पराजय
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
जवाहर मैदान की एक गली में दो मंजिला मकान था। उसके ऊपरी कमरे के एक कोने में खिड़की के पास ही आराम कुर्सी पर बैठा विशाल, अपनी दृष्टि उस दुधियाई दीवार पर जमाए हुए था। मानों वह अपने अतीत को खोजने का प्रयास कर रहा हो। अचानक बादल की गर्जना के साथ ही रात्रि के अंधकार को चीरती हुई बिजली कड़की और खिड़की से क्षण भर प्रकाश अन्दर झाँक गया। वह चांैक उठा , उसके दिल में एक अजीब बैचेनी उठने लगी। मुट्ठियाँ भिंच गयीं। माथे पर पड़ी सिलवटें और गहरी हो उठीं। वह उठा और कमरे में चहल-कदमी करने लगा। एकाएक क्षण भर रुका और टेबिल के दराज में पड़ी फोटो उठा लाया। खिड़की के पास आकर धुंधले प्रकाश में उसे निहारने लगा।
अब तक बिजली की चमक के साथ पानी की बौछारें भी पड़ने लगीं थीं। वह भीजनें लगा था , किन्तु फोटो एकाग्रदृष्टि से देखे जा रहा था। अतीत चल पड़ा उस दिन जब.....
जब एक अनुपम सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति, गुलाबी कशीदाकारी से जड़ी साड़ी में लिपटी उस मन मोहक युवती को देखा था, जिसके रेशमी बालों पर चमकते पानी के मोहक मोती लुढ़क कर गालों को चूमते हुए जमीन पर गिर रहे थे। शायद उस रूप के सामने उन का कोई मोल न था। वह निम्मो थी। तभी बादलों की गर्जना ने निम्मो की छवि को आँखों से ओझल कर दिया। वह अभी भी बेजान मूक तस्वीर को देखे जा रहा था।
उफ् ... उफ् ... क्या यह पानी नहीं रुकेगा ? नहीं ... शायद नहीं ... यह तो उस बेचारी अभागिन निर्मला के आँसू हैं, जो आज कहर ढाने बैचेन हो उठे हैं। निर्मला... हाँ वही जिसे प्यार से सभी निम्मो के नाम से पुकारते थे। वह अल्हड़, चंचल बिल्कुल गंगा सी पवित्र व निर्मल थी। जिसे देख दिल खिल उठता था तो ... क्या मैं विद्रोह कर दॅूं ? हाँ...हाँ... विद्रोह - विशाल की आत्मा चीख उठी।
विशाल अंधकार में बैठा था। अब उसे प्रकाश अच्छा नहीं लग रहा था। किन्तु आकाश से बिजली बार-बार घोर गर्जना के बीच चमक उठती थी। मानों वह रह-रह कर उस वचन की याद दिला रही थी। जब चलते-चलते उस दिन रास्ते में निम्मो बोल पड़ी थी ...
-”विशाल मुझे आज एक अजीब सा भय लग रहा है”
-”क्यों किस बात का भय ? क्या बात है ?”
-” विशाल सुन रहे हो, उस दूर से आती शहनाई की आवाज को। कितनी दर्दीली-विछोही है। इसमें आनंद खुशी का लेशमात्र भी स्वर नहीं। विशाल, कहीं यह सब स्वप्न तो नहीं... कहीं हम-तुम ... विशाल... “ कह कर सीने से आ लगी थी।
-”निम्मो, कैसी बातें करती हो ? आज तुम्हें क्या हो गया ? पगली, हमारा तुम्हारा तो जनम-जनम का साथ है। तुम बेकार ही डर रही हो। अपना प्यार तो गीता की तरह पवित्र है फिर ...”
-” नहीं विशाल ऐसी बात नहीं ...। विशाल यदि हमारा तुम्हारा विछोह हो जाए तो ... विशाल, एक वचन दोगे। बोलो विशाल ...”
-”क्या हो गया है तुम्हें ? शायद तुम समाज से डर रही हो , डर किस बात का। उससे विद्रोह तो नहीं। फिर डर किस बात का ?”
-” यह बात नहीं विशाल , मैंने सुना है कि लेखक भावुक होते हैं। वह कल्पना भरे स्वप्नों की दुनिया में सोता जागता है। न जाने क्यों मेरा दिल कह रहा है, शायद यह मिलन ... विशाल क्या तुम मेरा साथ निभा सकोगे ?”
-” हाँ निम्मो हाँ ... तू इस बात की चिन्ता मत कर। तुझे मेरी कसम।” कह कर विशाल ने उसे अपने आगोश में ले लिया। “
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विशाल वह दिन आज तक न भूला था। जब उसके सामने पिता जी खड़े थे। काफी देर से मौन अपनी बात की प्रतीक्षा में थे। लम्बे मौन को भंग कर जब वे बोले थे -
“बेटे, जब तू छोटा सा था। पैदा हुआ था। तब से आज तक मैंने तेरे लिये क्या कुछ नहीं किया। कितनी रातों की नींद हराम की ? कितने दुख दर्द नहीं झेले तेरे लिए। इन पच्चीस सालों तक तू ही जानता है कि तेरे सुख के खातिर खुद भर पेट खाना नहीं खाया। तुझे हर तरह से पढ़ाया- लिखाया, सुखी रखा। इसके बाद मुझे क्या मिला ? सोचा था, कभी मेरा बेटा अपने हाथों से कमाकर बुढ़ापे का सहारा बनेगा। किन्तु...
