पथराई आँखें
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
सरस्वती आज फिर गाँव की कच्ची सड़क पर बढ़ी जा रही थी। सन की तरह उलझे सफेद बाल, सूखी अंदर धंसी आँखें, झुर्रियों से भरा हड्डियों का ढांचा जो कमानी सा झुक गया था। अपनी र्बाइं हाथ की मुट्ठी में लाठी का ऊपरी हिस्सा मजबूती से पकड़ रखा था। यही सहारा अब उसे गतिवान बनाये था।
वर्षों गुजर गये थे। उसे आज भी गाँव में किसी कृतज्ञ मानव की तलाश थी, जो उसकी कुर्बानियों को याद कर सहारे की लाठी बन सके।
इस सड़क से हजारों बार गुजरी थी। अब वह इस ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलने की अभ्यस्त हो गयी थी इस उम्र में भी। पैरों की स्मरण शक्ति गजब की थी। वह अपनी जमीन को अच्छी तरह पहिचानती थी। आज और कल में फर्क सिर्फ इतना था कि आज उसके कांपते हाथों में एक कटोरा है। पिचका, तुचका जो उसके धंसे पेट के समान था। अब उसकी सारी जिंदगी भी तो इसी कटोरे में सिमट कर रह गयी थी। कल इन्ही हाथों में अपने सिर को ढांकता साड़ी का पल्लू रहता था और चेहरे में खुशहाली की चमक दमक थी।
चैराहे के निकट पहुंच कर थोड़ा ठिठकी। बीचों- बीच गाँव के नेता जी की प्रस्तर-मूर्ति लगी थी। वह हंसी और व्यंगात्मक मुसकायी। चैराहें के एक छोर पर बने कच्चे चबूतरे पर आकर बैठ गयी। यह चबूतरा उसके अतीत का एक बड़ा हिस्सा था। यहाँ पैंतालीस वर्ष पूर्व गाँव की पंचायत की बैठकें होती थी, विवादों को सुलझाने के लिए।
तब वह पच्चीस वर्ष की थी। उसके पति रामप्रताप शर्मा जीवित थे। सच्चे जीवन साथी। पड़ोस के गाँव के शिक्षक थे। सभी उन्हें ‘गुरु जी’ कहते थे। एक माह पूर्व आजादी की वर्ष गांठ मनाने इसी चबूतरे पर पंचायत बैठी। किन्तु तू-तू... मैं-मैं ... में बात बढ़ते हाथा- पाई पर उतर आयी थी। परिणाम कुछ नहीं निकला।
बात साधारण थी। गाँव के मुखिया पुराने जमींदार थे। वे अपने दल के नेता को बुलाकर ध्वजारोहण करवाना चाहते थे। दूसरी ओर विरोधी पक्ष अपने नेता से। निजी स्वार्थों के बीच बेचारी राष्ट्रीयता फंस कर रह गयी थी, भला वह इन हाथों में कैसे सुरक्षित रह पाती। राष्ट्रीय पर्व पर भी अपने-अपने स्वार्थों की रोटियाँ सेंकी जा रही थीं।
तब गुरुजी ने गाँव के कुछ होनहार युवकों को इकट्ठा किया। गाँव की ऊबड़-खाबड़ सड़क की जगह पक्की सड़क बनाने और उसे शहर के मुख्य मार्ग से जोड़ने का प्रस्ताव रखा ताकि पहले समतल पथ का निर्माण हो सके फिर गाँव का विकास किया जा सके। इनकी योजना को क्रियान्वित करने, अनेक युवकों के साथ ग्रामवासी भी फावड़ा, कुदाल लेकर जुट गए। गुरुजी के निर्देशन में पहले चाक की लाइन डाली गयी। फिर बड़े तरकीब से पत्थर जमाए गए। सबके सहयोग से पन्द्रह दिनों में ही सड़क बनकर तैयार हो गयी। गाँव के लोग उस पथ पर जितनी बार आते-जाते, सब खुशी से फूले ना समाते।
गुरुजी के कार्य की प्रशंसा घर-घर तक जा पहुँची थी। गाँव के सभी जवान-बूढ़े जो कभी सरपंच और नेताओं के इर्द-गिर्द मंडराते रहते, अब गुरुजी के कायल हो गए थे। तब तक सरपंच भी अपने बौने व्यक्तित्व से शर्मिंदा होकर स्वतः ‘गुरुजी’ का लोहा मानने लगे। गाँवों के सभी लोंगों ने अपनी पंचायत में पन्द्रह अगस्त पर ध्वजारोहण गुरुजी द्वारा करवाने का प्रस्ताव रखा। काफी टालमटोल के बाद गुरुजी को आखिर जनमत के आगे झुकना पड़ा। उस दिन कार्यक्रम में गाँव के हर नर-नारी बच्चे शरीक हुए थे, बड़े उत्साह और उमंग के साथ।
