परोपकार का फल
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
परोपकारी प्रकाश ने अपने घर निर्माण का जो सपना देखा था। वह ईश्वर ने साकार करने का अवसर प्रदान कर दिया था। उसका अपना व्यवसाय चल पड़ा था। धन की वर्षा होने लगी थी। वे अपने मुहल्ले की सकरी कुलियों से निकलकर एक कालोनी में बड़े प्लाट के मालिक बन गये थे। उस प्लाट पर अब वे अपने सपने को साकार करने जा रहे थे। जो वह वर्षों से संजोये हुये थे। खरीदे गए इस बड़े प्लाट में सामने की जगह छोड़कर पीछे उनने दो मंजिला मकान बनवाया। जिसमें एक बड़ा बरामदा, बड़ा हाल, चार बेडरूम जिसमें अपने परिवार के साथ अपना सुखी जीवन बसर कर सके।
प्लाट के सामने वाले हिस्से में उन्होंने बड़े भू भाग में एक बगीचा जिसमें हरियाली दूब के साथ फलदार पौधों को लगवाया। उन्हें फलदार पौधों से बड़ा लगाव था। अपने मेहनत से उगाये हुए फलों का स्वाद ही कुछ और होता है। ऐसा भी नहीं था कि ये फलों के पौधे उन्होंने सिर्फ अपने लिए ही लगवाए थे। वह तो आने वाली पीढ़ियों के लिए भी यह सौगात सौंपना चाहते थे। अपने परिवार के साथ मोहल्ले वाले भी फलों का स्वाद ले सकें। लोग उनके फलों को चखें और उनका नाम ले कर कहें कि प्रकाश के बगीचे के फल कितने मीठे हैं। उन्हें मिल बाँट कर खाने में बहुत मजा आता था।
उनके जीवन की यही विशेषता थी। उनके अंदर कुछ ऐसे ही संस्कार बचपन से भरे पड़े थे। जो उनके जीवन में खुशियों की वर्षा कर उन्हें आगे बढ़ने का सम्बल प्रदान कर रहे थे। वह वृक्षों के परोपकार की भावना से अभिभूत थे। उसी तरह उनमें भी वही भावना प्रवाहित होकर बह रही थी।
प्रकाश ने अथक मेहनत कर अपने सपनों को साकार भी कर दिखाया। मन की कल्पना के अनुरूप मकान भी बन गया। कुछ सालों बाद वही पौधे वृक्ष बन गये फिर उन वृक्षों ने फल देना भी शुरू कर दिए। फलदार वृक्षों ने उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक पहुँचा दी थी। फलों के मौसम आते ही लोग इसी बहाने उनसे मिलने जुलने आते, बैठते-गपियाते बड़े चाव के साथ फलों के स्वाद का आनंद उठाते। एक दूसरे के सुख- दुख को आपस में मिल बाँटते। जयप्रकाश को इसमे बड़े आनंद की अनुभूति होती और उनके दिल को एक बड़ा आत्मसंतोष मिलता। उनका दिल खुशियों से भर उठता।
एक अच्छे मानव के स्वभाव की यही तो विशेषता है कि वह अपने लिए ही नहीं अपने परिवार समाज के लिए भी कुछ करने की चाहत संजोए रहता है। यही चाहत उसे परिवार से उठ कर समाज देश और फिर विश्व बंधुत्वता की ओर ले जाती है। पर इसके लिए समाज में ऐसी सोच व विचारधारा का पल्लवित और पुष्पित होना आवश्यक है। तभी वह अपने परिवार के बीच ही नहीं वरन् समाज और देश में सौहार्दपूर्ण प्रेम भाई चारे का संचार कर सकता है। फिर एक समय ऐसा आता है कि वह समूह “वसुधैव कुटुम्बकम् “की भावना में समाहित हो जाता है।
सकरी कुलियों में अभाव ग्रस्त जीवन बिताने वाला हर मानव अपने अतीत को उतनी जल्दी विस्मृत नहीं कर पाता। चूंकि उसका बचपन और युवावस्था उसी वातावरण में ही गुजरता है। प्रकाश का दिल बचपन से ही बड़ा उदार एवं परोपकारी था। शादी होने के बाद उसके जीवन में पत्नी के रूप में ज्योति का पदार्पण हुआ। दोनों के जीवन में प्रकाश और ज्योति मानों दोनों एक दूसरे के परिपूरक हो गये। ज्योति अपने पति का अनुगमन करने में उसके साथ चलने को सदैव तत्पर रहती। इससे प्रकाश के जीवन में प्रकाश ही प्रकाश फैल गया था। यही हर सफल गृहस्थी के विकास का मूलमंत्र होता है।
