परिवर्तन
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
स्कूल की छुट्टियाँ पड़ते ही शुभम् अपने बचपन में नाना-नानी के गाँव में कुछ समय रहने चला जाता था। शभम् को गाँव की हरितमा बड़ी मोहक और लुभावनी लगती। हरे भरे लहलहाते खेत नदी का किनारा, ऊँचे-ऊँचे पर्वत घने वृक्षों की धूप-छाँव के बीच कोयल की कूक उसको बरबस अपनी ओर खींचतीं थीं। गाँव में अपने बचपन के दोस्त माधव का साथ जैसे सोने में सुहागा। दोनों मिल कर बड़ी धमा चैकड़ी मचाते। आम अमरूद के बाग बगीचों में घुसकर फलों को खूब खाते। झोड़ों की टहनियों में बैठकर झूले झूला करते। फिर गुजरे वर्ष की यादें करते,बड़ा मजा आता।
समय का पंछी अपनी लम्बी उड़ानंे भर चुका था। शुभम् शहर में अपने पिता के पैतिृक मकान में रहता था। उस की शादी हो चुकी थी। उसके परिवार में दो लड़के और एक लड़की थी। घर गृहस्थी और नौकरी में फँसा शुभम् शहर का ही होकर रह गया था। वर्षों गुजर गए थे, गाँव से नाता तोड़े। घर के सामने पड़ी जमीन में बागवानी का शौक पूरा करके वह मानों अपने गाँव से नाता जोड़े था।
दिसम्बर की कड़कड़ाती भोर के संग सुबह की कुनकुनी धूप देखकर शुभम का मन खुशी से झूम उठा। हाथ में आराम कुर्सी थामे बगीचे के उस छोर पर जहाँ सूर्य की किरणें बाहें पसारे स्वागत को आतुर दिख रहीं थीं , चल पड़ा। आराम कुर्सी में अपने शरीर को डाल कर वह घने अशोक के वृक्ष के नीचे जा बैठा। वृक्ष पर बैठी चिड़ियों की चहचहाट और पत्तों की तबले की थाप के बीच-बीच में कोयल की कूक से भरी संगीत मधुरिमा का आनंद लेने में मग्न हो गया। तभी उसने देखा सामने एक पहलवान नुमा आदमी हाथ में जंगली गुलाब का पौधा लिए खड़ा था। उसके चेहरे में कुछ संकोची भाव से उभर रहे थे। पर चेहरे की चिरपरिचित मुस्कान... पहिचानते ही शुभम बोल पड़ा -
“ओह माधव... आओ भई , तुम तो बिल्कुल बदल गए “
माधव अपनी झिझक दूर कर चुका था बोला - “शुभम बाबू मैं तो डर रहा था इतने वर्षो के बाद.... आप पहचानेगें या नहीं। चलो अच्छा हुआ आपने पहचान तो लिया। गाँव को तो आपने भुला ही दिया। मैंने सोचा चलो मैं ही शहर हो आऊँ “
शुभम् ने कंधे पर हाथ रखकर कहा - मुझे बड़ी खुशी हुई ,तुम्हे यहाँ देखकर। मैं तुम्हें और तुम्हारे उस गाँव को कैसे भुला सकता हॅूं भला। जहाँ मेरे बचपन की ढेर सारी स्मृतियाँ जुड़ी हैं। मैं गाँव नहीं आ सका पर देखो मैंने उसकी हरियाली और वे यादें यहाँ अपनी आँखों के सामने बसा ली हैं।
माधव ने कहा- सचमुच यही सोच कर तो यह जंगली गुलाब का पौधा तुम्हारे लिए गाँव से लाया हूँ,यह तुमको बहुत पसंद भी था। यह बहुत फूल देता है न शुभम् बाबू। तुम्हारे इस शहरी बाग में गुलाबों की बहार ला देगा।
शुभम् ने मुस्कराते हुए कहा - चलो यार, जब तुम यह उपहार मेरे लिए लाए हो, तो अपने हाथों से वहाँ पर लगा भी दो। हमेशा याद रखूँगा तुम्हें और तुम्हारे इस पौधे को ....
