पश्चाताप्
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
ससुराल की प्रथम रात्रि।
गोमती विदा होकर आई थी।......गोमती की सात भाँवरें पड़ीं और वह लटकन को सौंप दी गई। लटकन उसके लिये अनजान व्यक्ति था। उसके जीवन की बागडोर सम्हालने वाला नया अभिनेता !!
लटकन अब एक कच्चे घर में रहता था। घर छोटा था, उसमे मामूली से दो कोठे थे। एक में माँं पड़ी थी, दूसरे मे नवागत गोमती।
गोमती सुतली की एक मामूली सी खटिया पर बैठी थी। मिट्टी का एक दिया जल रहा था, मन्द-मन्द। ज्योति काँप रही थी। अब बुझी...तब बुझी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें यौवन की मादकता लिए देख रही थी, उस टिम-टिमाती ज्योति को, एकटक अपलक। उसके चारों ओर दो चार पतंगे मंडरा रहे थे, वे प्रेममय चुम्बन-केवल एक चुम्बन के लिये विकल थे। दिये की ज्योति क्रमशः मंद होती जा रही थी।
गोमती खटिया पर से उठी। दिया के पास आकर देखा- उसका तेल खत्म हो चुका था। बाती में ही जो गीलापन अवशेष था, उससे वह जल रही थी। और जलजल कर मद्मि होती जा रही थी। वह दरवाजे के पास लौट आई, दरवाजा अंदर से बन्द था। धीरे से उसने दरवाजा खोला बाहर देखा अंधेरा भयावह था। अंधेरे में एक मरघट सी नीरवता थी, सांय -सांय हवा का प्रवाह !
छोटा सा हवा का एक झोंका आया। दिये ने दम तोड़ दिया। गोमती को भय का अनुभव हुआ। दरवाजा बन्द कर दिया। लौटकर बैठ गई, वहीं उस खटिया में।
अब वह अंधेरे में बैठी थी। अकेली नितांत अकेली। उसे झपकी आने लगी। नींद उसे बहुत परेशान कर रही थी.....अचानक झटके के साथ दरवाजा खुला। गोमती सम्हल गई। ‘कौन’ ? एक कम्पन छोड़कर पूछ बैठा हृदय।
“अं...अंधेरा....हिच....हिच....कोई है...कोई है.... कौन है ?”
यह क्या !
विकलता बढ़ गई गोमती की।
कोई लड़खड़ा कर गिर पड़ा था... अरे... ! कौन था ! अंधेरे में उसने अनुभव किया।
वह फिर से उठी। सूखे दिये की बाती जलाई। ध्ंाुधला प्रकाश ! उसने देखा नशे में धत् उसका पति चारों खाने चित्त पड़ा था। गोमती की आत्मा काँप उठी। प्रेम फूट पड़ा रग रग से !
निकट आई। शराब की बदबू से दो कदम पीछे हटी !
शराब !!
काँप उठा उसका हृदय !
उसका पति शराबी है ? हाय-राम कैसा गजब हुआ ! जीवन में संजोये सभी सुनहरी आशाओं पर भयंकर तुषारापात !
उफ !!
पर है तो उसका पति ही... पति ! प्राणनाथ !! देवता!! क्षण ही भर में उसकी घृणा करुणा में परिणत हो गई। कोमल हाथों से जोर देकर उसे उठाया। लटकन झूमता हुआ, लड़खड़ता, गोमती के सहारे अचेतावस्था में उठा और फिर गिर पड़ा खटिया पर धम् से ! और गोमती वहीं जमीन पर बैठ गई प्रस्तर प्रतिमा सी।
गोमती का अभागा भाग्य !....माता-पिता उसके शैशव काल ही में चल बसे थे। निर्दय मामा ने पाला था। उसकी तरह तरह की उत्पीड़न भरी लांछनायें सुनकर उसने अपने 14 बसंत काटे। बसंत ?.......नहीं उसके लिए वे बसंत न थे, जीवन के पतझड़ ही थे। उसका हृदय जलता रहा, पर वह न जल सकी। ममत्व क्या है ? क्या सुख मिलता है उसमें ? उसने सूखी कल्पना की थी। पर उस कल्पना की साकारता में वह कभी आत्मविभोर न हुई थी। वह अभागिन थी, शापित सी उसके स्पर्श मात्र से फूल काँटा बन जाता था ! न जाने क्यों ? उसके हृदय का सम्पूर्ण रस, समय के क्रूर हाथों ने निचोड़ लिया था। वह बेरस थी, छिलका सी।
....शादी की बात से न जाने किसने उसका हृदय गुदगुदाया। एक उन्मादकारी नारीत्व हिलोरें ले उठा। उसकी बरसों की साधना एक तपस्वी सी फलीभूत होते दिखी। उसे वरदान-सा मिल गया। जीवन में प्रथम बार उसने उस पतझड़ में बसंत मनाया।
.....लेकिन जब उसके मामा ने शराबी लटकन के साथ उसे सौंपा और संतोष की सांस ली, तब उसके हृदय ने चुपके से उससे पूछा- “भोली, तू खुश होना चाहती है या रोना ?”