संघर्ष की तपन से अछूता मनुष्य, प्राप्त होने वाली सुख सुविधाओं का दास ही बन कर रह जाता है। सुख सुविधाओं के माहौल में पले बच्चों में वह संघर्ष के संस्कारों की बाड़ भी मुरझा जाती है। वे आराम भोगी जीवन जीने लगते हैं। परोपकारी प्रकाश की मिलनसारिता और मेलमिलाप उनके लड़कों को नहीं भा रही थी। यहाँ तक कि उनके घर में हर आगन्तुक का आगमन उन्हें स्वार्थपूर्ण दिखने लगता। अपने माता पिता के स्वभाव के ठीक विपरीत पुत्रों की विचार धारा दूसरी दिशा में बढ़ रही थी।
पुत्रों की नजर में उसके माता पिता अपने संचित और अर्जित फलों को व्यर्थ ही सब पर लुटा रहे थे। उन्हें अपने भविष्य की जमा पूंजी खाली होती नजर आ रही थी। किन्तु इसके ठीक विपरीत उनके माता पिता अपनी उदात्त भावना को ही अपनी प्रगति का प्रमुख कारण मानते थे। इसी वजह से वे गली कूचे से निकल कर इस बड़े आशियाने के मालिक बन गए थे। दूसरी ओर उनके लड़के अपने परोपकारी पिता के साथ रहकर भी उनसे सहमत नहीं थे और वे अपना एकाकीपन जीवन को जीने में मस्त थे और अपने भाग्य पर इठला रहे थे। यह अंतर रेखा ने ही दो विपरीत विचार धाराओं को जन्म दे दिया था। दोनों अपनी -अपनी दिशाओं में बढ़े जा रहे थे।
समय अपनी गति से बढ़ता जा रहा था। दो विचारधाराओं की सोच भी जवान होती जा रही थी। दोनों पुत्र अपनी युवावस्था में पहुँच गये। माता पिता ने अपने कर्तव्य निवार्हन की दिशा में अनुकूल शिक्षा दीक्षा के उपरान्त शादी की रश्मअदायगी भी कर दी। दो बहुओं के आगमन से परिवार चार से छः के आँकड़े में पहुँच गया। माता-पिता की छत्रछाया में उनकी अपनी विचार धाराएँ भी बड़े आराम से सुख सुविधाओं के बीच पल पुश रही थी। छः के आँकड़े को पार करता हुआ परिवार आठ पर पहुँच गया। कुनबा बढ़ता गया, जुम्मेदारी बढ़ती गई। दो उदात्त विचारों के विपरीत छैः की निज स्वार्थपरकता की संख्या बढ़ गयी। अच्छाईयाँ बुराईयों के सामने परास्त होती नजर आने लगीं। बुराईयों ने पूरे घर पर अपना अधिकार जमा लिया। परिणाम स्वरूप कर्मठता के अभाव और आलस्य ने व्यवसाय को कमजोर करना प्रारम्भ कर दिया।
प्रकाश की मिलन सारिता और लोगों का आना जाना उनके जवान लड़कों के आँखों की किरकिरी बन गयी। जिससे लोगों ने उनके घर आना जाना कम कर दिया। उनके जीवन में प्रेम व्यवहारिकता और मधुरता का विलोप होता जा रहा था। परोपकारी वृक्षों के फल जमीन में ही गिर कर बरबाद होने लगे। उनके खाने वालों की कमी होनेे लगी थी। वृक्षों पर लगे फलों को देख राहगीरों ने पत्थरों को फेंकना चालू कर दिया। कभी -कभी वह पत्थर उनके घर के शीशों को भी तोड़ने लगे। परोपकारी प्रकाश के सपनों के मकान को कुछ लोग क्षतिग्रस्त करने लगे।
प्रकाश के व्यवसाय कलश में जो जमा पूंजी थी, उसे भरना तो दूर हो गया। जो शेष बचा था, उससे उन सबकी प्यास बुझाने के भी अब लाले पड़ने लगे थे। धीरे-धीरे उनके दोनों बेटे अपने-अपने बैडरूम में सिमिट कर रहने लगे थे।
माता-पिता अपना एकांगी जीवन जीने लगे। वे तो बस कुनबे के मुखिया बन कर उनकी फरमाईश के केन्द्रबिन्दु बन कर रह गये थे। बेटों का व्यवसाय में हाथ बटाना तो दूर वे अपने पिता पर एक बोझ बन कर रह गये थे। ऊपर से उनके अंदर बुराईयों ने अपने पैर पसार लिए थे।