शुभम् को वार्तालाप से ज्ञात हुआ कि माधव गाँव छोड़कर शहर में बसना चाहता है। खुद तो नहीं पढ़ पाया किन्तु यहाँ पर रहकर अपने लड़के गौरव को पढ़ाना चाहता है। और अपना कुछ काम धंधा भी जमाना चाहता है। उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति को देखकर बड़ी खुशी हुई। मैंने उसे पास ही एक मकान किराए से दिलवा दिया। गौरव बड़ा ही होनहार कुशाग्र बुद्धि का लड़का था।
गौरव को एक स्कूल में प्रवेश मिल गाया था। माधव अपने घर परिवार में रम गया था। बाद में उसने यहाँ मकान भी खरीद लिया। कुछ वर्षों तक तो सभी ठीक-ठाक चला। शहर की तड़क भड़क रंगीनियों में अचानक माधव खोने लगा। भोला-भाला माधव बुरी सोहबत में पड़ गया। बौद्धिक कमी ने अपार शारीरिक बल को दिशा हीन कर दिया। कपटी लोगों की स्वार्थपूर्ण चाटुकारिता और झूठी प्रशंसा ने उसे दिभ्रमित कर दिया। शुभम् ने कई बार दोस्ती का फर्ज निबाहा। किन्तु माधव के मस्तिष्क में तो जैसे भूत ही सवार हो गया था। इस शहर के मरियल दादाओं का वह सबसे बड़ा दादा बनता जा रहा था। उनके संगत में नशा भी करने लगा।
आए दिन माधव नशे में धुत अपने घर की शांति भंग करने लगा। बीबी से रोज झगड़ा करता। मारपीट करता। जिसका भविष्य संवारने गाँव से शहर आया, उसी गौरव के भविष्य पर प्रश्न वाचक चिन्ह बन कर, अब स्वंय खड़ा हो गया था। पत्नी अपने ऊपर कितनी भी तकलीफें,यातनाएँ प्रताड़नाएँ मौन होकर सह लेती है किन्तु माँ अपने कोख से जन्में लाल पर जरा सी आँच को सहन नहीं कर सकती। माधव के यदा कदा उठे हाथ से वह तिलमिला जाती। और बात जब शुभम् तक पहुँचती तो मित्र का फर्ज सामने खड़ा हो जाता। अपने दोस्त माधव को समझा समझा कर वह परेशान हो गया था।बच्चों को तो समझा बुझा कर मार्ग पर लाया जा सकता है किन्तु बड़ों को .....
सोहबत का असर क्रमशः अपना रंग दिखा रहा था। घीरे-धीरे माधव मेहनत से जी चुराने लगा। गाँव के अपने खेतों को सिकमी में दे दिया। कटाई के समय गाँव जाकर आधी उपज ले आता। यही उपज वर्ष भर खाता और घर के आँगन में बंधी भैंसों को दुहकर सारी कमाई शराब में उड़ा देता। बचत के नाम से कुछ नहीं था। खाली समय वह यहाँ वहाँ मटरगस्ती आवारागर्दी करता। उसकी पत्नी स्वयं की और गौरव की उपेक्षा से रात दिन चिंतित रहने लगी।
शुभम् जब कभी अपने बगीचे में लगे, उस जंगली गुलाब को निहारता तो चिंतामग्न हो जाता। उसे तरस आता और क्रोध भी। उसकी बड़ी-बड़ी कांटेदार डगालें फूहड़ता से फैली नजर आतीं। जिसको वह कभी बहुत चाहता था अब वह उसकी आँखें में सी लगीं थीं। कई बार चाहा उसे उखाड़ कर फेंक दें। किन्तु बचपन की यादें उसके हाथों को ऐसा करने से रोक देतीं। उसकी फुनगी में खिल रहे गुलाब पर उसे तरस आ जाता। गौरव का मुरझाया चेहरा देखकर शुभम् को बड़ा दुख होता। घर के अशांत वातावरण से घबराकर अब उसका बेटा गौरव उसके बच्चों संग उठता बैठता हँसता खेलता। इस तरह धीरे-धीरे गौरव अपना अधिकतर समय शुभम् के घर पर ही गुजारने लगा। घर के बच्चों के संग खूब मन लगा कर पढ़ने लिखने लगा। अपने स्कूल का होमवर्क भी बड़ी लगन से यहीं करने लगा। यह देख शुभम् को बड़ी खुशी होती।