तब वह अवाक् थी
निर्णय करना दुष्कर कार्य था .........
कृतध्न लटकन में शराबी, जुआरी, चोरी प्रायः सभी अवगुण थे ! ....बाप की अटूट सम्पत्ति स्वाहा कर दी। यह देख उसके बेबस बाप का हृदय ........छटपटा कर हमेशा के लिये इस संसार से अलविदा हो गया ! पर इससे लटकन को क्षण मात्र भी दुख न हुआ।
.....पति वियोग की वेदना और बेटे की उछ्ंखलता से रुग्ण हो गई उसकी निष्कपट माँं ! शरीर में हड्डियाँ ही अब शेष रह गयीं थीं ! पर लटकन न संभला... न संभला... ! आलीशान मकान से अंततः मिट्टी के कच्चे मकान में आश्रय लेना पड़ा।
पलटू लटकन का चरित्रहीन मित्र था। हट्टा-कट्टा, काला-कलूटा, बड़ी-बड़ी नशीली आँखों वाला। वह भी एक नम्बर का शराबी-कवाबी था। दादागिरी, गुंडागर्दी, पाकिट मारना, मारपीट करना, और जुआ खिलाना ही उसका पेशा था।
लटकन, अपनी पिता की सम्पत्ति के ही सहारे था। जो कि अब उसके पास नहीं थी। वह अब तो शराब के इशारों पर नाचता था। एक बोतल पिला देने पर वह, निकृष्ट से निकृष्ट काम करने को उद्यत हो जाता।
शादी के ठीक दस दिन बाद लटकन की .माँं चल बसी !
माँं के जाने के बाद पलटू का लटकन के यहाँ आवागमन प्रारंम्भ हो चुका था। उसकी नजर गोमती पर पड़ी। दिल तड़प उठा उसका ! इतना हुश्न ! वह गोमती को फंसाने के उपाय सोचने लगा।
और एक रात- “गोमती दरवाजा खोले !”
कौन ? पलटू भाई ?-गोमती ने पूछा।
‘हाँ, मैं हूँ ! दरवाजा खोलो !’
‘वे नहीं है पलटू भाई !’ गोमती का पवित्र हृदय बोला’ आने पर मिल लेना’
‘गोमती !’ चिल्ला उठा वह-’मुझे तुमसे मिलना है’।
‘मुझसे ?’ शरीर काँप उठा गोमती का ! उसने पलटू की वासनामयी आवाज ताड़ ली। उसने बहाना बनाया कहा- ‘ मेरा पैर लचक गया है, पलटू भाई ! उठते नहीं बनता।’
‘ओह !’ पलटू बहाना समझ गया !
जब लटकन घर आया तब गोमती ने पलटू के आने की बात कही। उसने यही कहा- ‘ तुम्हें पलटू भाई खोजने आये थे।’
बात साधारण ढंग से कही गई थी, इसलिए लटकन पर उसका काई प्रभाव न पडा।
दूसरे दिन जब वह पलटू के घर गया तो उसने साधारण ढंग से पूछा-
‘तुम रात को मेरे घर गये थे ?’
पलटू ने समझा, रात वाली घटना गोमती ने लटकन को सुना दी होगी इसलिये लटकन मुझे जलील करने आया है। उसके शब्दों में कर्कशता और हृदय में क्रूरता आ गई ‘ हाँ गया था ! तो तू यहाँ किस लिए आया है ?’
....’लटकन अवाक् रह गया ! पलटू कहता गया- ‘मुझे गोमती से मुहब्बत है। यदि तू......