एक दिन ऐसा आया कि अच्छाईयों का दिल टूटा तो प्रकाश को सीधे अस्पताल की शरण में जाना पड़ा। हार्ट प्राब्लम की बात सुनकर परिवार के सभी सदस्यों में बैचेनी व चिंता बढ़ गई। उनके जीवन में आए इस संकट में उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय दिखने लगा। प्रकाश अपने टूटे आहत दिल को लेकर अस्पताल के बिस्तर पर लेटे थे। चिन्ता में मग्न थे। अस्पताल का सिलिंग फैन अपनी तेज गति से घूम रहा था। दिल की धड़कनों को नापने वाला यंत्र अपनी आड़ी तिरछी लाईनों को खींच खींच कर घर के सभी लोगों के भविष्य को उलझा रहा था।
प्रकाश के दिल की धड़कन से ज्यादा सभी की धड़कनें बढ़ गईं थीं। इस विपत्ति से निपटने के लिए घर के सभी सदस्यों ने अपने पास जमा पूंजी का लेखा जोखा किया। सभी निराश नजर आ रहे थे। कोई भी अपने आँगन के फलदार वृक्ष का यूं ही अकस्मात कट कर गिर जाना पसंद नहीं कर रहे थे। निज स्वार्थपरकता की भावना ने उनकी सोई चेतना को जगा दिया। आज उनकी सुरक्षा में ही अपने भविष्य को उज्जवल पा रहे थे। दोनों लड़कों ने अपने-अपने मित्रों से मदद का आकलन लगाना शुरू कर दिया। उन तक अपनी याचना की गुहार लगाई पर व्यर्थ ही रहा। हर जगह से खाली हाथ ही लौटे।
प्रकाश के मित्रों को जैसे ही उनके अस्पताल में भरती होने की खबर लगी। प्रायः सभी उनको देखने के लिए उमड़ पड़े। सभी की सहानुभूति उनके प्रति जाग उठी थी। उनको आत्मबल प्रदान करने और ढाढ़स बंधाने के लिए उनके मि़त्रों का समूह उमड़ पड़ा। ऐसे अवसर पर अनेक मित्र उनकी मदद करने को आगे आ गए थे। इतने सारे मित्रों स्नेहियों की शुभकामनाओं ने प्रकाश के अंदर एक नई चेतना और स्फूर्ति पैदा कर दी थी। उनके इस सम्बल ने उनके बुझे चेहरे में एक रौनक बिखेर दी थी।
डाॅक्टर उनके हार्ट प्राब्लम का आधुनिक मशीनों से बड़े धैर्य के साथ चैकअप कर रहे थे। ताकि कुछ दिन पूर्व किए गए परीक्षण के मामले से पुनःआश्वस्थ हो जाएँ। पर आज वे बड़े आश्चर्यचकित थे, आज उनकी ईसीजी मशीन, उनकी दिल की धड़कनों को सही बतला रही थी।
“आपका हार्ट तो पूर्ण रूप से स्वस्थ है, कोई चिन्ता की बात नहीं। “डाॅ. के मुख से यह सुनकर उनके सामने खड़े परिवार जनों के आँखों में आश्चर्य एवं खुशी के भाव झलक पड़े थे। उनकी खुशी का ठिकाना न था ....।
डाॅ. ने कहा कि-”इन्हें खुले वातावरण में चिंताओं से मुक्त हँसी-खुशी, आनंद के माहौल में रखने की आवश्यकता है। दिल खुश होगा तो दिल सुरक्षित रहेगा। यही दिल के स्वस्थ सेहत का मूलमंत्र है। “
डाॅ. ने प्रकाश के बेटों के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा-”अब चिंता की कोई आवश्यकता नहीं है। इन्हें आज ही अपने घर ले जा सकते हैं।” सभी परिजन के आँखों से पश्चाताप् के आँसू टप् टप् ....कर गिर रहे थे। जिन्हें देखकर प्रकाश के चेहरे में मुस्कराहट मचल उठी थी।
सभी ने अपने घर आकर देखा कि परोपकारी प्रकाश के पुनः गृह प्रवेश पर उसके आँगन में लगे फलदार वृक्षों ने, अपनी संगीतमय करतल ध्वनि से पत्तियों की तालियाँ बजाकर-एक नई हवा के झोंकों के साथ, सभी का स्वागत सत्कार किया। मानो एक परोपकारी ने दूसरे परोपकारी के पुनः विजयी होने पर अपनी खुशियों का इजहार किया हो।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”