अप्रैल का महीना था सभी बच्चों की परीक्षाएँ समाप्त हो गईं थीं। सभी को रिजल्ट का बड़ी बेसब्री से इंतजार था। कुछ छुट्टियों में सैरसपाटे के कार्यक्रम बना रहे थे।
एक दिन शुभम् सुबह-सुबह अपने बगीचे की खरपतवार को उखाड़ रहा था। तभी अखबार हाॅकर ने आवाज लगायी। शुभम् ने जैसे ही अखबार उठाया तो उसकी नजर पेपर के मुखपृष्ठ की हेडलाईन में अटक कर रह गयी। उसे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था। समाचार ही ऐसा था।
“परीक्षा परिणाम घोषितः गौरव संभाग में प्रथम”
हाथ में अखबार को पकड़े शुभम् के कदम माधव के घर की ओर तेजी से बढ़ते जा रहे थे , माधव को यह समाचार सुनाने। देखा उसके घर के सामने पहले से ही काफी लोगों की भीड़ लगी थी। कुछ बड़े समाचार पत्रों के प्रेस फोटोग्राफर गौरव के साथ -साथ, उसके माता- पिता की तस्वीरें विभिन्न कोणों से ले रहे थे। शुभम् को आते देख गौरव ने बड़ी विनम्रता से आशीर्वाद लिया। शुभम् ने उसे गले से लगा लिया उसे ढेर सारी बधाई दी। सिटी रिपार्टर गौरव से तरह-तरह के प्रश्न पूँछ रहे थे - बेटे गौरव , तुम आगे क्या करना चाहते हो ? गौरव ने कहा - मैं आगे खूब पढ़ना चाहता हॅूं।
“खूब पढ़ने के बाद क्या बनना चाहते हो ?- जो पिता जी कहेगें वही “ शुभम् ने देखा माधव का झुका चेहरा मुस्करा उठा।
“अच्छा गौरव , तुम्हारी इस सफलता के पीछे सबसे बड़ा किसका हाथ है,”- रिपोर्टर ने पूँछा
इस प्रश्न पर शुभम् ने देखा माधव का चेहरा फक्क पड़ गया था। शर्मिन्दगी से नजरें जमीन पर गड़ी जा रहीं थीं। सच्चाई के दर्पण के सामने मानो उसका वह चेहरा उजागर होने जा रहा था। तभी गौरव की आवाज उस शांत वातावरण में उभरी। -”अंकल, मेरे माता पिता के लगातार प्रोत्साहन और आशीर्वाद से आज मुझे यह सफलता मिली है। इनका यह एहसान मैं अपने जीवन भर न भुला सकूूंगा। ईश्वर मुझे हर जन्म में ऐसे.....। कहते कहते गौरव का गला रूंध सा गया। ...”वह इससे आगे और कुछ नहीं बोल पा रहा था।
माधव का पश्चाताप् से झुका चेहरा अचानक उठा। शुभम् ने देखा उसकी आँखों में आँसू छलछला आए थे। शुभम् की ओर देखकर वह कृतज्ञता का भाव व्यक्त कर रहा था। उसने तुरंत अपने नन्हें बेटे को गले से लगा लिया। फोटोग्राफर बाप बेटे की यह तस्वीर अपने -अपने कैमरे में सहेजने में मग्न थे। किन्तु शुभम् माधव की आँखों से बह रहे पश्चाताप् के आँसुओं में उसके परिवर्तन की स्पष्ट झलक देख रहा था। और मन ही मन खुश हो रहा था। जो काम वह नहीं कर पाया आज गौरव ने कर दिखाया था। घर आकर उसने माधव के उस जंगली गुलाब को प्यार से निहारा और खूब सराहा .....
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
(प्रकाशित 1995)