‘पलटू !’ चिल्ला उठा लटकन। ‘ अच्छा हुआ जो तुमने अपने दिल का राज अपने मुँह से बक डाला ! पर यह मत समझो कि मैं नामर्द हूँ । दगाबाज ! फरेबी !!’
लटकन की आँखें लाल हो गईं थीं ! क्रोध मे शरीर काँपने लगा था उसका ! गोमती के नशे में झूमते हुए पलटू बोल उठा- ‘गोमती को मैं प्यार करता हूँ । मैं उसे अपनी रानी............’
‘पलटू !’ दाँत कटकटा उठा लटकन ! ‘ अपनी शातिर जुबान बन्द कर नहीं तो’............खट से निकाल लिया अपना चमचमाता हुआ छुरा।
और ज्यों ही वह लपका था, त्यों ही पीछे से खच.....खच........खच........! पलटू का छुरा गर्दन और पीठ में आ धंसा। लटकन के शरीर से खून का फब्बारा छूट पड़ा और चीखकर गिर पड़ा लटकन............
पलटू के साथी ने गोमती को खबर दी लटकन एक चोरी में गिरफ्तार हो गया है। पुलिस ने तहकीकात के लिये तुम्हें बुलाया है।
भारतीय नारी का विशुद्ध पति प्रेम ! गोमती का हृदय छटपटा उठा। वह बिना सोचे विचारे ही चल पड़ी........।
‘वे कहाँ है पलटू भाई ?’ हड़बड़ा कर पूछा गोमती ने।
‘लटकन ?’ क्रूर हास्य कर उठा अफजल। लपक कर दरवाजा बन्द कर लिया।
‘तुम देर र्से आइं गोमती, उसे पुलिस ले गई और न जाने क्या होगा अब उसका’
“पुलिस ले गई ? अब क्या होगा भैया ?”
रोम रोम काँप उठा उसका, पृथ्वी घूम गयी आँखों के सामने। वह अपने को न सम्भाल सकी। “भैया” अज्ञात आशंका से चीखकर लिपट गई पलटू से। आँसुओं की अविरल धार बही जा रही थी। “भैया ! भैया !! अब क्या होगा ......
“भैया ! भैया !! उन्हें बचा लो, छुड़ा लो किसी तरह”
“भैया ! भैया !! उसके कानों ने ऐसा अनुभव किया मानो स्वयं उसकी बहिन चीख रही हो। “भैया ! भैया !!” की गूँज से वह आत्मग्लानि से भर उठा। पलटू का प्रस्तर हृदय अपने कृत्य से चीत्कार कर उठा !
पलटू की क्षुद्र वासना युक्त निर्दयता पर “भैया भैया” की करुण चीत्कार ने विजय पाई। वह खड़ा रह गया था, ज्यों का त्यों। उसकी सोयी अंतरात्मा जाग उठी। उसकी विषैली आँखों का शोणित लुप्त होकर उसमें सजलता झलकने लगी। ओंठ काँप उठे, वह कटे वृक्ष सा गिर पड़ा, सामने खड़ी गोमती के पैरों पर ! इन्सानियत को एक ही घूंट में पी जाने वाला पलटू पानी पानी हो गया। उसके अंदर की इंसानियत जाग चुकी थी। अवरुद्ध कण्ठ से कहने लगा- “यह मेरे नापाक हाथों ने तुम्हारा सुहाग लूट लिया बहन”
गोमती पर मानो बज्र का पहाड़ टूट पड़ा हो।
आसमान काँप उठा
पृथ्वी थर्रा उठी !!
हृदय हाहाकार कर उठा !!!
वह खड़ी थी लुटी हुई अवाक् अचल शांत।
पलटू गोमती के पैरों पर सिर रखकर रो रहा था। उसके अश्रुओं की धार गोमती के पद प्रक्षालन कर रही थी।
और गोमती.........
उसका तो सर्वस्व छिन चुका था।
“झर-झर’ बहते हुए आँसू टप-टप पलटू के सिर पर गिर रहे थे, मानो सब कुछ खोकर भी गोमती अपने शीतल अश्रुधार से हत्यारे भाई को क्षमा दान दे रही हो ?
सांय सायं करता वातावरण कह रहा था, पलटू तू क्रूर हत्यारा है, साथ ही क्षमा के योग्य भी और पलटू पश्चाताप् की अग्नि में धधक रहा था।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’