पुकार
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
(सन् 1942 के अगस्त का महीना था )
“क्या कर रहे हो ?”
“लिख रहा हूँ ?”
“क्या लिख रहे हो ?”
“जनता का हाहाकार !”
“मत लिखो !”
“क्यों ?”
“कर्ण विहीन मदोन्मत शासकों पर इसका कोई परिणाम न होगा।”
“न हो !”
“मेहनत निष्फल जायगी।”
“नहीं......यह...नहीं हो सकता। यह उत्पीडि़त जनता का हाहाकार है। जनता की आवाज है, जनता की पुकार। सरकार इसे ठुकरा नहीं सकती।”
“किन्तु इसका परिणाम जानते हो ?”
“सफलता ! अनवरत परिश्रम !! यह हमारी सफलता की चरम सीमा पर एक न एक दिन निसन्देह पहुँचेगा।”
“लेकिन आज भारत में कला का, सत्य साहित्य का कोई मूल्य नहीं, कलाकार” मैंने रुख बदला
“जानता हूँ ।”
“और जानकर भी कला साहित्य की हत्या करने पर तुले हो ?”
“कला साहित्य की हत्या ? विचित्र प्रश्न है आपका। सत्य साहित्य कभी नहीं मरता। ईश्वर की भाँति साहित्य भी अनादि है”
“आपकी यह कला और साहित्य किसके लिये है”
“निपीडि़त समाज के लिए ही नहीं वरन् सबके लिये”
“किन्तु आज इस समाज मे स्वाबलंबन नहीं, जागरूकता नहीं।” मैंने विवाद को कुछ और बढ़ाया।
“समाज में न कहो, समाज के कर्णधारों में कहो। स्वयं भू कलाकारों एवं बुद्धिजीवियों में कहो। उन स्वयं भू राजनीति के धुरन्धर महापण्डितों में कहो।”
“क्यों” ?
“आज भारतीय कला साधक केवल पाश्चात्य प्रणय गुत्थियों में उलझा है। वह प्रेम का राग अलापता है। श्रृंगार रस की सृष्टि करता है, पर उसमें वीर रस की भावना नहीं। उसमें वह प्रतिभा नहीं, प्रतिद्वंदिता नहीं। राष्ट्र के प्रति सारमय तथ्य भी नहीं। वह हुँकार नहीं, जो सोतों को जगा सके। वह ललकार नहीं, जो जागतों को स्वावलंबन की प्रेरणा भर सके। नस-नस में क्रान्ति का ज्वर उठा सके......बन्धु, हर साहित्यकार, कलाकर देश का वह अमृत स्त्रोत है जो मुर्दो में भी जान डाल सकता है। पर जब उसमंे शक्ति हो तब न। वर्षों की परतंत्रता ने तो उसे चेतनाहीन बना रखा है।”
“तो आपका मतलब यह कि हमारे देश मे कोई ऐसा प्रतिभाशाली साहित्यकार, कलाकार नहीं ?” मुझे उनकी पर संतोष न हुआ
“नहीं मेरा मतलब यह कदापि नहीं हमारे देश में साहित्यकार, कलाकारों की कमी है। पर उनमें एकता नहीं, राजनैतिक जागरूकता नहीं”।
“ओह। समझा”
मैंने संतोष की साँस ली।
कलाकार ने नवीन रचना की सृष्टि की। रचना सारगर्भित थी, ओज पूर्ण थी। शोषित का हाहाकार था, शासकों का अनाचार था। उसमें उनकी व्यक्तिगत वेदना भी लिप्त थी। वह वेदना ! जो रग-रग में सिहरन पैदा कर देती है। एक दिन ऐसा आता है कि लोगों में विस्फोट कर देती है। लोगों के बीच प्रतियाँ धड़ाधड़ बिकीं। कलाकर का प्रयास सफल हुआ।
“किन्तु परिणाम ?”
निपीडि़त समाज ने अपने प्रति लिखी अमूल्य रचना का अभिवादन किया। प्रेम के दो आँसू बहाकर अपने को सबल समझा।
लेकिन शोषकों ने दाँत कटकटाये। रचना की प्रतियों को टुकडे़ टुकड़े कर डाला। उनको लातों से कुचला। इतना ही नहीं वरन् उनको देशद्रोही है, समाज को भड़काता है, हमारा शासन का काम काज बन्द करवाना चाहता है !!! इसे गिरफ्तार कर लेना चाहिये......
