा निर्दय व्यक्ति था। ईश्वर ने जैसे उसमें हृदय बनाया ही न था। बिलकुल पत्थर का था, पत्थर ! बीमारी के पहले उसे आभास हुआ, उसकी स्मरण शक्ति कम होती जा रही है। तो उसने भाई को जहर दे दिया। जिससे वह उसके संचित द्रव्य का उपभोग न कर सके। अन्तकाल में उसने अपने हाथ खून से रंगे। भाई की हत्या कर डाली। इसके पहिले भी कितने बेगुनाहों, कितनी अबलाओं, कितनी सोहागनियों का सिन्दूर उसकी वासना की जीभ ने चाट लिया था। .... आज उसकी वह जीभ छर्र-छर्र कर जल रही है। निरंकुशता, निर्ममता का प्रतीक वह भवन - जो कंगालों के बूते पर, उनके हाड़ों के बल पर, उनके ताजे रक्त से सींचकर बनाया गया था, आज इस बात की मूक दुहाई देता है। उस भवन का जर्रा-जर्रा मासूमों की आहों से रंगा है। संसार की प्रणाली ही उलटी। जो दमन करना जानता है, जिसमें छल, बल, चातुर्य है, वही खुश है। वही बड़ा आदमी है। वही राजा है।
आज चिता जल रही है, उस मानव की, उस बड़े आदमी की, उस राजा की ! अकेले ही। .... वह तिजोरी कहाँ ? कितने चातुर्य से उस बेचारे ने यह सब संचित किया था, और उसके साथ कुछ भी नहीं भेजा, एक पाई भी नहीं ! ये सब धन के भेडि़या हैं, लुटेरे हैं !
हाय ! वह मोटा सोना-चाँदी खाने वाला अस्थि पिंजर अकेला ही जला जा रहा है। कौन जाने उसमें कितनी विकट प्यास थी। कितनी मीठी, मधुर, सलोनी कल्पनाएँ भरी थीं। कौन जाने, अभी उसकी जीभ कितनों के ताजे रक्त के लिए लालायित थी। यह अब केवल वह ही जानता है या उसके अरमानों को फूँकने वाला ईश्वर। जिसने उसकी भविष्य की सुन्दरतम कल्पनाओं का घड़ा एक ही ठोकर में फोड़ दिया था।
हजारीलाल सेठ ! तुम जले जा रहे हो ? जलो...। किन्तु कितने कंगाल अभिशाप की ओढ़नी ओढ़े जल रहे हो, कितनी ललनाओं की आहें जला रही हैं, कितनी सुहागनियों के सिन्दूर जला रहे हैं, जलने के पहिले सोचा तुमने ? दुनियाँ के अधम कीड़े ! तुम जहाँ कहीं भी जाओ, तड़पोगे, चीखोगे, सिर धुनोगे। तुम्हें कहीं भी शांति न मिलेगी ! यह मशान बाबा का शाप है।
लौटा वह, फिर आगे बढ़ा।
चिता बुझी है। हड्डियों को लेकर कुछ शोले धधक रहे हैं। चालीस मन-सोलह सौ सेर लकडि़याँ इसके लोहे के शरीर को भस्म कर सकी हैं। लौह पुरुष था। लोग सिकन्दर कहते थे। हाँ, सिकन्दर ही। सिकन्दर के समान ही उसका डील-डौल, तेज पराक्रम असीम इच्छाएँ थी। चाहता था वह, दुनिया मेरी शगिर्द बने, मुझे झुककर सलाम करे। मेरा सिर नीचे न झुके। मैं अपने प्रभुत्व का माथा ऊँचा ही किये रहूँ, अपनी कुटिल इच्छाओं के साथ। पर आज, उसकी इच्छाएँ खंडहर बनकर उसके फौलादी शरीर के साथ जल चुकी हैं। चिता शांत है। उसकी चिता का वह धुआँ मरघट के आसमान में विलीन हो गया ! सिकन्दर के ओजस्वी शरीर का वह धुआँ, बादलों के किस - किस टुकड़े में समा गया, नजर नहीं आता। हमारा यह सिकन्दर भी अकेला जल गया ....।
पीछे की ओर मुड़ा वह।
यह चिता धधक नहीं रही है। सुलग रही है। सुलगकर धधकेगी। चटाख् की ध्वनि निकलेगी। वह घ्वनि मरघट का नगाड़ा होगी। यह चिता किसकी है, वह नहीं जानता। उसे स्मरण नहीं है।
अमा की काली रात में उसके नपे तुले, सधे पग दृढ़ता से बढ़े। उसने अपनी आँखें ऊँची की चिता की लपटों में प्रकाश में कुछ देखा। कोई आ रहा है। इन्सान है या प्रेत छाया ? इस मरघट में, अमा की काली रात में अकेले निर्भय आना किस शूरमा के बस की बात है.....? चला ही आ रहा है वह, आने दो...! वह खड़ा हो गया।
आगन्तुक पास आ गया।
“कौन हो तुम ?” कौतुक से मशान बाबा ने पूछा।
मुख पर उदासी, बाल बिखरे, स्वस्थ और सुन्दर युवक है। वह चुप है। आँखों की अपलकता में .... करुणा की हलचल, वेदना के ज्वार, विरक्ति का महास्त्रोत निहित है। वह निष्कंप घूर रहा है - जैसे उन लपटों का आकर्षण अपनी आँखों में समेट लेना चाहता है।
“कौन हो तुम ? किसलिए आए हो।”
मशान बाबा ने पूछा। तभी लपटें उठी - उसने पहिचान लिया। बोला - “अच्छा तुम हो ! तुम तो इसका शव लेकर आये थे। तुम्हीं ने इसके शरीर में आग लगाई थी। अब क्यों आये हों ?”