कुछ लोगों का जीवन भी अद्भुत है। समाज के लिये नये-नये आयाम स्थापित करने हेतु सदैव तत्पर रहते हैं। उनके जीवन में निजी स्वार्थों की कोई जगह नहीं रहती। गाँव के बच्चे दस किलोमीटर चल कर दूसरे गाँव पढ़ने जाएँ। यह गुरुजी को अच्छा नहीं लगता था। अपनी जीवन भर की कमाई को उन्होंने इस स्वप्न को मूर्त रूप देने में झोंक दिया।
अपने ही खेत के एक हिस्से में पाठशाला के लिए कमरे का निर्माण प्रारम्भ कर दिया। जीवन की गाढ़ी कमाई शिक्षा मंदिर में व्यय होती जा रही थी। एक बार शादी की साल गिरह पर जब गुरुजी साड़ी की जगह ‘ब्लैक बोर्ड’ उपहार में देने लगे, तो वह झल्ला पड़ी थी। वह लड़ बैठी थी उस दिन -
यह तुम्हें कैसा जुनून सवार है। शादी की साल गिरह पर ‘ब्लैक बोर्ड’? उठा कर फेंक दिया था बाहर। तब गुरुजी ने उसे मनाते हुए कहा -
सरस्वती, यह स्कूल किसका है, मेरा ? ... नहीं ... यह तुम्हारे सहयोग के बिना बन ही नहीं सकता है। इसलिए जानती हो - इसका मैंने नाम क्या रखा है? ‘सरस्वती विद्यालय’ ...।
उन्होंने पास खींचते हुए कहा - यह विद्यालय ज्ञान का ऐसा आलोक बिखेरेगा, जिससे हमारे देश का भविष्य उज्जवल हो जाएगा। इस साक्षरता से हमारे गाँव में ही नहीं, देश में खुशहाली आ जाएगी। कहकर मुझे प्यार से बाहों में भर कर झूमने लगे थे।
कैसा अनोखा प्यार था। उनमें व्यक्तिगत स्वार्थ को परमार्थ में बदलने की अद्भुत शक्ति थी। जो विलक्षण ही पायी जाती है।
दूसरे दिन ही “सरस्वती विद्यालय” का बोर्ड लग गया था। उन्होंने गाँव के बच्चों को निःशुल्क पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया था। और शिक्षा के प्रति लोगों का उत्साह देखकर शाम को गाँव के अपढ़ लोगों की कक्षाएँ लेने लगे थे। लोगों को शिक्षित करने और उनमें संस्कार जगाने के लिये उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया था।
सिर के ऊपर सूरज आ गया था। अपने पोपले गालों और सिलवटी माथे पर धूप से उभर आई पसीने की बूदों को पोंछा और लाठी उठाकर खाली कटोरा लिए ही वह घर की ओर चल पड़ी।
ओठों को बार -बार जीभ से तर करती -करती थक गयी थी। ऊपर पेट की आँतड़ियों की मरोड़ ने हाथ -पावों को सुन्न कर दिया। घर में रखे मटके की तलहटी से पानी निकाल कर, अपने सूखे गले को तर किया। कुछ राहत मिली।
वह परछी के खम्बे का सहारा लेकर बैठ गयी। सामने “शासकीय सरस्वती विद्यालय” का बोर्ड लगा था। पढ़ाई के समवेत स्वर गॅूंज रहे थे और सामने मैदान में कुछ बच्चे खेल रहे थे।
पहले यही दृश्य और आवाजें उसका सुनहरा सपना था। वह अपने ‘गुरुजी’ के साथ “सरस्वती विद्यालय” के हर विद्यार्थी में उनके भविष्य की संभावनाएँ तलाशती रहती।
यह लड़का बड़ा होकर इंजीनियर बनेगा।
यह डाॅ. बनेगा ...।
यह बड़ा बाबू बनेगा ...।
यह खिलाड़ी बनेगा ...।
यही सोचकर दोनों को आत्म संतोष और गौरव की अनुभूति होती रहती। वे इन बच्चों को देख अपनी औलाद ना होने का दुख भी भूल गए थे। दोनों ने बड़ी मेहनत और त्याग तपस्या से इस पाठशाला की नींव रखी थी।
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एक दिन अचानक गुरुजी की मौत ने सभी को चैंका दिया। सरस्वती पर तो मानो एकाएक दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। सहानुभूति सांत्वनाओं का दौर चला। कब छह माह बीत गए , आभास ही न हो पाया। समय इंसान को कठिन से कठिन परिस्थितियों में चलना सिखा देता है। स्वाभिमानी सरस्वती ने कमर कस ली थी। स्कूल के पास पड़ी जमीन पर खेती करने लगी। जिससे उसका गुजर -बसर चलने लगा।