कलाकार के हाथों मे बेडि़याँ पड़ीं। तरह तरह से लांछित किया गया, उस सत्य सेवी कलाकार को। फिर भी वह निर्विकार था। इसके बाद ! उसके गरीब माता-पिता, पत्नी अपना एक मात्र सहारा जाता देख चीत्कार कर उठे।
कितने निर्दय हैं, ये शासक ! जेल में डाल दिया गया उसे !!
आज साढे़ चार वर्ष बाद सत्य का उपासक निर्भीक कलाकर जेल से छूटा। किन्तु यह क्या, उनकी यातनाओं से अब उसका वह स्वस्थ सुन्दर शरीर न रह गया था। हड्डियों का ढाँचा ही रह गया था।
वह फिर आगे बढ़ा किन्तु....उसके स्वागत के लिये एक भी व्यक्ति नहीं आया। संवेदना प्रकट करने के लिये भी कोई नहीं।
कारण ? वह गरीब था।
“गरीब !”
“नहीं वह एक कैदी था !”
“कैदी क्यों ? उसने क्या कसूर किया था ?”
“उसने तो निपीडि़त समाज का हृदय द्रावत हाहाकार संसार के समक्ष रखा था। अपनी आँसुओं की गाथा संसार को नहीं सुनाई। समाज के हृदय के फफोले दिखाये। यहाँ के मानव का धंसा हुआ पेट, सूखी हुई आँखें , तिनके सा सूखा काँपता हुआ शरीर, और जीर्ण शीर्ण, फटे चिथड़े से कपड़े दिखाये थे।”
“क्या कम अपराध किया था उसने ? उसे समाज की करुण कथा सुनाने का काई अधिकार नहीं इसीलिए तो उसे कठोर दंड मिला था।”
स्वागत ?
उसे स्वागत की आवश्यकता नहीं। बधाई की आवश्यकता नहीं। मालााओं की आवश्यकता नहीं। बस उसकी कामना है, तो एक ही पीडि़त समाज की सेवा का विशुद्ध प्रेम।
वह घर आया-
घर !
कहाँ है उसका घर ?
यह स्वप्न तो नहीं है।
नहीं यहीं तो था.........ठीक एकदम यहीं.........उसका घर था। छोटा कच्ची माटी का। पर....?
उसे पता लगा....माँ बाप भूख से तड़प-तड़प कर मर गये हैं। पत्नी का भी पता नहीं। ज्वालामुखी सा फट पड़ा वह। आँखों में अंधेरा छाने लगा। उसे अपना घर संसार घूमता नजर आया।
उसके माँ बाप की मृत्यु !
कितना भयंकर रहा होगा वह दृश्य !
पत्नी की पीड़ा और बरबादी उफ....!!
आँखों से झरझर आँसू बह पडे। जो कलाकार पुलिस की यातना पर, जेल के निर्दयी कोड़ों पर न रोया था। आज बालकों की तरह फफक फफक कर रो पड़ा।
पन्द्रह अगस्त सन् उन्नीस सौ सैंतालीस
देश नई नवेली दुलहन सा सजा था। चारों ओर उत्साह से खुशियाँ मनाई जा रही थीं।
पर वह पागल कलासाधक चिथड़ों में लिपटा नाली के किनारे बैठा था।
लोग निकलते और उसे देखते फिर घृणा से मुँह फेर लेते।
वह बैठा था स्वतन्त्रता प्राप्ति की वास्तविक खुशी देखने। सामने भारी पंडाल तना था-गद्दा, तकिया, कालीन आदिसभी सलीके से बिछे थे, चूंकि स्वतंत्रता का विशेष समारोह होने वाला था। भीड़ थी, माईक पर एक नेताजी कुछ बोल रहे थे।
उसने कुछ सुना और आगे बढ़कर बोला- “मुझे भी कुछ कहना है।”
किन्तु चिथड़ों मे लिपटा हुआ पागल सा वह कलाकार उसकी क्या औकात।
उसका इस समारोह में क्या काम ?
वह फिर आगे बढ़ा, “मुझे भी कुछ कहना है।”
किन्तु अब की बार .............
संतरी ने उसे जाने से रोका, वह नहीं माना तब उसका बज्जर सा मुक्का उसकी छाती पर आ पड़ा। न सह सका वह..........धड़ाम से नीचे गिर पड़ा।
उसके आँखों के सामने अंधेरा छा गया और उस अंधेरे को भेदती हुई उसकी पुकार शून्य में जा मिली।
उसके मुख से निकले “मुझे भी कुछ कहना है।” शब्द आकाश में खो गये।
वह फिर जोर से पुकार उठा।
सुनो....मेरी भी कुछ सुनो....पर किसे समय है, जो उसकी पुकार सुने। फिर वही शून्यता ..।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’