“मैं इसका पति हूँ।”
“पति ! जानता हूँ।”
“तुम यह भी जानते हो, यह कितनी प्रिय थी मुझे ?”
“जानता हूँ।”
“बाबा, मेरी दुनिया उजड़ गयी।”
“जानता हूँ।”
“मेरा चैन खो गया है बाबा।”
“जानता हूँ।”
“अपने इन हाथों से आग लगाने के बाद ही, ये लपटें मेरे दिल में भी उठ पड़ी हैं। मैं जल रहा हूँ- भुँज रहा हूँ। जानते हो ?”
“जानता हूँ।”
“बाबा रहम खाओ मुझ पर ?”
“कैसा रहम ?”
“मुझे भी इसमें जल जाने दो।”
“तुम .... ! जलोगे .... ?”
मशान बाबा की आँखों में हिंसा की लाली छा गयी। माथे की सिकुड़न तन गयी। क्रूरता दाँतों से टकरा उठी। उसका शरीर क्रोध में काँप उठा !
जल्लाद सी कठोर ध्वनि में बोला - “तुम जलागे .... ? हैं ..... ?”
सिर नीचा किये युवक ने कहा - “हाँ....., तिल -तिल के जलने से यहाँ जलना अच्छा होगा।”
चट् ..... ! मशान बाबा की चौड़ी हथेली उसके गालों पर जा पड़ी।
“जवानी का यह डील, यह सुन्दर काया, इस आग में जलाना चाहता है, मूर्ख ! तुझे शर्म नहीं आती। तू मानव है ? अरे अधम...तेरे पास बुजदिली है, कायरता है। तुझमें सम्हलने की शक्ति नहीं, गिरने की प्रवृत्ति है। तेरी जिन्दगी को धिक्कार ! तेरी इस सुन्दर काया को धिक्कार।”
युवक सुन्न रहा गया।
“पगले ! इस शरीर का महत्व समझ। यह शरीर कितनी यातनाओं और विपदाओं का मथा हुआ अमृत है, इसे सत्कर्म के लिये तूने पाया है सो इसका मूल्य आँक मन्दबुद्धि।”
युवक की आँखों में आँसू छलक पड़े।
तब क्रुद्ध मशान बाबा का हृदय द्रवित हो गया।
वह बोला नरमी से - “आ बैठ जा।”
उसके मुख पर गम्भीर मुद्रा छा गयी। हृदय से सहिष्णुता और आँखों से संवेदना छलक उठी। उसने प्रकम्पित हाथ से चिता की ओर इंगित किया और अवरुद्ध कंठ से बोला - “चिता में जलने वाली, जो प्रायः जल चुकी है - उस पत्नि के वियोग में तू व्यथित है ? है भी तेरी व्यथा यर्थाथ वह नारी सुन्दर होगी। प्रिय होगी। उसमें असीम आकर्षण रहा होगा। तुझे वह प्राणाधिक प्रिय होगी। तेरी व्यथा सात्विक है। पर मेरे भाई, क्या मात्र व्यथा से क्या वह उसी मोहक छवि में आ मिलेगी, बोल ?”
“पर दिल ......” युवक बोला।
“दिल में आग लगा दे। मुझे देख, एक मनुष्य मैं भी हूँ। लोग कहते हैं मैं मशान हूँ! चांडाल हूँ!! निर्मम हूँ!!! मेरे हृदय में दया कहाँ ? पर क्या यह सत्य है ? मैं ईश्वर की दुहाई देकर कहता हूँ कि इन तमाम मुर्दों को जलाते मेरा कलेजा भी चीखता है, तड़पता है। पर करूँ क्या ? मेरे इस सेवा भाव को मनुष्य की संकुचित मनोवृत्ति क्या समझे ? मुझे तो वह ऊपर रहने वाला ही केवल समझ सकता है।”
मुर्दों को जलाते हुए मैं सोचता हूँ- “भगवान ! तुझे जब चेतन को जड़ रूप में परिणित करना होता - तब उसका निर्माण ही क्यों करता है ? किन्तु क्या कोई विश्व के इस विधान को बदल सकता है। विधान विधि का है। वह चलने के लिए बना है। चलता रहेगा। दुनिया में जो पैदा हुए, वह मरंेगे भी। मैं भी मरूँगा और तू भी मरेगा। फरक केवल इतना - कोई जल्दी कोई देर से। कोई सत्कर्म करके तो कोई दुष्कर्म करके।
“मेरे भटके भाई, तेरी तरह एक दिन मेरा भी था। तेरी तरह मैं भी ....” और गला रुंध आया वेदना से । आँसू टप-टप कर बह पड़े। वह बोला - उठ। व्यथा त्याग। मुझे अभी बहुत काम करना है। तू जा। यदि मेरी बातें तेरी दिमाग में आवे तो मनन करना, वरना भुला देना। क्योंकि तू भी इस संसार से बाहर नहीं है। याद रख, मानव को स्मरण के साथ विस्मरण का गुण भी ईश्वर ने दिया है।”
कह खड़ा हो गया मशान बाबा। हाथ में वही बाँस का मोटा लट्ठ और कर्त्तव्य से जकड़े क्रियाशील पग। युवक चला गया। पीछे की चिता जल रही है। दायीं चिता जल चुकी है। बायीं जल रही है। आगे की चिता के शोले शांत है ! वह खड़ा है।
जब तक सब चिताएँ जलकर राख न बन जायेंगी, वह खड़ा ही रहेगा...अनवरत और अविश्रान्त....!
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’