मैं मानता हूँ कि तूने नौकरी की बहुत कोशिश की किन्तु इससे क्या ? फिर भी मैं प्रसन्न हॅूं। आज तक न एक शब्द कहा और न कुछ मांगा। किन्तु आज एक छोटी सी बात तुमसे मांगी। उस पर भी तू मौन है ? तू क्या इतना सा उपकार भी मेरे ऊपर नहीं कर सकता ?
ठीक है यदि तू चाहता है कि मैं अपने वचन से मुकर जाऊँ ? ऐसा वचन जो मैंने मृत्यु शैया पर पड़े, अपने दोस्त श्यामबिहारी और समाज के सामने दिए थे। यही चाहता है न, मुकर जाऊँ? जरा सोच फिर समाज में कितनी बदनामी होगी। लोग कहेंगे कि उस बेसहारा गरीब मित्र की मृत्यु के समय पर भी पं. लोकनाथ ने अच्छा खासा उपहास उड़ाया। सबके सामने उस अभागिन बेसहारा दीपा के सिर पर हाथ रखा था। उसे बहू बनाने की प्रतिज्ञा की थी। माथे पर लगायी प्रतिज्ञा की वह रोली पसीने की हल्की बूंदों में ही धुल गयी। दो-तीन माह भी तो नहीं हुए। उस जख्म को भरे। मैं क्या जवाब दूंगा ? किसे मुंह दिखाऊँगा। उफ्...। इतने सालों का विश्वास आज तूने मौन होकर एक झटके में ही तोड़ दिया।”
-” पिता जी मैं कैसे समझाऊँ आपको ... मैं ...”
“ हाँ... हाँ... मैं जानता हॅूं , तेरी माँ ने आज ही बताया है कि तू प्रेम करता है। पर बेटे प्रेम ही तो सब कुछ नहीं होता। क्या मेरे उस मित्र की आत्मा को शांति मिलेगी ? उस बेचारी दीपा का कौन सहारा है, इस दुनिया में। बस मुझे और कुछ नहीं कहना। मेरी पगड़ी की इज्जत तेरे हाथ में है...” कह कर उसके पिता जी चले गए थे।
अपने वचनों से जकड़े, दुविधा में फँसे पं. लोकनाथ ने निर्मला के आगे भी अपनी पगड़ी रख दी। दीपा को बहू बनाने की संपूर्ण कहानी कह सुनाई। जिसे सुनकर निर्मला के आँखों से अश्रुधारा बह पड़ी। यह अश्रुधारा दीपा के लिए थी या अपनी बिगड़ने वाली किस्मत पर ? पं. लोकनाथ भी समझ नहीं पा रहे थे। वे खाली हाथ वहाँ से लौटे।
एक दिन निर्मला का पत्र विशाल के हाथों में था। विशाल उस पत्र को अपने कांपते हाथों में सम्हाल नहीं पा रहा था। उसकी एक-एक लाईनों पर अपने आप को न्यौछावर करता बार-बार पढ़े जा रहा था।-
विशाल,
आज अपने प्यार की वह परीक्षा की घड़ी आयी है। जिसमें हम सभी उत्तीर्ण होना चाहते हैं। मुझे भय है, कहीं तुम फेल न हो जाना। वह शहनाई का स्वर सत्य था और सत्य अमिट है ... अमर है... उसे कोई नहीं मिटा सकता। दीपा भी मेरी बहिन के समान है। दीन दुखी और बेसहारा है। तुम भाग्यवान हो। पिता जी की आशाओं पर तुषारापात नहीं करना। उनका दिल टूट जाएगा। विश्वास टूट जाएगा यदि उनका दिल तोड़ा तो तुम मेरी नजरों से सदा के लिए गिर जाओगे। और हो सकता है फिर मुझे कभी देख भी न पाओ।
“निर्मला “
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ज्वार-भाटे सा विशाल का मन उछल रहा था। सिर फटा सा जा रहा था। “ मैं क्या करूँ उफ्... जिसे अपने मन मंदिर में बिठाए रखा। जिसके साथ जीवन भर साथ जीने मरने की कसमें खाता रहा। उसका साथ छोड़ दूं ? इतनी बड़ी कुर्बानी .... किन्तु पिता जी का वचन ... क्या विद्रोह के बाद भी पा सकूँगा दीपा को ... ? सीने में एक साथ कई तीर चुभ गए थे। जो उसे आहत किये जा रहे थे। किस्मत दूर खड़ी हँस रही थी। विशाल के आँखों के सामने निम्मो की त्यागमयी गर्वयुक्त मुस्कराहट थी। उसकी आँखों से छलकते खुशी के आँसुओं में महान कर्तव्य त्याग और बलिदान की मूर्ति झाँक रही थी। उसके पास ही पं. लोकनाथ जी सिर झुकाए अपराधी से मौन खड़े थे। शायद वे अपने आप को जय पराजय की दुविधा में फँसे हुए महसूस कर रहे थे।
मौन वातावरण जैसे इन सबसे प्रश्न कर रहा था -यह पराजय किसकी है ? परम्परावादी आदर्शों से बंधे विशाल की ? या बलिदान की प्रतिमूर्ति निर्मला की ? ... अथवा सामाजिक मर्यादाओं से जकड़े पं. लोकनाथ की ?...
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”