पांच बरस गुजर गए। एक दिन गांव की चैपाल का बुलावा आया। नेता जी ने उसे विशेष रूप से बुलाया है। शाम की सभा में गांव के कई लोग एकत्र हुए। नेता जी ने सभा संबोधित करते हुए कहा -
भाइयो और बहनो,
हमारे गाँव में लिए बहुत खुशी का समाचार आया है। एक सरकारी स्कूल खोलने का प्रस्ताव है। मेरे मन में विचार आया कि क्यों न “सरस्वती विद्यालय” को शासकीय विद्यालय में परिवर्तित कर दिया जाए । फिर यहाँ भव्य स्कूल के साथ-साथ खेल का मैदान भी बन जाएगा।
मेरे ग्रामवासियों एवं आदरणीय सरस्वती देवी,
यह सपना हमारे गुरुजी का था। उससे पूरा करने का आज अवसर मिल रहा है। गुरुजी के त्याग तपस्या बलिदान और चिंतन ने गांव को एक नई दिशा दी है। इस दिशा को हम सबको मिलकर आगे बढ़ाना है।
सरस्वती देवी यदि स्कूल के साथ-साथ अपनी खेती की जमीन दान में दे दें। ताकि बच्चों के लिए खेल का मैदान भी बन सके। हम सभी गाँव वासी उनका यह उपकार कभी नहीं भूलेंगे। हम सभी उनके कृतज्ञ रहेंगे।
जहाँ तक उनके गुजर बसर का प्रश्न है। हम सभी उनकी जिम्मेदारी ले सकते हैं। शेष जीवन वे आराम और सम्मान के साथ गुजारेंगी , वे किसी प्रकार की चिंता न करें।
सरस्वती ने अपने साठ वर्षीय जीवन का लेखा जोखा लगाया फिर शेष क्षणों को उंगलियों पर गिना। नेता जी के अश्वासन को पाकर वह संतुष्ट हो गयी। गुरुजी के सपनों के सामने उसे अपना जीवन तुच्छ एवं बौना नजर आया।
सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी।
गाँव की चैपाल जय-जय कार के नारों से गूँज उठी। सभा समाप्त हुयी।
अब सरस्वती के पास सिर छिपाने को एक कमरा और छोटी सी परछी ही शेष रह गयी थी।
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वह नेता जी के आश्वासनों की गठरी कुछ वर्षाें तक ही सहेज पायी थी। गाँव की चैपाल भी भूल गयी उसके, त्याग और बलिदानों को। अपने किए गए वायदों से लोग मुकरने लगे। सम्मान की जगह दया की पात्र बनकर रह गयी। और उसके हाथों मे यह कटोरा थमा दिया।
कभी उसने सोचा था, शिक्षा से ज्ञान का आलोक बिखरेगा। लोगों के अन्तस मन में मानवता के भाव जागेंगे। शिक्षा उनके अन्दर अच्छे संस्कारों का बीजारोपण करेगी। भविष्य में सभी को उस वृक्ष से अमृत फल मिलेगा। जिससे समाज राष्ट्र अजेय और अमर हो जाएगा।
किन्तु कृतज्ञ सरस्वती को क्या मिला। कृतघ्नता ... उपेक्षा... और हाथ में दया की भीख का वह टुचका पिचका खाली कटोरा ...। जो आज दो दिनों से खाली था। मटके की तलहटी से पानी निकाला और फिर खाली पेट को भरकर समझाने का प्रयास किया किन्तु उसका यह प्रयास व्यर्थ रहा ...
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दूसरे दिन सुबह परछी के उसी खम्बे के पास ज्ञान की प्रतिमूर्ति सरस्वती का पार्थिव शरीर एक और लुढ़का पड़ा था। उसकी निगाहें “सरस्वती विद्यालय” की ओर थीं। जैसे उसकी पथराई आँखें अब भी समाज से, देश से और देश के कर्णधारों से कुछ उम्मीदें कर रहीं थीं।
गाँव के बस दो चार लड़के उसके इर्द गिर्द खड़े थे। उसके निर्जीव शरीर पर कृतघ्नता की मक्खियाँ बुरी तरह भिन - भिना रहीं थीं।
यह मूक दृश्य गाॅव के सामने ही नहीं वरन् देश के सामने एक प्रश्न बन कर खड़ा था। यदि त्याग, बलिदान का यही प्रतिफल है तो भविष्य में कौन इस महायज्ञ की वेदी पर अपनी आहुती देगा ?
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
(प्रकाशित एवं प्रसारित आकाशवाणी)